December 14, 2007

गरिमा की अर्थव्यवस्था

  • गाई सोमां


किसी नए प्रयोग का सुझाव नहीं दे रहा हूं। बिगड़ैल अर्थशात्रियों और सत्ता के भूखे नेताओं द्वारा प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल किए जाने की वज़ह से भारत पहले ही काफी भुगत चुका है। मैं जिसका सुझाव दे रहा हूं वो पहले से ही नवजात अवस्था में मौजूद है और जो विदेशी मॉडल न होकर स्वयं भारतीय लोकाचार या स्वभाव से जन्मा है। इस विकल्प को मैं 'गरिमा की अर्थव्यवस्था` कहता हूं। यह कोई नए तरह का बौद्धिक साहसवाद नहीं है, बल्कि एक ऐसा समाधान है जो मानव के स्तर पर संभव है। यह पांडिचेरी में वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन के काम पर आधारित है। स्वामीनाथन जाने-माने प्रानीशाई और हरित क्रान्ति के जनक हैं।

स्वामीनाथन राष्ट्रीय शक्ति से आसक्त नहीं हैं। वे केवल इतना चाहते हैं कि हर भारतीय गरिमा के साथ जिए। अत: उनका विचार गांधी से मिलता-जुलता है जिनके लिए विकास का पैमाना मानव कल्याण है न कि राष्ट्र या राज्य। मगर स्वामीनाथन तकनीक के सम्बन्ध में गांधीजी के एतराजों को सही नहीं मानते। चीजें बहुत बदल गयी हैं और उनमें तथा गांधीजी की साठ साल पहले की जानकारी में बहुत कम समानता है। हालांकि गांधी को थोड़ा संदेह था मगर टेक्नोलॉजी आज गऱीबों की मदद करने की स्थिति में है। ऐसी बहुत सी पारम्परिक कलाएं जिन्हें गांधी ने बढ़ावा दिया था, आज नदारद हैं। पश्चिमी टेक्नोलॉजी खुद भी बदली है। ये पहले से कम अमानवीय हुई है और इसीलिए भारतीय स्वभाव के अनुरूप भी। रेल, बिजली और शल्य चिकित्सा को स्वीकार करने में गांधी को कोई दिक्कत नहीं थी और वात्या भटि्ठयों की तुलना में बहुत कम प्रदूषणकारी होने के कारण वे कम्प्यूटर को भी सहजता से स्वीकार कर लेते। रोमां रोलां का सपना पूरा होता लगता है। पश्चिम की बौद्धिकता का पूर्व की बौद्धिकता से मिलन हो रहा है। यह कहना मुश्किल है कि पश्चिम पूर्व की आध्यात्मिकता को स्वीकार करेगा या नहीं मगर नेहरू के नियोजन की तरह पश्चिमी टेक्नोलॉजी की उपेक्षा का गांधी का विचार पुराना पड़ गया है। अत: गरिमा की अर्थव्यवस्था पूर्व तथ पश्चिम की दूरी को पाटने की कोशिश है जो कि पहले कभी नहीं की गई।

स्वामीनाथन का प्रयोग पांडिचेरी तथा उसके आसपास के इलाकों में किया गया। किसी भी नए प्रयोग को सावधानी के साथ देखने की ज़रूरत होती है। नक़ली प्रगति दिखाने के लिए तैयार किए गए इक्का-दुक्का गांवों से सतर्क रहना चाहिए। पुराने सोवियत संघ तथा साम्यवादी चीन की तरह भारत ने भी मॉडल गांवों में बड़ी संख्या में प्रायोगिक परियोजनाएं शुरू कीं। जैसे ही राज्य, अन्तर्र्राष्ट्रीय या गैर सरकारी संगठनों से मिलनेवाली आर्थिक मदद बन्द होती है, ये लहलहाते दिखावटी गांव बंजर भूमि में तब्दील हो जाते हैं। स्वामीनाथन जानते थे कि इनसे काम नहीं चल सकता और इसीलिए उन्होंने अपना ध्यान ग्रामीण आबादी के सबसे कमजोऱ तबके में से आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर उद्यमियों का एक वर्ग बनाने पर केन्द्रित किया। राज्य तथा परोपकारी संगठन, चाहे उनके लक्ष्य कितने ही पवित्र क्यों न हों, निचले स्तर पर भी निजी उद्यमी नहीं खड़ा कर सकते। वास्तविक उद्यमी अपनी पसन्द से बनता है न कि राज्य के संरक्षण से। बीसवीं सदी में भारत की सबसे बड़ी आर्थिक सफलता यानी १९७० में हरित क्रान्ति की शुरुआत करते समय इसी सिद्धान्त ने स्वामीनाथन का मार्गदर्शन किया था।

