समकाल
- अविनाश
रूपकंवर प्रसंग पर घनघोर विरोध झेलने के १९ साल बाद 'जनसत्ता` के उसी संपादकीय पन्ने पर एक सज्जन ने स्वत: सती होने के बहाने पुरानी विवाह परंपरा की घनघोर प्रासंगिकता और उसमें प्रेम की अलौकिक मौजूदगी के पक्ष में कलम चलायी है।
सन ८७ के सितंबर की कोई तारीख थी। एक सामंती सूबे में पति की चिता पर रूप कंवर को धकेल दिया गया। वो धू धू करके जल उठी। चारों तरफ नगाड़ों का शोर था और इस शोर में वो चीख घुट गयी, जो ज़िंदगी के समर्थन में अपने मुल्क से रूबरू होना चाहती थी। लेकिन चिता पर जलती पिघलती रूपकंवर की सिसकियां नगाड़ों के शोर पर भारी पड़ीं। मुल्क के हर कोने में इस बर्बर आयोजन के खिल़ाफ़ प्रगतिशील, मानवाधिकार संगठनों ने कड़ा एतराज़ दर्ज किया। अखब़ारों और रिसालों में आधुनिक समय में पुरानी कुप्रथाओं के चलन की आलोचना में हर्फ दर हर्फ लिखे गये। ठीक उसी वक्त अपने पाठकों को हैरान परेशान करने की मंशा के साथ एक अखब़ार ने सती के उस वीभत्स आयोजन को भारतीय संस्कृति की गौरव और गरिमा का प्रतीक बता दिया।
वह अखब़ार जनसत्ता था और कहते हैं कि बनवारी नाम के एक पत्रकार ने रूपकंवर के सती होने पर इतने श्रद्धाभाव से संपादकीय लिखा कि जनसत्ता की पुरानी साख संकट में पड़ गयी। वो साख ऐसी थी कि एक बार प्रभाष जोशी को संपादकीय लिखना पड़ा कि अब हम अधिक अखब़ार नहीं छाप सकते, पाठक कृपया मिल बांट कर इसे पढ़ें। इनमें से प्रबुद्ध पाठकों की एक टोली जब सती पर छपे संपादकीय के विरोध में हिंसक हो उठी, तो प्रभाष जोशी ने श्रेष्ठ संपादकीय मूल्यों का निर्वाह करते हुए सारा दायित्व अपने ऊपर ले लिया। लिखा बनवारी ने और लानत मलामत हुई प्रभाष जोशी की। क्योंकि पीआरबी अधिनियम के तहत अखब़ार में छपे एक एक शब्द के चयन का दारोमदार संपादक पर होता है। इसके विरोध में लेखकों और स्वतंत्र पत्रकारों की एक बड़ी जमात ने जनसत्ता में नहीं लिखने का एलान कर डाला, लेकिन वक्त के साथ अपनी ज़रूरतों, संघर्षों और कुछ अखब़ार की ताक़त के आगे हार कर वे तमाम लेखक और स्वतंत्र पत्रकार फिर से जनसत्ता में लिखने लगे। लेकिन हैरानी तब सबसे अधिक होती है, जब बुरे कर्मों का दायित्व अपने ऊपर लेने के बाद भी कोई साहसी संपादक माफ़ी मांगने के लिए तैयार नहीं होता। मैं नहीं जानता, लेकिन शायद प्रभाष ने सती संपादकीय और उसके बचाव के लिए कभी माफ़ी नहीं मांगी थी।
माफ़ी सती कांड के उन ३४ आरोपियों ने भी नहीं मांगी थी, जो पहले सन ९६ में निचली अदालत से बरी हुए और दो साल पहले राजस्थान हाईकोर्ट की विशेष बेंच से पूरी तरह बरी हो गये। अदालत के फ़ैसले के बाद अब ये लिखना खत़रे से खाली नहीं कि बरी हुए सारे आरोपी जलती हुई रूपकंवर को घेर कर नगाड़े बजाने वालों की भीड़ में शामिल थे। उनमें बीजेपी के पूर्व मंत्री, नेता से लेकर आईएएस अधिकारी तक थे। इस पूरे प्रकरण में बनवारी का तो कहीं ज़िक्र भी नहीं है, लेकिन परभा जोशी को भी पाठकों, पत्रकारों और लेखकों की प्रगतिशील बिरादरी ने बरी कर दिया।
