कार्ल मार्क्स के जन्म दिवस ५ मई पर
- राजू रंजन प्रसाद
पूंजीवाद ने केवल विश्व-व्यवस्था ही नहीं पैदा की बल्कि मार्क्स जैसा अप्रतिम लेखक भी पैदा किया जो पूरी दुनिया पर एक साथ टिप्पणी करता था, पूरी दुनिया के इतिहास में हस्तक्षेप करता था। मार्क्स आधुनिक विश्व के सबसे आश्चर्यजनक और रोमांचकारी ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं ।
आमतौर पर माना जाता है कि मार्क्सवाद के तीन प्रमुख श्रोत हैं-ब्रिटिश अर्थशास्त्र , जर्मन दर्शनशास्त्र और फ्रांसीसी समाजवाद। हिन्दी साहित्य के मान्य मार्क्सवादी आलोचक डा. नामवर सिंह ने कुछ साल पहले पटना में एक व्याख्यान में कहा था कि एक चौथा श्रोत भी है-ग्रीक ट्रेजडी यानी साहित्य। डा. खगेन्द्र ठाकुर के अनुसार पांचवें श्रोत के रूप में विज्ञान के उस समय तक के विकास को भी माना जा सकता है, खासकर के डारविन के द्वारा जीवों के विकास के नियम की खोज को। मैं इन बातों को थोड़ा सुधारकर तथा मितव्ययी होते हुए कहना चाहता हूं कि अब तक के उपलब्ध ज्ञान की कोई ऐसी शाखा न थी जिससे मार्क्स को अप्रभावित बताया जाना संभव है। मार्क्स उन्नीसवीं शताब्दी के नि:संदेह बड़े अध्येता थे। ब्रिटिश म्यूजियम की शायद ही कोई पुस्तक होगी जो मार्क्स की पेंसिल से रंगी जाने को बची हो। मार्क्स आधुनिक विश्व का सबसे आश्चर्यजनक और रोमांचकारी ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं ।
पूंजीवाद ने केवल एक विश्व-व्यवस्था ही नहीं पैदा की बल्कि मार्क्स जैसा अप्रतिम और अभूतपूर्व लेखक भी पैदा किया जो पूरी दुनिया पर एक साथ टिप्पणी करता था, पूरी दुनिया के इतिहास में हस्तक्षेप करता था। यह मार्क्स का और उदीयमान पूंजीवाद का ऐतिहासिक महत्व था। स्वयं पूंजीवाद के इस महत्व को समझे बगैर मार्क्स एवं मार्क्सवाद को समझना आसान नहीं हो सकता। लगता है, हम मार्क्सवादियों ने इस चीज को समझने में कहीं कोई भूल की है। इस तथ्य को हमारे समय के एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी चिंतक की वैचारिक उलझन से समझा जा सकता है। खगेन्द्र ठाकुर पूछते हैं 'मेरा प्रश्न है कि ब्रिटिश अर्थशास्त्र , जर्मन दर्शनशास्त्र और फ्रांसीसी समाजवाद का जो स्वरूप उस समय था, वह नहीं होता तो क्या मार्क्सवाद का विकास नहीं होता?` उत्तर भी स्वयं ही देते हैं-'मैं` समझता हूं कि इस प्रश्न के उत्तर में कोई भी नहीं कह सकता कि उन श्रोतों के बिना मार्क्सवाद का विकास नहीं होता। मार्क्स-एंगेल्स के विचारों का विकास केवल पूर्ववर्ती विचारों से नहीं, बल्कि मूलत: उनके अपने समय के सामाजिक स्वरूप और मानवीय संबंधों के अमानुषीकरण का भी परिणाम था जिसने उन्हें नये विचारों की खोज के लिए बेचैन कर दिया।` खगेन्द्र जी मार्क्स की यह उक्ति शायद भूल रहे हैं कि 'कोई भी समस्या स्वयं तभी खड़ी होती है जब उसके समाधान की, भौतिक परिस्थितियां पहले से या तो मौजूद हों या कम से कम निर्माण के क्रम में हों।