समकाल
- राजकुमार राकेश
सच के सम्प्रेषण के लिए दो व्यक्तियों की जरुरत रहती है
एक बोलने वाला और दूसरा सुनने वाला। -हैनरी डेविड थौरु
एक बोलने वाला और दूसरा सुनने वाला। -हैनरी डेविड थौरु
संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक एवं सामाजिक मामले विभाग की एक प्रशाखा द्वारा लोकप्रशासन एवं विकास प्रबंधन प्रभाग ने संयुक्त राष्ट्र लोकसेवा सरकारों के चयन के लिए, ३ नवम्बर, २००६ को एक परिचय पत्र जारी किया है, जिसकी सूचना भारतीय नागरिकों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी सैन्टर फौर गुड गवर्नेंस, हैदराबाद को सौंपी गई है। यह सैन्टर संयुक्त राष्ट्र संघ ऑन लाईन नेटवर्क-जनप्रशासन एवं वित्त (यू.एन.पी.ए.एफ) का सदस्य है। यह परिपत्र भारतीय नागरिकों को खम ठोककर सुचित करता है कि वर्ष २००७ के लिए संयुक्त राष्ट्र जनसेवा पुरस्कार निम्नलिखित श्रेणियों में वितरित किए जाएंगे :
- जनसेवा में पारदर्शिता, जवाबदेही एवं उत्तरदायित्व को प्रोन्नत करने हेतु।
- सेवाओं के निष्पादन की प्रोन्नति के लिए।
- आविष्कारक विधियों के सौजन्य से नीति-निर्माण के फैसलों में सहभागिता बढ़ाने हेतु, मसलन सहभागिता पूर्ण बजट निर्माण, सामाजिक ऑडिट एवं मॉनिटरिंग इत्यादि।
इस भूमंडलीकरण के अभिप्रेत और अनुयायी पिछले कुछ वर्षों से खूब प्रचारित कर रहे हैं कि पूंजीवादी आकार पाने को आतुर हर व्यवस्था में अब 'अच्छे शासन` की जरूरत है। बल्कि इसका निहितार्थ तो यह है कि पूंजीवादी शासन ही अच्छा शासन है। इसलिए इसकी उत्पत्ति, परिभाषीकरण और कार्यान्वयन व्यापक पैमाने पर तीसरी दुनिया के देशों को निर्यात किया व करवाया जा रहा है। 'सुशासन` मेरा अनुवाद है जो सही नहीं है। इसका मूल अंग्रेजी शब्द 'गुड गवर्नेंस` है जो टी.वी समाचार चैनलों में उस 'एक्सक्लूसिव` समाचार की तरह है जिसे जानते सभी हैं फिर भी उसका कॉपीराईट 'एक्सक्लूसिव` कहकर हर कोई अपने नाम लिख लेना चाहता है। इस 'गुड गवर्नेंस` की प्रतिध्वनि ऐसी कमजिन है जो वस्तुत: अपना कोई हिन्दी समानार्थक सम्भव ही नहीं छोड़ती। इसलिए सुशासन कहने की बजाए 'गुड गवर्नेंस` कहना ही उचित होगा। वैसे भी 'सुशासन-अच्छा शासन` की हुंकारें लगाने का मतलब होगा कि आज के हमारे इन बुरे शासकों में, सुधार की हर गुंजाइश के बावजूद, इनके पूर्वजों ने हमें बुरे शासन में सांस लेते रहने को मजबूर कर रखा था। असल में आज के शासन की अमानवीयताएं पिछले किसी भी समय की तुलना में चरम पर हैं और अनवरत विकृतियों की ओर भी बढ़ती चल रही हैं। इन सब के बीच ही 'गुड गवर्नेंस` का फंडा है। इसलिए हमें इस तथ्य से शुरू करना होगा कि यह 'गुड गवर्नेंस` असल में शासन के राजनैतिक या प्रशासनिक अर्थों में अच्छा शासन नहीं है, बल्कि इसका सीधा संबंध उस पूंजीवादी-निजीकरण वाली आर्थिक नीति से है जो संसार को, खास तौर पर तीसरी दुनिया के देशों को भूमंडलीकरण के नाम पर अमेरिका का उपनिवेश बनाती है जिसमें केवल पूंजी और पूंजी स्वामियों का अस्तित्व और वर्चस्व होगा। बाकी बचे दो जून की रोटी के लिए हाड़ तोड़ते लोग उसमें सिर्फ दास होंगे। उनका जीवित अस्तित्व इस धरती पर उत्तर-आधुनिक गुलामों से ज्यादा कुछ नहीं होगा। वे सिर्फ वोट डालने वाले बटन की तरह संचालित होंगे।