बाद में महिलाओं की आज़ादी की बात करते हुए एक बार परभा जोशी ने ज़रूर लिखा कि मैं वहीं प्रभा ा जोशी हूं, जिसने रूपकंवर प्रकरण में भारतीय परंपरा की मुखा़लिफत की थी।
अब १९ साल बाद ३० नवंबर २००६ को जनसत्ता के उसी संपादकीय पन्ने पर श्रीभगवान सिंह नाम के एक सज्जन ने स्वत: सती होने के बहाने पुरानी विवाह परंपरा की घनघोर प्रासंगिकता और उसमें प्रेम की अलौकिक मौजूदगी के पक्ष में कलम चलायी है। श्रीभगवान सिंह के भांजे ने बताया कि उनकी बहन ठीक उसी दिन चल बसी, जिस दिन बहनोई का इंतकाल हुआ। भांजे ने अपने माता पिता का दाह संस्कार एक ही चिता पर किया और अब वो उस जगह पर सती मंदिर बनवाना चाहता है। जैसा कि श्रीभगवान सिंह कहते हैं, कि इस 'प्रस्ताव के प्रति मैं उदासीन रहा, क्योंकि मैं कभी सती होने वाली स्त्री की गौरवगाथा का कायल नहीं रहा और हमेशा उन लोगों के साथ रहा, जो सती जैसे रिवाज़ को पुरुष प्रधान समाज द्वारा स्त्रियों को पराधीन बनाये रखने के लिए गढ़ा गया एक हथकंडा मानते रहे हैं। लेकिन मेरी बहन ने मृत पति का जिस तरह अनुगमन किया, उसने इस मुद्दे पर कुछ दूसरे ढंग से सोचने को ज़रूर बाध्य कर दिया।`
ये दूसरे ढंग से सोचने की बाध्यता श्रीभगवान सिंह की है, जनसत्ता की संपादकीय नीति की है या उस दौर की है, जिस दौर में टेलीविज़न प्रेतकथाओं का जाल फैला रहा है और अधिकांश अखब़ार टैरोकार्ड के गणित से अभिनेताओं, राजनीतिज्ञों, धन्नासेठों और कुल मिला कर मुल्क का भवि य बता रहे हैं? हालांकि गल़ती से उपजे १९८७ के संपादकीय विवाद के अलावा जनसत्ता ने कभी सचेत रूप से ऐसे विचारों मूल्यों का समर्थन नहीं किया था। अब भी ये नहीं कहा जा सकता कि श्रीभगवान सिंह के विचार जनसत्ता के विचार हैं। क्योंकि जिस कॉलम में वो छपा, वो एक स्वतंत्र कॉलम है और उसका नाम है 'दुनिया मेरे आगे`। देश के तमाम लेखक पत्रकार इस कॉलम में अपनी अपनी दुनिया के संस्मरण लिखते हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या कोई अखब़ार अपने लिखने वालों को इतनी स्वायत्तता देता है? हम सभी जानते हैं कि ये सच नहीं है, क्योंकि आज मीडिया एक उद्योग है और वो बाज़ार से सीधे और राजसत्ता से परोक्ष रूप से संचालित होता है।
एक वाकया सुनते आये हैं कि बच्चों के एक रेडियो प्रोग्राम में राजीव गांधी की सरकार के वक्त अजीबोगऱीब हादसा हुआ था। एक बच्चे ने कह दिया कि 'गली गली में शोर है राजीव गांधी चोर है`। प्रोग्राम प्रसारित भी हो गया, लेकिन जो बावेला मचा कि प्रसारण अधिकारी सहित कई कर्मचारियों की नौकरी लेने के साथ ही खत़्म हुआ।
लेकिन सती प्रकरण में न तो बनवारी की नौकरी गयी, न ही गोयनका एंड कंपनी ने परभा से इस्तीफे के लिए दबाव डाला। क्योंकि नये बनते समाज में पुराने मूल्यों की तरफदारी से कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि बहुत थोड़े लोग नया समाज बना रहे होते हैं और ज्य़ादातर उस बासी परंपरा के क़ायल होते हैं, जो उन्हें बदलने के लिए प्रेरित नहीं करता। तब ज्य़ादातर लोग सती जैसे आयोजनों में मुग्ध दर्शक समाज का हिस्सा होना चाहते हैं। लेकिन दुख तब होता है जब एक ऐसा अखब़ार, ऐसे दर्शकों और ऐसे आयोजनों का पक्ष लेता है, जो समाज के बिगड़ते हालात और व्यवस्था को बेनक़ाब करने कोशिशों में लगा है।
