December 17, 2007

तुर्कमेनिस्तान का अनिश्चित भविष्य



  • पंकज पराशर


आत्ममुग्धता का आलम यह कि तुर्कमेनिस्तान के दिवंगत राष्ट्रपति सरपमुरात नियाजफ ने अपने नाम पर देश के कई शहरों और हवाई अड्डों का नाम रख दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने महीनों और दिनों के नाम तक अपने परिवार वालों के नाम पर रख दिया।



सदाम हुसैन की फांसी के बाद निठारी हत्याकांड पिछले दिनों अखबरों और खबरिया चैनलों पर कुछ इस कदर छाये रहे कि हमें तुर्कमेनिस्तान की स्थिति के बारे में जानने की न फुरसत मिली और न जरूरत महसूस हुई। सोवियत संघ के विघटन के बाद स्वतंत्र हुए देशों में तुर्कमेनिस्तान हमारा एक महत्वपूर्ण सहयोगी देश है और भारत के व्यापक आर्थिक हित उसके साथ जुड़े हैं। हाल ही में तुर्कमेनिस्तान से गैस खरीदने के लिए पाकिस्तान ने जो समझौता किया है वह गैस बरास्ता ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से भारत लाई जाएगी। वहां की सत्ता पर तकरीबन २१ वर्षों से काबिज राष्ट्रपति सरपमुरात नियाजफ का २१ दिसंबर, २००६ को तुर्कमेनिस्तान के स्थानीय समयानुसार रात्रि एक बजे दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। यह सूचना कड़े सरकारी नियंत्रण में संचालित तुर्कमेनिस्तान के विभिन्न टेलीविजन रिपोर्टों से प्राप्त हुई और उसी के हवाले से दुनिया भर के संचार माध्यमों ने यह खबर प्रसारित की। दिवंगत राष्ट्रपति सपरमुरात नियाजफ ने जिस तरीके सेे प्रेस और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अपने कब्जे में किया हुआ था उसके कारण दुनिया के संचार माध्यामों में तुर्कमेनिस्तान से संबंधित खबरें कम ही प्रसारित हो पाती थीं। विडंबना देखिये कि उनकी मौत के बाद भी भारतीय मीडिया ने तुर्कमेनिस्तान के भविष्य से जुड़ी इस खबर को 'खेलने` लायक नहीं समझा, जिसके कारण भारत की जनता तुर्कमेनिस्तान की राजनीतिक स्थिति के बारे में कुछ भी नहीं जान सकी।

यहां यह गौरतलब है कि क्यूबा के वामपंथी राष्ट्रपति फिलेद कास्‍त्रो की खराब स्वास्थ की खबर को जिस तरह मीडिया में काफी दिनों तक लीक नहीं होने दी गई लगभग उसी तरह सरपमुरात नियाजफ ने अपने खराब स्वास्थ की भनक मीडिया को बिलकुल नहीं लगने दी। विगत नवंबर में उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि उन्हें दिल की बीमारी है। उन्हें शायद उसी वक्त यह आभास हो गया था कि वे अब ज्यादा दिनों के मेहमान नहीं हैं लेकिन जो शख्स़ संसद से स्वयं को उम्र भर के लिए राष्ट्रपति निर्वाचित करवा चुका हो वह भला इस यथार्थ को स्वीकार कर सकता था कि तुर्कमेनिस्तान पर अब उसका शासन नहीं रहेगा! हालांकि निजफ की मौत के बाद तुर्कमेनिस्तान के उप प्रधानमंत्री को उनकी जगह कार्यवाहक राष्ट्रध्यक्ष बनाया गया है लेकिन सरकार का कहना है कि उसने तुर्कमेनिस्तान के सबसे बड़े प्रतिनिधि संगठन की बैठक बुलाई है ताकि नियाजफ के उत्तराधिकारी के बारे में फैसला किया जा सके। अपने जीते-जी सपरमुरात नियाजफ ने किसी को भी अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया था और इधर उनकी मौत के बाद तुर्कमेनिस्तान जिस स्थिति की ओर बढ़ रहा है उसे देखते हुए विशेषज्ञों का कहना है कि वहां कई परस्पर विरोधी गुट अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं और देश एक अनिश्चित भविष्य की ओर बढ़ रहा है। तुर्कमेनिस्तान के बारे में रूस का क्या रुख है और पुतिन सरकार क्या सोच रही है फिलहाल इसका खुलासा नहीं हुआ है, जो पूर्व सहयोगी और एक पड़ोसी देश होने के कारण ज्यादा महत्वपूर्ण देश है।


