December 10, 2007

जनतंत्र की मुश्किलें : राजनीतिक दलों का आंतरिक जनतंत्र

संपादकीय



राजनीतिक पार्टियां देश में जनतंत्र के खतरों को चाहे जितना समझती हों, अपनी ही पार्टी के आंतरिक जनतंत्र के प्रति पूरी तरह उदासीन हैं। वाम दलों को छोड़कर (और इसमें थोड़े से इफ-बट के साथ भाजपा को भी रख सकते हैं ) बाकी तमाम राजनीतिक दल एक चौकड़ी अथवा लिमिटेड कंपनी बन कर रह गये हैं। कांग्रेस में यदि सोनिया गांधी की तानाशाही है, तो समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह और बसपा में मायावती की। ये तो उदाहरण भर हैं। आप उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम की किसी भी पार्टी का नाम ले सकते हैं और बड़ी आसानी से उसके तानाशाह को पहचान सकते हैं। (वामदलों और भाजपा में थोड़े भिन्न किस्म की तानाशाही चलती है।)

यह बीमारी कैसे और कब शुरू हुई इसका अध्ययन होना अभी बाकी है, लेकिन मोटे तौर पर इसकी शुरुआत कांग्रेस में इंदिरा गांधी के जमाने से हुई लगती है। राजनीति में परिवारवाद की शुरुआत भी कांग्रेस से ही शुरू हुई। आज यह बीमारी भी सभी दलों में व्याप्त हो गयी है।

क्या राजनीतिक दलों के आंतरिक जनतंत्र पर गहराते इस संकट का देश के जनतंत्र से कोई लेना-देना नहीं है? मैं समझता हूं है। जो राजनीतिक दल अपने आंतरिक जनतंत्र को ठीक नहीं रख सकता, वह देश के जनतंत्र को भी ठीक नहीं रख सकता। कमजोर जनतंत्र पर टिके ये राजनीतिक दल देश के जनतंत्र को कमजोर करेंगे ही। यह एक ऐसा खतरा है जिस पर समय रहते विमर्श आवश्यक है।

पचास के दशक में ही कांग्रेस के सदस्यता अभियान में आपाधापी शुरू हो गयी थी। थैलीशाह पार्टी कोष में एकमुश्त भारी रकम जमा करा देते थे। छोटे कार्यकर्त्ता वोटर लिस्ट से फर्जी सदस्यता का फार्म भर कर पार्टी मुख्यालय में जमा कराते थे। पार्टी चुनावों में ये कार्यकर्त्ता थैलीशाहों का समर्थन करते थे। इस तरह थैलीशाह तबके ने धीरे-धीरे राजनेताओं को अपने घेरे में लिया। पार्टी पर धीरे-धीरे साधनसंपन्न तबकों का वर्चस्व बढ़ने लगा। राजनीतिक कार्यकर्त्ता कमजोर होने लगे। कमजोर होते-होते इनकी स्थिति आज दासों जैसी हो गयी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज राजनीतिक कार्यकर्त्ता पूरी राजनीतिक प्रक्रिया का सबसे उदासीन और असहाय पात्र बन कर रह गया है।

जब राजनीतिक दलों में जनतंत्र मजबूत था तब पार्टी की सक्रियता बनी रहती थी। राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं की पूछ होती थी। वे पार्टी के आधार होते थे। वे पढ़ते थे, बहस करते थे और जनसमस्याओं को लेकर संघर्ष करते थे। दल की रीति-नीति बनाने में उनका योगदान होता था। बड़े नेताओं का अपना प्रभाव अवश्य था, लेकिन जब वे कोई बात रखते थे या निर्णय लेते थे तब उनकी चिन्ता यह अवश्य होती थी कि सामान्य कार्यकर्त्ता इसे किस रूप में लेगा। इसे स्वीकारेगा या नकारेगा।

