December 14, 2007

विदेशभक्त एम्स!



  • मुसाफिर बैठा


प्रतिभा -पलायन की बातें हमारे देश में काफी जोर-शोर से की जाती रही हैं। इस बात की दुहाई दी जाती है कि भारत में प्रतिभावान इंजीनियारों, वैज्ञानिकों, डाक्टरों आदि को उनकी योग्यता के अनुकूल कार्य-सुविधाएं, कार्य-स्थितियां नहीं मिलतीं, लिहाजा वे विदेशों की ओर रूख करने को बाध्य होते हैं। इस तथ्य में छटांक भर भी सच्चाई निहित नहीं है कि भारत की प्रतिभाएं अनुकूल कार्य-स्थितियों या सुविधाओं के अभाव में घर छोड़ परदेस जाती हैं। दरहकीकत बात यह है कि ये लोग अधिकतम सुख-सुविधा लूटने के उद्दाम प्रलोभन में विदेशों को पलायन करते हैं। इनमें अपनी मातृभूमि सेवा, जन-सेवा का जज्बा नहीं होता। प्रस्तुत अध्ययन भी इसी बात की गवाही देता है।

चर्चित लेखक व शोधकर्ता अनिल चमड़िया ने मीडिया स्टडीज ग्रुप की ओर से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से पढ़कर निकले ४२ बैचों (१९५६ से १९९७ तक) के डाक्टरों पर एक अध्ययन प्रस्तुत किया है। यह अध्ययन मुख्यत: एम्स, नई दिल्ली से उत्तीर्ण छात्रों से सम्बंद्ध 'द एम्सोनियन्स डायरेक्टरी २००३` पर आधारित है। इस हालिया अध्ययन से एम्स से पढ़कर निकले डाक्टरों के कार्यस्थानों के बारे में कतिपय रोचक जानकारियां मिलती हैं। ज्ञातव्य है कि १९५६ से कार्यरत एम्स चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्रदान करने वाली भारत की शीर्ष व प्रतिष्ठित संस्था है।


४२ बैचों के कुल २१२९ छात्रों (डाक्टरों) के कार्य स्थानों के उपलब्ध ब्योरे में इस अवधि के दौरान १४७७ छात्रों के संबंध में जो जानकारी प्राप्त है, उसके मुताबिक उनमें से ७८० यानी प्रति वर्ष ५२.८१ प्रतिशत डॉक्टर काम की तलाश में विदेशों का रुख कर लेते हैं। विदेशों की पनाह लेने वाले डाक्टरों में से अधिकांश सर्वाधिक संपन्न व ताकतवर देश सं.रा.अमेरिका को अपनी डाक्टरी सेवा प्रदान करने को लालायित रहते हैं। ७८० विदेश गमन करनेवालों में से ६७९ यानी ८७ प्रतिशत तो महज प्रतिवर्ष इस प्रभु राष्ट्र को ही शरणागत हो गए थे। सं.रा.अमेरिका में काम पकड़ने वाले डाक्टरों में से बड़ी संख्या में दो हाई प्रोफाइल अमेरिकी प्रांतों, कैलिफोर्निया एवं न्यूयॉर्क में रमे हुए हैं। पुनश्च, अन्य देशों का शरण गहने वाले १०१ डाक्टरों में से ६० मलाईदार यूरोपियन देशों, कनाडा और आस्ट्रेलिया को अपनी 'रोजी-रोटी` का ठिकाना बनाते हैं। इनमें से ३२ तो महज सं.रा.अमेरिका के पिछलग्गू व भारत पर औपनिवेशिक शासन चला चुके ब्रिटेन की चिकित्सकीय सेवा में रुचि लेते हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि प्रथम १५ वर्षों में एम्स से निकले डाक्टरों पर विदेश-सेवा का खुमार कुछ ज्यादा ही परवान चढ़ा था। १९६८ बैच के तो ८७ प्रतिशत डाक्टर विदेश भाग गए।


जहां तक नमकहलाली की बात है तो चाहे-अनचाहे ४१ प्रतिशत डाक्टर ही इसकी ओर मुखातिब हुए। भारत के प्रति सेवा-भाव प्रदर्शित करने वालों में से दो-तिहाई ने अपनी सेवा केवल दिल्ली को ही समर्पित की। चारों महानगरों, दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई की सम्मिलित सेवा में गाफिल रहनेवाले डाक्टरों का आंकड़ा ७१ प्रतिशत का रहा। जो २९ प्रतिशत का आंकड़ा शेष है, वह अन्य बड़े नगरों, शहरों में जा खपने वालों का है। यानी जिन 'एम्सोनियन्स` डाक्टरों में राष्ट्रभक्ति, देशभावना ने जोर मारा, उन्होंने भी अपनी ऐशो-आराम में यथासंभव खलल न डालने वाले, सहज मोटी कमाई वाले शहरों को ही अपनी सेवा प्रदान करने के लायक समझा। उत्कट देशभक्ति दिखाने का कम मौका इन डाक्टरों को न था तथापि १४७७ में से सिर्फ १७ यानी १.१५ प्रतिशत डाक्टरों ने भारतीय सेनाओं के लिए चिकित्सकीय सेवा में अपने को अर्पित करना मुनासिब समझा।


प्रसंगाधीन अध्ययन में डाक्टरों का सामाजिक वर्गीकरण नहीं प्रस्तुत किया गया है। अगर इसमें हिन्दू की अवर्ण-सवर्ण जातियों, सिख, इसाई, मुस्लिम, जैन जैसे अल्पसंख्यक धर्मावलंबी डाक्टरों का कोई 'ब्रेक-अप` प्रदान किया जाता तो कई अन्य महत्वपूर्ण निकष भी प्राप्त हो सकते थे। अलबत्ता अध्ययन के एक बिंदु के रूप में कहा गया कि २१२९ डाक्टरों में से केवल ४९ यानी २.३ प्रतिशत मुस्लिम छात्र ही एम्स से पढ़कर निकले। अनुसूचित जाति-जनजाति जैसे दलित-वंचित तबकों पर भी अध्ययन में कोई आंकड़ा नहीं प्रस्तुत किया गया है।
इस परिदृश्य को देखते हुए स्वाभाविक सवाल उठता है कि एम्स व अन्य उच्च तकनीकी शिक्षण संस्थानों के लिए क्या कुछ ऐसे मापदंड विकसित नहीं किए जा जाने चाहिए, जिनसे इन 'खासा` में देश की लोकतांत्रिक भावना के अनुकूल कर्तव्य भावना का स्वविवेक जगे या इनके मनमानेपन पर पहरा लगे?

दलित कवि मुसाफिर बैठा समससामयिक विषयों पर भी लेखन करते हैं।

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