सत्तर के दशक में स्वामीनाथन ने टेक्सास के कृषि षाई नार्मल बारलाग के साथ काम किया था। नार्मन को भुखमरी से निपटने में उनके योगदान के लिए १९७० का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। हालांकि बहुत ज्य़ादा लोगों ने उनके बारे में नहीं सुना है मगर उन्होंने और स्वामीनाथन ने ज्य़ादा उपज वाली गेहूं की संकर किस्में विकसित की थीं। इसके बाद उन्होंने चावल और मकई पर भी काम किया। ये वैज्ञानिक उपलब्धि प्रयोगशालाओं में ही रह जातीं अगर स्वामीनाथन के पास किसानों को ये समझाने की क्षमता न होती कि वे पुराने बीजों की जगह नए बीज इस्तेमाल करें। गऱीब किसान को उसके खेती के तरीकों में बदलाव लाने के लिए तैयार करना कोई मामूली बात नहीं है। किसान अपनी अनभिज्ञता की वजह से परिवर्तन को नहीं नकारते। उसका रूढ़िवादी बर्ताव पूरी तरह से तर्कसंगत है। वो जानता है कि पुराने बीज उसकी ज़रूरतों को पूरी कर देंगे। पिछली फसलों के आधार पर उसे पता होता है कि कितनी उम्मीद रखनी चाहिए। यदि उसकी ज़िन्दगी पूरी तरह से फ़सल पर ही निर्भर है तो वह जोखिम नहीं उठा सकता। यदि प्रयोग विफल होता है तो उसके सहारे के लिए कुछ नहीं है। और यही वजह है कि वो नए प्रयोगों से कतराता है।

सन् १९६१ में भारत में अमेरिका के राजदूत रह चुके अर्थशाी़ जॉन केनेथ गालब्रेथ ने भारतीय किसानों के विरोधाभासी व्यवहार को 'गरीबी से समायोजन` क़रार दिया और इसे विकास के रास्ते की एक बड़ी अड़चन बताया। उसने ये सही निष्कर्ष निकाला कि किसी भी विकास की रणनीति की सफलता के लिए परिवर्तन में निहित जोखिम को कम करना होगा। इसीलिए स्वामीनाथन ने पंजाब और तमिलनाडु के चप्पे-चप्पे की यात्रा की और जिन भी गांवों में गए वहां खुद गेहूं और चावल के बीज रोपे। इसके बाद उन्होंने किसानों से इसके नतीजे खुद देखने को कहा। कई 'चमत्कारिक` फसलों के बाद ज्य़ादा उद्यमशील किसानों ने नए बीजों का इस्तेमाल करने का फ़ैसला किया। भारत और अमेरिका के साम्यवादी, खाद से होनेवाले प्रदूषण तथा कुछ खास किसानों को लाभ मिलने के लिए इसकी फौरन आलोचना करते हैं। मगर इसका विकल्प यह होगा कि गऱीबों को भूख से मरने दिया जाए, हालांकि तब समानता होगी और पर्यावरण भी प्रदूषित नहीं होगा।

इस तरह की आलोचना वही लोग करते हैं जो मानते हैं कि वही ठीक है जो वो सोचते हैं। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि हरित क्रांति ने भारत को अकाल के चंगुल से निकाला है। हालांकि अभी भी बहुत से लोग इतने गरीब हैं कि सन्तुलित आहार नहीं ले सकते मगर आज भारत के पास अपनी आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त खाद्य हैं। अत: सवाल खाद्य आपूर्ति में कमी का नहीं, बल्कि गरीबी का है। ये एक ऐसा तथ्य है जिसे लोकोपकारी संगठन मानने से इनकार कर देते हैं। अकाल के कारणों को जड़ मूल से खत़्म करने के बजाय वे अकाल पड़ने के बाद राहत कार्य करने के लायक भर हैं।

