- अनिकेत
रासायन एवं उर्वरक मंत्री राम विलास पासवान ने हाल ही में एक पत्रकार को साक्षात्कार देते हुए कहा कि उनके अपने गांव में आज भी १० रुपये और २० रुपये की दवा नहीं जुटा पाने की कुव्वत के कारण लोग दम तोड़ देते हैं। वह बहुत मर्म से भरकर बयानबाजी कर रहे थे। उनका कहना था कि दवा, चिकित्सा व्यवस्था नहीं कर पाने के कारण बेटा के गोद में बाप और बाप के गोद में बेटा दम तोड़ देता है। वह सच कह रहे थे; परन्तु मैलोड्रामेटिक होकर। दरअसल ये बातें वह स्वयं द्वारा गांधी जयन्ती २ अक्टूबर २००६ पर की गयी घोषणाओं के आलोक में कह रहे थे।
यहां उनके द्वारा किये गये घोषणाओं का उल्लेख कर लेना जरूरी होगा। पहली घोषणाओं उन्होंने गांधी जयन्ती पर २ अक्टूबर को यह की कि यू.पी.ए. सरकार अनेक दवाओं की कीमतें घटायेंगी ताकि आम आदमी के स्वास्थ्य की बेहतरी हो सके। बाद में उन्होंने ८८६ दवाओं की एक सूची जारी की। इन दवाओं में दर्द निवारक से लेकर मधुमेह नियंत्रक और तमाम किस्म की प्रतिजैविक दवाओं से लेकर मनोचिकित्सा की दवाएं तक शामिल हैं। राम विलास पासवान का कहना था कि इन आवश्यक दवाओं की कीमतों में ०.२ प्रतिशत से ७४.५ प्रतिशत तक गिरावट लायी जा रही है और छ: हफ्तों के भीतर ये कम कीमत वाली दवाएं बाजार में आ जायेंगी। इन घोषणाओं के पीछे की सामाजिक, ऐतिहासिक पृ ठभूमि पर बात करने से पहले बाजार में इन दवाओं का हाल क्या है, यह सरसरी तौर पर जान लेना जरूरी होगा। उन्होंने एन्टी एलर्जिक दवा 'सिट्राजिन` की कीमत २९ रुपये से घटाकर २.५-३ रूपये करने की घोषणाओं की थी। घोषणा के ६ महीने बीत चुकने के बाद सिट्राजिन आज भी २८ रुपये में बाजार में बिक रही है। कुछ प्रतिजैविक दवाओं और कफ सिरफ के दाम में निश्चित तौर पर कम हुए हैं लेकिन हृदय संबंधी रोग और रक्तचाप की दवाओं की कीमतों में इजाफा ही हुआ है। कुल मिलाकर बाजार में जितनी दवाओं के दाम घटे हैं उसके अनुपात में बहुत सारी रोजमर्रा काम आनेवाली दवाओं की कीमतों में आसमान छूती बढ़ोतरी हुई है।
भारत में लगभग ६५ करोड़ लोग ऐसी आर्थिक और सामाजिक दशाओं में जीते हैं जहां बीमार पड़ने पर या तो चिकित्सा की प्रक्रिया शुरू ही नहीं होती है या आधी-अधूरी रह जाती है। ऐसे हालात में जीने वाले लोगों में ऐसी घोषणाओं को लेकर कोई सुगबुगहाट ही पैदा नहीं होती है। दरअसल ये लोग आजादी के ६० साल में केवल घोषणाओं के सहारे ही जीते रहे हैं। इन घोषणाओं के अदद कुछ किस्से यहां प्रस्तुत करना लाजिमी होगा।
भारत दुनिया के उन देशों में आज भी शामिल हैं, जहां स्वास्थ्य के नाम पर सरकार ने केवल घोषणाएं ही मुहैया करायी है। २१वीं सदी के भारत में स्वास्थ्य सेवा का भार स्वयं मरीज के कंधों पर ही टिका है। यह भार कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। सरकार का रवैया इस क्षेत्र में निजीकरण को बढ़ावा देने का रहा है। यही कारण है कि भारत में चिकित्सा का कुल खर्च का ८० प्रतिशत सीधे मरीजों की जेब से आता है। मात्र २० प्रतिशत ही सरकार, ई.एस.आई. मार्का बीमा योजनाओं, परोपकारी संस्थाओं से पूरा हो पाता है। ५५वें दौर के रा ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार भारत में बाह्य रोगी अपनी चिकित्सा जरूरतों के लिए जितना धन खर्च करते हैं, उसमें दो-तिहाई दवाओं की खरीद पर इस्तेमाल होता है। इन हालात में रसायन एवं उर्वरक मंत्री की घोषणाएं केवल घोषणाएं न होकर जमीनी सच्चाईयों से जुड़ी होती तो निश्चित तौर पर आम-अवाम के लिए राहत की बात होती। परंतु इन घोषणाओं के पीछे का सच तो यह है कि दवाओं की कीमतों में कमी के निर्णय लेने में जो १४ सदस्यीय समिति बनी थी, उसमें ११ सदस्य दवा-उद्योग से जुड़े पूंजीपति हैं। इस निर्णय समिति में न ही कोई मरीजों का प्रतिनिधि और न ही जनपक्षधर चिकित्साकर्मी को शामिल किया गया था।
