December 10, 2007

सामाजिक न्याय की सत्ता संस्कृति

देशकाल

  • अनिल चमड़िया

लालू प्रसाद डा. वेणु गोपाल को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में निदेशक बनाए रखना चाहते हैं। उन्होंने अपने सांसदों को डा. वेणुगोपाल के विरोध में संसद में कुछ भी बोलने से मना कर दिया। सभी जानते हैं कि डा. वेणुगोपाल ने पूरे देश में भारत सरकार के इस संस्थान को आरक्षण विरोध का अखिल भारतीय केन्द्र बनाने में भरपूर सक्रियता दिखाई।


दिल्‍ली के हिंदी समाचार पत्रों ने महाराष्ट्र में पिछड़ा गांव खैरलांजी में दलित परिवार के चार सदस्यों की नृशंस हत्या को हरसंभव नजरअंदाज किया। उत्तर भारत के दलित और पिछड़े नेताओं में भी कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी। जबकि महाराष्ट्र के कई जिलों में इस हत्याकांड को लेकर लगातार संघर्ष हुआ। पुलिस ने गोलियां चलाई। कफ्र्यू लगा। दलित हत्याकांड के विरोध में संघर्ष का एक नया रूप देखने को मिला। इससे पहले ऐसा संघर्ष पंजाब में तलहण की घटना के बाद मिला था। खासतौर से हिंदी मीडिया में यह रूखापन क्यों है? यह सवाल सभी के सोचने के लिए छोड़कर कुछ दूसरे पहलूओं को विचार के लिए रखता हूं। बेलछी से खैरलांजी तक दलितों की हत्या में पिछड़ी जातियों के दबंग समूह की भूमिका दिखाई दे रही है। दलितों पर कई बड़े आक्रमणों में हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिक विचारधारा के संगठनों, भारतीय जनता पार्टी और शिव सेना जैसों की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भूमिका होती है। राजस्थान के कुम्हेर, हरियाणा के गोहाना और महाराष्ट्र के खैरलांजी में घटनाएं उस समय घटी हैं जब वहां से संसद और विधानसभा का स्थानीय प्रतिनिधि भारतीय जनता पार्टी का रहा है। महाराष्ट्र के खैरलांजी में हत्याकांड के बाद शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी्र ने विरोध में अपनी प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की। प्रसंगवश यहां उल्लेख करना जरूरी है कि गुजरात में संघ परिवार ने अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमलों में पिछड़ी और दलित-आदिवासी जातियों का जमकर इस्तेमाल किया है। दलितों में खासतौर से वाल्मीकि जाति को साम्प्रदायिक आधार पर अपने घेरे में लेने की कोशिश संघ परिवार कर रहा है। राष्ट्रवादी कांग्रेस से जुड़े गृहमंत्री आर आर पाटिल ने दलितों के आंदोलन को कानून एवं व्यवस्था के लिए गंभीर साबित करने के इरादे से उसे नक्सलवादी प्रभावित बताया। दो महीने तक हत्यारों के खिलाफ कार्रवाई से बचाने की कोशिश की जाती रही। जबकि स्थानीय स्तर पर कई दलित पुलिस अधिकारी तैनात थे लेकिन उन्होंने भी खुद को असमर्थ पाया। राष्ट्रवादी कांग्रेस वहां बाल ठाकरे की राजनैतिक विरासत को लेकर छिड़े पारिवारिक विवाद के कारण शिव सेना के समर्थकों में अपनी जगह बनाना चाहती है। इसके लिए वह पिछड़े मराठों को अपना समर्थक बनाने की हर संभव कोशिश कर रही है। राष्ट्रवादी कांग्रेस में एक साम्प्रदायिक धारा के प्रति झुकाव इसके स्थापनाकाल से ही देखा जा रहा है।

