December 10, 2007

कट्टरवादी दृष्टि से किताब का पाठ

पुस्‍तक चर्चा


  • मुशर्रफ़ आलम जौकी

ज्ञानचंद ने पूरा जीवन उर्दू के नाम किया . अंतिम क्षणों में अपने बेटे के पास अमेरिका चले गए . इसमें शक नहीं कि बहुत हद तक उनकी सेवाओं को नजरअंदाज किया गया और ऐसे में यदि जीवन के 'बूढे पडाव' पर उनके लेखन में एक हिन्‍दू जागता है तो यह उर्दू वालों का भी कसूर है.


उर्दू के अस्सी वर्षीय प्रसिद्ध आलोचक ज्ञानचन्द जैन ने कुछ अर्सा पहले अमेरिका में रह कर एक किताब लिखी - 'एक भाषा दो लिखावट।` किताब भारत में छपी और उर्दू की अदबी दुनिया में ज़लज़ला आ गया। सब से पहले तथाकथित दानिश्वर शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी ने, 'मुसलमान-दृष्टि` से इस किताब को पढ़ा और जी भर कर ज्ञानचंद को कोसा। फ़ारूकी के इन लफ्जों से हिन्दुस्तान के अलावा पाकिस्तान की साहित्यिक दुनिया भी प्रभावित हुई। भारत में ज्ञानचन्द पर फ़तवे लगने शुरू हो गए। मुम्बई से निकलने वाली एक प्रसिद्ध पत्रिका के कवि-संपादक तो इतना उत्तेजित हुए कि अपनी पत्रिका 'शायर` में उन्हें जान से मार डालने का, फतवा तक दे गये। इस से पहले कि मैं अपनी बात आरम्भ करूं शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी के आलेख के कुछ अंश यहां प्रस्तुत कर रहा हूं :
"संपादकीय के तहत प्रोफेसर जैन ने पहले शब्द के तौर पर लिखा है : 'मेरे उर्दू शगिर्र्दों और दोस्तों को शायद इस बात का दुख हो कि मैने जो कुछ लिखा है वो ऐसा है जैसे मैं कोई उर्दू दुश्मन या मुसलमान दुश्मन हूं।` अर्थात् उन्हांेने ये किताब खूब जान कर लिखी है कि इसके बाद उन्हें उर्दू दुश्मन और मुसलमान दुश्मन समझा जाएगा। वास्तविकता यह है कि यह किताब न केवल हिन्दुओं और मुसलमानों को, बल्कि उर्दू के हिन्दू और मुस्लिम लेखकों को भी एक दूसरे से तोड़ने के लिए लिखी गई है। मुसलमानों और उर्दू के लेखकों की पंक्तियां, चाहे वो किसी किताब के हों या भाषण के, या चिटि्ठयों के, वो किताब के विषय से सम्बन्धित हों या न हों, सम्मिलित किये गये हैं। और होशियारी ये कि उन बातों के उचित या अनुचित होने, सही या गल़त हाने पर कोई बहस नहीं है। लेकिन यह कि ये बातें किन उद्देश्य से कही गइंर् हैं, इसका भी पता नहीं। इसके अतिरिक्त, अक्सर मामलों में रावी या तो स्वयं जैन साहब हैं या उनका कोई शगिर्द या दोस्त, या उनका कोई क़रीबी रिश्तेदार। अब किताब के पहले अध्याय 'भूमिका` (पृष्ठ १३ से ४३) से कुछ उल्लेखनीय बातें देखें :

१. मेरी एक क़रीबी सिख महिला ने दिल्ली और उत्तर प्रदेश में रहने वाले मुसलमानों को देख कर कहा कि ये तो मुल्क की तक्स़ीम चाहते थे, फिर ये यहां क्यों हैं? (पृ०.२५)

२. मेरी निगरानी में पीएचडी के लिए रिसर्च करने वाले एक रिसर्च स्कालर ने मुझे बताया कि.. उसने इत्तिहादुलमुस्लिमीन के उम्मीदवार के हक़ में चार बार वोट दिया (पृ०-२५)

