- सुरेश सलिल
मौसम विज्ञानी
खिड़की से गर्दन उचकाते हो
और मौसम विज्ञानी होने का दावा करने लग जाते हो!
चुनार के इंर्ट-भट्टे
या जिउनाथपुर की धुआं उड़ाती चिमनियां
पूरे देश की तो छोड़िये
महज़ मिर्जाप़ुर का भी मौसम-सत्य नहीं हैं।
खिड़की से जितना खुशनुमा नज़र आता है पहाड़
अगर उसकी तलहठियों में जाकर
उसकी उपत्यकाओं को हथेली से छूकर
देख सकते, तो..
खिड़की से बाहर ही क्यों-
ऐन तुम्हारे सामने की बर्थ पर
यह जो कमसिन औरत लेटी है
और उसकी बगल़ में
सिकुड़े-सिमटे दो बच्चे,
उनके लिबास से
औरत के होंठों पर पुती लिपस्टिक से
सोये बच्चों के हाथों में भिंचे अंकल चिप्स के थैले से
क्या उस औरत के जिस्म की
झुर्रियां गिन सकते हो
बच्चों के बौने सपनों का मौसम पढ़ सकते हो?
तुम्हारी सारी विशेषज्ञता
शोध-सर्वेक्षण
तुम्हारी सारी कविताओं के दिगंत
खिड़की के चौखटे तक ही फैले हैं
और तुम मौसम विज्ञानी होने का दावा करते हो! ...
सफ़र बनाम सफ़र
रेल के सफ़र
और जिंदग़ी के सफ़र में
कोई समानता नहीं है।
सफ़र दोनों हैं
दुर्घटनाएं दोनों में हो सकती हैं
लेकिन जिंद़गी का सफ़र पटरी-पटरी तै नहीं होता।
दिल्ली से कलकत्ते के रेल-सफ़र में
इलाहाबाद आयेगा ही
मुगल़सराय आयेगा ही
लेकिन जिंद़गी के सफ़र में
न मंज़िल का दावा आप कर सकते हैं
न बीच के पड़ावों का।
रेल के सफ़र में
(वातानुकूलित डिब्बों में खा़सतौर से)
खिड़कियां बंद करके बैठते हैं यात्री
उंगलियों पर गिनते रहते हैं
बीच के स्टेशनों के नाम
और घड़ी पर नज़र रखते हैं।
लिहाज़ा लेट भले हो जाएं
अपने गंतव्य तक पहुंचते हैं,
अगर कहीं..
जिंदग़ी के सफ़र में
खिड़कियां खुली रहती हैं-
फ़र्ज करिये
खिड़की से अचानक
कोई दृश्य दिख गया
जो आपको अपनी तरफ़ बुला रहा हो-
स्वाभाविक है कि आप
कलकत्ता पहुंचने की बात को बाद देकर
वहीं उतर जायेंगें -
भले उस दृश्य से जुड़ने के
नतीजे से आप वाक़िफ़ न हों।
तो, भाई जान, यह रहा ज़िंदगी का सफ़र!
जिंद़गी की राह पकड़
चला था कलकत्ते
साथ में बीवी-बच्चे,
सिर पर-कंधों पर
गठरी-मोठरी लादे..
वे चले थे टे्रन से
एकदम छुट्टाछरीदा-
खिड़कियां बंद किये।
एक से दूसरी सीट
एक से दूसरा डिब्बा
एक से दूसरी टे्रन बदलते-बदलते
पहुंच गये अखिऱकार कलकत्ता!
मुमकिन है
कल बंगाल की खाड़ी के रास्ते
या आसमान में तैरते
हांगकांग, तोक्यो
या कहीं और पहुंच जाएं..
.. और आप
आसनसाल या बर्दवान
धनबाद या चासनाला में
हाथ-पैर लहूलुहान करते ही रह जायें,
या... !
अर्थवान
सड़क एक जगह पहुंच कर समाप्त हो जाती है
वह जगह लेकिन मंज़िल नहीं होती-
किसी की भी मंज़िल नहीं होती
(सड़क की, न सड़क पर चलने वाले की..)
सड़क किसी मंज़िल की गारंटी नहीं है
मंज़िल की गारंटी है संकल्प
खिर गये हों जब सभी संकल्प
तो समय थम जाता है
और मंज़िल पा लेने का भ्रम पाले लोग
उसी थमे समय में थम जाते हैं
मंज़िल तक पहुंचने से कहीं ज्या़दा अर्थवान है
चलते रहना-
न मिले गर
न मिले मंज़िल
-गम़ क्या है!
छोटी कविताएं
१.
दिन भांय-भांय करते हुए
और रातें सांय-सांय-
टूट कर यहां से हम और कहां जायं?
२.
क्या अगले ज़माने के लोग भी
जागते रहते थे सारी रात?..
३.
गल़त राग पर धड़धड़ाये चला जा रहा है तू
ऐ मेरे बिगड़े दिल!
सभी राग-रागिनियों का समय
निर्धारित है
४.
उम्र का ज़िक्र नहीं
फ़िक्र नहीं
मौसम की-
मेरी आंखों में ख्व़ाब हैं अब भी
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