इस भूमंडलीकरण ने पिछले देढ़ दशक के अपने भारतीय सफर में कल्पनातीत और अबाध वेग से आर्थिक बाजारीकरण को ऐसी दिशा में मोड़ दिया है जिसके हर शिखर और हर खाई में केवल कार्पोरेट उपभोक्तावाद की चकाचौंध स्थापित हो चुकी है या होने वाली है। वहां यह पूरी तरह स्थापित हो चुका है कि इस राष्ट्र-राज्य की अपनी निजी अर्थनीति का कोई अर्थ मौजूद नहीं है। भले ही सत्तासीन शासक अपने पिछलग्गू अर्थशाय़िों की पीठ पर सवार होकर नई शब्दाबलियां गढ़ रहे हों, लेकिन अपने हर अस्तित्व में वे अब महज बाजार की उत्पत्ति, उसकी उन्नति और उसके विकास के सेवक मात्र हैं। इस देश की जनता के नहीं जो वोट देकर उन्हें सत्ता के एयर-कंडीशन्ड गलियारों तक पहुंचाती है। इनकी सार्वजनिक गर्जनाओं का असल में इस देश की व्यापक जनता और उसके हित से रत्तीभर भी लेना-देना नहीं है, क्योंकि यह सारी आवाजें उसके लिए नहीं बल्कि सुदूर सात समंदर पार बैठे अपने वैश्विक आकाओं को सम्बोधित है। यह जनता जो उन पर घोर विश्वास किए बैठी है वह पूरी तरह भ्रमित है। इस भ्रमित यथार्थ का संदेश उनके लिए सिर्फ यही है कि उदारीकरण, खुले बाजारों की चका-चौंध, निजीकरण की आंधियां, लाभ कमाने की असीमित इच्छाएं एवं उपभोक्तावादी दर्शन की दमक अब भारतीय समाज के जीवन में इस कदर प्रवेश कर चुकी है जिससे आने वाली कई शताब्दियों तक मुक्ति का कोई मार्ग बचता ही नहीं। अमेरिकाई आका क्या यही संदेश भारत सहित संसार की पूरी मानवता को नहीं देना चाहते?
इन बदलावों ने एक ओर जहां भारतीय समाज के आर्थिक रूप से उन्नत हो चुके या हो रहे तबकों एवं उसके पीछे लालसाओं की खाली झोलियां उठाए दौड़ते विशाल मध्यमवर्ग के लिए जहां सुखवाद की बयार बहा दी है, वहीं दूसरी ओर जीवन की बुनियादी जरुरतों के लिए जूझती अधिकांश जनता को अधिकाधिक वंचित करते चलने की प्रक्रिया को तेजी दी है। उन्नत वर्गों का एकमात्र उद्देश्य अधिकाधिक लाभ कमाना और उसे अनवरत बढ़ाते चलना है इसे वे अपनी लागत पूंजी एवं जैसा कि वे अपने लिए कहते है-'एन्टरप्रिन्यूरशिप` पर आने वाले रिस्क फैक्टर की लुभावनी शब्दावलियों के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यही रिस्क फैक्टर सुखवाद की बयार का मूल आधार बन आता है, जो शेष समाज को विज्ञापनों और तथाकथित उपभोक्ता कानूनों के माध्यम से उपभोक्तावाद के गहरे गर्त में धकेलने की सफल साजिशें रचता है। इस लक्ष्य में पहला निशाना नौकरीपेशा मध्यवर्ग है। वस्तुत: यही मध्यवर्ग उपभोक्तामंडी की प्रथम कर्मभूमि है। यह उधार की इच्छाओं से प्रेरित प्रतिस्पर्धात्मक एवं विज्ञापनी खरीद से शुरु कर के अंतत: उस मंडी का सम्पूर्ण हिस्सा हो जाता है। उन्हें भ्रम