December 10, 2007

प्राचीन भारत में वर्णव्यवस्था और भाषा

अध्‍ययन कक्ष
  • राजूरंजन प्रसाद


प्राचीन भारतीय समाज में वर्णों के आधार पर भाषा-विधान प्रसिद्ध है। प्राचीन भारतीय साहित्य के अध्ययन से निश्चित पता लगता है कि जातियों के अनुसार भाषा-विधान तथा व्यवहार प्रचलित था। शायद इसलिए शताब्दियों तक साहित्य में प्राकृत को मान्यता नहीं मिल सकी और उसका तिरस्कार होता रहा।


भाषा के बारे में मार्क्सवादी चिंतन यह है कि 'इसका निर्माण पूरे समाज के हितसाधन के लिए लोगों के पारस्परिक सम्पर्क-सूत्र के रूप में समाज के सभी सदस्यों के लिए हुआ है। पूरे समाज की एक भाषा होती है जो समाज के हर सदस्य का हितसाधन बिना उसकी वर्गीय स्थिति को ध्यान में रखे हुए करती है`। किंतु प्राचीन भारतीय समाज में वर्णों के आधार पर भाषा-विधान प्रसिद्ध है। प्राचीन भारतीय साहित्य के अध्ययन से निश्चित पता लगता है कि जातियों के अनुसार भाषा-विधान तथा व्यवहार प्रचलित था। शायद इसलिए शताब्दियों तक साहित्य में प्राकृत को मान्यता नहीं मिल सकी और उसका तिरस्कार होता रहा।

प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मण अथवा श्रेष्ठ लोग संस्कृत बोलते थे जबकि अन्य लोग प्राकृत। मार्कण्डेय के ग्रंथ में कोहल का मत है कि यह प्राकृत राक्षसों, भिक्षुओं, क्षपणकों, दासों आदि द्वारा बोली जाती है। 'भरत` और 'साहित्य-दर्पण` में बताया गया है कि राजाओं के अंत:पुर में रहनेवाले आदमियों द्वारा मागधी व्यवहार में लाई जाती है। 'दशरूप` का भी यही मत है। 'साहित्यदर्पण` के अनुसार मागधी नपुंसकों, किरातों, बौनों, म्लेच्छों, आभीरों, शकारों, कुबड़ों आदि द्वारा बोली जाती है। 'भरत` तक में बताया गया है कि मागधी नपुंसकों , स्नातकों और प्रतिहारियों५ द्वारा बोली जाती है। 'दशरूप` में लिखा गया है कि पिशाच और नीच जातियां मागधी बोलती हैं और 'सरस्वतीकण्ठाभरण` का मत है कि नीच स्थिति के लोग मागधी प्राकृत काम में लाते हैं। 'मृच्छकटिक` में शकार, उसका सेवक स्थावरक, मालिश करनेवाला जो बाद में भिक्षु बन जाता है; वसन्तसेना का नौकर कुंभीलक वर्द्धमानक जो चारुदत्त का सेवक है, दोनों चाण्डाल, रोहसेन और चारुदत्त६ का छोटा लड़का मागधी में बात करते हैं। शकुन्तला नाटक में पृष्ठ ११३ और उसके बाद, दोनों प्रहरी और घीवर, पृष्ठ १५४ और उसके बाद शकुन्तला का छोटा बेटा 'सर्वदमन` इस प्राकृत में वार्तालाप करते हैं। 'प्रबोधचन्द्रोदय` के पेज २८ से ३२ के भीतर चार्वाक का चेला और उड़ीसा से आया हुआ दूत, पृष्ठ ४६ से ६४ के भीतर दिगम्बर जैन मागधी बोलते हैं। 'मृच्छकटिक` के पृष्ठ २९ से ३९ तक में जुआ-घर का मालिक और उसके साथ जुआरी जिस बोली में बातचीत करते हैं वह ढक्कीहै।

कहना होगा कि प्राकृत केवल जैन या बौद्ध सम्प्रदाय (पालि के रूप में) की भाषा नहीं थी वरन् भील, कोल, शबर, दस्यु, चाण्डाल आदि तक में यह भाषा बोली जाती थी। आचार्य अभिनवगुप्त ने इसे अव्युत्पन्न (अनगढ़, ग्राम्य) जनभाषा कहा है।८ संस्कृत चूंकि शिष्ट लोगों की भाषा थी इसलिए इसे श्रेष्ठ आसन प्रदान किया गया। अकारण नहीं है कि कई विद्वान प्राकृतों को कृत्रिम कहते हैं और संस्कृत को इसका मूल बताते हैं। इसके प्रमाण में मार्कण्डेय, चण्ड तथा हेमचन्द्र आदि की 'प्रकृति : संस्कृतम` वाली उक्ति उद्धृत की जाती हैं किंतु आज प्राकृत का मूल संस्कृत को बताना संभव नहीं है और भ्रमपूर्ण है।१०