काफी दिनों से लातीन अमेरिकी देशों की खबरों के साथ भारतीय मीडिया अजीब उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाता रहा है। अभी हाल में दोबारा निर्वाचित हुए ब्राजील में लूला द सिल्वा और वेनेजुएला में ह्यूगो शावेज की भारी बहुमत से हुई जीत की खबरों के साथ उसी पुराने रवैये को दोहराया गया। अमेरिका को सीधे-सीधे चुनौती देनेवाले पांच लातीन अमेरिकी देशों में धुर वामपंथी और अमेरिका विरोधी लोग सत्ता में आए हैं लेकिन उस खबर को भारतीय मीडिया ने प्रसारित करना उचित नहीं समझा। तुर्कमेनिस्तान सामरिक रूप से भले इस स्थिति में नहीं हो कि वह वैश्विक घटनाचक्रों पर कुछ खास असर डाल सके, बावजूद इसके लोकतंत्र की शक्ल में आनेवाले फासिज्म़ के मद्देनजर अगर देखें तो सपरमुरात नियाजफ के कारनामे को जानना दुनिया के बाकी देशों के लिए बेहद जरूरी है।
सपरमुरात नियाजफ १९८५ में पूर्व सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष बने और १९९१ में स्वतंत्र तुर्कमेनिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने। वर्ष १९९९ में उन्हें संसद ने उम्र भर के लिए राष्ट्रपति बना दिया। वामपंथी होते हुए भी सपरमुरात ने वह काम किया जो न लेनिन ने किया था और न इसकी हिमायत क्यूबाई शासक फिदेल काो़, ब्राजीली राष्ट्रपति लूला द सिल्वा या वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज कर सकते हैं। आत्ममुग्धता का आलम यह कि नियाजफ ने अपने नाम पर देश के कई शहरों और हवाई अड्डों का नाम रख दिया। इतना ही नहीं इसके अलावा उन्होंने महीनों और दिनों के नाम तक अपने परिवार वालों के नाम पर रख दिया। मजेदार तथ्य यह है कि तुर्कमेनिस्तान में अब अप्रैल का महीना नियाजफ की मां के नाम से जाना जाता है। तानाशाही की इंतहा यह थी कि उनके शासन काल में तुर्कमेनिस्तान के युवा दाढ़ी नहीं रख सकते थे और न कार में रेडियो सुन सकते थे। अगर ऐसा करते हुए किसी को रंगे हाथों पकड़ लिया जाता था तो वहां की पुलिस बेहद अमानवीय तरीके से पेश आती थी। अफगानिस्तान में जो काम तालिबानों ने कुछ वर्षों तक किया वही काम २१ वर्षों तक सपरमुरात नियाजफ ने किया। जबकि हकीकत यह है कि तुर्कमेनिस्तान की कुल जनसंख्या के ८९ प्रतिशत लोग इस्लाम धर्म को मानने वाले हैं और कहना गैर जरूरी है कि इस्लाम मानने वाले ज्यादातर लोग दाढ़ी रखना पसंद करते हैं। मगर लोगों की निजी जिंदगी में दखल देने से कभी बाज नहीं आए नियाजफ। इन्हीं चीजों के कारण राष्ट्रपति सपरमुरात नियाजफ की जो छवि थी वह आलोचना बिलकुल न सह सकने वाले, राजनीतिक विरोधियों को किसी भी तरीके से कुचल देने वाले और मीडिया को जरा-सी भी स्वतंत्रता न देनेवाले नेता की थी। विडंबना यह है कि ऐसी भीषण उग्रता के लिए जगह न वामपंथ में है और न इस्लाम में।


कहा जाता है कि २००२ में कथित तौर पर उनकी हत्या की कोशिश की गई थी लेकिन इसके बाद उनके बचे-खुचे विरोधियों को सरकारी मशीनरी ने चुन-चुनकर कुचल दिया। फिर २००४ में जो संसदीय चुनाव हुए उसमें सभी उम्मीदवार उनके समर्थक थे। लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा शायद ही किसी लोकतंत्र में हुआ हो। तुर्कमेनिस्तान का जमीनी यथार्थ यह है कि ३६०,००० स्कवायर किलोमीटर क्षेत्र में वहां विशाल रेगिस्तान है और वहां कुल जमीन के मात्र ४ प्रतिशत हिस्से में खेती होती है। बाकी जमीन खेती के लायक है ही नहीं। ९८ प्रतिशत साक्षरता के बावजूद वहां ६० प्रतिशत लोग बेराजगार हैं।


२१ दिसंबर १९९१ को तुर्कमेनिस्तान सोवियत संघ से अलग होकर एक आजाद देश बना और नियति देखिए २१ दिसंबर २००६ को ही सपरमुरात नियाजफ तुर्कमेनिस्तान की जमीन में सुपुर्द-ए-खाक हुए। उनके शासन काल में जिन यातनाओं से देश गुजरा उसकी प्रतिक्रिया में अब अपना-अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए वहां शतरंज की बिसातें बिछने लगी हैं और फिलवक्त तुर्कमेनिस्तान जिन हालात का सामना कर रहा है उसे देखते हुए कहना कठिन है कि उसका आनेवाला भविष्य क्या होगा।

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