December 24, 2007

बुद्ध, मार्क्स और आज की दुनिया



मई महीने के पूरे चांद का दिन गौतम बुद्ध का जन्म दिन है और ५ मई कार्ल मार्क्स का। इसलिए इस बार जब लिखने बैठा तब इन दोनों का स्मरण स्वाभाविक था। इन दोनों के विचारों ने हमारी पीढ़ी और समय को प्रभावित किया था। पूरी बीसवीं सदी मुख्य तौर से मार्क्सवादी और मार्क्सवाद विरोधी खेमों में बंटी रही। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनिया को बुद्ध ने भी अपने अंदाज में प्रभावित किया।

कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र जब मैंने पहली दफा पढ़ा था तब हाई स्कूल में था। इस पुस्तिका की अधिकांश बातें हमारे सिर के ऊपर से निकल गयी थीं, फिर भी बहुत कुछ ऐसा था, जिसने सम्मोहित किया था। हमारी पीढ़ी घर में पिता और बाहर में परमपिता से डरने वाली पीढ़ी थी। तमाम नैतिकतायें हमें इनका पालतू होना सिखलाती थीं। इस घोषणा-पत्र के द्वारा हमने वर्ग-संघर्ष, पूंजी, सर्वहारा जैसे कुछ नये शब्द और परिवार, राष्ट्र व आजादी के नये अर्थ पाये थे। 'कम्युनिस्ट क्रांति के भय से शासक वर्ग कांपते हैं तो कांपे! सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है और जीतने के लिए उनके पास सारी दुनिया है` जैसे ओजपूर्ण समापन ने हमारे संस्कारों की चूलें हिला दी थीं। वास्तविक आजादी संस्कारों की आजादी होती है। कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र ने हमें आजादी का नया अर्थ दिया था। गांव में बैठ कर हम दुनिया की आजादी का स्वप्न देखते थे। इस आजादी की तलाश में हम साहित्य, राजनीति, इतिहास और विज्ञान के पृष्ठ-दर-पृष्ठ पलटते थे। कभी गोर्की और चेखब मिलते थे, कभी माओ और फिदेल को । इसी क्रम में जब हमने इतिहास में प्रवेश किया तब गौतम बुद्ध से मुलाकात हुई। बुद्ध और मार्क्स में हमने अद्भुत साम्य पाया।

मार्क्स वाया शॉपेनहावर बुद्ध के नाम से तो परिचित थे,उनकी विचारधारा से नहीं। हालांकि मार्क्स ने जर्मन दर्शनशा में ही अपनी जड़ें तलाशी हैं, और हीगेल के दर्शन को ही पैर के बल खड़ा किया है, लेकिन दर्शनशा का कोई विद्यार्थी कह सकता है कि हीगेल कि अपेक्षा बुद्ध मार्क्स के ज्यादा करीब हैं।

बुद्ध के गुजरे ढ़ाई हजार साल हुए और मार्क्स के गुजरे कोई सवा सौ साल। आज बहुत सी स्थितियां बदली हैं। अनेक आविष्कारों और अर्थशा व राजनीति के क्षेत्र में नये प्रयोगों ने हमें नये तरीके से सोचने के लिए विवश किया है। आज न बुद्ध का जमाना है, न मार्क्स का। इसलिए आज हम यदि बुद्ध और मार्क्स को हू-ब-हू वैसे ही अंगीकार करना चाहें जैसे वे अपने जमाने में थे, तो हम अजायबघर की सामग्री बन जायेंगे। लेकिन उन दोनों के अध्ययन का अभाव हमारी विचार प्रणाली को कमजोर करेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।

