पुस्तक चर्चा
- धीरज कुमार नाइट
प्रेमचंद की निराशापूर्ण विवेचना 'यथार्थवादी` है या कहानीकार का 'व्यक्तिवादी` विमर्श है? जो विद्वान प्रेमचंद पर 'कफन` का हवाला देते हुए-दलित पात्रों के लम्पटीकरण और सामंती मूल्यों के पक्षधर होने का आरोप लगाते हैं, वे वस्तुत: प्रेमचंद की इन कहानियों को 'गैरऱ्यथार्थवादी` और 'व्यक्तिवादी` विमर्श बताते हैं।
हमारे साहित्य में 'दलित अनुभव की खोज` एवं दलित पात्रों की गतिविधियों के चित्रण एवं प्रतिस्थापन के प्रयास को समकालीन हिंदी साहित्य के विकास की विशिष्ट स्थिति मानी जानी चाहिए। ऐसे किसी भी प्रयास की यह मांग स्वभाविक है कि हमारे 'क्लासिकल` साहित्य भंडार में यदि किसी जाति-विशेष को लेकर कुत्सित प्रतिस्थापनाएं एवं दृष्टिकोण विद्यमान हैं तो उन्हें आलोचनात्मक ढंग़ से विश्लेषित किया जाये। ऐसे कुछ प्रयास किये भी जा रहे हैं। इनका हिन्दी के प्रतिष्ठित कथाकार एवं परिवर्तनकामी विचारक प्रेमचंद से जूझना भी काफी स्वभाविक सा है।
आलोचना के क्षेत्र में इन प्रयासों ने दो दृष्टिकोणों को हमारे सामने रखा है। एक खेमा डा. धर्मवीर व अन्य के नेतृत्व में प्रेमचंद पर दलित पात्रों के-विशेषत: 'कफन` कहानी (१९३५-३६) का हवाला देते हुए-लम्पटीकरण और सामंती मूल्यों एवं वर्णव्यवस्था की पक्षधरता का आरोप लगाता है। दूसरा खेमा प्रेमचंद की कहानियों को यथार्थवादी और संभवत: प्राकृतिकवादी मानते हुए माधव एवं घीसू जैसे पात्रों के व्यवहार की 'एतिहासिक भौतिकवादी` व्याख्या प्रस्तुत करता है। साथ ही यह आग्रह करता है कि दलित जीवन से जुड़ी प्रेमचंद की अन्य सराहनीय एवं अंतर्दृष्टिपूर्ण कहानियों को भी बहस का आधार बनाया जाए। राजीव रंजन गिरि के संपादन में आया 'घासवाली: प्रेमचंद की दलित जीवन से जुड़ी कहानियों का संकलन` इस दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है।
इस संकलन की समीक्षा करते हुए मैं अपने विचार दो बातों पर केन्द्रित करूंगा। पहला, राजीव रंजन गिरि लिखित प्रस्तावना के आलोचनात्मक मूल्यांकन पर और दूसरा, प्रेमचंद की संकलित कहानियों की समाजशास्त्रीय विवेचना पर। पहला महत्वपूर्ण सवाल इस संदर्भ में यह है कि प्रेमचंद की कहानियों में 'दलित` का अर्थ क्या है? यह संकलन 'दलित` शब्द की वर्तमान जातीय पहचान एवं सरकारी अनुसूचिका में प्रस्तुत अर्थ पर आधारित दिखता है। इसके अनुसार सरकारी आंकड़े में अनुसूचित जाति शीर्षक से संकलित जातियां ही मात्र भारतीय समाज का 'दलित` समुदाय है। लेकिन हमारा सवाल इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि 'दलितों` का राजनीतिक-सामाजिक दर्शन शोषित, दमित और हाशियाकृत सामाजिक समूह की ओर इशारा करता है। उल्लेखनीय है कि १९६० के दशक में दलित शब्द अपने इसी अर्थ में भारतीय राजनीतिक संस्कृति से उत्पन्न हुआ था। अनुसूचित जाति में संकलित जातियों की सूची बनती-घटती-बढ़ती रही है। प्राय: १९५० एवं इसके बाद से। ऐसे में इस सवाल के जवाब का अभाव संपादकीय दृष्टि की एक कमी मालूम होती है। प्रस्तुत कहानियों के अध्ययन से प्रेमचंद में १९११ से १९३६ के बीच दलितों के तीन अर्थों का विकास दिखता है। शुरूआती कहानियों में वे सिर्फ अछूतों को केन्द्र में रखते हैं। १९२६-२७ की 'कजाकी` और 'मंदिर` कहानियों से आगे कुछ गैर-अछूत शोषित-दमित और विभेदीकृत जातियां भी शामिल होती हैं। १९३१ आते-आते उनकी 'लांछन` कहानी में बवुआइन देवीरानी जैसी महिला भी किसी दलित से भिन्न नहीं दिखती हैं। वस्तुत: इस कहानी में मुन्नु मेहतर की तुलना में देवीरानी 'दलित` जीवन की परिभाषा के कुछ ज्यादा अनुकूल दिखती है।