` शायद इसीलिए वे मार्क्स के पूर्ववर्ती विचारों की महत्ता को कमतर साबित कर (लगभग अस्वीकार की हद तक) मार्क्स के 'नये विचारों` को स्थापित करना चाहते हैं। अपने विचारों के नयेपन का इतना अधिक भ्रम मार्क्स को भी न था। कोई भी व्यक्ति ऐसा केवल तभी कह सकता है जब वह इतिहास की विकासमानता और निरंतरता को न समझ पाने की स्थिति में हो। ऐसी स्थिति मार्क्सवाद विरोधी स्थिति है, यह मार्क्स के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन करती है। लगता है, विकास और निरंतरता का बोध मार्क्स को ज्यादा था, मार्क्सवादियों को कम है। मार्क्स ने बहुत ही विनम्रतापूर्वक कहा था कि हीगेल का दर्शन जो सिर के बल खड़ा था, मैंने उसे महज पैर के बल कर दिया है। यह मान लेने से मार्क्स का महत्व कम नहीं हो जाता। 'नये विचार` गढ़ने का दायित्व भी तो मार्क्स को इतिहास ही ने प्रदान किया था।
विडंबना कहिए कि मार्क्स को पढ़ा तो बहुत गया किंतु समझा कम ही गया। मार्क्स के विचारों को मार्क्सवादी विवेक के बगैर रट्टा मारा गया। एक बार मैंने अपने एक मार्क्सवादी मित्र से चर्चा के दौरान कहा कि मैं मार्क्स को एडिट करता हुआ पढ़ता हूं तो शीघ्र ही उनकी नजर में मैंं वामपंथी भटकाव का शिकार हो गया। लोग यह भूल जाते हैं कि मार्क्स के विचार जीवन-पर्यंत विकसित व परिवर्धित होते रहे हैं। लेकिन इस बात का कोई यह मतलब न निकाले कि मार्क्स आज की बदली हुई परिस्थितियों में अप्रासंगिक हो गये हैं।
कम्युनिस्ट घोषणापत्र का महत्व इस बात में है कि उसमें मार्क्स की लगभग सभी स्थापनाएं ठोस एवं बीज रूप में हैं। सन् १८७२ ई. में जर्मन संस्करण की भूमिका लिखते हुए एंगेल्स ने स्वीकार किया था कि 'पिछले पच्चीस सालों में परिस्थिति चाहे कितनी भी बदल गई हो, इस घोषणापत्र में निरूपित आम सिद्धांत आज भी उतने ही सही हैं, जितने कि पहले थे। ..लेकिन घोषणापत्र तो एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया है जिसमें परिवर्तन का अब हमें कोई अधिकार नहीं रह गया है।` कम्युनिस्ट घोषणापत्र ऐतिहासिक दस्तावेज अपनी प्राचीनता की वजह से नहीं बना है बल्कि इसलिए कि ऐतिहासिक महत्व का है।
मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी दोनों ही थोडा-बहुत अंतर के साथ मार्क्स के ऊपर यह आरोप लगाते हैं कि उन्होंने सामाजिक परिवर्तन में भौतिक शक्तियों की भूमिका पर अनावश्यक रूप से ज्यादा जोर दिया है। मार्क्स ने ठीक-ठीक शब्दों में आधार एवं अधिरचना की बात कही थी और यह भी कि आर्थिक मूलाधार में परिवर्तन से, समस्त बृहदाकार ऊपरी ढांचे में भी देर-सबेर रूपांतरण हो जाता है। मार्क्स यह स्पष्ट करना भी न भूले थे कि इतिहास के एक लंबे दौर में अधिरचना भी एक भौतिक शक्ति का रूप धारण कर लेती है। इसलिए मार्क्स पर लगाया गया यह आरोप कि उन्होंने आर्थिक शक्तियों को ही निर्णायक माना है, बेबुनियाद है। यह सही है कि मार्क्स ने भौतिक शक्तियों पर तुलनात्मक रूप से ज्यादा जोर दिया है। ऐसा तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की वजह से हुआ है। मार्क्स को कई स्तर और मिजाज का लेखन करना पड़ता था। तत्कालीन स्थितियों से मुकाबला करने के लिए उन्होंने एक अलग शैली और भाषा विकसित कर ली थी। उनकी शैली पर टिप्पणी करते हुए एंगेल्स ने पूंजी (खंड-२) की भूमिका में लिखा है 'बोलचाल के रूप बहुत ज्यादा, अक्सर रूक्ष और हास्यपूर्ण शब्दावली। मार्क्स के साहित्य का अच्छा खासा हिस्सा गालियों से भरा है। कभी-कभी मन में आता है कि मार्क्स की गालियों का संकलन कर एक रोचक पुस्तक तैयार की जा सकती है।`