संस्कृत के वैयाकरणों ने शब्दकोशों की भी रचना की है इसलिए व्याकरण ग्रंथों की भांति शब्दकोश भी लीक पीटते नजर आते हैं। उदाहरण के लिए अपभ्रंश शब्द के लिए व्याकरण का सबसे पहला प्रयोग है-'अपशब्द`। अमरकोश, विश्वप्रकाश, मेदिनि, अनेकार्थसंग्रह, विश्वलोचन, शब्दरत्नसमन्वय तथा शब्दकल्पद्रुम आदि कोशों में अपभं्रश का अर्थ 'अपशब्द` एवं 'भाषा विशेष` भी मिलता है। मेदिनि तथा अन्य कोशों में भी दोनों अर्थ मिलते हैं, पर अमरकोश में केवल अपशब्द अर्थ है।११ संस्कृत व्याकरणशा के प्राचीन आचार्य व्याडि का मत उद्धृत करते हुए भर्तृहरि ने कहा है कि 'शब्द संस्कार से हीन शब्दों का नाम अपभ्रंश है।`१२ वैयाकरण इस तथ्य से अपरिचित न थे कि भाषा का स्वभाव ही अपभंरश है।१३ पर वे 'साधु भाषा` के पक्षपाती थे। जो शब्द शिष्टजनों के द्वारा व्यवहृत नहीं होता वह अवाचक है तथा ऐसे ही अवाचक शब्द जब प्रसिद्ध हो जाते हैं तब वे अपभ्रंश बन जाते हैं।१४ स्प ट है कि शि टाजनों के द्वारा प्रयुक्त न होने से तथा संस्कारहीन होने से अव्यवहारणीय शब्दावली को अपभंरश कहते हैं।१४ महाभाष्य में अपभ्रंश का उल्लेख तीन स्थलों पर तथा अपशब्द का प्रयोग कई बार हुआ है। महर्षि पतंजलि का अपशब्द से अभिप्राय व्याकरण के नियमों से पतित शब्द से है। प्राय: 'म्लेच्छ` लोग अपशब्दों का व्यवहार करते हैं इसलिए ब्राह्मणों को अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।१५ महाभाष्य के अध्ययन से पता लगता है कि उस समय म्लेच्छ आदि आर्येतर जातियां तथा निम्न श्रेणी की जातियां शब्दों को 'बिगाड़कर` सहज प्रवृत्ति के अनुसार उनका उच्चारण करती थीं। शिष्ट भाषा के आग्रही वैयाकरणों ने जब देखा होगा कि नीची जातियां भी एक शब्द के लिए कई अप्रसिद्ध तथा शब्दानुशासन से हीन शब्दों का व्यवहार करती हैं तो उसे आर्य जाति और भाषा से गिरा हुआ, अपभ्रष्ट तथा अपभंरश कहा होगा। वैयाकरण यह भलीभांति जानते थे कि समाज में अपशब्दों का चलन अधिक है और शब्दों का व्यवहार कम है। पतंजलि हमें स्पष्ट बताते हैं कि प्रत्येक शब्द के कई अशुद्ध रूप होते हैं। इन्हें उसने अपभ्रंश कहा है। उदाहरणार्थ-उसने गौ शब्द दिया है जिसके अपभ्रंश रूप गावी, गोणी, गोता और गोपातालिका दिये हैं ।१६ जहां वैयाकरण शिष्टों के प्रयोग से हीन भाषा को अपभ्रंश कहते हैं वहीं साहित्यशाई अश्लील तथा ग्राम्यपदों को सदोष मानते हैं और काव्य में उनका निषेध करते हैं। स्पष्ट ही निम्न वर्ग के लोगों के शब्द प्रयोग सुनने में बुरे लगते हैं और संभवत: इसीलिए वे काव्य में अनुचित माने जाते हैं। भोज ने भी कहा है कि लोक को छोड़कर और कहीं ग्राम्य प्रयोग नहीं चलते। अश्लील, अमंगल और घृणासूचक शब्द को ग्राम्य कहते हैं।१७