हमारे देश में बुद्ध और मार्क्स से लोग बीसवीं सदी के आरंभ में परिचित हुए। मार्क्स से बीसवीं सदी के आरंभ में परिचित होने की बात तो समझ में आती है क्योंकि उनका निधन १८८३ में हुआ और वे जर्मन थे, किन्तु बुद्ध तो हमारे ही देश के थे और कोई हजार वर्ष तक उनके धर्म की धूम हमारे देश में रही थी। यह अजीब बात है कि वर्णाश्रम धर्म वालों ने बुद्ध का निर्वासन इस तरह किया था कि वे पुन: विदेशियों के द्वारा ही हमारे बीच आ सके। एडविन अर्नाल्ड के काव्य 'लाइट ऑफ एशिया` के द्वारा उन्नीसवीं सदी के आखिर में हमारे भद्रलोक को बुद्ध की जानकारी मिली। बीसवीं सदी के आरंभ में पुरातात्विक खुदाइयों से जब मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की खुदाई हुई तो आर्य श्रेष्ठता का दंभ ढीला पड़ा, क्योंकि पता चला कि आर्य संस्कृति से पूर्व ही यहां उससे कहीं श्रेष्ठ सभ्यता-संस्कृति मौजूद थी। कुम्हरार, नालंदा, विक्रमशिला आदि की खुदाई के बाद लोगों को अशोक और बुद्ध के बारे में विस्तार से जानकारी मिली।

कभी-कभी सोचता हूं कि जोतिबा फुले को यदि बुद्ध की जानकारी मिल गयी होती तो क्या होता। फुले भारत के दलितों के लिए इतिहास ढूंढते पौराणिक कथाओं में पहुंचे और बलि राजा को अपना नायक बनाया। भारत के लिपिबद्ध इतिहास में उनके लिए कुछ नहीं था। उन्हें अपने लिए एक गॉड की जरूरत थी, निर्मिक नाम से उन्होंने अपना भगवान गढ़ा। फुले को यदि संपूर्णता के साथ बुद्ध और बौद्ध इतिहास की जानकारी होती तो अपनी वैचारिकी को वे अपेक्षाकृत ज्यादा विवेकपूर्ण बनाते और तब संभवत: आधुनिक भारत के इतिहास का चेहरा जरा भिन्न होता। फुले रेगिस्तान के प्यासे हिरण की तरह बहुत भटकते रहे। वे समानता के आग्रही थे। ब्राह्मणवाद से वे मुक्ति चाहते थे। हिन्दू वर्णधर्म का खात्मा चाहते थे। किसानों और शूद्रों का राज चाहते थे। अपनी चेतना से जितना हो सका उन्होंने किया। अंबेडकर को बुद्ध और मार्क्स दोनों उपलब्ध थे, उन्होंने दोनों का उपयोग भी किया। इसलिए वैचारिक रूप से वे ज्यादा दुरुस्त और संतुलित हैं।

आज यह कहना मुश्किल है कि बुद्ध और मार्क्स हमारे समय को कितना प्रभावित कर रहे हैं। कुछ सामाजिक दार्शनिक विचारहीनता के दौर की बात करते हैं। लेकिन जिसे लोग विचारहीनता कहते हैं, वह भी अपने आप में एक विचार है। पुराने जमाने के चार्वाक की बातों को लें तो कमोबेश ऐसी ही विचारहीनता अथवा सभी मान्य विचारों के निषेध की बात वह भी करते थे।आज कहीं-न-कहीं चार्वाकवाद के प्रभाव में हमारा जमाना आ चुका है। कम से कम ऋण लेकर घी पीने की उनकी सलाह (ऋण संस्कृति) तो हमारे समय का सबसे बड़ा विचार बन गया है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि चार्वाकवादियों ने वेद और ईश्वर का चाहे जितना निषेध किया हो सामाजिक परिर्वतन के लिए कुछ नहीं किया। वर्ण धर्म पर वे चुप थे। इसीलिए कुछ मुकम्मल मार्क्सवादी मित्र जब भारतीय दर्शन में लोकायत और चार्वाक से अपनी नजदीकी तलाशते हैं तो मुझे एतराज होता है।

मार्क्स ने बहुत सी बातें की हैं लेकिन उनकी बात जो आज भी हमें उत्साहित करती है वह यह कि अब तक के दार्शनिकों ने विभिन्न तरह से विश्व के स्वरूप की व्याख्या की है, लेकिन सवाल यह है कि इसे (विश्व समाज को) बदला कैसे जाय।
बुद्ध और मार्क्स यहां एक साथ नजर आते हैं।
  • प्रेमकुमार मणि

