December 10, 2007

धर्म की आलोचना की आलोचना

अध्‍ययन कक्ष


  • अशोक यादव

कोई भी आलोचना सापेक्षिक और तुलनात्मक होनी चाहिए। धर्म के किसी भी आलोचक को हिन्दू धर्म के उद्भव, विकास और अन्तर्वस्तु की तुलना अन्य धर्मों के उद्भव, विकास और अन्तर्वस्तु से करनी होगी और स्पष्ट करना होगा कि धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से हम एक अप्रिय निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जहां अन्य धर्म अपने मूल स्वरूप में मानवतावादी हैं, वहीं हिन्दू धर्म एक अमानवीय धर्म है। हिन्दू धर्म की आलोचना का अर्थ उनकी अंतर्वस्तु में निहित वर्णव्यवस्था की आलोचना करना है।


मार्क्‍स के लेख 'हीगेल के अधिकार संबंधी दर्शन का आलोचना में योगदान` में उनके धर्म संबंधी चिंतन का निचोड़ मिलता है। प्रस्तुत लेख का प्रस्थान बिंदु मार्क्स के इस लेख की प्रथम पंक्ति है : 'जर्मनी में, धर्म की आलोचना मुख्यतया पूरी हो चुकी है, और धर्म की आलोचना ही समस्त आलोचना का पूर्व-आधार है।`

सवाल उठता है, क्या हमारे देश में धर्म की आलोचना पूरी हो चुकी है? उत्तर 'नहीं` होने पर निष्कर्ष निकलता है कि हमारी समस्त आलोचना अधूरी है क्योंकि धर्म की आलोचना ही समस्त आलोचना का पूर्व-आधार है। धर्म की अधूरी आलोचना समाज विज्ञान में इतिहास, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, संस्कृति आदि में अधूरी आलोचना का कारण बनता है और समाज विज्ञान में अधूरी आलोचना हमारी मुक्ति का, सर्वहारा, शोषित जनों की मुक्ति का, सबसे बड़ा बाधक बन जाता है। धर्म की मुकम्मल आलोचना हमारी मुकम्मल मुक्ति की एक शर्त है।

धर्म की आलोचना में सबसे बड़ी रूकावट सभी धर्मों का पुरोहित और अभिजात वर्ग है जो धर्म को रहस्यवाद के आवरण में रखने की हरसंभव कोशिश करता है। कौलनिशे जोटुंग के १७९वें अंक में 'मुख्य संपादकीय लेख` शीर्षक लेख में मार्क्स लिखते हैं : 'बेशक, अगर आप पहले से ही तय कर लें कि केवल वही चीज वैज्ञानिक शोध की होगी जो स्वयं आप के विचारों से मेल खाती है तो भविष्यवाणी करना आपके लिए कठिन नहीं होगा। किन्तु, तब आपके कथन का उस भारतीय ब्राह्मण के कथन से क्या अधिक महत्व होगा जो वेदों को पढ़ने के अधिकार को अकेले अपने लिए सुरक्षित रखकर उसकी पवित्रता प्रमाणित करता है।` धर्मशास्त्रों के अध्ययन की उपेक्षा आधुनिकता का संकेत नहीं है बल्कि यह आधुनिकता के अभियान को कुंठित करता है।

धर्म की आलोचना निरंतर जारी है। 'समयांतर` पत्रिका का धर्म की आलोचना पर केन्द्रित मार्च,२००३ के अंक को हम नमूना के तौर पर लें। इस अंक के कुछ हिस्सों को हम यहां उद्धृत करते हैं :

मस्तराम कपूर लिखते हैं : 'जब तक इस दुनिया में धर्मों का अस्तित्व रहेगा तब तक मानवता अज्ञान, अंधविश्वास, घृणा, द्वेष, बर्बरता और युद्धों से पीड़ित रहेगी। केवल धर्महीन समाज ही सही मायने में मानवीय समाज बन सकता है।`
'स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के सर्वोपरि मानव-मूल्यों पर आधारित समाज के विकास में धर्म सबसे बड़ी बाधा है। भारत के संदर्भ में इस बात को अधिक स्पष्टता से देखा जा सकता है। यहां धर्म ने वर्ण व्यवस्था के नाम से ऐसी समाज व्यवस्था बनाई जिसने दलित, पिछड़े, आदिवासी समूहों को और सभी वर्णों की स्त्रियों को तमाम मानवीय आधारों से वंचित रखा।`

महाश्वेती देवी साक्षात्कार में कहती हैं : 'यह जो हिन्दू धर्म है वह मूलत: विशद् और व्यापक है। कोई जीवन भर पूजा, अर्चना न करे तो उसके हिन्दुत्व का कुछ नहीं बिगड़ता। कोई हिन्दुत्व से उसे खारिज नहीं कर सकता।`

कात्ययानी का कहना है : 'यह सही है कि धर्म और सांप्रदायिकता दो भिन्न-भिन्न चीजें हैं। सांप्रदायिकता एक आधुनिक परिघटना है। यह पूंजीवादी समाज में धर्म की राजनीति है।`

ऊपर के उद्धरण धर्म की आलोचना के कुछ उदाहरण हंै। आज धर्म की जो आलोचनायें आ रही हैं, उनमें कुछेक अपवादों को छोड़कर, सब की सब उपर्युक्त उदाहरणों जैसी ही हैं। इन आलोचनाओं की आलोचना निम्न वर्णित हैं :

१. हिन्दू धर्म के अलावा हमारे देश में जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई तथा सिक्ख धर्म हैं। हिन्दू धर्म के खिलाफ बाकी धर्मों की इतिहास में प्रगतिशील भूमिका रही है। इसलिए धर्म की आलोचना में इस अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु का खयाल रखना होगा। सभी धर्मों की आलोचना हम एक ही मापदंड से नहीं कर सकते।

२. दलित लेखक धर्म की आलोचना में वर्ण-व्यवस्था का सवाल उठाते हैं। किन्तु वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई तथा सिक्ख धर्मों की प्रगतिशील ऐतिहासिक भूमिका को सामने नहीं लाते हैं।

३. दलित लेखक धर्म की आलोचना करते हुए वर्ण-व्यवस्था का सवाल केवल हिन्दू धर्म एवं समाज के परिप्रेक्ष्य में उठाते हैं। अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों में व्याप्त वर्ण-व्यवस्था और उससे जुड़े धर्म के प्रश्न को गौण कर देते हैं।

४. धर्म के सभी आलोचक-समाजवादी, मार्क्सवादी, दलित आदि एक स्वर से धर्म को ज्ञान-विज्ञान, मानव विकास में बाधक समझते हैं। जबकि अपनी उत्पत्ति तथा परवर्ती समय में सभी धर्मों ने, हिन्दू धर्म को छोड़कर, ऐतिहासिक रूप से क्रांतिकारी भूमिका का निर्वाह किया था। धर्म के संबंध में इस तथ्य को प्रमुखता से सामने नहीं लाया जाता है।
५. धर्मों के उद्भव और विकास के इतिहास से उपजे बोध का धार्मिक कट्टरता तथा धर्मों का शोषक वर्गों द्वारा इस्तेमाल के खिलाफ लड़ाई लड़ने में एक महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है लेकिन 'लिबरेशन थियालॉजी` का सवाल धर्म की आलोचना का हिस्सा नहीं बन पाया है।