ग्राम्य भाषा के प्रति शिष्टजनों की जो घृणा है उसे शूद्र शब्द के व्युत्पत्यर्थ निकालने के जो प्रयास हुए हैं, उससे समझा जा सकता है। सबसे पहले वेदांत सूत्र में बादरायण ने इस दिशा में प्रयास किया था। इसमें शूद्र शब्द को दो भागों में विभक्त कर दिया गया है-'शुक्` (शोक) और 'द्र` जो 'द्रु` धातु से बना है और जिसका अर्थ है दौड़ना।१८ इसकी टीका करते हुए शंकर ने इस बात की तीन वैकल्पिक व्याख्याएं की हैं। पाणिनि के व्याकरण में उणादिसूत्र के लेखक ने भी इस शब्द की कुछ ऐसी ही व्युत्पत्ति की है। ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत व्युत्पत्ति में शूद्रों की दयनीय अवस्था का चित्रण किया गया है और उसे 'पतित` बताया गया है। मनुष्यों में शूद्र एवं भाषाओं में अपभ्रंश समान रूप से घृणित हैं। प्राचीन भारतीय समाज में शूद्रों के प्रति घृणा की चरम अभिव्यक्ति मनुस्मृति में मिली। हालांकि शूद्रों की सामाजिक स्थिति के बारे में मनु के नियम बहुत हद तक पुराने निर्माताओं के विचारों की पुररुक्ति लगते हैं ।१९ कुछ नये नियम भी बनाये हैं। उन्होंने सृष्टि रचना की पुरानी कथा दुहराई है, जिसमें शूद्र का स्थान सबसे नीचे है।२० मनु ने चारों वर्णों के प्रति किये जानेवाले अभिवादन की रीति की निर्धारक विधियों को भी दुहराया है।२१ किंतु उन्होंने यह भी बताया है कि जो ब्राह्मण सही ढंग से अभिवादन का उत्तर नहीं दे उसे विद्वत्जन कभी अभिवादन नहीं करें , क्योंकि वह शूद्र के समान है।२२ पतंजलि बताते हैं कि अभिवादन का उत्तर देने में शूद्रों के संबोधन का ढंग गैर शूद्रों से भिन्न था। शूद्रों को संबोधित करने का स्वर तेज नहीं होना चाहिए। यदि कोई शूद्रों (और अक्सर वैश्यों के लिए भी) अपने मालिक की तरफ आंख उठाकर देख लेता था या उसके सामने अपमानजनक तरीके से कुछ कह देता था, तो इस अपराध के लिए भारी दंड का प्रावधान था। अधीनता से इनकार करना, उस समय सबसे ज्यादा असह्य था। कुछ स्मृतियों में तो शूद्रों द्वारा अपने मालिकों के प्रति उपयोग में लाये जानेवाले आदरसूचक शब्दों तक का प्रावधान कर दिया गया था ताकि भाषा के माध्यम से उनके भीतर नीचता की आत्मस्वीकृति का संस्कार पैदा किया जा सके।२३ यदि शूद्र अपने मालिक के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करे तो उसकी जीभ काट लेने तक की सजा दी जा सकती थी। शूद्रों को द्वेषी, हिंसक, आत्मप्रशंसक, तुनकमिजाज, असत्यभाषी, अतिलालची, कृतघ्न, विपथगामी, आलसी, प्रमादी और अशुद्ध बतलाया गया है।२४ अछूतों और चांडालों को विशेष तौर पर अशुद्ध, अविश्वासी, असत्यभाषी, चोर, दया के पात्र, क्रोधी और लालची बताया गया है। उन्हें निरर्थक झगड़े-फसादों में लगे रहने वाला बताया गया है।२५ मनु के अनुसार, यदि शूद्र जान बूझकर वेदपाठ सुनता है तो उसके कानों को पिघले हुए सीसे अथवा लाख से भर दिया जायेगा। यदि वह वैदिक मंत्रों का पाठ करता है तो उसकी जीभ काट डाली जायेगी। यदि वह इन मंत्रों को कंठस्थ करता है तो उसके शरीर को बीच से चीर दिया जायेगा। यदि वह बैठने, सोने, बातचीत करने अथवा सड़क पर टहलने में द्विजों की बराबरी करता है तो उसे शारीरिक दंड दिया जायेगा।२६