यहां केवल स्थिति का बयान सूत्र रूप में इसीलिए किया जा रहा है ताकि जातियों के बीच राजनैतिक विचारधाराओं के संबंध के उभरते एक पूरे राजनैतिक परिदृश्य को देखा जा सके। एक तरफ ये स्थिति है तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में 'तिलक तराजू और तलवार उनको मारो जूते चार` कहने वाली बहुजन समाज पार्टी ब्राह्मण सम्मेलन कर रही है। अब नारा लग रहा है कि 'तिलक तराजू और तलवार, हो गए हैं हाथी पर सवार`। हाथी बहुजन समाज पार्टी का चुनाव चिह्न है। मायावती जी ने उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकायों के चुनाव के बाद यह बताया कि उन्होंने अपना वोट भाजपा और कांग्रेस की तरफ ट्रांसफर करा दिया। ऐसा उन्होंने एक मुसलमान उम्मीदवार को हराने के लिए किया। अतीत में बहुजन समाज पार्टी भाजपा के साथ सरकार बना चुकी है। वहां पिछड़े दलितों में लगातार दूरी बढ़ती चली गई है। मुलायम सिंह के साथ मिलकर बहुजन समाज पार्टी ने एक बार सरकार बनाई और उसके बाद आगे कभी राजनैतिक यात्रा साथ-साथ नहीं हो सकी। सौ में नब्बे शोषित हैं नब्बे भाग हमारा है। सौ में नब्बे का यह आंकड़ा कई रूपों में सामने आता रहा है। लेकिन उसका सार यही समझा जाता रहा है कि सौ में पिछड़े, दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों की ताकत का यह आंकड़ा है। लेकिन नब्बे के बाद इस तरह के गठजोड़ की राजनीति खत्म हो गई। पचास सालों से यह गठजोड़ बनाने की कोशिश कई स्तरों पर चलती रही। लेकिन न जाने कब बनी और कब तक चली और अब उसकी संभावना लगभग समाप्त भी हो गई। हो सकता है कि यह नब्बे प्रतिशत का नारा आर्थिक आधार पर फिर से मुखर हो। बहरहाल आज हर पिछड़ा और दलित नेता अपनी अगुवाई में सवर्णों को साथ करने के लिए आतुर है। मुलायम सिंह यादव ऐसा गठजोड़ बनाना चाहते हैं कि सवर्णों के बीच जातीय मतभेद को चुनाव जीतने में इस्तेमाल किया जाए। रघुऱ्यदु भाई भाई उनका नारा है। लेकिन यहां जातीय स्तर पर सवर्ण और पिछड़ा के किसी हिस्से को जोड़कर चुनावी गणित तैयार करने का सवाल नहीं है। नये जातीय समीकरण एक विचार धारा के करीब होने के लिए भी अभिशप्त होते हैं। भारतीय समज में जाति के साथ विचार और संस्कृति जुड़ी है। जाति विभेद को खत्म कर अपनी संस्कृति और विचारों को स्थापित करने के लिए सत्ता की प्राप्ति नब्बे वाले नारों का उद्देश्य रहा है। लेकिन मुलायम सिंह को भाजपा की तरफ कई बार झुकते देखा जाता है। उन्हें मुसलमानों का समर्थन लेने के लिए इस्लामिक कट्टरपंथ को हवा देने की जरूरत महसूस होती है। उनके मंत्रिमंडल के मुस्लिम सदस्यों द्वारा जारी फतवों आदि को देखा जा सकता है। यानी जातिभेद मिटाने की राजनीति या तो किसी न किसी कट्टरपंथ की तरफ जाने की नियति में पहुंचती है या फिर उद्योगपति अंबानी के कमरे की तरफ बढ़ जाती है। ये बात किसी एक पिछड़े नेता की नहीं है। जनता दल (यू) तो भाजपा के साथ मिलकर बिहार में सरकार ही चला रही हैं।