'हीगेल के अधिकार संबंधी दर्शन का आलोचना में योगदान` में मार्क्स लिखते हैं 'धर्म केवल वह मिथ्या सूर्य है जो मनुष्य के चारों तरफ उस समय तक परिक्रमा करता रहता है जिस समय तक वह स्वयं अपने चारों तरफ परिक्रमा नहीं करने लगता है।` भारतीय समाज की वास्तविक परिस्थितियों में धर्म के 'मिथ्या सूर्य` के साथ जाति का वास्तविक बंधन भी जुड़ा हुआ है। एक धर्म-विरोधी सवर्ण 'मिथ्या सूर्य` के रूप में धर्म की आलोचना करके नास्तिक हो जाता है, पुरोहितवाद के चंगुल से मुक्त हो जाता है, भौतिकवादी हो जाता है। लेकिन वह वर्ण-व्यवस्था की आलोचना को धर्म की आलोचना का हिस्सा नहीं बनाता है तो उसके द्वारा धर्म की आलोचना की नियति आलोचना की रस्मअदायगी होती है। वह धर्म विरोधी होने का दावा करते हुए वर्ण-व्यवस्था का लाचार और तरस खाने योग्य समर्थक ही रह जाता है। धर्मविरोधी होने के बावजूद फासीवादी हिन्दुत्व के खिलाफ लड़ाई में वह उदारवादी हिन्दुओं जैसे विवेकानंद और गांधी की शरण में जाने के लिए मजबूर होता है। दूसरी ओर एक दलित ईश्वर विरोधी एवं धर्मविरोधी होने के बावजूद अपनी जाति के कारण हिन्दू धर्म से मुक्त नहीं हो पाता। एक दलित जब अपना आत्मिक विकास इतनी दूर तक कर लेता है कि वह स्वयं अपने चारों ओर परिक्रमा करने लगता है तो भी जाति के कारण धर्म का 'मिथ्या सूर्य` उसकी परिक्रमा करना बंद नहीं करता। जाति के वास्तविक बंधन को नकारकर केवल 'मिथ्या सूर्य` के रूप में धर्मों की आलोचना का अर्थ वर्ण-व्यवस्था का उद्गम ो़त और पोषक हिन्दू धर्म के खिलाफ जैन, बौद्ध, इस्लाम, सिख एवं ईसाई धर्मों की प्रगतिशील ऐतिहासिक भूमिका को नकारना होगा।

आगे बढ़ने से पहले भारत में प्रचलित सभी धर्मों की उत्पत्ति, इतिहास और उसकी मुख्य शिक्षाओं को संक्षेप में बारी-बारी से देखना आवश्यक है।


हिन्दू धर्म

हम जानते हैं कि हिन्दू शब्द की उत्पत्ति १०वीं-११वीं सदी में मुसलमानों के आने पर हुई। जिसे आज हम हिन्दू धर्म कहते हैं वह अपनी उत्पत्ति और विकास की दृष्टि से ब्राह्मण धर्म था। वेदों की आरंभिक स्तुतियां, रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में, अस्तित्व के प्रति आश्चर्य और श्रद्धा की उन लोगों की (अर्थात् आदिकालीन आर्यों की-ले.) सामूहिक प्रतिक्रिया की काव्यात्मक वसीयत हैं....जो जीवन में निहित अक्षय रहस्य की भावना से अभिभूत थे। ( दामोदरन, भारतीय चिंतन परंपरा, पृष्ठ : ३७)

सुप्रसिद्ध 'सृष्टि की उत्पत्ति` सूक्त आदिकालीन आर्यों की गवेषणात्मक प्रवृत्ति का एक महान प्रमाण है : 'असत् नहीं था, सत् भी नहीं था। रज नहीं था, नहीं उसके पार का आकाश था। क्या ऊंचा और क्या नीचा था? गहन गंभीर पानी कहां था? और ब्रह्माण्ड कहां था? मृत्यु नहीं थी, अमरत्व भी नहीं था। न तो रात का कोई चिह्उा था और न दिन का। अपनी आंतरिक शक्ति से परमेश्वर ने वायुहीन श्वास लिया। उनसे परे और कुछ नहीं था। पहले अंधकार था-अंधकार से ही आवृत। अन्य किसी चिह्उा के बिना, जो भेद का सूचक हो, सर्वत्र जल था। ...सबसे पहले कामना उत्पन्न हुई। फिर मन से सर्वप्रथम बीज उत्पन्न हुआ। ऋषियों ने अपने हृदय में, बुद्धिमत्ता से सोचते हुए, असत् में सत् को देखा। उनकी किरण ने अंधकार को खंर्डित कर प्रकाश को फैलाया।.. किसने बताया कि उद्भव किसमें से हुआ और यह सृष्टि कहां से आई? देवगण भी सृष्टि के बाद के हैं। तब कौन जान सकता है कि इसका उद्भव कहां से हुआ? इसे किसने रचा? या नहीं भी रचा? परम आकाश में जो नियामक के रूप में स्थित है, हे प्रिय, वह जानता होगा, न भी जानता हो।`
इस सूक्त में आदिकालीन आर्यों का अनीश्वरवादी, संशयवादी चिंतन स्पष्ट तौर पर परिलक्षित होता है। ब्रह्माण्ड, प्रकृति, सृष्टि, ईश्वर, देवता आदि के संबंध में आदिकालीन आर्यों के मन में सैंकड़ों प्रश्न उठ रहे थे। जिस इन्द्र की चर्चा वेदों में सभी देवताओं में सबसे ज्यादा बार हुई है, जिसकी स्तुति में सबसे ज्यादा सूक्त रचे गये हैं, उसके बारे में भी ऋगवेद में शंका जाहिर की गई है : 'इंद्र कौन है? उसे किसने देखा है? एक दूसरे से वे कहते हैं, इंद्र नहीं है। तो हम किसकी पूजा करें?`
(ऋगवेद, २.१२५)

राधाकृष्णन लिखते हैं 'अपने सर्वोच्च देवताओं के अस्तित्व के बारे में उसने प्रश्न उठाये। उसने आस्था तक के लिए प्रार्थना की। और, आस्था के लिए प्रार्थना तब तक सम्भव नहीं होती है जब तक कि आस्था में ही विश्वास डिग न जाये।`

ऋगवेद की ये ऋचायें उस काल की हैं कि जब वे खानाबदोशी का जीवन जी रहे थे। उत्पादन के साधनों में बढ़ोत्तरी तथा खानाबदोश अर्थव्यवस्था से कृषि अर्थव्यवस्था में रूपांतरण के चलते अतिरिक्त उत्पादन हुआ। ऋगवेद के दसवें मंडल में पुरुष सूक्त आता है जो वर्ण-व्यवस्था की स्थापना की उद्घोषणा करता है-ब्रह्मा के मुंह से ब्राह्मण, वक्ष से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैर से शूद्रों की उत्पत्ति होती है। जिस ऋगवेद की आरंभिक ऋचायें ब्रह्मांड, सृष्टि, ईश्वर, देवता पर प्रश्न खड़ा करती है, उसी ऋगवेद का दसवां मंडल वर्णव्यवस्था को ईश्वर की सृष्टि घोषित करता है जिसका उद्देश्य अतिरिक्त उत्पादन को हस्तगत करना था।

ऋगवेद की राह चलकर सभी हिन्दू धर्मग्रंथ वर्ण-व्यवस्था का ही पोषण करते हंै। इसकी सर्वोच्च अभिव्यक्ति गीता में हुई है। गीता की रचना मानो वर्ण-व्यवस्था को अजर-अमर बनाने के लिए ही की गयी थी।

चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागश:
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्
गुण और कर्म के अनुसार चार वर्णों में विभाजित समाज-चातुर्वण्य व्यवस्था-मेरी ही सृष्टि है। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्रष्टा हूं किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूं।