क्यों श्रीभगवान सिंह जैसे लोग आधुनिक भारत में विधवा औरतों के हालात, उनकी मुश्किलों की पड़ताल किये बिना पति की मृत्यु के साथ पत्नी के प्राण त्यागने के पीछे एक आध्यात्मिक परिभाषा ढूंढ़ना चाहते हैं? और क्यों सती प्रकरण में कभी बर्बरता का पक्ष लेने वाला अखब़ार अपना पाप धोने के लिए बाद के दिनों में तमाम प्रगतिशील कवायदों के बावजूद एक बार फिर सती होने के पक्ष में एक आलेख छाप कर फिर से कठघरे में खड़ा हो जाता है? लेकिन इस बार इतनी चालाकी से ये छापा गया है कि कोई इसके औचित्य पर तुरंत सवाल खड़ा नहीं कर सकता। क्योंकि इस आलेख में सती के औचित्य को पिछले दरवाज़े से स्वीकार करते हुए अंतत: बात पति पत्नी के बीच मौजूद प्रेम और उस प्रेम की तीव्रता की तरफ ले जायी गयी है। ऐसे में अगर आप श्रीभगवान सिंह से असहमत होते हैं, तो आप उन मूल्यों के तरफदार माने जाएंगे, जो आधुनिक समाज का एक जटिल चेहरा प्रस्तुत करते हैं। बकौल श्रीभगवान सिंह, 'आजकल तो यौन मुक्ति के ध्वजारोही सातों सुरों में लगातार यही गये जा रहे हैं कि पति पत्नी के बीच या फिर विवाहोपरांत जीवन में प्रेम होता ही नहीं- सच्चे प्रेम के लिए विवाह, परिवार सबको वे खलनायक बता रहे हैं।`
हमने श्रीभगवान सिंह लेख कई मित्रों को पढ़वाया। अधिकांश ने कहा कि इसमें ऐसी कोई बात नहीं, जिस पर आपत्ति की जा सके। हमारे ही समय में आध्यात्म के चैनल हैं और अखब़ारों का आध्यात्मिक रूझान है। फिर एक अदना से लेख पर इतनी कड़ी प्रतिक्रिया क्यों? बहस तो होनी ही चाहिए। अब ऐसा तो होगा नहीं कि केवल प्रगतिशीलों का ही पक्ष छपेगा! लेकिन कुछ ऐसे भी थे, जिनको लगा कि मामला गंभीर है। ऐसा नहीं कि जिसे पढ़ कर छोड़ दिया जाए। इस आलेख में साफ साफ १९ साल पुराने जनसत्ता के सती संबंधी पक्ष की पुनर्व्याख्या है। ये लेख अगर हिंदुस्तान, जागरण या किसी भी दूसरे अखब़ार में छपता, तो कोई हैरत की बात नहीं थी। लेकिन जनसत्ता में इसका छपना इसलिए भी खटकता है, क्योंकि हमने मान लिया था कि सती प्रकरण में अपनी फजीहत के बाद जनसत्ता ने उस छवि से खुद को उबार लिया है।
बहरहाल, उस आलेख में एतराज़ ढूढ़ने वाले जिन लोगों को निराशा हाथ लगी है, मुझे उनकी समझ से निराशा होती है। कहना सिर्फ ये है कि परभा जी उस आलेख को दोबारा पढ़ें, और हो सके तो अपने कागद कारे में पुराने रूपकंवर को याद करते हुए सती संदर्भों का पुनर्पाठ करें।
एनडीटीवी से जुड़े पत्रकार अविनाश कविताएं भी लिखते हैं।
असली सती ओर सावित्री तो मृत्युंजयी थीं।
ReplyDeleteक्यों और कहां से हमारे समाज में यह गिरावट आ गई कि सती और सावित्री ने जो किया, ठीक उसका उलट हम आज कर रहे हैं-और उन्हीं के नाम की दुहाई देकर?
यह सवाल मैंने उठाया है अपने ब्लॉग उठो, जागो में और सावित्री के साथ अन्याय में। इन्हे भी आप देखें
http://janta-ki00ray.blogspot.com/2007/07/blog-post_17.html
http://hai-koi-vakeel-loktantra-ka.blogspot.com/2007/10/blog-post_2173.html