समूचे एशिया में हरित क्रांति फैलाने के इरादे से बनाई गई फिलीपींस स्थित संस्था अंतराष्ट्रीय चावल संस्थान में कई सालों तक काम करने के बाद स्वामीनाथन अपनी जीवन के अन्तिम वर्ष एक नई लड़ाई में लगा रहे हैं। उन्होंने उस राज्य में जहां वे जन्मे थे भूख के बजाय गरीबी से लड़ने का फैसला किया है। गऱीबों में भी सबसे गरीबों की सेवा करने का उनका फ़ैसला शायद हिन्दुओं की व्यवस्था 'सन्यास` का मौजूदा रूप है। स्वामीनाथन अपनी जिन्दगी की तीसरी अवस्था में हैं। अगर गांववाले उन्हें संन्यासियों की तरह पूजते हैं तो शायद वे गल़त नहीं करते।

स्वामीनाथन की दूसरी क्रान्ति जिसे मैं गरिमा की अर्थव्यवस्था कहता हूं, पूर्व में बताई गई किसी वैचारिक श्रेणी में नहीं आती। ये वैज्ञानिक खोज, प्रयोग, बाजाऱ, मुक्त उद्यमशीलता की भावना और महात्मा गांधी की नैतिकता का मिश्रण है। हरित क्रान्ति के आज़माए हुए तरीकों ने इसमें मानवीय तथा पर्यावरण के नए आयाम जोड़ दिए। गरिमा की अर्थव्यवस्था के पहले और सर्वप्रमुख लक्ष्य गऱीब, महिलाएं और अछूत हैं और ये प्रकृति के अनुसार ही टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करती हैं ।

स्वामीनाथन की परियोजना को मैंने खुद देखने का फैसला किया। किझूर गांव पांडिचेरी से बीस किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित है और इसकी आबादी करीब दस हजार है। इस बीस किलोमीटर के फासले को तय करने में मुझे दो घंटे लग गए।

एम्बेस्डर पर सवार होकर हम एक ऐसी सड़क से गुजरे जो मानव सभ्यता की हर अवस्था के वाहनों से भरी हुई थी। भारत में स्थान के बंटवारे की कोई धारणा नहीं है। सड़कें बहुद्देशीय चीज़ हैं। आप इस पर यात्रा कर सकते हैं या अनाज इकट्ठा कर सकते हैं। भैंसें मजे से घूमती रहती हैं और ट्रैक्टरों तथा स्कूटरों के बीच घुल-मिल जाती हैं। मार्च में पहले से ही बहुत गरमी थी। कई जगहों पर धान के खेतों में पानी भरा हुआ था। अन्य जगहों पर बीज रोपे जा रहे थे। उदार धरती स्वामीनाथन के ज्यादा उपजवाले चावलों की साल में तीन फसलें देती है। मगर ये बहुत मुश्किल काम है और सबसे ज्यादा कमरतोड़ मेहनत महिलाओं को भुगतनी पड़ती है। कुछ खेतों में पानी निकालकर इंर्टों के भट्ठे लगने के बाद खेत बंजर हो जाते हैं। स्वामीनाथन ने बताया कि धन की बहुत जरूरत पड़ने पर ही भूस्वामी ऐसा करते हैं। उनकी ये जरूरत या तो कर्ज चुकाना होता है या फिर बेटी का दहेज। उन्होंने आर्थिक हाराकीरी (आत्महत्या) कर ली है और अब वे भी भूमिहीन मजदूर बन जाएंगे।

किझूर में प्रवेश करने पर सड़क के दोनों ओर चूने और मिट्टी के घोड़े बने हुए हैं, जिनमें भड़कीले रंग पोते गए हैं। ये भूत-प्रेतों से गांव की रक्षा करते हैं। घर पास-पास बने हुए हैं और ज्यादातर मिट्टी और ताड़ के पत्तों की छतोंवाली झोंपड़ियां हैं। मानसून की कुछ बौछारों के बाद ही वे चूने लगती हैं और दीवारें ढह जाती हैं। ये उन्हें फिर से बनाने का समय है। ग्रामीणों द्वारा कंक्रीट तथा टाइल्स से बने अटपटे ढांचों को तरजीह देना समझ में आता है। मन्दिर के पास गांव के बीच में सम्पन्न लोगों के घर हैं। सूर्योदय के साथ ही महिलाएं अपनी झोंपड़ियों के सामने चावल के आटे से तरह-तरह की आकृतियां बनाने लगती हैं। इन्हें कोलम कहा जाता है और जब तक इन्हें रोज बनाया जाता है किसी की बुरी नजर नहीं लगती। झोपड़ियां साफ और व्यवस्थित हैं। खुली रसोई में मिट्टी के चूल्हें के पास पारम्परिक मिट्टी के बर्तनों के बजाय सफेद धातु के डिब्बे चमक रहे हैं। जो पर्याप्त रूप से धनी हैं उनके घर के पिछवाड़े गाय या बकरी बंधी हुई है। चुनाव के समय स्थानीय सरकार ने अछूतों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सबको एक-एक गाय बांटी थी। ऊंची जाति के लोगों का कहना है कि उन्होंने उस पैसे से दारू पी ली। यह सही है कि मद्यपान एक बहुत बड़ी समस्या है। गरीब से गरीब घर भी इससे नहीं बचा है और बीवियों की पिटाई बहुत आम है। दूसरे दक्षिण भारतीय गांवों की तरह अछूतों के घर सड़क से दूर, तालाब के किनारे स्थित हैं। अछूतों की अपनी एक छोटी चाय की दुकान है। दूसरे लोग वहां नहीं जाते। अछूतों के ग्लास में कोई नहीं पीता। इन्दिरा गांधी जब प्रधानमंत्री थीं तो उन्होंने इस तरह के काम किए मानो छुआछूत हो ही न। आर्थिक विकास के नाम पर उन्होंने अछूतों को चाय की दुकानें खोलने के लिए सब्सिडी दी। कहने की जरूरत नहीं कि उनके ग्राहक केवल अछूत ही थे।