जैन धर्म

बौद्धों की तरह जैन भी वेदों की प्रमाणिकता से इंकार और पुरोहितों तथा कर्मकाण्डों का विरोध करते थे। उनकी मान्यता भी यही थी कि ईश्वर की अवधारणा के बिना भी इस ब्रह्मांड के रहस्य को सुलझाना और पूर्णता प्राप्त कर लेना सम्भव है। जैन ग्रंथ सूत्र कृतांग के कुछ अवतरणों में इस वेदांती विचारधारा का कि हर वस्तु का मूल कारण आत्मा है, खंडन किया गया है। महावीर का शिष्य आद्रक कहता है-'यदि सभी प्राणियों में समान रूप से एक ही आत्मा होती तो उन्हें एक दूसरे से अलग पहचाना नहीं जा सकता था, न ही उन्हें अलग-अलग अनुभव करने पड़ते। तब न तो ब्राह्मण, न क्षत्रिय, न वैश्य और न शूद्र, न कीट-पतंगे, न पक्षी और न सर्प होते। तब सभी मनुष्य और देवता होते।`
जैन दर्शन में पर्याप्त मात्रा में आदर्शवाद भी मौजूद है यद्यपि जैन दर्शन भी बौद्ध दर्शन की तरह ईश्वर का निषेध करता है। वह आत्मा की अनश्वरता में विश्वास करता है। आगे चलकर, विशेषकर मध्य युग में जैन मतावलंबियों के दार्शनिक विचारों और धार्मिक विश्वासों में कितने ही परिवर्तन हुए। इस दर्शन की तर्क प्रणाली और इसका द्वन्द्ववाद और भी उच्च स्तर पर पहुंचा, किन्तु इसके साथ ही इसके आदर्शवादी पहलू भी दृढ़तर हुए। जैन धर्म, जिसका उदय स्वयं ब्राह्मणवाद और वर्णाश्रम व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष में हुआ था, अब विभिन्न संप्रदायों में बंट चला।

(श्रोत : भारतीय चिंतन परंपरा)



बौद्ध धर्म

एंगेल्स ने लुडविग फायरबाख में लिखा है, 'महान ऐतिहासिक मोड़ों के साथ-साथ धार्मिक परिवर्तनों का आना, केवल तीन विश्व धर्मों के साथ ही, जो अब तक जारी रहे हैं, सत्य सिद्ध हुआ है : बुद्ध धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म।`

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का उदय उस समय हुआ था जब पुरोहित वर्ग का बौद्धिक, सामाजिक और आर्थिक आधिपत्य समाज के विकास में रूकावटें खड़ी करने लगा था। बौद्ध धर्म अपने दृष्टिकोण में पुरोहित-विरोधी तथा कर्मकांड विरोधी था। किन्तु हमें यह नहीं मान लेना चाहिये कि जैसे ही बौद्ध धर्म का आविर्भाव हुआ, वैसे ही ब्राह्मणवाद विलुप्त हो गया। जैसा कि मैक्समूलर ने कहा है 'ब्राह्मणवाद उस समय पश्चिम में फलता-फूलता रहा होगा, जब बौद्ध धर्म पूर्व और दक्षिण में अपनी विजय पताका फहरा रहा था।`

पुरुष सूक्त पर बुद्ध की टिप्पणी को बौद्ध दर्शनिक दिगनाग ने 'धम्मपद` में इस रूप में प्रस्तुत किया है : 'ब्राह्मणों की पत्नियों को भी मासिक धर्म के चक्र से गुजरना पड़ता है, वे भी गर्भवती होती हैं, वे भी बच्चे को जन्म देती हैं, उन्हें दूध पिलाती हैं और उनका लालन-पालन करती हैं। इतने पर भी ये ब्राह्मण, जिनका जन्म स्त्रियों से होता है, यह दावा करते हैं कि वे ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं, कि वे ब्रह्मा की सृष्टि हैं और उनके उत्तराधिकारी हैं। यह सरासर झूठ है।`

बुद्ध ने ईश्वर का निषेध किया और द्वंद्वात्मक तरीके से विश्व को देखा। उनके अनुसार विश्व परिवर्तनशील तथा क्षणभंगुर है तथा कुछ भी शाश्वत् नहीं है। बुद्ध का द्वंद्ववाद दार्शनिक रूप से प्राचीन यूनानियों द्वारा प्रस्तुत ऐसे ही दृष्टिकोण से कहीं अधिक विकसित था। बुद्ध निरीश्वरवादी थे, अत: भौतिकवादी थे। विश्व को देखने का उनका नजरिया द्वंद्वात्मक था। अत: द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का उन्मेष हमें बुद्ध के दर्शन में मिलता है। ढाई हजार वर्षों के बाद मार्म्स ने लिखा, 'कोई भी चीज शाश्वत नहीं है, सिवा परिवर्तन के।`
(शोत : भारतीय चिंतन परंपरा)


ईसाई धर्म

जीसस एक यहूदी थे। यहूदियों का स्वर्णिम समय खत्म हो चुका था। उन्हें एक मसीहा का इंतजार था। जीसस में यहूदियों को एक मसीहा का दर्शन हुआ। किन्तु जीसस से उनका जल्द ही मोहभंग हो गया। जीसस सामाजिक व्यवस्था तथा तात्कालिक परिस्थितियों के खिलाफ विद्रोह की भाषा बोलते थे। जीसस अमीरों तथा ढ़ोंगियों के विरोधी थे। उन्होंने अमीरों से कहा कि अपनी संपत्ति को निर्धनो में बांट दो। जीसस ने कहा कि सूई के छिद्र से ऊंट पार कर सकता है किन्तु अमीर स्वर्ग नहीं जा सकता है। जीसस जन्मजात विद्रोही थे, समाज की तात्कालिक परिस्थितियां उनके बर्दाश्त से बाहर थीं तथा वे समाज को परिवर्तित करना चाहते थे। यहूदी उनके खिलाफ हो गये और उनको पकड़कर रोमन साम्राज्य के अधिकारियों को सुपुर्द कर दिया। रोमन सम्राट ने जीसस को एक राजनीतिक खतरे के रूप में देखा और उनको मौत की सजा दी। मात्र बत्तीस साल की आयु में जीसस को मौत की सजा मिली।

जीसस की मौत के बाद उनके अनुयायियों ने जीसस की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार किया। रोमन साम्राज्य के अधीन ईसाइयों की संख्या बढ़ने लगी। इन प्राचीन ईसाइयों ने रोमन साम्राज्य के जुल्म, शोषण, मनमानी के खिलाफ महान संघर्ष किये तथा शहादतें दीं। रोमन साम्राज्य ईसाई क्रांतिकारियों का पूर्ण दमन करने में विफल रहा। रोमन साम्राज्य को ईसाइयों से समझौता करना पड़ा। चौथी सदी के आरंभ में रोमन सम्राट कान्सेंटनटाइन खुद ईसाई हो गये और ईसाई धर्म रोमन साम्राज्य का राज्य धर्म हो गया। इस तरह जो ईसाई धर्म शोषण के खिलाफ लड़ने के लिए अस्तित्व में आया था, वह शोषक वर्गों का एक हथियार बन गया।


इस्लाम धर्म

इस्लाम के आगमन के पहले सैंकड़ों वर्षों से अरब में ज़हालत का युग था। अरब की जनता रेगिस्तानी जीवन जीती थी। उनके जीवन में कोई व्यवस्था नहीं थी। कबिलाई समाज था तथा कबीलों में छोटी चीजों को लेकर खूनी झगड़े होते रहते थे। बस दो ही शहर थे-मक्का और यथरीब जो समुद्र के किनारे बसे थे। अरब के सीमावर्ती कुछ इलाकों में यहूदी और ईसाई धर्म का प्रभाव था। अरब सैंकड़ों देवताओं की पूजा करते थे। साल में एक बार मक्का जाकर अपने देवता की पूजा करते थे जिनकी मूर्ति मक्का में रखी थी। काबा में काले पत्थर की पूजा अवश्य करते थे।

लाल नेहरू लिखते हैं : अन्य धर्मों के संस्थापकों की तरह मोहम्मद साहब एक सामाजिक विद्रोही थे। उनके चलाये धर्म में सादगी तथा स्पष्टता थी, जनतंत्र तथा समानता के भाव थे तथा पड़ोस के देशों की जनता, जो तानाशाह राजाओं तथा मनमाने और अहंकारी पुजारियों के सताये हुए थे, को अच्छा लगता था। इस्लाम ने उन्हें परिवर्तन का रास्ता दिया। जो परिवर्तन हुए वे स्वागतयोग्य थे क्योंकि इससे उनके जीवन में सुधार हुए तथा पुरानी व्यवस्था की ज्यादतियां खत्म हुई। इस्लाम ने कोई महान सामाजिक क्रांति नहीं लाई जो जनता के शोषण को खत्म कर सके। किन्तु जहां तक मुसलमानों का सवाल है इसने उनके शोषण को घटाया तथा एक महान भाईचारे के अन्तर्गत होने का अहसास दिया।