३. दो-तीन साल पहले सत्यपाल आनन्द पाकिस्तान घूम कर आए। वहां उन्होंने पाठ्य पुस्तक देखीं। इतिहास की किताबों में आम तौर पर लिखा है कि हिन्दुस्तान में इस्लाम आने से पूर्व यहां के बाशिन्दे जाहिल और असभ्य थे। इसमें इस्लाम की तारीफ़ और दूसरे समुदाय की झूठ बातों के अतिरिक्त कुछ नहीं। मालूम होता है जैसे ये पाठ्य पाकिस्तान के तालिबान ने तैयार किया है (पृ०-२४)

४. काली दास (गुप्ता रज़ा) ने (मेरे नाम) ५ जनवरी २००० को पत्र लिखा, 'मैने देखा है कि किसी हिन्दू प्रसिद्ध कवि या साहित्यकार को बख्श़ा नहीं गया। दयाशंकर नसीम, चकबस्त, फ़िराक़, मालिक राम, ज्ञान चन्द, गोपीचंद नारंग और अब मैं, सभी पर कीचड़ उछाली गई। केवल जगन्नाथ आजाद बचे हैं क्योंकि उन्हांेने इक़बाल की 'परस्तारी` में सब को पीछे छोड़ दिया है (पृ.२१ से २२)

५. (उर्दू की) छोटी आसामियों के लिए हिन्दुओं की अत्यधिक प्रशंसा और आवभगत की जाती है लेकिन बड़े स्थानों के लिये उम्मीदवार का धर्म भी देखा जाता हंै (पृ०-२३)

६. मुस्लिम बड़े साहित्यकार पर कोई छोटा साहित्यकार अपशब्द की हिम्मत नहीं कर सकता, लेकिन एक बड़े हिन्दू साहित्यकार के खिलाफ छोटा साहित्यकार भी अपने क़लम को बेलगाम छोड़ने के लिए आजाद है क्योंकि वो जानता है कि पत्रिकाओं के पाठक और सम्पादक की हमदर्दियां उसके साथ है (पृ०-२३)

७. बड़े से बड़े हिन्दू साहित्यकार को ख्य़ाल रखना पड़ता है कि उर्दू दुनिया में जीना है तो मुसलमानों की 'खुशनूदी` पर नज़र रखे (पृ०-२६)

८. उर्दू में भाषा के विषय पर जो किताबें लिखी गई हैं वो मुसलमानों को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं (पृ०-१४)

९. इतिहास में मुसलमानों की ये पॉलीसी रही है कि जिन इलाकों को विजय किया जाए, वहां की भाषा और लिपि को खत्म करके अपनी भाषा और लिपि को उन पर थोपा जाए। हिन्दुस्तान में भी ऐसी पॉलीसी पर अमल करने की कोशिश की गई...। सिंधी, पंजाबी, कश्मीरी आदि की लिखावट पूरी तरह बदल दी गई (पृ०-१६)।

१०. उर्दू को हिन्दू-मुसलमानों का मिश्रित भाषा कहा गया लेकिन क़याम पाकिस्तान के बाद इसका भांडा फोड़ दिया गया..। डॉक्टर फरमान फ़तेहपुरी ने अपनी किताब 'हिन्दी-उर्दू तनाज़` में स्पष्ट किया कि शुरू से ही अंजुमन तरक़़्की उर्दू और मुस्लिम लीग से उनका सम्बन्ध था। देश विभाजन से पहले ऐसे साम्प्रदायिक विचारों को, उर्दू वालों का हिन्दुओं से छिपाए रखना उर्दू आंदोलन का 'बुनियादी मकसद पाकिस्तान बनवाना` है, ऐसी गद्दारी है जिस पर मैं अफ़सोस करता हूं (पृ०१८ से १९)

११. अमेरिका और कनाडा में पाकिस्तानी अंग्रेज़ी साप्ताहिक हैं। इन सब की वफादारी पाकिस्तान से है। इन में खुल कर हिन्दुस्तान और हिन्दुओं को गालियों से याद किया जाता है। जब प्रत्येक देश के उर्दू जानने वाले इतनी शिद्दत से पाकिस्तान नवाज़ हंै तो संभव है हिन्दुस्तान के मुसलमान भी उनके सहयोगी हों। लेकिन हिन्दुस्तान में हिन्दू अक्सरियत के खौफ़ से शायद सूझ-बूझ से काम लेते हों (पृ०.२३ से २४)

