- स्वतंत्र मिश्र
संसद ने प्रलोभन में फंसे अपने सदस्यों की सदस्यता रद्द कर दी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ समय पहले अपनेफैसले में संसद के इस कदम को सही ठहराया था। अब सवाल यह है कि अगर सांसदों को फंसाने के क्रम में स्टिंगआपरेशन को सार्वजनिक हित के साधन के रूप देखा गया तो 'जी` न्यूज ने जो किया, उसे उससे अलग कैसे देखाजा सकता है ? क्या सिर्फ इसलिए कि इस बार न्यायपालिका स्वयं कठघरे में खड़ी है।
सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने उच्च शिक्षा में आरक्षण को निरस्त करने के आदेश से पहले, कहा था कि 'भ्र टाचारियों को लैंप पोस्ट (बिजली के खंभे) से लटका दिया जाना चाहिए।` उससे पहले सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने संसद को सूअरबाड़ा कहा था। इस तरह की बयानबाजी का अधिकार संविधान में कहीं उल्लिखित नहीं है। सर्वविदित है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पद संवैधानिक है। इस सूरत में न्यायधीशों द्वारा ऐसी बयानबाजी का कोई मतलब नहीं है। इस तरह की बयानबाजी न्यायपालिका के सामंती होने की हदों को बताता है। दरअसल भ्र टाचार पूंजीवादी व्यवस्था को जीवित रखने का एक औजार है। जब तक पूंजीवाद जिंदा है तब तक भ्र ट्राचार की मुक्ति का सपना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है। एक महत्वपूर्ण बात यह कि भ्र टाचार को कभी भी दंडात्मक तरीके से रोका नहीं जा सकता है, इसकी वकालत 'पाप और विज्ञान` के लेखक कार्टर भी करते हैं। अपनी पुस्तक में कार्टर बताते हैं कि किस तरह से पाप को खत्म करने के लिए विज्ञानसम्मत तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है। सोवियत रूस में वैज्ञानिक विधि से चलकर वहां व्याप्त वैश्यावृति, रिश्वतखोरी और बलात्कार जैसे (पूंजीवादी व्यवस्था में जधन्यतम अपराधों की श्रेणी में रखा जानेवाले) अपराधों पर लगभग पूरी तौर पर नियंत्रण पाया जा सका था। अन्यथा पूंजीवादी व्यवस्था ज्यों-ज्यों अपनी उग्रता पर उतर रहा है त्यों-त्यों भ्र टाचार कमने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। इसे आप व्यवस्था विद्रोह या असंतोष या अपनी मांग को लेकर चलाये जा रहे धरना, प्रदर्शन, आंदोलनों को पुलिस प्रशासन द्वारा बर्बरता से कुचलने के क्रम में देख सकते हैं। व्यवस्था के प्रति असंतोष को भी न्यायपालिका एक प्रकार का भ्र टाचार मानती है। यह उसके फैसलों या निर्देशों में आप देख सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय ने बीते कुछ सालों में कई फैसले ऐसे दिये हैं जो आमजन के विरोधी हैं। यहां सवाल यह उठता है कि क्या आम जनता के हितों की उपेक्षा कर मसलन, रोजी-रोटी छीन लेने वाले फैसलों से भ्र टाचार में कमी आ सकती है? उदाहरण के तौर पर दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दिल्ली के प्रसिद्ध चांदनी चौक इलाके में रिक्शा का परिचालन बंद करना, रेहड़ी-पटरियों पर दुकानदारी समाप्त करनेे का दिल्ली पुलिस को आदेश देना, फुटपाथ पर हेलमेट बेचने का अधिकार का छिना जाना जैसे तमाम फैसले से जब बेरोजगारी बढ़ेगी और उससे जो भ्र टाचार, अपराध बढ़ेगा तब उसकी जिम्मेवारी क्या न्यायपालिका अपने ऊपर लेगी? भ्र टाचार पैदा करने के लिए सीधे तौर पर दो ऐसी न्यायिक व्यवस्था के पक्षधर क्या नीर-क्षीर विवेक संपन्न न्याय देने की स्थिति में अपने को पायेंगे? दरअसल ऐसे फरमान आम जनता में भ्रम और खौफ पैदा करने की मकसद से दिये जाते रहे हैं। पूंजीवाद ऐसे नारों को उस समय सामने ला रहा है जब आम जनता का विधायिका, और कार्यपालिका पर से भरोसा उठ सा गया है। आम जनता की आस्था न्यायपालिका में थोड़ी बची हुई