इस्लाम के जन्म के समय के विश्व परिदृश्य का जवाहरलाल नेहरू ने वर्णन किया है अफ्रीका और पश्चिम में भ्रष्ट और अन्तर्विरोध से ग्रस्त क्रिश्चेनिटी का बोलबाला था। पर्सिया में पारसी धर्म जनता पर लाद दिया गया था। यूरोप या अफ्रीका या पर्सिया की आम जनता तात्कालिक धर्मों से विमुख हो गयी थी। मुहम्मद ने संसार के राजाओं तथा शासकों को संदेश भेजा कि वे एक ईश्वर तथा एक पैगम्बर को मानें। कुस्तुनतुनिया के सम्राट, परसिया के सम्राट ने मुहम्मद के संदेश को प्राप्त किया। यह भी कहा जाता है कि चीन के ताई-सुंग को भी यह संदेश प्राप्त हुआ।

मुहम्मद की मृत्यु के पच्चीस वर्ष बीतते-बीतते अरबों ने परसिया, सीरिया, आरमेनिया तथा मध्य एशिया का कुछ हिस्सा, मिस्त्र तथा उत्तरी अफ्रीका के कुछ हिस्सों को जीत लिया।

इस तरह पुरानी व्यवस्था को नई व्यवस्था से बदलकर इस्लाम ने विश्व इतिहास में एक महान भूमिका निभाई।

किशोरी प्रसाद साहू ने अपनी पुस्तक 'इस्लाम : उद्भव और विकास` में लिखा है कि हजरत मुहम्मद महान समाजवादी थे। उन्होंने पाया कि आर्थिक रूप से पिछड़े हुए लोगों का शोषण सूदखोर करते थे। उन्होंने सूदखोरी को हराम करार दिया और समाज में जकात, सदका और फित्र आरंभ किए। समाज में धन के बंटवारे से पूंजीवाद को मर्मान्तक आघात लगा। मुहम्मद ने सामाजिक असमानताओं को दूर किया। ..उन्होंने विश्वव्यापी भ्रातृत्व की स्थापना की जिसमें ऊंचे और नीचे, अमीर और गरीब तथा काले और गोरे एक भ्रातृत्व में बंधे हुए थे। पैगम्बर कहते हैं : 'अल्लाह आपका वंश और चेहरा नहीं देखता। पर वह तुम्हारे दिल में झांककर देखता है। तुम जो अल्लाह के सबसे ज्यादा प्यारे और अल्लाह की सृष्टि की पवित्रतम रचना हो`। पैगंबर ने अरबों के बीच प्रचलित दास-प्रथा को भी समाप्त करने की कोशिश की। न केवल अरब में बल्कि यूनानियों, रोमवासियों, यहूदियों और ईसाइयों के बीच भी दास-प्रथा प्रचलित थी। पैगंबर ने कहा कि दासों को मुक्त करने से बड़ी, अल्लाह की स्वीकार्य सेवा और कुछ नहीं है। उन्होंने अनेक दासों को इसलिए खरीदा कि उन्हें मुक्त कर सकें। उन्होंने अपने अनुयायियों को परामर्श दिया कि वे दासों के साथ दया और न्याय का सलूक करें।

इस्लाम ने महिलाओं को ऐसे अधिकार और विशेष सुविधायें दी हैं जो उन्हें पहले न दी गयी थीं। कुरान कहता है 'स्‍त्री को पति के संबंध में वे ही अधिकार मिलने चाहिये जो पति को स्‍त्री के संबंध में मिले हैं।` ..उन्होंने कहा कि, 'मां के कदमों के नीचे जन्नत है और अपने पति के घर की प्रधान महिला ही है।` उन्होंने यह भी कहा, 'तुम लोगों में सबसे अच्छा वह है जो अपनी बीवी की इज्जत करता है।` हजरत मुहम्मद ने औरतों को अपना खाबिंद चुनने और अपने पिता और पति की मृत्यु के बाद पति की जायदाद में अपने हिस्से का उपयोग करने की आजादी देकर उसे पुरुषों के बंधन से मुक्त कर दिया। औरत अब अपने पति के अन्याय का शिकार न रही। हजरत मुहम्मद के पहले अरब प्रेतात्माओं, राक्षसों, परियों और इसी प्रकार के अंध-विश्वासों को मानते थे। हजरत मुहम्मद ने अरबों को अंधविश्वास की कड़ियों से मुक्त किया। इस तरह उन्होंने अरब की सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन किया और स्वभावत: अपने युग के सबसे बड़े क्रांतिकारी कहलाये।


सिख धर्म

गुरू नानक खत्री जाति के व्यापारियों के परिवार में एक पटवारी के घर में पैदा हुए थे। भक्ति आंदोलन के अन्य नेताओं की भांति नानक ने जनता का आह्वान किया कि वह जाति-पांति के भेद-भाव को त्याग दें। सिखों में, शहरों में रहने वाले केवल व्यापारी और कारीगर ही नहीं, नीची जाति के लोगों सहित साधारण किसान भी थे। नानक की शिक्षाओं और सिखों के भ्रातृत्व ने दलित-उत्पीड़ित जनता को एकजुट किया। नानक ने कहा : 'नीचों में भी नीचतम जो मनुष्य है, नानक उनके पास ही जायेगा। उसे बड़े आदमियों से क्या लेना-देना है? ईश्वर की कृपा-दृष्टि उन पर ही पड़ती है जो सबसे कुचले हुए लोगों की मदद करते हैं। जाति-पांति निरर्थक है, ओहदे और उपाधियां निरर्थक हैं` जाति-पांति में आखिर ताकत ही कहां हैं। कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जिसमें कुछ योग्यता नहीं। (जन्म साखी)

पांचवे गुरू अर्जुन देव जी ने गुरू ग्रंथ साहिब के सम्पादन कार्य के समय सिख गुरूओं के अतिरिक्त ३० अन्य वाणीकारों की वाणी शामिल करके, संसार के धर्म साहित्य में एक चमत्कार कर दिया था क्योंकि इन ३० वाणीकारों में बाबा फरीद, नामदेव, रविदास, कबीर, सदना, सेन जैसे दलित वर्ग के वाणीकार भी शामिल थे। गुरू अर्जुन देव जी ने हरमंदिर साहब का निर्माण करते समय, चार द्वार चारों दिशाओं में रखकर, चारों वर्णों के लिए धर्म-कर्म के द्वार खोल दिये। अमृत सरोवर में हर मानव को स्नान करने की छूट देकर वर्ण भेद को जड़ से उखाड़ दिया। मुगल सम्राटों ने उनके उपदेशों को राजद्रोही घोषित करके उनकी निन्दा की और गुरू अर्जुन देव को मौत के घाट उतार दिया। मुगलों के हाथों यही हाल नौवें गुरू का भी हुआ। दसवें गुरू गोविन्द सिंह जी ने घोषणा की थी 'मेरे सिख, हिन्दू-मुसलमान, छूत-अछूत, ऊंचा और नीचा के बीच के भेद-भाव को मिटाकर छोड़ेंगे और ईश्वर को पिता माननेवाले स्‍त्री और पुरुषों के भ्रातृत्व की सृष्टि करेंगे।` सिख गुरूओं ने वर्णभेद मिटाने कें लिए संगत, पंगत तथा धर्मसाल नामक संस्थाओं को स्थापित किया।

(श्रोत : भारतीय चिंतन परंपरा : के दामोदरन तथा डा. जसबीर सिंह सावर का लेख 'दलित चेतना और श्री गुरू ग्रंथ साहिब` युद्धरत आम आदमी : अक्टूबर-दिसंबर,२००३)