धर्मसूत्रों में वर्ण के अनुसार वंदना और अभिवादन के जो स्वरूप निर्धारित किये गये हैं, उनसे प्रकट होता है कि समाज में शूद्र कितने पराधीन थे। आपस्तंब में बताया गया है कि ब्राह्मण अपनी दाहिनी बांह को अपने कान के समानांतर, क्षत्रिय उसे अपनी छाती के स्तर तक, वैश्य अपनी कमर तक, और शूद्र उसे अपने पांव की सीध में रखकर अभिवादन करे।२७ विभिन्न वर्णों के लोगों के कुशल-क्षेम और स्वास्थ्य के संबंध में जिज्ञासा करने के लिए भिन्न-भिन्न शब्द विहित किये गये हैं।२८ क्षत्रिय के स्वास्थ्य की जिज्ञासा के लिए 'अमानय` और शूद्र के लिए 'आरोग्य।`२९ यह भी बताया गया है कि किसी क्षत्रिय अथवा वैश्य का अभिवादन करने में लोगों को केवल सर्वनाम का प्रयोग करना चाहिए, न कि उसके नाम का।३० इसका अर्थ हुआ कि मात्र शूद्र को उसके नाम से संबोधित किया जा सकता था। इस संबोधन की दृष्टि से द्विज वर्गों की स्थिति बहुत अच्छी थी। प्राचीन पालि ग्रंथों में निम्न वर्गों के लोगों ने किसी क्षत्रिय को उसके नाम से या उत्तम पुरूष में संबोधित नहीं किया है।३१ राजा उदय को गंगमाल हजाम पारिवारिक नाम से संबोधित करता है, इसपर उसकी मां बड़े रोष के साथ कहती है, इस नीच नापितपुत्र को इतना भी ज्ञान नहीं है कि वह मेरे बेटे को, जो पृथ्वी का मालिक है और क्षत्रिय जाति का है, ब्रह्मदत्त कहकर पुकारता है।३२
मनु ने बच्चों के नामकरण संस्कार में भी वर्ण विभेद किया है३३ जिससे स्वभावतया शूद्रों की हीनता झलकती है। उनका मत है कि ब्राह्मण का नाम मंगलसूचक, क्षत्रिय का नाम बलसूचक, वैश्य का नाम धनसूचक और शूद्रों का नाम निंदासूचक होना चहिए। इसी के अनुपूरक के तौर पर उन्होंने बताया है कि चारों वर्णों की उपाधि क्रमश: सुखवाचक (शर्मा) सुरक्षावाचक (वर्मा) समुन्नतिवाचक (भूति) और सेवावाचक (दास) होनी चाहिए।३४ कुल्लूक ने टीका की है कि ये उपाधियां क्रमश: शर्मन, वर्मन, भूति और दास होनी चाहिए। इसके प्रमाण नहीं मिलते कि यह परिपाटी व्यापक रूप से प्रचलित थी, किंतु नामों के संबंध में मनु के नियमों से जान पड़ता है कि नीच वर्ण के लोग ब्राह्मणकालीन समाज में घृणा के पात्र थे। इस प्रकार शूद्र के लिए प्रयुक्त 'वृषल` शब्द अपमानजनक माना जाता था। पाणिनि के समास संबंधी नियम का उदाहरण देते हुए पतंजलि ने बतया है कि 'दासी के सदृश (दास्या: सदृश:)` और 'वृषली के सदृश (वृषल्या: सदृश)` पद गाली हंै।४० वृषल को चोर की कोटि में रखा गया था और ब्राह्मण प्रधान समाज वैरभाव रखता था।३६ यह भी जानकारी मिलती है कि वृषल, दस्यु और चोर घृणा के पात्र समझे जाते थे।३७

संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में वैयाकरणों, कोशकारों एवं साहित्यालोचकों का भाषा चिंतन वर्णभेद के नियमों का शिकार है। प्राकृतों के प्रति घृणा शूद्रों के प्रति ब्राह्मणों की घृणा से समझ में आ सकती है। इस दृष्टि से प्राचीन भारतीय भाषा चिंतन देखा जा सकता है; एक सही तस्वीर के लिए।


संदर्भ

१. जोसेफ स्तालिन, मार्क्सवाद और भाषाविज्ञान की समस्याएं, परिकल्पना प्रकाशन, द्वितीय (संशोधित) हिंदी संस्करण, लखनऊ, २००२, पृ.-१३
२. डॉ. देवेन्द्रकुमार शाई, भूविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९७०, पृ.-१८
३. वही
४. 'राक्षसभिक्षुक्षपणकचेटादया मागधी प्राहु:` इति कोहल:।
५. औपस्थायिक (भरत नाट्यशा) निमुण्डा: का क्या अर्थ है, यह अस्पष्ट है।
६. यह बात स्टेंव्सलर की भूमिका के पृ.-५ और गौडबोले के ग्रंथ पृ. ४९३ में पृथ्वीधर ने बताई है। इन संस्करणों में वह शौरसेनी बोलता है; किंतु हस्तलिखित प्रतियों में इन स्थानों में सर्वत्र मगधी का प्रयोग किया गया है। देखें, आर. पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, हिंदी अनुवाद, पृ.-४६.
७. 'पृथ्वीधर` का मत है कि शाकारी, चाण्डाली और शाबरी के साथ-साथ ढक्की भी अपभंरश की बोलियों में से एक है।
८. प्राकृतमिति केचित्। नाट्यशा की विवृति, अभिनवगुप्त।
९. प्रकृति: संस्कृतम्। तत्र भवं प्राकृतम् उच्यते।-मार्कण्डेय: प्राकृतसर्वस्व, प्रकृते:१,१ संस्कृताद् आगतं प्राकृतम्। -वाग्भटालंकार की सिंहदेवगणिन् कृत टीका, २,२,. प्रकृतेरागतं प्राकृतम्। प्रकृति: संस्कृतम्।- धनिक: दशरूपक की टीका, २,९०, प्रकृति: संस्कृतम्। तत्र भवत्वात् प्राकृतं स्मृतम्। प्राकृतचन्द्रिका, पीटर्सन की तीसरी रिपोर्ट से। प्रकृत्ते: संस्कृतायास्तु विकृति: प्राकृती मता। -नरसिंह : प्राकृतशब्दप्रदीपिका। प्रकृति: संस्कृतम्। तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्।-हेमेचन्द्र: सिद्धहेमशब्दानुशासन, १,१. प्राकृतस्य तु सर्वम् एव संस्कृतम् योनि:। -कर्पूरमंजरी, वासुदेव कृत संजीविनी टीका। सिद्धं प्राकृतं त्रेघा। सिद्धं प्रसिद्धं प्राकृतं त्रेधा भवति। संस्कृतं योनि:। तच्चेदं-मात्रा, मत्ता। नित्यं, णिच्यं इत्यादि।-चण्ड; प्राकृतप्रकाश, सटिप्पण हस्तलिखित ग्रंथ से।
१०. इस विषय पर विस्तृत अध्ययन के लिए देखें प्राकृत भाषाओं का व्याकारण।
११. एम.एस. कत्रे, प्राकृत लैंग्वेज एंड देयर कंट्रिव्यूशन टु इंडियन कल्चर पृ-२२
१२. शब्द: संस्कारहीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षिते। तमपभ्रशंमिच्छन्ति विशिष्टार्थ निवेशिनम्।- वाक्यपदीय, ब्रह्मकांड, १४८.
१३. डा. देवेन्द्रकुमार शासी, पूर्वोद्धृत, पृ.-१६.
१४. पारम्पर्यादपभ्रंशा विगुणेष्वमिधातृषु। प्रसिद्धिमागता येषु तेषां साधुरवाचक:।।- वही, १५४.
१५. ते%सुए हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:। तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छित वै नापभाषित वै, म्लेच्छो ह वा एष यदपशब्द:। -महाभाष्य। अपशब्दत्वं व्याकरणानुगतशब्दस्येषद्भ्रंशन एव प्रसिद्धिमिति भाव:। वही.
१६. भूयांसो%पशब्दा:, अल्पीयांस: शब्दा इति। एकैकस्य ही शब्दस्य बहवोपभ्रंशा:। तद्यथा गौरित्यस्य शब्दस्य गावी गौणी गोता गोपोतलिकेत्यादयो बहवो%पभ्रंशा:।