किझूर का रंग-बिरंगा मन्दिर एक स्थानीय देवी का है जिसकी पूजा केवल इसी गांव में होती है। पुजारी ब्राह्मण था मगर उसकी पहचान विद्वान के रूप में नहीं थी। गांववाले उसका सम्मान नहीं करते थे मगर उसकी सेवाएं लेकर आभारी रहते थे। उस दिन मैंने एक बच्चे के कान छेदने के अवसर पर उसे पवित्र मंत्रों का उच्चरण करते हुए सुना। बच्चे के सिर पर राख पुती हुई थी। ढोल और घंटियों की आवाज के साथ-साथ वो भी चीख रहा था।
गांव हलचलों से हमेशा भरा रहता है और लोगों के पास एक मिनट का वक्त भी खाली नहीं है। उन्हें धान कूटना था और पानी तथा लकड़ी लाना था। पानी के दो ो़त हैं जिनमें से एक अछूतों के लिए है। महिलाएं अपना ज्य़ादातर समय लकड़ी इकट्ठा करने और पानी लाने में खर्च करती हैं। तालाब के पास उनकी आपस में अक्सर लड़ाई होती है मगर फिर सुलह भी हो जाती है। सम्पन्न जमीन्दार चबूतरे पर बैठकर खुद को पंखा झलते हैं जबकि भूमिहीन किसान खेतों में पसीना बहाते हैं। जिनलोगों के पास मेहनत के अलावा कोई पूंजी नहीं है उनके सामने इस अर्थव्यवस्था में जीने के लिए कड़ी मेहनत के अलावा कोई रास्ता नहीं है। शारीरिक रूप से कमजोर हो जाने के बाद उनका कोई दूसरा सहारा नहीं है। बच्चे, खासतौर पर बेटे गरीबों के लिए वृद्धावस्था की पेंशन की तरह होते हैं। मगर परिवार अक्सर बुजुर्गों को छोड़ देते हैं और अशक्त तथा विधवाओं को अपना गुजारा खुद करना पड़ता है। कई बार इसके लिए उन्हें भीख तक मांगनी पड़ती है। निर्धन समाज कमजोरों के प्रति क्रूर होता है। गांधी और पश्चिम ने भले ही सामाजिक एकता तथा हिन्दू आध्यात्मिकता को आदर्श बना दिया हो मगर करीब से देखने पर भारत के पारम्परिक गांव अलग ही कहानी कहते हैं।

वैसे भी परम्परा शब्द से हम क्या समझते हैं? किझूर के आधे घरों में टीवी है। केबल ऑपरेटर की मेहरबानी से कई लोगों के यहां केबल भी है। केबल ऑपरेटर ने अपनी छत पर डिश ऐंटिना लगा रखा है और सबको मासिक आधार पर ग्राहक बनाता है। ज्यादातर घरों में टीवी सजाने की एकमात्र चीज है। ये हर समय चलता रहता है। किझूर में पानी और बिजली मुफ्त़ है और दोनों ही बर्बाद होते हैं। विधायक और मतदाताओं के बीच मुफ्त़ बिजली-पानी के बदले वोट का सौदा हुआ था। आमतौर पर मतदाता सौदे का पालन करते हैं। उन्हें अपने नेताओं को लेकर कोई भ्रम नहीं है। मुझे ये जानकर आश्चर्य हुआ कि गांव के सबसे धनी व्यक्ति के पास तक टेलीफोन नहीं है। इसमें कोई तकनीकी अड़चन नहीं थी इसलिए मैंने उनसे पूछा कि समस्या क्या है। गांववालों ने मुझे बताया कि टेलीविजन खरीदने के लिए तो उनके पास पर्याप्त पैसा है मगर टेलीफोन के लायक नहीं। उन्होंने मुझे बताया कि विधायक बहुत पैसा मांगता है और यह शिकायत करते समय उनके मन में जरा भी नफरत नहीं थी। हर विधायक के पास टेलिफोन कनेक्शन का कोटा होता है और उसे वो ऊंची कीमतों पर बेचता है।