दवा की कीमत कम करने का नाटक कोई नया नहीं है। तीन दशक पहले १९७७ में ३४७ रासायनिक मिश्रण ऐसे थे, जिनसे निर्मित दवाएं (चाहे वे किसी भी व्यापारिक नाम से बेची जायें) नियंत्रित मूल्य सूची में आती थीं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इन रासायनिक मिश्रणों से बनी दवाओं के दाम इनके निर्माता अपनी मर्जी से तय नहीं कर सकते थे। यह बिल्कुल आज के संदर्भ में सरकार द्वारा बैंकों के ब्याज दर तय करने जैसा था। १९९५ तक इस नियंत्रित मूल्य सूची में केवल ७४ रासायनिक मिश्रण रह गये। २००२ में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने नई दवा-नीति की घो ाणा की। इस नीति के तहत नियंत्रित मूल्यों की दवाओं की संख्या ७४ से घटाकर ३० रसायनिक मिश्रणों तक सीमित कर दी गयी। इस जनविरोधी नीति के खिलाफ याचिका दायर की गयी थी। संयोग से सरकार की इस नयी और जनविरोधी नीति को कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले से आघात पहुंचा और जनता के हमनफस जीत गये। सन् २००३ में विशे षज्ञों के एक समूह ने आवश्यक दवाओं की रा ट्रीय सूची जारी की। इस सूची में उन्होंने ३५४ रासायनिक मिश्रण को शामिल किया। विशेषज्ञों कहना था कि ये ऐसे रसायनिक मिश्रण हैं, जिनसे भारतवासियों की अधिकांश औ आधी आवश्यकतायें मुकम्मल हो जाती हैं। वामपंथी समर्थन वाली वर्तमान सरकार खुद को जनपक्षधर सरकार बताती है। जाहिर सी बात है कि वामपंथ का दर्शन जनपक्षधरता के बगैर पूरा नहीं हो सकता है। अपने को वामपंथी कहने के लिए जनपक्षीय शब्दों का इस्तेमाल करना ही उनकी बुनियादी जरूरत बन गई है। ऐसे शब्द उनके व्यवहार का हिस्सा भले ही न बनें! जुलाई २००६ में इस सरकार के रसायन मंत्री ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सम्मुख एक मसौदा रखा। जिसमें यह प्रस्ताव रखा गया था कि आवश्यक दवाओं की रा ट्रीय सूची के ३५४ रासायनिक मिश्रणों के दाम नियंत्रण सूची के अन्तर्गत लाया जाये, अर्थात वर्तमान सूची में २८० रासायनिक मिश्रण और जोड़ दिये जायें। मालूम हो इस प्रस्ताव को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल ने खारिज कर दिया। इस मामले पर पुन: विचार करने के लिए नई समिति गठित की गयी। इस विचार समिति में १४ सदस्यों में ११ सदस्य दवा-उद्योग से संबंधित बड़े कारोबारी थे। जाहिर सी बात है पूंजीपतियों के विचार से लदी इस समिति से जनपक्षधरता की आशा नहीं की जा सकती है।