अन्य चिंतन प्रणालियां

भारतीय चिन्तन परम्परा में ऐसी अनेक चिंतन प्रणालियां विकसित हुइंर् जो वेदों की सत्ता के खिलाफ थी और वर्णव्यवस्था को चुनौती देती थी। लोकायत, सांख्य, वैशेषिक, न्याय, योग दर्शन की ऐसी ही प्रणालियां थी, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था को सीधे चुनौती देती थी, ईश्वर का निषेध करती थी तथा चिंतन की द्वंद्वात्मक और भौतिकवादी पद्धति को स्थापित करती थी। इनमें लोकायत प्रचीनतम है। लोकायत दर्शन का पुरोहित वर्ग के ऊपर इतना आतंक था कि उन्होंने लोकायतिकों द्वारा रचित ग्रंथों को नष्ट कर दिया। लोकायत दर्शन का खंडन करने के लिए माधवाचार्य ने अपने 'सर्वसिद्धांत संग्रह` में चार्वाक प्रणाली के बिखरे सूत्रों को इकट्ठा किया। इस तरह लोकायत के बारे में हमें जानकारी लोकायत के शत्रुओं से मिलती है।

लोकायत सिद्धांतों का उद्भव ऐसे काल में हुआ था जब ब्राह्मण पुरोहितों का बलि, यज्ञ और कर्मकांड पराकाष्ठा पर था। उनसे लोहा लेना लोकायतिकों के लिए जरूरी हो गया था। राधाकृष्णन लिखते हैं 'समय द्वारा प्रतिष्ठित और जनता के स्वभाव में गहरी जड़ें जमाये प्रथाओं को उदारपंथी प्रयासों से सुधारने का प्रयास निरर्थक होता यदि सदियों से चली आई उदासीनता और अंधविश्वास को चार्वाक सम्प्रदाय जैसी विस्फोटक शक्ति द्वारा हिलाया नहीं गया होता।` दक्षिणरंजन शास्‍त्री ने कहा है, 'लोकायत दर्शन के अनुयायियों ने जब सुसभ्य तथा सामान्य लोगों के हृदयों में घर बना लिया, तो इन सबने मिलकर अपनी तात्कालिक खुशहाली के लिए इस जगत में ही प्रयास करना शुरू किया। इस आन्दोलन के फलस्वरूप ही विविध कलाओं और विज्ञानों को भरपूर प्रोत्साहन मिला।`
(श्रोत : भारतीय चिंतन परंपरा)

प्राचीन काल से मध्ययुग में आने पर भक्ति आंदोलन पाते हैं जो एक महान सांस्कृतिक आंदोलन था। इसके तमाम नायक वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ खड़े थे तथा निम्न जातियों से आते थे। रैदास चमार थे, धर्मदास अछूत जाट किसान थे, सेना नाई थे, कबीर जुलाहा थे, दादू बुनकर थे, नामदेव दर्जी थे, तुकाराम नीची जाति के व्यापारी थे। बंगाल के महान संत चैतन्य भी एक गरीब परिवार में जन्मे थे। आंध्र के सुप्रसिद्ध कवि वेमन्ना एक निरक्षर किसान थे। तुंचथ एलुत्तछन, जिन्होंने रामायण और महाभारत के मलयाली संस्करणों की रचना की थी और मलयाली साहित्य के पिता माने जाते हैं, एक चक्काल अर्थात तेली थे। रामानंद ने देश में दूर-दूर तक भ्रमण किया और ब्राह्मणों के परमाधिकार और जाति-प्रथा का खंडन किया। उनका सरल मंत्र था : 'जात-पांत पूछै नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।` (श्रोत : भारतीय चिंतन परम्परा)


इस्लाम तथा ईसाई धर्मों ने भी वर्ण व्यवस्था को कमजोर करने में, भारतीय समाज को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने तथा दलितों को इज्जत की जिंदगी देने में महान योगदान दिया। इन धर्मों का आगमन तलवार तथा बंदूक के साथ हुआ था। इसलिए भारतीय समाज व्यवस्था में इनका हस्तक्षेप ज्यादा कारगर और मजबूत था, तथापि इस्लाम तथा ईसाइयत में जो भी धर्मांतरण हुए वे बलपूर्वक नहीं किए गये क्योंकि ऐसा होता तो, इस्लाम और ईसाइयत के साथ जो शासक भारत आये थे उनका कुल शासन लगभग एक हजार वर्षों का हुआ, एक हजार वर्षों में शायद एक भी हिन्दू भारत में नहीं बचते। सारी जनता मुस्लिम या ईसाई हो गयी होती। आज के माहौल में इस तथ्य को बार-बार दुहराने की जरूरत है। हिन्दू समाज आज भी मनुवादी मानसिकता से उबर नहीं पाया है। यही कारण है कि धर्मांतरण आज भी हो रहे हैं।

ऊपर के विश्लेषण की रोशनी में हम देख पाते हैं कि धर्म की आलोचना का अर्थ आवश्यक रूप से वर्णव्यवस्था की आलोचना करना है। कोई भी आलोचना सापेक्षिक तथा तुलनात्मक होनी चाहिए। वर्ण व्यवस्था की आलोचना करने मात्र से धर्म की आलोचना पूरी नहीं हो जाती है। धर्म के किसी भी आलोचक को हिन्दू धर्म के उद्भव, विकास और अन्तर्वस्तु की तुलना ऊपर वर्णित धर्मों के उद्भव, विकास और अन्तर्वस्तु से करनी होगी और स्पष्ट करना होगा कि धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से हम एक अप्रिय निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जहां अन्य धर्म अपने मूल स्वरूप में मानवतावादी है, वहीं हिन्दू धर्म एक अमानवीय धर्म है।

इस बिंदु पर एक और प्रश्न हमारे सामने आ खड़ा होता हैै। न केवल हिन्दू समाज बल्कि अन्य धार्मिक समुदाय भी जाति-व्यवस्था से ग्रस्त समाज हंै। धर्म की आलोचना यदि वर्ण व्यवस्था की आलोचना होती है तथा वर्ण व्यवस्था हिन्दू धर्म का विशिष्ट चरित्र है तो वर्ण भेद से ग्रस्त अन्य धार्मिक समुदायों के लिए वर्णव्यवस्था की आलोचना कौन सा अर्थ ग्रहण करता है? मुस्लिम, ईसाई तथा सिक्ख समाज में व्याप्त जाति-व्यवस्था की आलोचना उन समाजों या धर्मों के आधुनिक स्वरूप की आलोचना करना है जबकि हिन्दू समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था की आलोचना प्राचीनतम हिन्दू धर्म के मूल स्वरूप तथा अन्तर्वस्तु की आलोचना करना है।

हाल के वर्षों में हिन्दू और मुस्लिम समाजों में व्याप्त वर्णव्यवस्था पर दो कृतियां प्रकाशित हुई हैं-कंाचा इलैया का 'क्यों मैं हिन्दू नहीं हूं` तथा अली अनवर का 'मसावात की जंग`। अली अनवर मुसलमानों में व्याप्त वर्ण व्यवस्था का पर्दाफाश करते हुए कहते हैं कि यह इस्लाम के मौलिक उसूलों के खिलाफ है जब कि कांचा इलैया कहते हैं कि शाी़य हिन्दू धर्म के सिद्धांत खुद इस बात को सिद्ध करते हैं कि वे हिन्दू नहीं हंै। अंबेदकर ने घोषणा की थी कि हिन्दू धर्म में जन्म लेना उनके वश में नहीं था लेकिन हिन्दू होकर वे मरेंगे नहीं। एक हिन्दू दलित बहुजन जितनी सहजता और विश्वसनीयता से अपने हिन्दू नहीं होने का तर्क जुटा सकता है, यह सहजता एक बौद्ध, जैन, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई को हासिल नहीं है। एक मुस्लिम अपने धर्म में रहते हुए जातिगत भेदभाव के खिलाफ जंग जारी रख सकता है क्योंकि 'कुरान` उसके जंग में सबसे बड़ा सहायक है। यही स्थिति एक सिक्ख तथा ईसाई के साथ भी है। बाबा साहब अंबेदकर तथा पेरियार का जीवन और दर्शन प्रमाणित करता है कि एक हिन्दू दलित-बहुजन को वर्णभेद से मुक्ति पाने के लिए धर्म का त्याग करने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं बचता है क्योंकि हिन्दू धर्मग्रंथ ही उसकी सामाजिक गुलामी का मूल कारण हंै।
अंबेदकर और पेरियार में एक मौलिक अंतर है। अंबेदकर हिन्दू धर्म को त्यागकर धर्मांतरण करते हैं तथा बौद्ध बन जाते हैं। पेरियार हिन्दू धर्म का त्याग नास्तिक बनकर करते हैं। पेरियार धर्मांतरण नहीं करते हैं।