जिन लोगों को मार्क्स के सामाजिक-राजनीतिक परिवेश की समझ है वे भौतिक शक्तियों पर जोर वाली बात आसानी से समझ और पचा पाते हैं। भारत में नेहरू लिखते हैं, 'इस व्यर्थ बात को तूल देकर कहा जाता है कि मार्क्स ने जीवन के आर्थिक पहलू ही को अधिक महत्व दिया है। उसने ऐसा जरूर किया है, क्योंकि यह आवश्यक था और लोग इसे भुला देने की तरफ झुक रहे थे, लेकिन उसने दूसरे पहलुओं की कभी अवहेलना नहीं की है और उन ताकतों पर ज्यादा जोर दिया है जिनकी वजह से लोगों में जान आ गई है और घटनाओं को रूप मिला है।` जून १९३१ में लार्ड लोथियन ने लंदन-स्कूल आव इकनॉमिक्स के सालाना जलसे के मौके पर अपने भाषण में कहा था : 'हमलोग बहुत दिन से जो सोचने के आदी हो गए हैं क्या उसकी अपेक्षा मौजूदा समय की बुराईयों की मार्क्स द्वारा की गई तजवीज में कुछ ज्यादा सच्चाई नहीं है? मैं मानता हूं कि मार्क्स और लेनिन की भविष्यवाणियां अत्यंत कठोर रूप से सच हो रही हैं। जब हम पश्चिमी दुनिया की तरफ, जैसी की वह है और उसकी हमेशा की तकलीफों की ओर निगाह डालते हैं, तो क्या यह साफ मालूम नहीं देता कि हमें उसके मूल कारणों को अब तक हम जिस हद तक पहुंचने के आदी हो गए हैं उससे कहीं अधिक गहराई के साथ जरूर ढूंढ़ निकालना चाहिए? और जब हम ऐसा करेंगे, हम देखेंगे कि मार्क्स की तजवीज बहुत कुछ सही है।` आज 'सभ्यता-संघर्ष` के दिनों में भी मार्क्स की तजवीज उतनी ही प्रामाणिक और प्रासंगिक है।
पूंजीवादी एवं प्राक-पूंजीवादी समाजों का विश्लेषण कर मार्क्स कम्युनिष्ट घोषणापत्र में इस नतीजे पर पहुंचे थे कि अभी तक आविर्भूत समस्त समाज का इतिहास (अर्थात् समस्त लिपिबद्ध इतिहास) वर्ग-संघर्षों का इतिहास रहा है। आधुनिक पूंजीवादी समाज ने, जो सामंती समाज के ध्वंस से पैदा हुआ है, वर्ग-विरोधों को खतम नहीं किया किंतु इसने समस्त समाज को सीधे-सीधे पूंजीपति और सर्वहारा वर्गों में बांटकर इसने वर्ग-विरोधों को सरल बना दिया है। उत्पादन के औजारों में लगातार क्रांतिकारी परिवर्तन और उसके फलस्वरूप उत्पादन के संबंधों में, और साथ-साथ समाज के सारे संबंधों में क्रांतिकारी परिवर्तन के बिना पूंजीपति वर्ग जीवित नहीं रह सकता। पारंपरिक उद्योग की जगह ऐसे नये-नये उद्योग ले रहे हैं, जिनकी स्थापना सभी सभ्य देशों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाती है; ऐसे उद्योग आ रहे हैं जो उत्पादन के लिए अब अपने देश का कच्चा माल इस्तेमाल नहीं करते उत्पादन के तमाम औजारों में तीव्र उन्नति और संचार साधनों की विपुल सुविधाओं के कारण पूंजीपति वर्ग सभी राष्ट्रों को, यहां तक कि बर्बर से बर्बर राष्ट्रों को भी सभ्यता की परिधि में खींच लाता है।