जुलाई, २००६ के प्रस्ताव में राम विलास पासवान ने मूल्य नियंत्रण के लिए जो फामूर्ला पेश किया था, वह यह था कि किसी भी दवा पर समग्र मुनाफा (उत्पादक और विभिन्न वितरकों के बीच) उसकी उत्पादन लागत पर २०० प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए। इसका तात्पर्य यह हुआ कि यदि किसी दवा निर्माता को उसके समस्त खर्च (कच्चा माल व उर्जा की कीमत से लेकर टैक्स आदि सारा कुछ) अदा करने पर दवा अगर १०० रुपये की पड़ती है तो वह उसे बाजार में ३०० रुपये की कीमत पर बाजार में मरीजों को मुहैया करायेगा। समाजवादी नेता रामविलास पासवान की यह कोई समाजवादी पेशकश नहीं थी। २०० प्रतिशत मुनाफा बहुत ज्यादा होता है। भारत की दवा कंपनी ने इतना दबाव बनाया कि इसे भी स्वीकृति नहीं मिल सकी। दरअसल दवा कंपनियों को हजार-हजार प्रतिशत के मुनाफे की लत पड़ चुकी है तो भला २०० प्रतिशत के मुनाफे की बात उन्हें किस तरह हजम हो सकती है! लगभग दो वर्ष पूर्व भारत के रसायन मंत्रालय ने यह पता लगाया कि तीन बेहद आम दवाओं (सिट्रीजिन, निमेसुलाईड और ओमेपेराजोल) के धंधे में कितना मुनाफा है। मंत्रालय को पता लगा कि इन दवाओं में से किसी में भी यह १००० प्रतिशत से कम नहीं है। एक और उदाहरण लेकर इस गोरखधंधों को आसानी से समझा जा सकता है। लेवोफ्लेक्सिन नाम के प्रतिजैविक की ५०० मिलीग्राम की टिकिया को भारत की दो मशहूर कम्पनियां 'सिपला` और 'एवेनटिस` बनाती हैं। सिपला इस टिकिया को ६.८० रुपये में बेचती है। जबकि इसी ताकत की गोली के लिए एवेनटिस ९५ रूपये कीमत वसूलती है। भारत में दवाओं के दामों के मनमानेपन का आलम यह है कि सामान्यत: दवा कम्पनियां मधुमेह और रक्तचाप की दवाओं को छ: गुणे पर बेचती हैं, मनोरोग की दवाओं को १५ गुणा पर और कैंसर विरोधी दवाओं को १८ गुणा पर। हाल में रक्तचाप और हृदय रोग की दवाओं में यह मुनाफा और बढ़ा दिया गया है। इस अराजक व्यवस्था पर थोड़ी लगाम कसने की हसरत अगर राम विलास पासवान की पूरी हो जाती तो दवा कंपनियों के मालिक पूंजीपति और इन पूंजीपतियों से विशेष तरह के लाभ पाने वाले मंत्रियों के स्वास्थ्य पर बुरा असर तो निश्चित तौर पर पड़ ही जाता।
जुलाई २००६ प्रस्ताव के खारिज होने के बाद अक्टूबर २००६ की घोषणा में क्या बारीक अंतर है, यह समझना बहुत जरूरी होगा। राम विलास पासवान ने ३१ अक्टूबर २००६ को ८८६ दवाओं के दामों में गिरावट की सूचना जारी की। यह २८८६ की संख्या असल में विभिन्न व्यापारिक नामों वाली दवाओं के नाम थे, जिनमें ०.२ प्रतिशत से ७४.५ प्रतिशत तक की गिरावट दर्शायी गयी थी। जबकि जुलाई २००६ के प्रस्ताव में ३५४ आवश्यक दवाओं के रासायनिक मिश्रणों पर नियंत्रण मूल्य के अन्तर्गत शामिल करने की बात की गयी थी। भारत में सामान्य स्थिति यह है कि एक रासायनिक मिश्रण को १०-१५ कम्पनियां अलग-अलग व्यापारिक नामों से बेचती हैं। वास्तविकता तो यह है कि भारत का घरेलू दवा उद्योग लगभग २७ हजार करोड़ रूपये का है। ये ८८६ व्यापारिक नाम इसमें से केवल १५०० करोड़ रूपये का प्रतिनिधित्व करते हैं। अत: ८८६ का आंकड़ा केवल भरमाने वाला ही है।
आम लोगों के स्वास्थ्य में शामिल रोज-ब-रोज काम आनेवाली दवाओं पर जब भारत सरकार का मंत्रालय शतरंज की बिसात बिछाने को तैयार है तो ऐसे में मुफ्त चिकित्सा की बातें तो क्रांतिकारी प्रतीत होती हैं। नवउदारवादी दौर से पहले यूनान, फ्रांस, नार्वे, स्वीडन इत्यादि कई यूरोपीय पूंजीवादी व्यवस्था वाले देशों में नागरिकों के लिए चिकित्सा पूर्णत: मुफ्त थी। यहां के सभी नागरिकों को डॉक्टर मुफ्त में चिकित्सकीय सलाह देते थे और दवायें भी मुफ्त में सरकारी अस्पतालों में मिलती थी।
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