अभी तक हमने धर्म की आलोचना के दो मापदंड निर्धारित किये हैं :
१. वर्ण-व्यवस्था की आलोचना धर्म की आलोचना का मुख्य आधार होना चाहिये।
२. वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ अन्य धर्मों की प्रगतिशील ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित करना तथा हिन्दू धर्म के उद्भव, विकास एवं अन्तर्वस्तु की अन्य धर्मों के उद्भव, विकास एवं अन्तर्वस्तु के साथ तुलनात्मक अध्ययन करना धर्म की आलोचना का प्रमुख आयाम है।
धर्म की आलोचना फिर भी पूरी नहीं होती है। तमाम आधुनिक धर्म, बिना किसी अपवाद के साम्राज्यवादी-पूंजीवादी शोषण का औजार बन चुके हैं। 'समाजवाद और धर्म` शीर्षक लेख में लेनिन लिखते हैं 'आधुनिक पूंजीवादी देशों में धर्म का आधार मुख्य रूप से सामाजिक है। आधुनिक धर्म की जड़ें मेहनतकश अवाम के सामाजिक उत्पीड़न तथा पूंजीवाद की अंधी शक्तियों, जो निर्धन मेहनतकश जनता के लिए असाधारण घटनाओं जैसे युद्ध, भूकम्प आदि से भी हजारों गुना ज्यादा तकलीफ घड़ी-दर-घड़ी लेकर आता है, में गहराई तक धंसा हुआ है। भय ने ईश्वर को पैदा किया।` पूंजी की अंधी शक्ति के भय ने-अंधी इसलिए कि आम जनता इसकी कार्यविधि को नहीं देख सकती है-एक ऐसी शक्ति जिसके कारण जीवन के प्रत्येक कदम पर मजदूर और टूटपूंजिये व्यापारियों को अचानक, अप्रत्याशित, असामयिक बर्बादी और तबाही-जो मुफलिसी, भूख से मौत, भिक्षावृति और वेश्यावृति साथ लेकर आता है-का भय बना रहता है। यही है आधुनिक धर्म का मूल श्रोत जो सभी भौतिकवादियों को, यदि वे हमेशा के लिए बचकाने भौतिकवाद में फंसे रहना नहीं चाहते हैं, सर्वप्रथम याद रखना चाहिये।`
धर्म की आलोचना राजनीति की आलोचना में तब परिवर्तित हो जाती है जब हम पाते हैं कि उत्पीड़ितों की राजनीति दो खेमों में बंटी है : एक वर्गवादी खेमा, दूसरा वर्णवादी खेमा। मार्क्सवाद-लेनिनवाद वर्गवादी खेमे का, जब कि बुद्ध, फुले, अंबेदकर, पेरियार तथा लोहिया के विचार वर्णवादी खेमे का सैद्धांतिक आधार हंै। दोनों खेमों के बीच श्रम-विभाजन की स्थिति बनी हुई है-वर्ग का सवाल वर्गवादी खेमा तथा वर्ण का सवाल वर्णवादी खेमा उठायेगा। वर्ण-व्यवस्था में निहित श्रम विभाजन का ही प्रतिबिंब राजनीति का श्रम-विभाजन है। यही श्रम विभाजन जनतांत्रिक शक्तियों की असफलता का मूल कारण है। वर्णवादी खेमा धर्म की आलोचना में वर्ण का सवाल तो उठाता है किन्तु पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का सवाल गौण कर देता है, दूसरी ओर वर्गवादी खेमा धर्म की आलोचना को पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की आलोचना से तो जोड़ता है किन्तु वर्ण के सवाल को गोल कर देता है। इस तरह धर्म की आलोचना कभी पूरी नहीं हो पाती है। धर्म की पूरी आलोचना इन दो खेमों को एकीकृत कर देगी या इन दो खेमों का एकीकरण आलोचना के खंडित अंगों को जोड़कर पूरा कर देगा।

भौतिकवाद मार्क्सवाद-लेनिनवाद का विकास दार्शनिक आधार है। हम पहले देख चुके हैं कि भारत में भौतिकवादी दर्शन का विकास पुरोहितवाद, कर्मकांड और वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष से हुआ। प्राचीन भौतिकवाद वेदों एवं अन्य धर्मग्रंथों में स्थापित भाववादी दर्शन का एंटीथीसिस है। वर्गवादियों को वर्णव्यवस्था की आलोचना को धर्म की आलोचना का आधार बनाना होगा। मार्क्सवादी इतिहासकारों तथा विद्वानों जिनमें डी.डी. कोसांबी सर्वप्रमुख हैं, ने वर्ण व्यवस्था की आलोचना की है। किन्तु वर्गवादी राजनीति, जहां दर्शन अपनी व्यवहारिक अभिव्यक्ति पाता है, भारतीय भौतिकवाद के खास चरित्र की अभिव्यक्ति अभी तक नही हो पायी है।


लिबरेशन थियॉलॉजी

शोषण के खिलाफ संघर्ष में धर्म का उपयोग करना लिबरेशन थियॉलॉजी है। लैटिन अमेरिका तथा अमेरिकी महादेश में अमेरिकी सम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई में लिबरेशन थियॉलॉजी अस्तित्व में आया। लैटिन अमेरिकी मार्क्सवादियों ने भी लिबरेशन थियॉलॉजी के महत्व को समझा। फिडेल कास्ट्रो ने आह्वान किया कि जो गरीबों का शत्रु है, वह यीशू का भी शत्रु है। ईसाई धर्म के मौलिक, विशुद्ध एवं प्राचीनतम स्वरूप से प्रेरणा पाकर लैटिन अमेरिका में पादरियों का एक ऐसा क्रांतिकारी दस्ता तैयार हुआ जो गरीबी, भूखमरी, बेगारी एवं साम्राज्यवादी-पूंजीवादी शोषण के खिलाफ सेक्यूलर क्रांतिकारियों के साथ संघर्ष में शामिल हुए। क्रांतिकारी पादरियों के चिंतन और कर्म को 'लिबरेशन थियॉलॉजी` कहा गया।

लिबरेशन थियॉलॉजी के प्रवक्ता एवं ब्राजील के पादरी फ्रेई बेट्टो ने लिबरेशन थियोलॉजी पर क्यूबा के राष्ट्रपति फिडल कास्ट्रो के साथ एक लंबी बातचीत की थी, जो पुस्तकाकार मेंे प्रकाशित हुई है। यह किताब बताती है कि जनतंत्र के लिए लड़ाई में धर्म की प्रगतिशील भूमिका हो सकती है। लिबरेशन थियॉलॉजी पर फिडेल के विचारों को जानना जरूरी प्रतीत होता है क्योंकि 'लिबरेशन थियॉलॉजी` धर्म और जनतंत्र के संयोग से उत्पन्न विचारधारा है तथा फिडेल २०वीं-२१वीं सदी में जनतंत्र के एक महान योद्धा हैं। बातचीत के क्रम में फ्रेंड बेट्टो ईसा मसीह के जीवन की तीन घटनाओं का उल्लेख करते हैं जो यह साबित करता है कि ईसा मसीह का मानना था कि दूसरों का शोषण करके ही कोई अमीर बनता है। यह हिन्दू धर्म की उस मान्यता के ठीक विपरीत है जो गरीबी एवं अन्य कष्टों को पूर्व-जन्म में किए गये कर्मों का परिणाम बताता है।