प्रेमचंद की कहानियों में 'दलित` के माने की खोज से जुड़ा दूसरा अहम् सवाल है : उनकी कहानियों में दलित सवाल एवं समस्या क्या है? इस पर भी यह संकलन प्राय: चुप-सा दिखता है। हम देखते हैं कि उनकी शुरूआती कहानियों में महज छुआछूत जैसी हिंदू समाज की नैतिक बुराई 'दलित समस्या` है, और हिंदू समाज का सुधार एवं छुआछूत का अंत ही बड़ा दलित सवाल है। उल्लेखनीय है कि यह समस्या और सवाल इन कहानियों में विशिष्ट रूप से अभिजात जातियों के सुधारवादी आंदोलन के प्रश्न मात्र हैं। इन कहानियों के केन्द्रीय पात्र भी ऐसे ही व्यक्तित्व रहे हैं।
जहां १९२४ के 'सौभाग्य के कोड़ों से`, 'दमन` और १९२७ के 'मंदिर` एवं १९२९ की 'घासवाली` से मंदिर प्रवेश के जरिये 'स्वतंत्रता` और 'सम्मानपूर्ण जीवन` का अधिकार महत्वपूर्ण प्रश्न बनता है। इन कहानियों में दलित पात्र भी कहानी के केन्द्र में आते हैं। जबकि, १९३४ की 'दूध का दाम`, १९३५-३६ की 'कफन` और १९३१ की 'जुरमाना` में गरीब श्रमिक के रूप में दलितों के शोषण एवं वर्गीय शोषण से मुक्ति दलित समस्या एवं सवाल के रूप में सामने आते हैं। यहां दलितों का अपनी परिस्थिति में बदलाव के लिए किया गया प्रयास प्रेमचंद के लिए आलोचनात्मक विश्लेषण का विषय रहा है। ऐसे में किसी भी 'आमूलचूल परिवर्तनकारी प्रयास और इसकी दृष्टि का अभाव` विचारणीय दलित प्रश्न व समस्या बनता हुआ दिखता है और तभी प्रेमचंद 'कफन` में व्यंग्यात्मक शैली में लिखते हैं 'हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान था, और किसानों के विचारशून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मंडली में जा मिला था।`(कफन, पेज १६३)
पुस्तक-सम्पादक का विचार है कि जहां आरम्भिक कहानियों में अछूतोद्धार जैसी आर्यसमाज की समाज-सुधारक दृष्टि का प्रभाव है वहीं १९२० के दशक एवं इसके बाद की कहानियों में डा.अम्बेडकर की अपेक्षा प्रेमचंद गांधी के विचारों के ज्यादा करीब हैं (बजाए गांधी के अछूतोद्धार आह्वान के)। लेकिन सम्पादक की दूसरी समझ प्रेमचंद की १९२७ की 'मंदिर` और १९२९ की 'घासवाली` और इसके बाद की कहानियों पर शायद ही लागू होती है। उदाहरण के लिए, इस समय से प्रेमचंद दलित समस्या को दलित पात्रों की गरीबी की समस्या एवं उनकी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को जातिभेद के प्रबल कारक के रूप में देख रहे थे। जबकि, गांधी १९३२-३३ में भी दलित सवाल पर अछूतोद्धार से आगे नहीं बढ़ पाये थे। उल्लेखनीय है कि १९३५-३६ की कहानियां 'कफन` और 'जुरमाना` एवं १९३४ की 'दूध का दाम` में वर्गीय शोषण और शोषणकारी श्रम संबंध कहीं बड़ी दलित समस्या के रूप में चिहि्उात किये गये हैं। इसी आधार पर इस समय दलित समस्या के समाधान के बतौर-अपने शुरूआती सुधारवादी तरीके से आगे बढ़ते हुए-सम्पूर्ण सामाजिक-आर्थिक और श्रम संबंधों में प्रेमचंद आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत का संकेत देते नजर आते हैं। इन्हीं अर्थो में वह शुरूआत के आलोचनात्मक यथार्थवादी साहित्यकार से संरचनावादी 'समाजवादी` साहित्यकार के रूप में विकसित होते हुए दिखते हैं। अत: प्रेमचंद दलित समस्या और सवाल पर गांधी से कहीं पहले और गांधी की सुधारवादी सीमाओं से कहीं आगे परिवर्तनकारी 'समाजवादी` व्यवस्था को समाधान के रूप में देखते हैं। जहां तक अम्बेडकर की बात है, वह भी १९३० के मध्य तक एक ओर जाति विनाश और दूसरी ओर 'सेपरेट इलेक्ट्रेट` की मांग के तहत जाति के आधुनिक रूप में गठन के दर्शन तक पहुंच पाये थे। मैं प्रेमचंद की संरचनावादी दृष्टि की सीमा की चर्चा इस लेख के अंतिम हिस्से में करूंगा।