भारतीय इतिहास के अध्ययन एवं अनुभव से हम जानते हैं कि कच्चे माल की लूट एवं तैयार माल की अबाधित खपत के लिए अंग्रेजों ने इस देश को अपना उपनिवेश बनाया था। कच्चे माल की लूट ने देशी कारीगरों-कलाकारों के लिए आजीविका का संकट पैदा कर दिया। भारत के शहरों के कारीगर रोजगार-मुक्त हो देहातों को पलायन करने लगे। औपनिवेशिक शासन के दिनों में भारत का देहातीकरण जिस व्यापक पैमाने पर हुआ, इतिहास में शायद ही कोई दूसरी मिसाल हो। शहर से देहात की ओर पलयान से कृषि-उत्पादन में ठहराव आया और जनसंख्या-वृद्धि का दबाव महसूस किया गया। जहां-जहां उपनिवेश कायम हुए, कुछ न कुछ ऐसा अवश्य घटा। माल्थस जैसे साम्राज्यवाद के पैरोकार चिंतक ने देश की गरीबी का कारण जनसंख्या वृद्धि को बताया जबकि मार्क्स इसे साम्राज्यवादी लूट का परिणाम बता रहे थे। आधुनिक भारतीय राजनीति के पितामह कहे जाने वाले आरंभिक अर्थशाी़ दादाभाई नौरोजी ने 'संपदा अपहरण का सिद्धांत` (प्राख्यात ड्रेन थ्योरी) विकसित कर मार्क्स के विचारों की पुष्टि की थी। नौरोजी ने भारत की लूट से संबंधित बातें भारत में वैकल्पिक अर्थशा विकसित करने वाली किताब 'इंडियाज पॉवर्टी एंड अन ब्रिटिश रूल इन इंडिया` में कह थी। उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के नाम पर आज फिर एक वर्ग विदेशी पूंजी की आवश्यकता पर बल दे रहा है। उनके मंसूबों की सही समझ के लिए मार्क्स का अध्ययन आवश्यक है। मार्क्स के विश्लेषण के आलोक में उनकी भी राजनीति समझी जा सकती है जो अंग्रेजों के भारत में देर से आने और शीघ्र चले जाने का रोना रोते हैं। नंदीग्राम पुलिस संरक्षण में किया गया नरसंहार भी कोई अलग काहनी नहीं कहता। मार्क्स को आज पढ़ते हुए इन घटनाओं के अंतर्सबंध तलाशे जा सकते हैं।
यह सच है कि स्थितियां बदली हैं। उन्नीसवीं-बीसवीं शती में सस्ते श्रम की पूर्ति साम्राज्यवादी देश उपनिवेशों से मजदूरों अथवा गुलामों को ले जाकर करते थे। उक्त काल में भारत के कोने-कोने से मजदूरों का जत्था गया था। ऐसा करना आज लाभकारी नहीं रहा। उन तमाम देशों में जहां बड़ा और खुला बाजार है, उसी देश की धरती पर सस्ते श्रम आदि तमाम संसाधनों का उपभोग करते हुए उद्योग धंधे विकसित करना लाभकारी माना जा रहा है। देशी सरकारें विदेशी कंपनियों को लगभग मुफ्त संसाधन मुहैया करा रही हैं । भारत जैसे राष्ट्र-राज्य की संप्रभु और लोक कल्याणकारी सरकारें लोक कल्याणकारी नीतियों को घाटे की नीति बताकर विदेशी कंपनियों की एजेंटी कर रही हंै और 'बुद्धिजीवियों` को विमर्श का एक नया विषय दे दिया गया है- 'राष्ट्र-राज्यों का भविष्य।` सभी आत्मतुष्ट और गद्गद् भाव से आंखें मूंदकर डूब-उतरा रहे हैं। सरकार की पैंतरेबाजी में शामिल और भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के दफ्तरों को एन.जी.ओ. में तब्दील कर देनेवाले मार्क्सवादी चेलों को शायद कभी मार्क्स याद आ जाएं!
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