October 8, 2009

छोड़ दो





  • प्रणय प्रियंवद 


छोड़ दो थोड़ा-सा दूध थनों में
गायों के बच्चों के लिए
पेड़ में कुछ टहनियां छोड़ दो
नई कोपलों के आने के लिए
थोड़ी-सी हवा छोड़ दो
गर्भवती स्त्रियों  के लिए
थोड़ा सा जल
मछलियों के लिए

थोड़ा-सा कागज
और रोशनाई थोड़ी-सी
पहली बार प्रेम करने वाली
लड़कियों के लिए।




गेट न.-६, केशवपुर, जमालपुर, मुंगेर, बिहार. मो.-९४३१६१३७८९

आत्महंता किसानों के लिए


  • मोहन साहिल 


देखो
अभी-अभी सरसो के पीले फूलों पर
आया है भंवरा
खामोश उदास तितलियां
फड़फड़ा उठी हैं
मरने की बात अभी मत सोचो

आम की डालियों पर आ गया है बौर
दूध उतर आया है गेहूं की बालियों में
मत करो ऐसे में मरने की बात
खेतों की यह मिट्टी
कितना जहर पीकर भी जिंदा है
हर कतरा उसका
जीवन उगाने को तत्पर

देखो
इस मिट्टी ने तुम्हारे छाले सहलाने को
उगाए हैं कपास के नर्म फूल
मिठास से भर दिया है गन्ना।


 शाली बाजार, ठियोग, जिला : शिमला. मो.-९८१७०१८०५२

भूलना


  • कल्लोल चक्रवर्ती 


मैं अक्सर भूल जाता हूँ अपना छाता
कलम और रूमाल
दफ्तर जाते हुए भूलता हूँ
कई छोटे-छोटे काम।
कई बार बस पर बेध्यानी में भूलता हूँ
अपना स्टॉप
और उतरकर मुड़ता हूँ पीछे।
ऑफिस में अचानक कई महीने बाद पता चलता है
कि पुराना चपरासी नौकरी छोड़ गया है
और ठीक वैसी ही लाचारी लिए
जो मुसकराता हुआ चेहरा सामने है
वह उसका स्थानापन्न है।
भूलना कोई बीमारी नहीं है
यह दरअसल हमारी प्राथमिकता पर निर्भर करता है
कि किसी चीज का हमारे लिए कितना महत्व है।
जैसे इतने बरस बाद मैं नहीं भूल पाता
पहली कक्षा के सखा कन्हैया का चेहरा
जिसने माचिस की डिब्बी में
एक कौड़ी भेंट की थी मुझे।
जैसे लगातार नौकरियां बदलते रहने के बावजूद
अपने क्रूर मालिकों के चेहरे मुझे याद हैं।


जी-१, १/२२, राजेंद्र नगर, सेक्टर-५, साहिबाबाद, उत्तर प्रदेश. मो.-९९७१५८६११८

एकांत




-विक्रम मुसाफिर


१.

भय की संकरी गली
नि:शब्द है
यातना शिविरों से
कूच कर गये हैं पूर्वज
चेतनाहीन उदास पहाड़
पगडंडियां चुन रहे हैं
अथाह मौन
क्षितिज के घुटनों पर
पनप रहा है
पत्थरों की नसों में
धधक रहा है प्रणय
विरह की चारागाहों में चुपचाप
उतर आया हूं मैं
एकान्त के जलस्रोतों में बहकर।

२.
स्मृति के पिरामिड में
मेरा एकांत
भटकता रहा
अन्वेषक प्रेत की तरह।


ग्राम-पो-श्रीवन, ठियोग, जिला : शिमला, हिमाचल प्रदेश

डेमोक्रेसी के इस राज में


- लनचेनबा मीतै



मणिपुरी कविता/अनुवाद : जगमल सिंह                

गड्ढे में नाले में कीचड़ है
राजपथ सना है कीचड़ से
पड़ा कूड़े का ढेर सब दरवाजों पर
अस्पताल भी बना है
कूड़े का ढेर।

बाजार में होता, सामानों का मोल-भाव
ऑफिस में भी होता नौकरियों का मोल-भाव
एल.पी.स्कूल में लड़ते हैं बच्चे
एसेम्बली हॉल में लड़ते हैं विधायक।
गली-गली में चोरी करते हैं लोग
राजमहल में भी चोरी करते हैं अधिकारी।
अधिकारियों द्वारा पकड़े गए जन-साधारण पर
पहरा देते हैं पहरेदार।
अधिकारी और राजा का भी
पहरा देते हैं पहरेदार।
वेश्याएं बेचती हैं वासनायुक्त शरीर
जिन्हें खरीदते हैं राजा और अधिकारी

यहां है डेमोक्रेसी का शासन
जिसकी है-एक ही रीति
जिसका है एक ही स्वरूप।

अनुवादक : २/४८, प्रताप नगर, व्यावर, राजस्थान-३०५९०१. मो.-९४१३९५०११७