होने लगता है कि वे सम्पन्नता का हिस्सा होते चल रहे हैं तथा शिखर पर बैठे उन्नत वर्ग तक उनकी पहुंच अब ज्यादा दूर नहीं है। जनता के वोट से चुनी हुई सरकारें जो वस्तुत: उस उन्नत वर्ग की हित रक्षक और प्रतिनिधि हैं वे भी इस मध्यवर्ग को लगातार उपभोक्ता मंडी की चकाचौंध में शामिल होने का निमंत्रण देती रहती हैं। व्यापक पैमाने पर यह मध्यवर्ग इन सरकारों की फिजूल खर्चियों को पूरा करने के लिए टैक्स का ढांचा उपलब्ध करवाता है। (बहुधा तो इन सरकारों के पास शराब का बिक्री-टैक्स मात्र ही उनके उड़नखटोलों को उड़ाए रखने का इंतजाम करता है) धर्म और जाति की राजनीति ने मध्यवर्ग को पक्के वोट बैंकों के रूप में स्थापित करवा ही डाला है इसलिए आर्थिक नीतियां उनके जीवन से क्या खिलवाड़ कर रही हैं इस पर उनका ध्यान पल भर के लिए भी नहीं जाता। महंगाई पर जो मनोरंजक चर्चाएं होती और सुनी जाती हैं उनका महत्व भी धर्म और जाति की राजनीति तक ही सीमित है।
इस सामाजिक स्थिति की व्युत्पत्ति के साथ नेहरू युग में स्थापित सामाजिक कानूनों के नकारा हो जाने का ढोल अब खूब पीटा जा रहा है क्योंकि इनकी मूलभावना वंचित तबकों को न्याय दिलवाने की रही है जबकि आज का भ्रमित राजनैतिक यथार्थ और उसकी नवबाजारवादी अर्थनीतियां भूख, गरीबी, वंचना, बेरोजगारी और साधनहीनता के आस्तित्व को स्वीकार करने से ही इन्कार करती हैं। उनके लिए बेहतर साधन, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और इस प्रकार भविष्य के जीवन की कोई गारंटी नहीं है। व्यक्तिगत और सामाजिक तौर पर उनके होने तक के सारे अर्थ छीन लिए गए हैं। यह तीसरी दुनिया के भीतर एक और तीसरी दुनिया है, जो असल में छठी दुनिया का निर्माण करती है। यह मानवीय दशा असल में राष्ट्रराज्य से सुशासन चाहती है किंतु वर्तमान व्यवस्थाएं जिसे 'गुड गवर्नेंस` कहती हैं, उसकी तो शुरुआत ही सोच के उस बिन्दु से होती है जहां से यह छठी दुनिया दिखती ही नहीं। अच्छा शासन कौन नहीं चाहता। यह तो आदिम मानवीय इच्छा रही होगी कि हर व्यक्ति ऐसी व्यवस्था में जिए जहां वह स्वतंत्र हो, आर्थिक रूप से मुक्त, अपना मनपसंद जीवन जीने के योग्य बने। जब से सामूहिक और सामाजिक जीवनवृत्तियों का उद्भव हुआ है मनुष्यमात्र यही चाहता रहा होगा। लेकिन आज के इस 'गुड गवर्नेंस` की अर्थ ध्वनि अनिवार्यत: सामूहिक क्रियाओं के ऐसे संगठनात्मक कामों के रूप में सुनी जा रही है जिसमें समाज के सामान्य उद्यमों का प्रबंधन निजी हाथों में पूरी तरह सौंप दिया गया हो। यूं कहने को यह सार्वजनिक और निजी, संस्थाओं और व्यक्तियों, राजनीति और अर्थनीति, सामाजिक लक्ष्यों और सर्वमान्य आदर्शों के बीच की संयुक्त सहकारिता है। इन सुंदर शब्दों के पार यह भली भांति महसूस किया जा सकता है कि आज की इस भूमंडलीकृत उत्तर आधुनिक दुनिया के पोल में इस क्रिया-कलाप को भले ही इन अनवरत प्रयासों के रुप में देखे जाने का आग्रह हो, लेकिन यह सारे भ्रमपूर्ण माध्यम समाज के