किझूर में जिन्दगी मुश्किल है इसमें कोई शक नहीं। मगर कम से कम उनके पास पानी, बिजली, टीवी और कभी-कभार पांडिचेरी जाने के लिए बस की सुविधा तो है। सन् १९९५ में किझूर में ही स्वामीनाथन ने अपनी ग्राम उत्थान परियोजना शुरू की थी। परियोजना का मकसद गांववासियों को गुज़र-बसर वाली अर्थव्यवस्था से मौद्रिक अर्थव्यवस्था में ले जाना और उन्हें अतिरिक्त कमाई का जरिया मुहैया कराना था। भारतीय गांवों में पैसा मुक्त करता है। पैसा होता है तो किसान फसल और दैनिक मजदूरी पर पूरी तरह से निर्भर नहीं रहता। स्वामीनाथन ने गांववालों को बताया था कि अगर उन्हें पैसा कमाना था तो उनके पास पूरी जानकारी होनी चाहिए थी। उन्होंने कहा था, 'जानकारी का मतलब है आर्थिक ताकत।` और इंटरनेट के जरिए सूचना पाने से सस्ता ज़रिया और कौन हो सकता था?

अन्तराष्ट्रीय संगठनों से मिली आर्थिक मदद से स्वामीनाथन फाउंडेशन ने किझूर मन्दिर के परिसर में एक कम्प्यूटर लगाया। पुजारी और ग्राम पंचायत से इसके लिए स्वीकृति पाने में कई महीने लगे। इंटरनेट सामाजिक व्यवस्था के लिए खत़रा था। इससे ऊंची जातियों का प्रभुत्व कम होता था क्योंकि स्वामीनाथन ने अछूतों तथा महिलाओं को इस्तेमाल करने की छूट देने पर जोर दिया था। काफी बहस मुबाहिसे के बाद पंचायत ने कम्प्यूटर के पक्ष में फैसला किया। अब कम्प्यूटर किझूर मन्दिर में किसी देवता की तरह विराजमान है। मैं उम्मीद करता हूं कि ग्रामीण इसकी पूजा करने के बजाय इसका उपयोग करते होंगे।

जॉ जैक़ और सर्वन श्रीबर ने १९८० में प्रकाशित अपने शोध पत्र में भविष्यवाणी की थी कि हर भारतीय किसान के पास उपग्रह से जुड़ा कम्प्यूटर होगा और उससे वो हर तरह की जानकारी हासिल कर सकेगा। शायद हिन्दू देवताओं की तरह उनके पास भी कोई दिव्यदृष्टि थी जिससे उन्होंने काफी पहले भविष्य को देख लिया। ईसाई सिद्धांत के मुताबिक अपने मुल्क में हर जोगी जोगड़ा होता है और टालमड ने कहा है कि जब समय अस्पष्ट हो तो हर किसी को भविष्यवाणी करनी चाहिए। जॉ जैक़ तथा सर्वन श्रीबर ने तो खैर भविष्यवक्ता बनने के लिए काफी कुछ किया था।