लालू प्रसाद के हाल के दो तीन किस्से यहां पेश करता हूं। शिक्षण संस्थानों में क्रीमिलेयर को आरक्षण नहीं दिए जाने की बात जब हो रही थी तो लालू प्रसाद ने उसका विरोध नहीं किया। संसद में अपने सांसदों को ऐसी आवाज उठाने से मना कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने इस तरह समझाने की कोशिश की है कि क्रीमिलेयर की व्यवस्था से दक्षिण के पिछड़ों को नुकसान होगा। देखने में ये लग सकता है कि वे पिछड़ों के बारे में केवल हिंदी पट्टी और खासकर बिहार के संदर्भ में सोचते हैं। लेकिन ये क्षेत्र विशेष के पिछड़ों का निषेध नहीं है। यह सिद्धांत से दूर जाने का सिद्धांत है। इसे आगे से कुछ उदाहरणों से विश्लेषित किया जा सकता है। लालू प्रसाद डा. वेणु गोपाल को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में निदेशक बनाए रखना चाहते हैं। उन्होंने अपने सांसदों को डा. वेणुगोपाल के विरोध में संसद में कुछ भी बोलने से मना कर दिया। सभी जानते हैं कि डा. वेणुगोपाल ने भारत सरकार के इस संस्थान को आरक्षण विरोध का अखिल भारतीय केन्द्र बनाने में भरपूर सक्रियता दिखाई। विरोध के सारे इंतजाम किए। उनके कार्यकाल में डा. आम्बेदकर के साहित्य को आरक्षण विरोधियों ने संस्थान के परिसर में जलाया। दलित छात्रों के साथ हर संभव भेदभाव किए गए। वेणुगोपाल ने दलित विरोधी विद्यार्थियों के उत्पीड़न के आरोपियों को कोई दंड नहीं दिया। उनके कार्यकाल में आरक्षण की व्यवस्था का भी घोर उल्लंघन हुआ। ये सभी बातें लालू प्रसाद जानते हैं। इसी कड़ी में समाचार एजेंसी यूएनआई को जीटीवी के मालिक सुभाष चंद्रा द्वारा हड़पने की कोशिश में लालू प्रसाद के सहयोग को भी ध्यान में रखना चाहिए। कंपनी मामलों के मंत्रालय के सहयोग के बिना यह संभव नहीं था। पनैतालीस साल से यह सहकारी संस्था पूरी दुनिया में समाचार भेज रही है और इस पर कभी किसी एक मालिक का नियंत्रण संभव नहीं हुआ। हो भी नहीं सकता क्योंकि इसका ढांचा इस तरह से विकसित ही किया गया है जिससे किसी भी तरह के दबाव से मुक्त होकर यह समाचार एजेंसी खबरों को प्रसारित कर सके। लालू प्रसाद ने इसमें जीटीवी के मालिक का सहयोग किन रूपों में किया यह उल्लेखनीय नहीं है। बल्कि राजनैतिक स्तर पर उनके रूख से इसके संकेत मिल सकते हैं। यूएनआई कैम्पस में सुभाष चंद्रा द्वारा संस्थान को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश के विरोध में आंदोलन चल रहा है। देश की लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों ने इसमें हिस्सा लिया और सुभाष चंद्रा के कब्जा जमाने की योजना का खुलकर विरोध किया। केवल लालू प्रसाद की पार्टी की ओर से इस आंदोलन में भाग लेने के लिए कोई नहीं आया। बल्कि उनके सांसदों ने बताया कि उन्हें रेल भवन से हरी झंडी नहीं मिल रही है। लालू प्रसाद की इस लाल झंडी के रंग को बड़े बारीक तरीके से देखना होगा। आजकल एक रंग में कई रंग आ गए हंै। लाल रंग में जो बहुत तरह के नये नये लाल होते हैं, आम लोगों द्वारा उन रंगों के नाम तक ठीक-ठीक बता पाना संभव नहीं होता है। लालू प्रसाद जैसे नेता इसी का लाभ उठाते