संकलन के सम्पादक ने सही ही कहा है कि प्रेमचंद के दलित पात्रों का वैचारिक विकास हुआ है। 'सद्गति` (१९३०-३१) के 'दुखी` की तुलना में 'घासवाली` (१९२९), 'कफन` (१९३५-३६) के पात्र शोषणकारी चक्र को समझते हैं, प्रतिरोध करते हैं और चुनौती देते हुए नजर आते हैं। जबकि, पुस्तक की प्रस्तावना में उस वैचारिक विकास-उभरते प्रतिरोधों एवं चुनौती देने के प्रयासों को अर्थात् दलित मुक्ति संघर्ष की दिशा और स्वरूप के विश्लेषण का अभाव शिद्दत से महसूस किया जा सकता है। वस्तुत: 'घासवाली` (१९२९) की मुलिया, 'ठाकुर का कुआं` (१९३१) की गंगी, 'दूध का दाम` (१९३४), 'कफन` (१९३५-३६) के माधव और घीसू के प्रतिरोधों की दिशा और स्वरूप अलग-अलग दिखते हैं, वरन् मुलिया का प्रतिरोध जहां सशक्त, चुनौतीपूर्ण ढंग़ से स्वतंत्र व सम्मानपूर्ण जीवन के लिए था, वहीं माधव और घीसू की चुनौती प्रतिगामी अल्पकालिक मस्ती भरे जीवन की राह की ओर ले जाता है और सम्पादक द्वारा ऐसे प्रतिरोध का उत्सवीकरण और इसे दलित जीवन के विशिष्ट अनुभव से जोड़ना शायद ही सराहनीय लगे।
संपादक का यह मत उचित है कि 'प्रेमचंद की इन कहानियों में जो दलित पात्र हैं, उनमें पुरुषों की अपेक्षा य़िां ज्यादा साहसी एवं जुझारू हैं।` इसकी व्याख्या संपादक शोषण की सीमा और प्रतिरोध की चेतना के बीच सीधा संबंध मानकर करते हैं। लेकिन, यह एक अहम् सवाल है कि 'घासवाली` की मुलिया के अलावा अन्य शोषित य़िों की चुप्पी या गैरप्रतिरोधपूर्ण स्थिति का कारण बताने में यह व्याख्या बताने में असमर्थ क्यों है? दूसरे शब्दों में क्या हमें मुलिया के प्रतिरोध को 'विलक्षण` सा मान किसी अन्य ठोस व्याख्या की जरूरत नहीं है? दरअसल, समाजशाी़य अध्ययन में शोषण एवं प्रतिरोध की चेतना के बीच स्थापित संबंधों की व्यापक जांच-पड़ताल की जरूरत है।
लेख के इस हिस्से में मैं पुस्तक की प्रस्तावना से अपना ध्यान हटाते हुए प्रेमचंद की इन कहानियों के राजनीतिक एवं दार्शनिक पक्ष की विवेचना करना चाहता हूं। आज विद्वानों में अमूमन सहमति है कि प्रेमचंद का वैचारिक पक्ष शुरूआती दौर में 'विचारवाद` एवं 'व्यवहारवाद` के करीब था। कुछ लोग गलती से इसे प्रेमचंद का गांधीवादी चरण मानते हैं, क्योंकि १९११-१३ की उनकी कहानियों पर शायद ही अमूर्त गांधीवादी सुधारवाद एवं विचारवाद का प्रभाव हो। १९२७ की 'मंदिर` १९३०-३१ की 'सद्गति` और इसके बाद की कहानियों में प्रेमचंद, जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, समाजवादी-संरचनावादी विचारक के रूप में विकसित होते हुए दिखते हैं। संपादक की धारणा के विपरीत मैं समझता हूं कि १९३२ की 'ठाकुर का कुआं` से आगे प्रेमचंद भारतीय समाज के आर्थिक संबंधों-व्यवस्था को सामाजिक-जातीय शोषण की धुरी भी समझने लगे थे।