प्रतिक्रिया

पत्रिका का तीसरा अंक मिला। मेरी शुभकामनाएं! मौजूदा समय में जब विचारों और इतिहास के अंत की घोषणाएं धूम-धाम से की जा रही हो, तब 'जन विकल्प` जैसी पत्रिका की जरूरत ज्यादा ही महसूस होती है। आप एक बहुत ही जरूरी काम कर रहे हैं। यह पत्रिका ये बता रही है कि इतिहास का अंत नहीं हुआ है, हुआ सिर्फ यह है कि नया इतिहास नया किरदार लिख रहा है। सामंती युग के हीरो अब इस खेल में नहीं दिख रहे, तो कुछ लोग कम रोशनी का बहाना कर गेम रोकना चाहते हैं। भारतीय संदर्भ में, ब्राह्मणवाद इस समय लोकतंत्र और बाजार के दोहरे हमले से चरमरा रहा है। शहरीकरण और इंटरकास्ट शादियों की वजह से जाति की बुनियाद हिल रही है। समाज में इसकी वजह से तनाव है, पर ये शुभ नहीं है। आपकी पत्रिका इस तनाव को दर्ज कर रही है। आप मौजूदा समय का इतिहास लिख रहे हैं। इतनी बड़ी भूमिका निभाने में आपको कामयाबी मिले।
-दिलीप मंडल, दिल्ली

American detained for Puri temple visit ( 3rd March 2007, TOI), temple administration took a fine of Rs 209 from him even as some shrine priests insisted that the BHOG for the day should be dumped as it had been defiled by the presence of a non Hindu inside the temple.
The religion which teaches you to not to treat people with equal is not a religion. Csateism is backbone of Hinduism & only emancipation is a conversion. These were the people those were talking stupidly over the Racism, without knowing that Casteism is much more dangerous than racism.
A recent study has shown that in India about 63% Hindu temples prohibits Dalits. We do not want to go there as a worshiping Hindu’s fake gods but we demand equal rights over everything.
-Pradeep Atri. Mukerian, Punjab.


मार्च अंक में स्वामीनाथन पर आलेख पूरा पढ़ गया। पत्रिका इस दृष्टि से अच्छी है कि इसे पढ़ने में कठिनाई नहीं होती। मैं तकनीकी पहलू की बात कर रहा हूं। यह ठीक है कि इसे यूनीकोड पर यानी मंगल फौंट पर इन्टरनेट पर लगा कर सारी दुनिया के पाठकों के पास पहुंचाना चाहिए।
-विनोद रिंगानिया, गुवाहाटी

साहित्य के लिए किया गया प्रयास समाज के लिए एक वरदान है। 'जन विकल्प` द्वारा किए जा रहे आपके कार्य सराहनीय हैं।
-Devi Nangrani

I am not comfortable with Hindi. But Hindi speaking friends of HETUBADI magazine are appreaciating Jan Vikalp very much. we will be able to organise a good no. of subscribers.
-Ananta Acharya, Kolkatta. asim.ananta@gmail.com

इनके भी संदेश मिले : एसआर हरनोट, शिमला, विजेन्द्र एस विज, दिल्ली, गणेश मिश्र, अम्बिकापुर कपिल, अमरावती, हर्षित पाण्डे, आईआईटी, रूड़की, मृत्युंजय प्रभाकर, दिल्ली, अनन्त आचार्य, कलकत्ता, मनोरंजन मुकेश, दिल्ली, नचिकेत, थाने, विन्नु पहवानी धीरेश सैनी, मुजफ्फरनगर, पूरन मुद्गिल, भोपाल, कमल सिहं चौहान, खंडवा, मप्र, महेश सांख्यधर, बिजनौर, संतकुमार टण्डन 'रसिक`, इलाहाबाद, अजेय, लाहुल स्पिति।

फिर उभरा फासीवादी जिन्न



  • स्वतंत्र मिश्र

सीडी जैसे तमाम प्रकरण भाजपा की रणनीति के औजार हैं । इस घटना से जुड़ी तमाम खबरों के अध्ययन के बाद जाहिर तौर पर यह घटना प्रायोजित मालूम पड़ती है। भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस का गठन १९२५ में इसी आधार पर किया गया था।