हैं। यह संस्कृति और विचार के साथ समझौते का रंग है। यह गंभीर बात नहीं है कि उन्होंने रेल मंत्रालय को लाभप्रद कंपनी के रूप में चलाया और एक दूसरी कंपनी के मालिक सुभाष चंद्रा का वे सहयोग कर रहे हैं। गंभीर बात यह है कि सुभाष चंद्रा के राजनैतिक उद्देश्यों को समझते हुए लालू प्रसाद सहयोग का रूख अपनाए हुए हैं। सुभाष चंद्रा राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के कट्टर समर्थक माने जाते हैं। उन्होंने खुद आगरा में पांच साल पहले कहा था कि वे बचपन से संघ की शिक्षा लेते रहे हैं। उन्होंने भगवा रंग के सामने अपना सिर झुकाया और संघ को पूरा सहयोग देने का भरोसा दिलाया। यह भी सभी को पता है कि संघ हिंदी पट्टी में अपना प्रभाव बनाए रखने की हरसंभव कोशिश कर रहा है। वह मीडिया का सबसे ज्यादा दुरूपयोग करता है। उन्होंने पहले हिन्दुस्थान समाचार को जमाने की बहुत कोशिश की थी। लेकिन यह समाचार एजेंसी जम नहीं सकी। लिहाजा ऐसी किसी एजेंसी की जरूरत उसे है जिसकी निष्पक्षता की साख हो। लालू प्रसाद चुनाव जीतने के लिए यदि सामाजिक न्याय करते हैं और सरकार चलाने में मैनेजमेंट गुरू को जरूरी समझते हैं तो यह एक गंभीर और खतरनाक राजनैतिक संकट का सूचक है। चुनाव में गांव गंवई भाषा और सत्ता में अभिजात्य संस्कृति को अपनाना उनके दोहरे चरित्र का सूचक है। यह बात लगभग सभी पिछड़े नेताओं के साथ लागू होती है। अपने समाज के विचारों, मूल्यों और संस्कृति को सत्ता में स्थापित करते ये क्यों नहीं दिखते हैं? सत्ता संस्कृति के सामने उन्हें आत्म समर्पण करते देखा जाता है। भारतीय संदर्भ में ये बात स्पष्ट हो चुकी है कि वर्णवादी व्यवस्था से साम्प्रदायिकता निर्मित होती है। साम्प्रदायिकता को जातिवादी व्यवस्था का अब तक नेतृत्व करने वाली शासक जातियां अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए जरूरी समझती रही हैं। पिछड़े नेता या दलित यदि ये समझते हों कि उनका मकसद केवल वर्णवादी व्यवस्था का नेतृत्व अपने हाथों में लेना है तो साम्प्रदायिकता खत्म होते नहीं दिखती है। पिछड़े और दलित नेताओं के उल्लेखित रूख भी इसी तरफ संकेत कर रहे हैं। ये भी कहा जा सकता है कि पिछड़े और दलित यानी सामाजिक न्याय का नारा सत्ता में जाने का एक तरीका भर है। वास्तव में वे सत्ता संस्कृति का स्वयं नेतृत्व करना चाहते हैं। इसीलिए वे अभिजात्य भी हो जाते है। पिछड़े और दलित जातियों पर एक दूसरे के हमले को संरक्षित करने लगते हैं। सामाजिक न्याय के नाम पर बनने वाली सत्ताएं पहले की सत्ताओं से अलग नहीं दिखती हैं । वे विकास के मॉडल को भी उसी रूप में स्वीकार कर लेते हैं। मैनेजमेंट और आर्थिक लाभ उनकी सत्ता का लक्ष्य हो जाता है। यह सामाजिक न्याय की विचारधारा के कई धाराओं में बंटने, एक दूसरे के खिलाफ खड़े होने और एक दूसरे के खिलाफ हमलावर होने की स्थितियों को समझने के कुछ सूत्र हैं । शायद इन पर विचार करना जरूरी हो।



विभिन्न शोध-अध्ययन कार्यक्रमों से जुड़े अनिल चमड़िया अपनी स्वतंत्र टिप्पणियों के लिए चर्चित हैं।

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