१. एक बार एक अमीर व्यक्ति ईसा मसीह का शिष्य बनने के लिए उनके पास गया। ईसा मसीह ने उससे कहा, 'मेरा शिष्य बनने के लिए तुम्हें एक काम और करना होगा। तुम्हारे पास जो कुछ है उसे बेचकर गरीबों में बांट दो। जाओ, गरीबों के प्रति कर्तव्य को पूरा करो और तब मेरे पास आओ।`
२. ईसा मसीह एक बार जकाहाउस नाम के एक अमीर आदमी के घर गये। उसके घर की भव्यता देखकर ईसा मसीह ने कहा, 'तुम एक चोर हो क्योंकि तुम्हारे पास जो है वह तुमने गरीबों से चुराया है।`
३. कुछ लोगों के पूछने पर कि ईसा मसीह के दल में शामिल होने के लिए क्या करना होगा ईसा मसीह के शिष्य जॉन द बैपटिस्ट ने जवाब दिया कि जिनके पास दो कोट है वह एक कोट उसको दे दें जिसके पास एक भी कोट नहीं है।
फिडेल कहते हैं, 'क्राइस्ट ने उपदेश देने के लिए अमीरों को नहीं बल्कि बारह गरीब और निरक्षर मजदूरों को चुना था-उनमें कुछ सर्वहारा, कुछ मछुआरे तथा कुछ अपना काम धंधा करने वाले थे।`

फिडेल आगे कहते हैं, 'बाइबिल में क्राइस्ट के चमत्कारों की चर्चा है जिसमें क्राइस्ट लोगों को भोजन देने के उद्देश्य से जादू से रोटियां और मछलियां उत्पन्न करते थे। यह ठीक वही काम है जो हम क्रांति और समाजवाद के साथ करना चाहते हैं अर्थात् लोगों को खिलाने के लिए मछली और रोटी उत्पन्न करो, स्कूलों, शिक्षकों, अस्पतालों और डाक्टरों की संख्या बढ़ाओ, फैक्टरियों, खेतों तथा नौकरियों की संख्या बढ़ाओ, औद्योगिक और कृषि उत्पादन बढ़ाओ और इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए प्रयोगशालाओं एवं वैज्ञानिक अनुसंधानों की संख्या बढ़ाओ।`

फिडेल कहते हैं : 'जितनी समानता ईसाईयत और पूंजीवाद के बीच है उससे दस हजार गुना ज्यादा समानता ईसाईयत तथा साम्यवाद में है। क्यूबा की ननें जब कोढ़ियों, क्षयरोगियों तथा अन्य संक्रामक रोगों से ग्रस्त रोगियों की सेवा करती हैं तो वे वही काम करती हैं जो हम कम्युनिस्टों द्वारा करने की अपेक्षा रखते हैं।`

कास्ट्रो आगे कहते हैं- 'ईसाईयत गुलामों, शोषितों, गरीबों का धर्म था, जो कब्रिस्तान में रहते थे, जिन्हें भयानक दंड दिये गये, जिन्हें मनोरंजन के लिए सर्कस में शेरों तथा अन्य हिंसक पशुओं के सामने छोड़ दिया जाता था, जिन पर सदियों तक सभी तरह के लोमहर्षक अत्याचार किये गये। रोमन साम्राज्य ने, जो ईसाइयत को क्रांतिकारी सिद्धांत मानता था, इसके माननेवालों पर भयानक जुर्म किये।...जैसे अत्याचार प्राचीन ईसाइयों पर किये गये वैसे ही आधुनिक क्रांतिकारियों पर भी किये जा रहे हैं।`

अक्टूबर,१९८० में मध्य अमेरिकी देश निकारागुआ में सैंडिनिस्टा नेशनल लिबरेशन फ्रंट की क्रांतिकारी पार्टी की सरकार ने मार्क्स एंगेल्स एवं परवर्ती मार्क्सवादियों के धर्म विरोधी विचारों की ओर ईशारा करते हुए दस्तावेज जारी किया। जिसमें कहा गया, 'कुछ लेखकों का कहना है कि धर्म मनुष्य के अलगाव का एक औजार है जो कि वर्गीय शोषण को आसान बनाता है? निस्संदेह इस कथन का वहीं तक ऐतिहासिक महत्व है जहां तक राजनीतिक वर्चस्व के लिए धर्म ने सैद्धांतिक सहारे का काम किया है। इस कथन के समर्थन में हमारे देश में इंडियनों के गुलाम बनने और उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया में मिशनरियों की भूमिका को याद करना पर्याप्त होगा। तथापि सैंडिनिस्टा का अपने अनुभवों के आधार पर कहना है कि ईसाई, जब अपने धर्म पर विश्वास करते हुए, इतिहास और जनता की जरूरतों के अनुसार सक्रिय होते हैं तो उनका विश्वास उनमें क्रांतिकारी जुझारूपन पैदा करता है। हमारा अनुभव बताता है कि एक व्यक्ति एक ही साथ धार्मिक और अडिग क्रांतिकारी दोनों हो सकता है और दोनों के बीच कोई अपराजेय अंतरविरोध नहीं है।`

लिबरेशन थियॉलॉजी मार्क्सवाद के विरोध में नहीं है बल्कि इसके सूत्र मार्क्सवाद में ही मिल जाते हैं। एंगेल्स ने 'दैवी संदेश का ग्रंथ` शीर्षक लेख में अर्नेस्ट रेनन नाम के एक जर्मन लेखक को उद्धृत करते हुए लिखते हैं : 'अर्नेस्ट रेनन ने एक अच्छी चीज कही है-'जब आप को यह जानने की इच्छा हो कि ईसाई धर्म के प्रारंम्भिक समुदाय ठीक किस प्रकार के थे, तो उनकी तुलना हमारे पादरियों की आजकल की धार्मिक परिषदों से आप न कीजियेगा। उनकी तुलना दरअसल अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संघ की स्थानीय शाखाओं से करना अधिक सही होगा।` रेनन की बात का समर्थन करते हुए एंगेल्स आगे लिखते हैं, 'और यह सही है। ईसाई धर्म ने आम जनता को उसी तरह प्रभावित किया था जिस तरह की आधुनिक समाजवाद आज करता है। इनके कुछ विचार अधिक स्पष्ट थे, कुछ अधिक उलझे हुए थे-अधिकांशतया वे उलझे हुए ही थे किन्तु.. 'अधिकारी वर्ग` के विरूद्ध थे। इसी लेख में एंगेल्स आगे लिखते हैं 'हर महान क्रांतिकारी आंदोलन की तरह ईसाई धर्म का भी निर्माण जनता ने किया था। उसका उदय फिलिस्तीन में हुआ था। यह कैसे हुआ था इसके बारे में हमको बिल्कुल जानकारी नहीं है। उसका उदय ऐसे समय हुआ था जब कि नये मत-मतान्तरों, नये धर्मों और नये पैगम्बरों का सैंकड़ों की तादाद में जन्म हो रहा था। वास्तव में, वह केवल एक ऐसा औसत है जिसका निर्माण इनमें से अधिक प्रगतिशील धार्मिक सम्प्रदायों के आपसी संघर्षण से अपने आप हुआ था।`

'बूनो बेयर तथा आरंभिक ईसाई धर्म` शीर्षक लेख में एंगेल्स लिखते हैं- 'यह नया धार्मिक दर्शन अपने अनुयायी गरीबों, दुखियारों, दासों तथा तिरस्कृतों के बीच ढूंढता है, धनियों, सत्ताधीशों तथा विशेषाधिकार सम्पन्न लोगों से वह घृणा करता है। समस्त सांसारिक सुखों का परित्याग करने तथा शरीर को पीड़ा पहुंचाने के धर्मोद्देश्य की उत्पत्ति इसी भावना के अन्दर से हुई थी।`

'चर्च विरोधी आन्दोलन-हाइड पार्क में प्रदर्शन` शीर्षक लेख में मार्क्स लिखते हैं-'ईसाई धर्म के महान संतों ने आम जनता की आत्माओं के उद्धार के लिए स्वयं अपने शरीर को यातना दी थी; आधुनिक शिक्षित संत स्वयं अपनी आत्मा के उद्धार के लिए आम जनता के शरीरों को यातनायें देते हैं।