१२. मैं अपने उर्दू वाले मुसलमान दोस्तों के लेख देखता हूं तो आश्चर्य होता है। इनमें अब भी वही इलाहदगी पसंदी दिखाई देती है जो पहले थी। अपने देश के बारे में उनकी भावनाएं वही हैं जो हिन्दुस्तान के बाहर के उर्दू वालों की है (पृ०-३३)

१३. उर्दू के कई बड़े शायर जैसे मोमिन, दाग,़ जिगर और असगऱ आदि की जिन्दगियों के साथ तवाइफों के मामले लिपटे हुए हैं (पृ०-३८)

१४. गोपाल कृष्ण मानक टाला ने (मुझे) अपनी २८ नवम्बर २००१ की चिट्ठी में लिखा, आपने उर्दू के मुस्लिम अदीबों के बारे में जो लिखा है वो बिल्कुल सच है लेकिन आप कुछ भी कर लीजिये ये लोग सुधरने वाले नहीं। बल्कि वो आपको इग्नोर करना शुरू कर देंगे (पृ०.३९ से ४०)

१५. हिन्दुस्तान में मुसलमान उर्दू वाले अपनी कमर पर दो क़ौमी नज़रिये का भारी गठर उठाये फिरते हैं। एक आम हिन्दू की समझ में नहीं आता कि देश में मुसलमानों को हिन्दुओं के बराबर क्यों रखा जाए (पृ०.३३)

१६. उर्दू साहित्य.. मैं गैऱ मुस्लिमों विशेष रूप से हिन्दुओं के धार्मिक आस्थाओं, माशरे और समकालिक व्यक्तित्वों पर इतनी स्याही पोत दी गई है कि कोई हिन्दी समकालिक इसे क़बूल नहीं कर सकता। वो ये महसूस करने लगता है कि यह मेरा साहित्य नहीं, किसी दूसरी मिल्लत की चीज़ है (पृ०.२०)

१७. हिन्दुस्तान में उर्दू के हिन्दू लेखक इतने घबराये हुए हैं कि वो मुसलमान उर्दू साहित्यकारों की खुशामद में लगे रहते हैं (पृ०.३९)

ऐसे शब्द किसी साहित्यिक किताब की बजाये विश्व हिन्दू परिषद या शिवसेना के या नरेन्द्र मोदी के भाषण के अंश मालूम होते हैं।

ये किताब ज्ञान से कितनी दूर हैं , इसकी यह मिसाल एक बयान है कि मुसलमान जिस इलाके को विजय करते हैं वहां की भाषा विशेष रूप से लिपि खत़्म कर देते हैं। ज्ञानचन्द साहब ने राजा राम मोहन राय की एक तहरीर विशेष रूप से फ़तेहपूरी के हवाले से नक़ल की है कि '' हिन्दुस्तान का बड़ा हिस्सा कई सदियों से मुसलमान शासकों के साये में चला आ रहा है. बंगाली शारीरिक तौर पर कमज़ोर थे वो हथियार उठाने से कतराते थे। उनकी जायदादें तबाह की जाती रहीं। उनके मज़हब की तौहीन होती रही...` यदि ये सही है कि सब से अधिक गुलामी बंगाल में रही तो सात सौ साल की मुसलमानों की हुकमरानी के बावजूद बंगाल की भाषा और उसकी लिपि मुसलमानों ने खत़्म क्यों नहीं कर दिया? भाषा नहीं तो लिपि तो ज़रूर खत़्म हो जानी चाहिए थी। फिर ऐसा क्यों नहीं हुआ?

प्रोफ़ेसर जैन को इन सवालों से गऱ्ज नहीं, उन्हें तो उर्दू के विरोध के बहाने मुसलमानों पर कटाक्ष करना है। वह लिखते हैं :
'' बाहरी हमलावरों ने अपने शासन और बड़प्पन के एहसास के नशे में हिन्दुस्तानी भाषा और लिपि को क़बूल न करके अपनी डेढ़ इंर्ट की मस्जिद अलग बनाई। मध्यकालीन युग में मुसलमानों ने जब दूसरे देशों पर विजय प्राप्त किया, सब से पहले वहां भाषा और लिपि को नुक़सान पहुंचाया गया। उसकी अच्छी या बुरी मिसाल ईरान पर विजय प्राप्ति है (पृ०-१५३)"