किझूर में निचली जातियों की युवा महीलाओं को कम्प्यूटर का इस्तेमाल करने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। प्रोग्राम तमिल में होने की वजह से उन्हें कम्प्यूटर सीखने में काई दिक्कत नहीं हुई। ग्रामीण अपनी जरूरतों के मुताबिक मसलन, बीज और खाद कहां से सही दामों में खरीदें और उनकी उपज की बाजाऱ में क्या कीमत है आदि जानकारी हासिल करने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। जानकारी से लैस होने के बाद बिचौलिए उन्हें धोखा नहीं दे सकते। इंटरनेट पर बस की समय सारणी भी देखी जा सकती है। ये उनके लिए वरदान जैसा है क्योंकि इससे उन्हें चिलचिलाती धूप या मूसलाधार बारिश में घंटों बस का इन्तजाऱ नहीं करना पड़ता। समय का सही प्रबंधन सीखना विकास का निचोड़ है। स्वामीनाथन ने ऐसा इन्तजाम़ कर दिया है कि ग्रामीण गऱीबों के लिए चल रही योजनाओं के बारे में पूरी जानकारी हासिल कर सकते हैं। राज्य सरकार प्रगतिशील होने का दावा करती है और उसने कई नई कल्याण योजनाएं शुरू की हैं। मगर ज्य़ादातर तो किसानों को अपने अधिकारों के बारे में पता ही नहीं होता और नौकरशाही योजनाओं में कागज़ी कार्यवाही को इतनी लम्बी और जटिल बना देती है कि कोई आवेदन ही न कर सके। पर इंटरनेट ने गांववालों को समझदार बना दिया है वे पूरे विश्वास के साथ पांडिचेरी में नौकरशाहों से मिलने जाते हैं और उनकी अर्जियां हर तरह से दुरुस्त होती हैंं। ज्य़ादा से ज्य़ादा लोगों के सूचना युग में शामिल होने के साथ पुरानी राजनीतिक सत्ता अधिक अस्थिर होती जा रही है। ज्ञान के क्षेत्र में फौरन प्रवेश शासक तथा शासित के सम्बंधों के चरित्र को बदल देगा। सिटिज़न नेटिज़न हो जाएंगे और उनके पास खर्च करने के लिए ज्ञान की दौलत होगी।

हरित क्रांति से आगे जाने के लिए स्वामीनाथन इंटरनेट तथा अपने जीवन्त प्रदर्शनों का सहारा ले रहे हैं। इसमें शक नहीं कि हरित क्रांति ने अकाल पर रोक लगा दी है मगर इससे ज़मीन की उर्वरा शक्ति भी कम हुई है। चावल के ज्य़ादा उत्पादन से चावल के खेत बर्बाद हो सकते हैं इसलिए उनमें दूसरी फसलें भी लगानी पड़ती हैं। हरित क्रांति के खेती के तरीकों में ज्य़ादा पानी भी लगता है और पानी एक ऐसी प्रकृतिक देन है जिसकी इक्कसवीं सदी में कमी होने की सम्भावना है। इस कमी से निपटने के लिए भारतीय ठीक ढंग से तैयार नहीं हैं क्योंकि भारत हमेशा से नदी सभ्यता का देश रहा है और लोग सोचते हैं कि पानी हमेशा मिलता रहेगा। पानी मुफ्त़ देकर नेताओं ने संकट को और बढ़ा दिया है। लेकिन कुछ भी मुफ्त़ नहीं होता और अन्तत: लोगों को टैक्स के रूप में भुगतना पड़ता है। वास्तव में अक्सर उन्हें दोगुनी से ज्य़ादा कीमत देनी पड़ती है क्योंकि बिना रिश्वत के जल विभाग के इंजीनियर कभी पाइप ठीक नहीं करते और पाइप हैं कि जब-तब खराब होते रहते हैं।

बेहतर जल प्रबंधन के लिए खेती की तकनीक को आधुनिक बनाने और लोगों को पानी की कीमत चुकाने के लिए तैयार करने की ज़रूरत है। स्वामीनाथन साफ-साफ कहते हैं, 'बिना कुशल जल प्रबंधन के इक्कीसवीं सदी में विकास सम्भव नहीं हो सकता।` इस कमी का प्रबंधन करने के लिए बाजार सबसे अच्छा तरीका है। बीसवीं सदी का इतिहास इसका गवाह है। नियंत्रित वितरण या रोक से ज्य़ादा बरबादी और प्रदूषण होता है। दूसरी तरफ़ जब बाजाऱ को आजादी से काम करने दिया जाता है और चीज़ें सही दामों में बिकती हैं तो कमियां दूर हो जाती हैं। सोवियत संघ में इसीलिए घरेलू जल श्रोत कम हो गए और चीन में ऊर्जा शर्मनाक ढंग से बरबाद होती है तथा शहरी प्रदूषण अत्यधिक है क्योंकि वहां सब कुछ 'मुफ्त़` है।