इन दिनों लैटिन अमेरिका में वामपंथ की जो हवा चल रही है उसमें लिबरेशन थियॉलॉजी की बड़ी भूमिका है। वेनेजुएला के राष्ट्रपति एवं फिडेल कास्ट्रो के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद के सबसे बड़े विरोधी नेता ह्यूगो शावेज अपने भाषणों में ईसा मसीह को याद करना नहीं भूलते हैं। सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप में समाजवादी व्यवस्था का सम्पूर्ण ध्वंस तथा चीन, वियतनाम में पूंजीवादी की वापसी वहां के मार्क्सवादियों द्वारा ईसाई तथा बौद्धों धर्मों को लिबरेशन थियॉलॉजी के रूप में विकसित न कर पाने की विफलता में भी ढूंढ़ा जा सकता है। लिबरेशन थियॉलॉजी लोकतंत्र की लड़ाई को मजबूत तथा तेज करने में एक बड़ा विचारधरात्मक योगदान है।


फासीवाद के दार्शनिक पिता नीत्शे ईसाई धर्म से बेइंतहा घृणा करता था। उसने अपने ग्रंथ 'एंटी क्राइस्ट` में ईसा मसीह के बारे में लिखा, इस अराजकतावादी संत ने समाज के निम्नतम तबका, समाज बहिष्कृतों, यहूदी धर्म के चांडालों को तात्कालिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करने के लिए भड़काया था और वह भी एक ऐसी भाषा में, यदि ईसाई धर्म ग्रंथों पर विश्वास किया जाए, जो आज भी किसी को निर्वासन में साईबेरिया भिजवा सकता है। वह व्यक्ति एक राजनीतिक अपराधी था।` अपने इसी ग्रंथ में नीत्शे ने ईसाई धर्म के सामाजिक समानता के सिद्धांत की आलोचना करते हुए लिखा, समानता के सिद्धांत से बढ़कर विषैला विष और कुछ नहीं है` तथा 'बुराईयों` का स्त्रोत अधिकारों की असमानता नहीं बल्कि समान अधिकरों की मांग करना है।` नीत्शे की नजर में बौद्ध तथा ईसाई धर्म 'सर्वविध्वंसक निहिलिस्टिक धर्म` तथा 'मरणशीलन धर्म` है। नीत्शे वस्तुत: मनु का जर्मन चेला था। वंचित वर्गों के लिए वह 'चांडाल` शब्द प्रयुक्त करता था जो उसने 'मनुस्मृति` से उधार लिया था। 'बाइबिल` उसकी नजर में एक घटिया तथा 'मनुस्मृति` एक महान ग्रंथ था। 'एंटी क्रांइस्ट` में उसने लिखा है कि 'मनुस्मृति` जैसे महान ग्रंथ की तो 'बाइबिल` जैसे निकृष्ट ग्रंथ से तुलना भी नहीं की जा सकती है। 'एंटी क्राईस्ट` में नीत्शे ने लिखा, 'मनुस्मृति एक समुदाय को भविष्य में स्वामित्व तथा जीवन की महानतम कला को प्राप्त करने की आकांक्षा करने का अधिकार देता है।` ऐसा नहीं था कि नीत्शे 'मनुस्मृति` के झूठ को नहीं समझता था। वर्गीय घृणा का यह साक्षात् देवपुरुष आगे लिखता है, 'इस साध्य (भविष्य में स्वामित्व तथा जीवन की महानतम कला को प्राप्त करना) ही प्रत्येक पवित्र झूठ का उद्देश्य है।` हिन्दुओं की तरह नीत्शे भी जाति-व्यवस्था को सनातन व्यवस्था मानता था। वह 'एंटी-क्राइस्ट` में आगे लिखता है, 'जाति-व्यवस्था एक प्राकृतिक व्यवस्था है जिस पर किसी आधुनिक विचारधारा का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता है। श्रेष्ठ जाति जिसे मैं अल्पतम जाति कहता हूं, को आदर्श और पूर्ण जाति होने के कारण अल्पतम का विशेषाधिकार मिला हुआ है : उनके ही ऊपर धरती पर सुख, सौंदर्य और अच्छाई को प्रकट करने की जिम्मेदारी है।` भारत के दलित-बहुजन जानते हैं कि वे कौन हैं जिन्हें नीत्शे के शब्दों में 'अल्पतम का विशेषाधिकार` मिला हुआ है।
सवर्ण वामपंथी बुद्धिजीवी सांप्रदायिक फाासीवाद को जर्मन फाासीवाद से प्रेरित बताकर उल्टी गंगा बहाते हैं जबकि सीधी गंगा यह है कि खुद जर्मन फासीवाद का दार्शनिक पिता 'मनुस्मृति` से प्रभावित था। नीत्शे के 'सुरपरमैन` की अवधारणा ही नाजीपार्टी के आर्य नस्ल की श्रेष्ठता की अवधारणा में परिवर्तित हुई तथा इतिहास के क्रूरतम नरसंहार, जिसमें साठ लाख यहूदियों को भीषण यातना देकर मारा गया, की पूर्वपीठिका बनी। नीत्शे का 'सुपरमैन` 'मनुस्मृति` से ही निकला था। पूरी 'मनुस्मृति` और कुछ नहीं बल्कि सुपरमैनों के बल पर शूद्रों और चांडालों पर शासन करने की योजना है। (देखें ब्रजरंजन मणि का लेख : ब्राह्मणवादी राष्ट्रीयता और सामाजिक फाासीवाद अर्थात मनु का ब्राह्मण और नीत्शे का सुपरमैन : हंस, फरवरी, २००२)
नीत्शे से पचास साल पहले पैदा हुए एक और जर्मन दार्शनिक शॅपेनहावर भी 'मनुस्मृति` से खासा प्रभावित था। जिन जर्मन दार्शनिकों की रचनाएं आगे चलकर नाजीवाद का वैचारिक आधार बनीं उन पर 'मनुस्मृति` तथा वैदिक दर्शन के प्रभाव की जांच पड़ताल करना एक अलग अध्ययन तथा शोध का विषय है।


ऊपर के उद्धरणों से हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जब हम धर्म की आलोचना करते हैं, धर्म को एक सिरे से खारिज करते हैं तो ऐसा हम धर्मों के आधुनिक रूपों के संदर्भों में कर रहे होते हैं। यद्यपि हम ऐसा सचेत रूप में नहीं करते हैं। जनता पर धर्म के अफीम के नशे को तोड़ने के लिए धर्मों के इतिहास से उत्पन्न इतिहास बोध की जरूरत असंदिग्ध है। आधुनिक धर्मों के खिलाफ संघर्ष में प्राचीन धर्मों का महत्व स्वयंसिद्ध है। यह पुनरूत्थानवाद नहीं है, जो अपना आश्रय इतिहास के काल्पनिक बिंबों में ढूंढ़ता है, बल्कि अलोकतांत्रिक धर्मों के पुनरूत्थानवाद के खिलाफ इतिहास की वास्तविक घटनाओं का आह्वान है। लिबरेशन थियॉलॉजी, इस्लाम, बौद्ध, सिक्ख धर्मों के इतिहास और उसकी मूल अवधारणाओं एवं शिक्षाओं में ढूंढा जा सकता है। किन्तु 'लिबरेशन थियॉलॉजी` को हिन्दू धर्म में ढूंढ़ना असंभव है।


अशोक यादव युवा लेखक व सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं।

4 comments:

  1. i think you should raed vaidik shastr,atlist....once...............

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  2. i think you accept islma and become mullah

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  3. इस लेख का मुख्य उद्देश्य सिर्फ वैदिक धर्म का विरोध ही है,....

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  4. नीत्शे जाति-व्यवस्था को मानता था। वह 'एंटी-क्राइस्ट` में आगे लिखता है, 'जाति-व्यवस्था एक प्राकृतिक व्यवस्था है जिस पर किसी आधुनिक विचारधारा का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता है। श्रेष्ठ जाति जिसे मैं अल्पतम जाति कहता हूं, को आदर्श और पूर्ण जाति होने के कारण अल्पतम का विशेषाधिकार मिला हुआ है : उनके ही ऊपर धरती पर सुख, सौंदर्य और अच्छाई को प्रकट करने की जिम्मेदारी है|

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