आज राजनीति में इस लोकलाज की कोई जगह नहीं है। कहीं कोई विचार-बहस नहीं है, संघर्ष नहीं है। दलीय तानाशाह की जय करने में ही पूरी राजनीतिक सक्रियता सिमट गयी है। राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं की जगह चापलूसों की चल बनी है और लगभग सभी पार्टियों के नेता इन चापलूसों से घिरे हैं।

आंतरिक जनतंत्र को कमजोर करने में राजीव गांधी के जमाने में पारित दल बदल कानूनों की भी महती भूमिका रही है। एनडीए शासन काल में इसे और जटिल बनाकर दल के नेता की स्थिति और मजबूत कर दी गयी। सीमित और एकल विरोध का अब कोई मतलब नहीं था। सांसद विधायक ही जब इतने विवश हो गये तब सामान्य कार्यकर्त्ता की क्या बिसात थी। उनकी स्थिति और बदतर हो गयी।

राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं का हाशिये पर चला जाना एक गंभीर संकट है। बहुत पहले ख्यात् कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु ने इसकी ओर ईशारा किया था। उनकी कहानी 'आत्मसाक्षी` का गनपत ऐसा ही एक राजनीतिक कार्यकर्त्ता है, जो लगभग पैंतीस वर्षों की राजनीतिक सक्रियता के बाद अपनी ही पार्टी के नेताओं द्वारा अपमानित होकर महसूस करता है 'हम गलत रास्ते पर थे।` जर्मन विद्वान लोठार लुट्से ने इस कहानी का जर्मन में अनुवाद किया है और उन्हें यह कहानी इतनी पसंद थी कि जब वे रेणु से मिले और उनका इन्टरव्यू किया तब देर तक केवल इस कहानी पर बात करते रहे। यह १९७२ का समय था। १९७५ के बदनाम आपात काल से केवल तीन वर्ष पूर्व का समय। (हालांकि कहानी जनवरी १९६५ में लिखी गयी है।) रेणु की इस कहानी द्वारा लोठार लुट्से ने आने वाले संकट को पहचाना था। लुट्से का सवाल था- रेणु जी, मैंने आपको बताया कि आपकी इस (आत्मसाक्षी) कहानी का मैंने जर्मन में अनुवाद किया है, जो चार और कहानियों के साथ एक संग्रह में छपेगा। संग्रह का नाम मैंने रखा है 'आजादी की मुश्किलें`। आपकी कहानी का एक अंश मैंने सवाल का आधार इसलिए बनाया कि मुझे लगता है, आपका चरित नायक गनपत मानो एकाएक आजादी की मुश्किलें-बल्कि कह लीजिये आजादी की मुसीबतें पहचान लेता है -बिजली की कौंध की तरह।`

लुट्से ने आगे पूछा- 'क्या आप मेरी बात से सहमत होंगे?` और रेणु का जवाब था- 'हां, मैं आपसे सहमत हूं।`
रेणु और लुट्से आजादी (मैं कहूंगा जनतंत्र) की मुश्किलों से परिचित थे। लेकिन जिन मुश्किलों को उन दोनों ने १९६५ और १९७२ में देखा था, वे आज कहीं अधिक, कई गुना विकराल और भयावह हैं। कुछ अपवादों के साथ लगभग सभी राजनीतिक दल एक गिरोह के रूप में काम कर रहे हैं, जहां अनुशासन का अर्थ है दलीय तानाशाह की कारगुजारियों पर चुप्पी साधे रहना। सबसे अनुशासित कार्यकर्त्ता वह है जो सबसे अधिक चुप रहता है और सबसे सफल राजनेता वह जो राजनीति के अलावे बाकी सब काम करता है।

इस पूरे मामले में हस्तक्षेप तो जनता ही कर सकती है, लेकिन ऐसा कहना इसे अमूर्त रूप देना ही कहा जायेगा। वस्तुत: यह कार्य सभी राजनीतिक दलों के कार्यकर्त्ताओं को करना चाहिए। लेकिन यह भी कहा जायेगा कि क्या अपनी ही पार्टी में हस्तक्षेप करने की स्थिति में राजनीतिक कार्यकर्त्ता रह गये हैं?

  • प्रेमकुमार मणि

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