अपने विश्लेषण में प्रेमचंद समकालीन समाजवादी-साम्यवादी लोगों से एक मामले में आगे भी दिखाई देते हैं। इस समय के समाजवादी-साम्यवादी जहां 'आर्थिक नियतिवाद` की धारणा के शिकार थे, वहीं प्रेमचंद १९३२ से १९३६ के बीच की कहानियों में मानव का अपने भविष्य, इतिहास निर्माण के प्रयास और इन प्रयासों की सफलता-असफलता को भी मानव की जीवन दशा के लिए जिम्मेदार, स्वतंत्र और एकमात्र कारक के रूप में चिन्हित करते हैं। उल्लेखनीय है कि इस दार्शनिक मत को १९६० के दशक में फ्रांसीसी संरचनावादी 'अलयूजर` के वरक्स ब्रिटिश इतिहासकार-सिद्धांतकार ई.पी. थाम्पसन ने रखा था (पॉवर्टी ऑफ थ्योरी- 'ई.पी. थाम्पसन)।
इस अंतर्दृष्टि के बावजूद प्रेमचंद के विश्लेषण एवं वैचारिक आधार की एक गंभीर सीमा भी इन कहानियों में मौजूद है। संपादक प्रस्तावना के पहले पृष्ठ पर कहते हैं कि दलितों का तबका दोहरी गुलामी अंग्रेजी सत्ता और ब्राह्मणवाद झेल रहा था। लेकिन, वह इस बात पर मौन हैं कि किस प्रकार दोनों प्रकार की गुलामी के तंत्र एक-दूसरे से गंुथे थे या ब्राह्मणवादी गुलामी का राजनीतिक गठन कैसा था? औपनिवेशिक गुलामी किस प्रकार ब्राह्मणवादी गुलामी को संरक्षण प्रदान कर रहा था? क्या दोनों एक-दूसरे को मजबूती नहीं प्रदान कर रहे थे? इस महत्वपूर्ण राजनीतिक-आर्थिक पहलू का अभाव इस पुस्तक में उपलब्ध प्रेमचंद की कहानियों की अफ्सोसजनक कमी है। संभवत: इस विश्लेषण की अनुपस्थिति प्रेमचंद के दलित पात्रों की किसी राजनीतिक तैयारी की गैर मौजूदगी की ओर भी इशारा करता है। जबकि, हम जानते हैं कि १९३० के दशक के पूर्वार्ध में भी दक्षिण भारत और बिहार के सारण जिले में दलित राजनीतिक लामबंदी की ओर बढ़ रहे थे। ऐसे में कोई यदि यह आरोप लगाता है कि प्रेमचंद के तथाकथित विद्रोही दलित पात्र शायद ही मजबूत एवं प्रभावशाली विद्रोही एवं विचारक के रूप में नजर आते हैं, तो यह गलत नही लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि १९३४ से १९३६ की कहानियों में प्रेमचंद पूर्वी उत्तर प्रदेश के दलित समाज और किसान समाज के भीतर अपनी स्थिति में परिवर्तन के लिए किये जा रहे प्रयासों की खोज करते हैं, लेकिन उनकी 'निराशा` कफन में किसानों
के 'विचार शून्य समूह` के उपर व्यंग्यात्मक टिप्पणी के रूप में सामने आती है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या प्रेमचंद की यह निराशापूर्ण विवेचना 'यथार्थवादी` है या कहानीकार का 'व्यक्तिवादी` विमर्श है? जो विद्वान प्रेमचंद पर 'कफन` का हवाला देते हुए-दलित पात्रों के लम्पटीकरण और सामंती मूल्यों के पक्षधर होने का आरोप लगाते हैं, वे वस्तुत: प्रेमचंद की इन कहानियों को 'गैरऱ्यथार्थवादी` और 'व्यक्तिवादी` विमर्श बताते हैं। सामंती मूल्यों की पक्षधरता का आरोप कफन कहानी के संदर्भ में गैरप्रासंगिक और महज उत्तेजनापूर्ण लगता है।
लेकिन यदि हम मानते हैं कि प्रेमचंद की ये कहानियां यथार्थवादी हैं, तो क्या यह १९३० के पूर्वार्ध के किसान एवं दलित समाज के राजनीतिक-वैचारिक चरित्र का प्रमुख पक्ष प्रस्तुत करता है? प्रेमचंद के सही मूल्यांकन के लिए विद्वानों द्वारा इस सवाल के व्यापक जांच-पड़ताल की जरूरत है। अभी तो इस संबंध में प्रेमचंद के पक्ष में इतना ही कहा जा सकता है कि उनके ईद-गिर्द के पूर्वी उत्तर प्रदेश का दलित-कृषक समाज शायद उनकी नजर में क्रांतिकारी अंगड़ाई नहीं ले रहा था और इस स्थिति को प्रेमचंद ने अपनी अंतिम कहानियों में-खासकर 'कफन` में-कुछ निराशापूर्ण ढंग़ से सामने रखा है।
धीरज कुमार नाइट जेएनयू में शोध छात्र हैं।
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