मैं ज्ञानचन्द की हिमायत नहीं करता। बल्कि मेरा पूरा विश्वास है कि ऐसे प्रसंग या तथ्य रचते हुए ज्ञानचन्द एक बीमार मानसिकता के शिकार रहे होंगे। लेकिन मेरा आरोप उर्दू वालों पर केवल ये है कि किसी ने भी ज्ञानचन्द के मनोविज्ञान को नहीं समझा। ज्ञानचन्द ने पूरा जीवन उर्दू के नाम किया। अन्तिम क्षणों में अपने बेटे के पास अमेरिका चले गए। इस में शक नहीं कि बहुत हद तक उनकी सेवाओं को नज़र अंदाज़ किया गया। और ऐसे में यदि जीवन के एक 'बूढ़े पड़ाव` पर उनके लेखन में यदि एक हिन्दू जागता है तो ये उर्दू वालों का भी क़सूर है। लेकिन यह बात उर्दू वालों को भी समझनी चाहिए कि ज्ञानचन्द को गालियां देते हुए ज्यादातर लोग एक कट्टरवादी मुसलमान में बदल गए थे।

एक किताब नारंग की

साहित्य अकादमी को अपना साम्राज्य मानकर नारंग ज्यादा से ज्यादा अपनी किताबें प्रकाशित करने पर जोर दे रहे हैं। अभी हाल में उनकी एक किताब आई है। बीसवीं शताब्दी में उर्दू साहित्य। चलिए, एक नज़र उस किताब पर भी डालते हैं।

'बीसवीं शताब्दी में उर्दू साहित्य` - दूसरी किसी भी भाषा में ऐसी किसी भी किताब के प्रकाशन का अर्थ है कि उस भाषा के साहित्य की प्रामाणिक, मौलिक अथवा सही जानकारी मुहैया की जाये। ऐसा इस किताब के साथ नहीं है। सब से पहले तो मुझे इस पुस्तक के शीर्षक पर ही ऐतराज़ है। 'बीसवीं शताब्दी में उर्दू साहित्य` न होकर इस किताब का नाम 'बीसवीं शताब्दी में उत्तर आधुनिक साहित्य` होना चाहिए था। किताब में सम्मिलित लेखों के लेखक ज्य़ादातर वही लोग हैं जो किसी न किसी सतह पर 'साहित्य अकादमी` की सदस्यता से जुड़े हुए हैं। जैसे, निज़ाम सिद्दीक़ी, शीन काफ़ निज़ाम, बलराज कोमल, शाफे क़िदवई। महत्वपूर्ण लेखों में बीसवीं शताब्दी के उर्दू साहित्य की जगह इन बुद्धिजीवियों ने उत्तर आधुनिक साहित्य की परंपरा या गोपीचंद नारंग के गीत ही ज्य़ादा गाये हैं। (मसलन, 'प्रो० नारंग, प्राचीन और आधुनिक को संवाद में एकलम करने की सृजनात्मक क्षमता के धनी हैं।` -बीसवीं शताब्दी की वैचारिक अवधारणाएं - निज़ाम सिद्दीक़ी)


शायरी हो, कहानी हो, या बीसवीं शताब्दी की उर्दू तंक़ीद, ऐसा लगता है जैसे तंगनज़री की बुनियाद पर नाम गिनवाने की मुहिम चल रही हो। निज़ाम सिद्दीक़ी ने बीसवीं शताब्दी की वैचारिक अवधारणाएं में यह पुष्टि करने की कोशिश की है कि अब उर्दू साहित्य में सिवाये उत्तर आधुनिकता के कुछ भी शेष नहीं है। फिक्शन और शायरी के क्षेत्र में जब वह हमारे समय के महत्वपूर्ण उर्दू साहित्यकारों के नाम गिनवा रहे होते हैं तो उन की बेबसी पर रोना आता है। लखनऊ के अनीस अश्रफाक़ ने बीसवीं शताब्दी के उर्दू ग़़जल को सीधे लखनऊ से जोड़कर अपनी दृष्टि साफ रख दी है कि हम तो लखनऊ के हैं। बात लखनऊ की ही करेंगे। बीसवीं शताब्दी की उर्दू गज़ल की बात हो और अली मुहम्मद फर्शी, नसीर अहमद नासिर, खा़वर जीलानी, नोमान शौक़, सरीखे शायरों का नाम न लिया जाए, ये तो अदबी बद्दयानती है, या फिर ऐसा है कि शायरी पर लेख लिखने वाला यूं तो पूरी बीसवीं शताब्दी को अपने शिकंजे में कस रहा है, परन्तु उसे बीसवीं शताब्दी में होने वाले परिवर्तनों का एहसास तक नहीं।