किसी कारण से मेरे टेलीवीजन के रिमोट ने काम करना बंद कर दिया था। मेरी मजबूरी यह हो गयी कि मैं एक मात्र खबरिया चैनल आईबीएन-७ का दर्शन कर सकूं, जिस पर भाजपा द्वारा प्रचारित जहरीली सीडी का विज्ञापननुमा समाचार अनगिनत ब्रेकों के बाद भी अबाध गति से प्रसारित हो रहा था। खबरों में सीडीमयता के प्रवाह के बारे में अगर कहूं कि चैनल आकंठ 'जहरीली सीडी` में डूब गया था तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन, केशरीनाथ त्रिपाठी, राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, रविशंकर प्रसाद, वैंकेया नायडू, लालकृष्ण आडवाणी समेत तमाम लोग सीडी के इस जहरीले प्रकरण पर कभी शर्माते , कभी घबराते हुए, कभी दहाड़ते हुए भीगते-सूखते बारी-बारी से मीडिया के जरिये आम वोटरों से रू-ब-रू होते रहे। अभी तक यूपी में अमिताभी करिश्मा के जरिये समाजवादी पार्टी ने 'यूपी में बड़ा दम है` की तर्ज वाले ढेर सारे प्रचारों के जरिये लाभ लेने की कोशिश की थी ताकि 'मुलायम कायम रहें`। इसके बाद कांग्रेस ने विज्ञापन के जरिये राज्य की खस्ताहाल तस्वीरों को दिखाकर जनता को यह बताने की कोशिश की कि 'इससे तो अच्छी १९ साल पहले कांग्रेस की सरकार` थी। भाजपा इस चुनाव में एक सिरे से गायब मालूम पड़ रही थी। चुनाव प्रचार के अंतिम चरणों में अचानक चैनलों के सौजन्य से एक सीडी को चलाने की कोशिश की गयी। साथ में चैनल के एंकरों द्वारा यह बताया जाता रहा कि वे इसलिए सीडी का प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं क्योंकि इससे दो संप्रदायों के बीच दंगा भड़क जाने का निश्चित खतरा पैदा हो जाएगा। चैनल वालों ने इस सीडी का राज आम दर्शकों के सामने साफ तौर पर बयां नहीं किया इसलिए दंगा नहीं भड़का। हालांकि भाजपा को इस विस्फोट का जो लाभ पाना था, वह उसे चुनाव समीक्षकों के अनुसार मिल जाएगा। जनता के बीच सौहार्द बना रहे चैनल की इस सदिच्छा के लिए उन्‍हें धन्यवाद दिया जाना चाहिए। परंतु उनकी सदिच्छा जनता के हित की कुछ खबर विशेष तक क्यों सिमट कर रह जाती है, इस पर कभी और बात करना ठीक होगा। फिलहाल अभी हिट हो चुकी सीडी की सुनिश्चित और सफल होती योजनाओं के वर्तमान संदर्भों पर चर्चा लाजिमी होगी।

सीडी के जारी होते ही टेलीविजन और समाचार पत्रों में आती दनादन खबरों ने उत्तर प्रदेश चुनाव में हाशिये पर खड़ी भारतीय जनता पार्टी को चुनाव के केंद्र में ला दिया। हालत यह है कि तीसरे चरण का चुनाव संपन्न होने के बाद एनडीटीवी एक्जिट पोल में चुनाव समीक्षकों ने माना कि भाजपा अब तक २०-२४ सीट पर बढ़त बनाते हुए सबसे आगे चल रही है। वैसे कुल मिलाकर इस एक्जिट पोल के अनुसार बसपा इस बार की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आएगी। चुनाव में सबसे ज्यादा घाटा समाजवादी पार्टी का होना तय माना जा रहा है। सीडी प्रकरण से पूर्व टीवी पर आ रहे विज्ञापनों के हिसाब से समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच जबरदस्त घमासान की तस्वीर बनती दिख रही थी। परंतु सीडी की नौटंकी के बाद अब समीकरण बदल चुका लगता है। इस प्रकरण से भाजपा को मिलता लाभ देखकर तमाम तरह की क्षुद्रता से कोई भी पार्टी बचना नहीं चाह रही है। इस घटना के बाद राहुल गांधी ने भी विवाद खड़ा करने की मानसिकता से परिवारवादी परिभाषा से रचा बसा हुआ बयान दे डाला।