१७. अश्लीलामङगलघृणावदर्थ ग्राम्यमुच्यते।- सरस्वतीकण्ठाभरण,१, १४४
१८. वेदांत सूत्र, १.३.३४ 'शुगस्य तदनादर श्रवणात तदाद्रवणत्: सूच्यते।`
१९. रामशरण शर्मा, शूद्रों का प्राचीन इतिहास, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, १९९५, पृष्‍ठ.४८, पाद टिप्पणी संख्या-२०८
२०. मनुस्मृति, १.३१.
२१. वही, ११.१२७.
२२. वही, ११.१२६.
२३. भगवतशरण उपाध्याय, खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृ.-११६.
२४. एस. जी. सरदेसाई, प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, जयपुर, १९८८, पृ.-७२
२५. वही.
२६. मनुस्मृति, १२.४-७; देखें प्राचीन भारत में प्रगति एवं रूढ़ि, पृ.-२१३
२७. आपस्तंब धर्मसूत्र, १.४.१४. २६-२९; गौतम धर्मसूत्र, अ ४१-४२,
२८. यह परंपरा आधुनिक काल में भी देखी गई। स्वामी सहजानंद सरस्वती ने जैसा कि लिखा है, 'ब्राह्मण ही परस्पर एक दूसरे को नमस्कार करते हैं और दूसरे लोग प्रणाम ही करते हैं, परंतु यदि अन्य जाति नमस्कार शब्द का प्रयोग कर देवे तो दंगा मच जावे। हालांकि दोनों के अर्थ में कुछ भी भेद नहीं है। परंतु सांकेतिक भेद मान लिया गया है।` ब्रह्मर्षि वंश विस्तर, भूमिका से, पृ.-१९; 'भो` शब्द का प्रयोग राजन्यम या वैश्य के संबोधन में किया जाता था, शूद्र के संबोधन में नहीं। (भो राजन्यविशां वा) पतंजलि ऑन पाणिनीज ग्रामर अपपप.२.८२-८३
२९. आपस्तंब धर्मसूत्र, १.४.१४. २६-२९; गौतम धर्मसूत्र, अ ४१-४२.
३०. आपस्तंब धर्मसूत्र, १.४.१४.२३, 'सर्वनाम्ना यियो राजन्यवैश्यो च न नाम्ना।`
३१. फिक, दि सोशल ऑर्गेनारइजेशन ऑफ नार्थ इस्टर्न इंडिया, पृ.-८३
३२. जातक, पपप पृ.-४५२
३३. मनुस्मृति, पप ३१. 'शूद्रस्य तु जुगुण्सितम्।` देखें लेव तॉलस्तॉय, पुनरूत्थान, हिंदी अनुवाद, प्रगति प्रकाशन, मास्को, १९७७, पृ.-१४-१५ 'दोनों बहिनें उसे कात्यूशा कहकर बुलातीं। यह नाम इतना परिष्कृत नहीं था जितना कि कातेन्का, पर साथ ही इतना भद्दा भी नहीं था जितना कात्का`। और देखें, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, बिल्लेसुर बकरिहा, पृ.-१ 'बिल्लेमुर`- नाम का शुद्ध रूप बड़े पते से मालूम हुआ- 'बिल्वेश्वर` है। और देखें पंकज कुमार चौधरी की कविता 'श्राद्ध का भोज` जिसमें गांव के सवर्णों एवं अवर्णों के लिए अलग-अलग संबोधनों का प्रयोग है। गांव के सर्वण अरविंद के लिए 'अरविंद बाबू` और 'राजा भाई जी` जैसे संबोधनों का प्रयोग है। जबकि अवर्ण पात्रों के नाम 'अकलूआ`, 'चटूआ`, 'बिसेसरा` आदि हैं। भोज में सामग्री परोसने वाला एक ही व्यक्ति अरविंद बाबू से पूछता है तो 'सब्जी` का उच्चारण करता है जबकि अकलुआ, चटूआ और बिसेसरा से पूछते हुए 'तरकारी` शब्द का प्रयोग करता है।
३४. मनुस्मृति, ११.३२. मध्यकाल में भक्ति मार्ग के अधिकतर कवि, जो समाज के निचले तबके का प्रतिनिधित्व करते थे, अपने नाम के अन्त में दास लगाते थे। (मनुस्मृति, ११.३२ का संदर्भ देखें।) 'शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम वैश्यस्यपुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुक्तम्।
३५. पतंजलि ऑन पाणिनीज ग्रामर, अप २.११
३६. वही, 2 .२.११ और 3 . २.१२७.
३७. वही, . ३.३६.


राजू रंजन प्रसाद युवा इतिहासकार व शोधकर्ता हैं।

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