है। इसी आस्था का लाभ पूंजीवाद उठाना चाहता है। एक जन संगठन द्वारा कुछ साल पूर्व कराये गये एक सर्वेक्षण का नतीजा यह आया कि न्यायपालिका जनता के पक्ष में फैसले देती है। यही कारण है कि कई ऐसे निर्देश न्यायपालिका द्वारा जारी करवाये जा रहे हैं, जो सीधे तौर पर कार्यपालिका या विधायिका के अधिकार के अन्तर्गत आते हैं। यही कारण है कि अब कहा जा रहा है कि देश को न्यायपालिका चला रही है। इस संबंध में बोर्ड परीक्षा, हेलमेट बिक्री, रिक्शा, तांगा परिचालन पर रोक संबंधी दिये गये निर्देश को देखा जा सकता है। लेकिन अब हालात बदले हैं। यह राज अब खुलने लगा है कि न्यायपालिका किस वर्ग की पक्षधर है। अकारण नहीं है कि जनता का न्यायपालिका से भी भरोसा डगमगाने लगा है। पांच-छह साल पहले सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ नारेबाजी की इक्की-दुक्की घटना को अगर छोड़ दिया जाये तो ऐसी घटना शायद ही आपको देखने को मिलेगी। परंतु आज की तारीख में जंतर-मंतर, नई दिल्ली से लेकर सभी राज्यों की राजधानियों के धरना स्थलों पर ऐसा आपको देखने-सुनने को रोज मिल जायेगा। पिछले दिनों क्रीमीलेयर संबंधी न्यायपालिका के अभिमत पर बिहार के दलित विधायकों का उग्र प्रदर्शन चर्चा में रहा था। न्यायपालिका अपनी बिगड़ती छवि को लेकर परेशान है। देश में बढ़ते भ्र टाचार की दवा उसके निर्देश नहीं साबित हो पा रहे हैं। दरअसल ऐसे कड़े निर्देश देकर वह अपनी बिगड़ती छवि पर पर्दा डालना चाहती है। निम्नलिखित उद्धरणों के जरिये इसे समझा जाना आसान होगा। थोड़े समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने 'जी` न्यूज चैनल और उसके संवाददाता विजय शेखर को नोटिस जारी कर दिया। मामला पैसा देकर वारंट जारी कराने का था। न्यायालय ने चैनल और संवादादता से यह जानना चाहा कि उनके खिलाफ मुकदमा क्यों नहीं चलाया जाना चाहिए? सर्वविदित है कि कुछ समय पहले 'जी` समाचार चैनल के संवाददाता ने अहमदाबाद के एक वकील को ४०,००० रुपये देकर गुजरात की एक अदालत से रा ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम और तात्कालिक प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी.पी.सिंह और एक वरि ठ वकील के खिलाफ वारंट जारी करवा दिये थे। इसका मकसद न्यायपालिका में व्याप्त भ टाचार को बेनकाब करना था। लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि ऐसी शरारत के जरिये निचले स्तर पर न्यायपालिका की छवि खराब करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। यह मामला काफी कुछ सांसदों को सवाल पूछने के लिए घूस देने जैसा है। संसद ने प्रलोभन में फंसे अपने सदस्यों की सदस्यता रद्द कर दी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ समय पहले अपने फैसले में संसद के इस कदम को सही ठहराया था। अब सवाल यह है कि अगर सांसदों को फंसाने को एक सार्वजनिक हित के साधन के रूप में स्टिंग आपरेशन को देखा गया तो 'जी` न्यूज ने जो किया, उसे उससे अलग कैसे देखा जा सकता है? क्या सिर्फ इसलिए कि इस बार न्यायपालिका स्वयं कठघरे में में खड़ी है। सर्वोच्च न्यायालय के कई पूर्व न्यायाधीश निचली अदालत में भ्र टाचार की मौजूदगी को स्वीकार कर चुके हैं। ऐसे में अगर समाचार माध्यम के किसी हिस्से ने उसी बात को साबित करने के लिए स्टिंग आपरेशन किया तो उसे न्यायपालिका के निचले स्तर की छवि गिराने की शरारत कैसे माना जा सकता है? क्या सर्वोच्च न्यायालय अपने ही उन पूर्व न्यायधीशों पर अवमानना चलाना चाहेगा, जिन्होंने न्याय व्यवस्था में भ्र टाचार की स्वीकारोक्ति की थी?
युवा लेखक स्वतंत्र मिश्र विभिन्न समाचार पत्रों के लिए सामयिक विषयों पर लिखते हैं।
No comments:
Post a Comment