परिवारवाद कांगेस की राजनीति का मूल आधार रहा है। बहुजन समाज पार्टी पर भाजपा ने यह आरोप लगाया कि पार्टी ने 'बहनजी का संदेश` पुस्तिका जारी की है। इस पुस्तिका में उन्होंने सीधे तौर पर विभिन्न जातियों के लिए आपत्तिजनक बातें कहीं हैं। वास्तव में आज की राजनीति का जो मूल सार है उसके हिसाब से ऐसी बात जायज सी हो गयी लगती है। चुनाव में बाजी मारने के लिए सारी बुर्जुआ पार्टियां नैतिकता आदि राजनीति के मूल सवालों को दरकिनार करके जाति, संप्रदाय, दंगे, मंदिर-मस्जिद, सीडी, साड़ी आदि जैसे कुछ बेहूदा खेल रचकर सत्ता हासिल कर लेना चाहती हैं। बुर्जुआ राजनीति में सत्ता पर काबिज होने की दौड़ में यह हमेशा से एक नियम की तरह लागू रहा है। गांधी इस देश के आज तक के सबसे ताकतवर जन नेता के रूप में उभरे हैं। परंतु इतिहास के पन्नों में आप झांककर देखें तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस से पट्टाभी सीतारमैया की हार पर गांधी जी ने जो बयान दिया था, वह उनकी महानता की सीमाओं को दर्शाता है। सत्ता की लालसा मनुष्य की सीमाओं को उजागर करती है। इसकी पुष्टि के लिए गांधी जी का उद्धरण दे रहा हूं। उस समय की राजनीति में नैतिकता का स्थान था। इसलिए नेताजी ने इस घटना के बाद अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया था। वे बापू का सम्मान पूर्ववत् करते रहे। राजनीति में त्याग की भावना का महत्व था। आज की राजनीति और राजनेताओं, नेताओं से स्वार्थ की बू आती है। हो सकता है कि एक-आध लोग इस सामान्यीकरण से परे हो सकते हैं। इसलिए आज के दौर में ऐसी तात्कालिक घटनाओं के संदर्भ में मैं व्यक्तिगत तौर पर विभिन्न पार्टियों द्वारा इस्तेमाल किये जानेवाले ऐसे चुनावी प्रस्तावों को और उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि के आधार पर इन प्रकरणों को समझे जाने की जरूरत महसूस करता हूं। दरअसल इन तमाम बुर्जुआ पार्टियों में से किसी भी पार्टी के लिए ऐसे तमाम प्रतीकों का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी पार्टी की ऐसी हरकतें अनायस कहीं आसमान से नहीं टपक पड़ती हंै और न ही पाताल फोड़कर आश्चर्यजनक रूप से सामने आ जाती हंै। यह सब कुछ उनकी विचारधारा के तहत् पनपती और बढ़ती रहती हैं। ऐसे प्रकरण ज्वालामुखी की तरह या बादलों के संधनन प्रक्रिया की तरह मौके की ताक में रहती हैं, मौका पाते ही यह जबरदस्त ढंग से फट पड़ती हैं। इन प्रकरणों के उत्स ढूंढे जाने चाहिए।