इसके अलावा स्वामीनाथन कहते हैं कि हरित क्रांति से गऱाबों की जिंद़गी नहीं बदली है क्योंकि अभी भी वे भूमिहीन हैं। इसीलिए स्वामीनाथन उन्हें, खासतौर पर महिलाओं को, ऐसे वैकल्पिक व्यवसायों की शिक्षा दे रहे हैं जिनमें भूमि की ज़रूरत नहीं होती। किझूर में अछूत तालाब के पास रहते हैं और उन्होंने इस सुविधा का लाभ लेते हुए मछली पालन शुरू करवाया। वे जानते थे कि ऊंची जातियों को तालाब में कोई दिलचस्पी नहीं होगी क्योंकि उसका इस्तेमाल अछूत करते हैं। मछली पालन गांववालों के लिए नई चीज़ थी। उन्होंने मशरूम की खेती भी शुरू की और इसके लिए झोंपड़ियों के छप्पर के इस्तेमाल की बेहतरीन विधि अपनाई। प्लास्टिक की थैलियों में विघटित घास-फूस को छत से बांधा जाता है। मशरूम खाने वाले भारतीयों की संख्या बहुत कम है, मगर इसे पांडिचेरी के चीनी रेस्तराओं में बेचा जाता है जो कि एक बड़ा मार्केट है। स्वामीनाथन के लिए किसी भी परियोजना के चुनाव के समय बेचने की व्यवस्था महत्त्पूर्ण मुद्दा होती है। मशरूम की खेती हो जाने के बाद थौलियों का इस्तेमाल फिर से हो सकता है जबकि विघटित घास-फूस खाद बन सकती है। धान के विपरीत मछली पालन तथा मशरूम की खेती पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती। स्वामीनाथन इस आर्थिक इकाई को जैविक़ गांव या बायोविलेज कहते हैं। अंग्रेजी में ये शब्द सुनने में अच्छा लगता है मगर ग्रामीणों की उलझन-भरी प्रतिक्रिया देखने के बाद तमिल में इसका अनुवाद करना मुश्किल दिखाई देता है। स्वामीनाथन कहते हैं, 'भारत ऐसे जैविक गांवों का संघ हो सकता है जिनमें विज्ञान लोगों को मुक्त करता है।` ऐसा सम्भव है यदि पर्याप्त संख्या में उद्यमशील स्वयंसेवी बाजाऱ की जरूऱतों के अनुरूप परिस्थितिकी तकनीक अपना सकें ।

मशरूम पैदा करना फ़ायदेमंद होता है और इसीलिए गांववालों ने इसे अपनाया है। मैंने गौ़र किया कि एक तरह की विपणन सहाकरी संस्था बनाने के लिए युवा महिलाएं खुद-व-खुद एकजुट हो गई हैं। दूसरी बार किझूर जाने पर मुझे देखकर ज़रा भी हैरानी नहीं हुई कि ये महिलाएं 'नंगे पांव पूंजीपति` (बेअर फुट कैपिटलिस्ट) बन गई हैं और अपने ब्रांड के तहत मशरूम बेच रही हैं।

स्वामीनाथन कुछ दर्शनीय करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। राष्ट्र निर्माण की उनकी कोई विराट दृष्टि नहीं है, उनका तो ये एक चुपाचाप तथा निरंतर प्रयास है। भारतीय राज्य तथा सोवियत संघ की तरह केन्द्रीय योजना में उनका विश्वास नहीं है। अर्न्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा प्रचारित कट्टरपंथी उदारवाद के भी पक्ष में तो नहीं हैं। इसके बदले उन्होंने अपना ध्यान निचले स्तर पर लगाने का फैसला किया है। लम्बे अरसे से तीसरी दुनिया के लोगों को गिनी पिग की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। वे अपने नेताओं की भ्रान्त श्रेष्ठता के असहाय शिकार रहे हैं। निश्चय ही बीसवीं सदी को महान उपलब्धियों के लिए याद किया जाएगा मगर ये सदी भयानक तबाही की भी रही है। पूरी संभावना है कि इक्कसवीं सदी छोटी चीजों की सदी होगी।

स्वामीनाथन के तरीके में शाश्वत भारत या गऱीबों के लिए विरह वेदना नहीं है, बल्कि दोनों है। एकजुटता एक ऐसी विलासिता है जो कि गऱीबों में बहुत कम होती है। नैतिकता के बजाय आर्थिक विचारों पर आधारित स्वामीनाथन की अवधारणा के बारे में गांव में न रहने वाले असन्तुष्ट लोग सवाल उठा सकते हैं। वे कह सकते हैं कि जैविक गांवों में रहनेवाले अपनी कमाई स्कूटर, टी.वी पर उड़ा देंगे और विचारहीन अमेरिकी धारावाहिकों के भारतीय संस्करण देखेंगे। लेकिन ये तो तमिलनाडु के अछूतों को तय करना है कि उनके लिए क्या अच्छा है। टेलीविज़न ने उनमें भौतिक प्रगति की कामना जगा दी है। गांवों की पुरानी जीवन शैली को आदर्श बनाना बेमतलब है। टेलीविज़न हर जगह पहुंच गया है और सब जगह आराम के, सुविधा के सर्वभौमिक तरीके फैला रहा है। ज्य़ादातर लोग अपने जीवन स्तर का फैसला टीवी में जो दिखया जाता है उसके आधार पर ही करते हैं।