कई बार मुझे आलोचक, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के चक्रव्यूह में भी फंसे दिखाई दिये। क्योंकि पुस्तक का शीषर्क बीसवीं शताब्दी में उर्दू साहित्य है। न कि बीसवीं शताब्दी का भारतीय उर्दू साहित्य। और यह बात जान लेनी ज़रूरी है कि जब हम केवल उर्दू का तज़किरा करेंगे तो केवल भारत के उर्दू रचनाकारों तक हमारी दृष्टि सीमित नहीं होगी। क्योंकि हमारे सामने पाकिस्तान का भी समूचा उर्दू साहित्य है, जो शायरी और आलोचना की सतह पर ज्य़ादा समृद्ध और उर्जावान है। लेकिन ऐसा लगता है कि हमारे लिखने वालों की दृष्टि पाकिस्तान में फिक्शन की सतह पर इंतेज़ार हुसैन और शायरी की सतह पर नासिर काज़मी से आगे जाती ही नहीं। जबिक इनके बाद परिवर्तन के बड़े दौर में अगर उपन्यास की बात करें तो अशरफ शाद (बेवतन, वजीर आज़म, सदरे आला) आसिम बट्ट (दायरा) हामिद सिराज (मैया) मुस्तफ़ा करीम (आंधी की आहट) के नाम ज़रूर लिए जाने चाहिए, इसी तरह फिक्शन और शायरी में कई महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों का छूट जाना केवल एक छोटी सी गल़ती नहीं हो सकती। इसके दो ही कारण हो सकते हैं। या तो साहित्य अकादमी के अलमबरदार दानिश्वरों ने १९९० के बाद का साहित्य संजीदगी से पढ़ा ही नहीं। दूसरी सूरत में केवल उन्होंने अपने परिचित नामों की भरपाई करने की कोशिश की है। स्वयं नारंग साहब का आलेख, साहित्य और विचारधारा से संबंधित कई बड़े प्रश्न खड़ा करता है, जैसे आज भी उत्तर आधुनिकता का स्वर बुलंद करते हुए वे 'कंफ्यूज़` हों कि इसमें आधुकनिकता और प्रगतिशीलता दोनों को कैसे मिलाया जाये? और यदि वे इन दोनों को भी रिजेक्ट नहीं बल्कि तस्लीम करते हैं, तो आसानी से कहा जा सकता है कि - वे 'अपनी` उत्तर आधुकनिकता की खोज में उर्दू के दोनों महत्वपूर्ण आयाम को मिला कर एक तीसरी खिचड़ी परोसने जा रहे हों। जबकि अभी उर्दू का हाल यह है कि तीसरी खिचड़ी परोसने की जगह, साहित्य पर ईमानदारी से बात की जाये। और ये ईमानदाराना रवैया यहां दूर-दूर तक नज़र नहीं आता।

अंत में एक बड़ा सवाल- यह किताब नारंग साहब की कैसे हो सकती है? क्योंकि किसी भी ऐसी संपादित पुस्तक में संपादक का अपना नज़रिया तो होता ही है। प्रस्तुत पुस्तक में एक पन्ने की रस्मी बातचीत के अलावा संपादक का अपनी 'अनिवार्य संपादकीय` में कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि इस किताब को संपादित करने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई। हां, अन्त में दूसरे लेखकों की तरह उनका भी एक लेख सम्मिलित है। लेकिन इससे उनके संपादक कहलाने पर प्रश्नचिह्न अपनी जगह बरक़रार रहता है। किताबें हों या साहित्य अकादमी की कुर्सी। नारंग लगातार अपनी मनमानी कर रहे हैं।



उर्दू-हिंदी में समान रूप से लेखन करने वाले कथाकार मुशर्रफ़ आलम जौकी की २५० से अधिक कहानियां व ५ उपन्यास प्रकाशित हैं।

No comments:

Post a Comment