विभिन्न वर्गों के परस्पर विरोधी आर्थिक व सामाजिक हितों को एकीकृत नहीं कर सकते, चाहे वे ऐसे लाखों-लाख दावे ही क्यों न करते चलें। कहा जाता है कि इस राष्ट्र-राज्य की तमाम आधुनिक व्यवस्थाएं ऐसे अनिवार्य संस्थागत उपाय कर रही हैं जो बहुत से अनिवार्य क्रियाकलाप अनुमोदित और निर्देशित करेंगी तथा अन्य का विरोध भी करेंगी जिनके माध्यम से समाज के विभिन्न वर्गों के झगड़े और विवाद निपटाए जा सकेंगे। इन भ्रमपूर्ण वक्तव्यों का वही अर्थ निकलता प्रतीत होता है जो समतामूलक समाज स्थापित करने में जुटी ताकतों का हो सकता है। किन्तु यह बहुत सतही यथार्थ है। गवर्नेंस की पूरी प्रक्रिया कानूनी-साधनत्व के माध्यम से अधिकार और कर्त्तव्यों का निर्धारण करती है लेकिन आज की यह 'गुड गवर्नेंस` असल में उसी कानूनी साधनत्व को नष्ट-भ्रष्ट कर रही है ताकि वंचित तबकों को इतना कंडीशंड कर दिया जाए कि उन्हें जीने के न्यूनतम साधनों की दरकार ही महसूस न हो। उन्हें लगे कि वे जिस भी हालत में हैं वह उनके कर्मों और भाग्य का फल है। इस प्रकार के निहित उद्देश्यों के लिए 'गुड गवर्नेंस` की शब्दाबलियां गढ़ी जानी हैं। पहली नजर में मनमोहक दिखने वाले इन शब्दों की व्याख्या के लिए जो अन्य उपकरण परोसे जाते हैं वे अपने इस मूल से भी ज्यादा मनमोहक हैं। जैसेे-सेवा की अपेक्षा जनसशक्तिकरण की ओर; नाव की तरह खेने की बजाए मार्ग दिखलाए जाने की ओर, इलाज की बजाए परहेज की ओर, खर्च की अपेक्षा आय की ओर.... कहा जा रहा है कि शासन की प्रक्रिया में दक्षता लानी होगी, खर्च कम करना होगा, समय का उपयोग करना होगा, जवाबदेही लानी होगी, जिम्मेदारी और पारदर्शिता स्थापित करनी होगी। इस नवउदारवाद की स्थापित मान्यता है कि इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सरकारों के संचालन में बाजारवादी प्रक्रियाओं का प्रवेश करवाना होगा। तो इस तमाम सौंदर्यपूर्ण शब्दाबली का अंतिम लक्ष्य 'बाजारवादी प्रक्रियाएं` हैं। अब राष्ट्र-राज्य की तमाम सरकारें उपभोक्तावादी हितों से परिचालित होंगी, बाजारोन्मुख होंगी और यह नया जनप्रशासन इन्हें प्रबंधकर्त्ता के रूप में स्थापित करेगा। आय का श्रोत बाजार होगा तो यह प्रबंधन उसी के हित से संचालित होगा। जो भूखे-नंगे बाजार से बाहर होंगे, उनके लिए 'गुड गवर्नेंस` के दायरों में प्रवेश की अनुमति का सवाल फिर उठेगा ही कहां से? वे बेचारे न तो उपभोक्ता हैं, न लाभांश अर्जित और अधिकाधिक बढ़ाने वाले, न टैक्स दे सकने वाले... उनके पास है क्या जो राष्ट्र-राज्य उनके बारे में सोचे। राष्ट्र-राज्य तो 'गुड गवर्नेंस` देने में जुटी संगठित शक्ति है। उसकी इस शक्ति पर भला कौन उंगली उठाएगा।
उसके पीछे संयुक्त राष्ट्र यानी संयुक्त राज्य की भौंहें तनी हुई हैं। उसके बाहर यह क्या कर पाएगा। इसलिए पुरस्कारों की होड़ में शामिल हो जाइए। संयुक्त राष्ट्र का परिपत्र आप-हम सबको ललकार रहा है।
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