टेलीविज़न ने गरीब भारतीय किसानों में पश्चिमी भौतिकतावाद की भूख पैदा कर दी है। ऐसे में जब महिलाओं को पानी के लिए अभी भी कुएं तक जाना पड़ता है, गांव के पुराने तौर-तरीकों को रोमांटिक बनाने की कोशिशें बेकार हैं। वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं।

टेलीविज़न जिस तरह की भौतिक आकांक्षाएं पैदा कर रहा है उन्हें पूरा करने के लिए भारत की मौजूदा विकास रणनीति नाकाफ़ी है। यदि निकट भविष्य में ग्रामीण भारत की दशा को सुधारने के लिए कुछ न किया गया तो क्रांति तो नहीं होगी अलबत्ता किसान गांव से सीधे शहरों में पलायन कर जाएंगे। गरीब देशों में ये हमश्ेाा से होता रहा है। दुनिया के एक ऐसी विशालकाय झुग्गी-बस्ती में तब्दील हो जाने का खतरा मंडरा रहा है जो हिंसा, महामारी और आर्थिक असुरक्षा की तरफ प्रवृत्त होगी। सन् २००० में ही भारत में छह करोड़ झुग्गीवासी थे। हालांकि भारतीय पैमाने पर ये कोई बड़ी संख्या नहीं है। लेकिन पूरे भारत को झुगगी में तब्दील होने से बचाने के लिए ग्रामीणों में ये अहसास पैदा करना ज़रूरी हे कि गांव में रहने से उन्हें सामाजिक और अर्थिक दोनों तरह से लाभ होगा। भारत में समाज का तर्क उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि आर्थिक। जैविक गांवों से सामाजिक प्रतिष्ठा तथा आर्थिक फायदे दोनों मिलते हैं। अनुभव बताता है कि समृद्धि के बढ़ने से छुआछूत कम होती है। हालांकि ज्य़ादा आय से जातिगत भेदभाव खत़्म नहीं हो जाते मगर श्रेणीबद्धता उतनी कट्टर नहीं रहती। सामाजिक भेदभाव खत़्म करने के लिए राजनीतीक संघर्ष और भेदभाव विरोधी भाषणों के मुकाबले बाजार ज्यादा कारगर उपाय है।

किझूर की पर्यावरण अनुकूल तकनीक तथा नंगे पांव पूंजीवाद न केवल विकास का एक नया सिद्धांत देता है बल्कि हमें समाज की रूपरेखा भी प्रस्तुत करता है। उदार सिद्धांतों पर ये इस हद तक आधारित है कि निजी पहल को प्रोत्साहित करती है। लेकिन ये विशुद्ध उदारवादी समाधान नहीं है। इसके लिए एक ऐसे निर्देशन और कृपालु शिक्षक की ज़रूरत होती है जो टेकनोलॉजी तथा बाजार दोनों को समझता हो। ये सम्भव नहीं है कि राज्य इस भूमिका को निभाए। राज्य ने खुद को अक्षम साबित किया है। लोग उस पर अविश्वास करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उसकी मदद महज वोट हासिल करने के लिए होती है। बहरहाल, जैविक गांव स्वशासन की तरह काम नहीं कर सकते और गरिमा की अर्थव्यवस्था के लिए एक ऐसे राज्य की दरकार होगी जो बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराए, उसकी देखभाल करे। परोपकारी संगठनों तथा अर्न्तराष्ट्रीय संस्थानों को निचले स्तर पर ज्ञान को फैलाने में मदद करनी चाहिए। जिस तरह अतीत में सामाजिक लोकतंत्र ने मार्क्सवाद की जगह ली है उसी तरह से गरिमा की अर्थव्यवस्था प्रचलित उदारवाद से आगे जाती है।


फ्रांसीसी लेखक-चिंतक गाई सोमां ने भारतीय समाज का व्यापक अध्ययन किया है।लेख उनकी पुस्तक से साभार

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