सीडी जैसे तमाम प्रकरण भाजपा की रणनीति का एक औजार हैं। इस घटना से जुड़ी तमाम खबरों के अध्ययन के बाद जाहिर तौर पर यह घटना प्रायोजित मालूम पड़ती है। भाजपा के मातृ पार्टी आरएसएस का गठन १९२५ में इस बिना पर ही किया गया था। वे मुगल शासन में हुए हिंदुओं पर अत्याचार के नाम पर सांस्कृतिक तौर पर हिंदुओं के मन में विष भर देना चाहती थीं। लेकिन लंबे समय की कार्यवाही के नतीजों के तौर पर और खासकर गांधी की हत्या के बाद आरएसएस का दमन बड़े स्तर पर हुआ। आरएसएस कलंकित होकर हाशिये पर चली गयी थी। इस घटना के बाद सबक के तौर पर आरएसएस को लगा कि केवल सांस्कृतिक स्तर पर कार्यकर्ता तैयार करने से काम नहीं चलने वाला है। उसने राजनीतिक कार्यकर्ता तैयार करने के लिए संघ (फैक्ट्री) का निर्माण किया जिसने आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी के रूप में 'राष्ट्रीय` पार्टी का आकार ले लिया। गांधी की हत्या से कलंकित आरएसएस को राजनीतिक स्वीकृति जेपी आंदोलन में जयप्रकाश नारायण के जीवन की सबसे बड़ी भूल के तौर मिल पायी। गांधी के मृत्यु के समय राजनीति का मतलब चरित्र की ऊंचाईयों से लगाया जाता था। यही कारण है कि गांधी की हत्या आरएसएस को बहुत लंबे समय तक महंगी साबित होती रही। आज राजनीति का मतलब अपनी सारी इच्छाओं के पूरित होने या सबकुछ गटक लेने से लगाया जाता है। इन हालातों में जहरीली सीडी, अयोध्या, गोधरा, नांदेड़ आदि जैसे षड्यंत्र हों या फिर लालजी टंडन द्वारा पिछले लोकसभा चुनाव में साड़ी बांटने के दौरान मची अफरा-तफरी से कई लोगों की मृत्यु का मामला हो कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। एक बात और है कि राजनीति में ऐसी शक्तियों को चुनौती देने के लिए किसी जन-संगठन ने अपना जनाधार इस रूप में नहीं फैलाया जिससे इन शक्तियों को सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर पराजित किया जा सके। समाज को सही दिशा में गतिमान किया जा सके यह जन-संगठनों के लिए एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी होगी। जन-संगठनों को गोलबंद होकर इन फासीवादी ताकतों द्वारा रोजी, रोटी के मसलों को पीछे धकेलकर सीडी जैसे खेल खेलने से रोकना होगा। अन्यथा रोजी, रोटी और बुनियादी सवालों की लड़ाई को अपमानित होने से नहीं रोका जा सकेगा।

सुशासन : टोटकातंत्र युग का नया फंडा

समकाल


  • राजकुमार राकेश


सच के सम्प्रेषण के लिए दो व्यक्तियों की जरुरत रहती है
एक बोलने वाला और दूसरा सुनने वाला। -हैनरी डेविड थौरु


संयुक्‍त राष्ट्र संघ के आर्थिक एवं सामाजिक मामले विभाग की एक प्रशाखा द्वारा लोकप्रशासन एवं विकास प्रबंधन प्रभाग ने संयुक्त राष्ट्र लोकसेवा सरकारों के चयन के लिए, ३ नवम्बर, २००६ को एक परिचय पत्र जारी किया है, जिसकी सूचना भारतीय नागरिकों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी सैन्टर फौर गुड गवर्नेंस, हैदराबाद को सौंपी गई है। यह सैन्टर संयुक्त राष्ट्र संघ ऑन लाईन नेटवर्क-जनप्रशासन एवं वित्त (यू.एन.पी.ए.एफ) का सदस्य है। यह परिपत्र भारतीय नागरिकों को खम ठोककर सुचित करता है कि वर्ष २००७ के लिए संयुक्त राष्ट्र जनसेवा पुरस्कार निम्नलिखित श्रेणियों में वितरित किए जाएंगे :

  • जनसेवा में पारदर्शिता, जवाबदेही एवं उत्तरदायित्व को प्रोन्नत करने हेतु।
  • सेवाओं के निष्पादन की प्रोन्नति के लिए।
  • आविष्कारक विधियों के सौजन्य से नीति-निर्माण के फैसलों में सहभागिता बढ़ाने हेतु, मसलन सहभागिता पूर्ण बजट निर्माण, सामाजिक ऑडिट एवं मॉनिटरिंग इत्यादि।
इतनी व्यापक व महत्वूपर्ण दिखने वाली शब्दावली निश्चय ही पहली नजर में महान प्रतीत होती है। सचमुच जैसे बहुत सी रूढ़ व्यवस्थाएं टूट रही हैं, ढह रही हैं। जैसे इस धरती पर बहुत कुछ या लगभग समूूचा ही बदलता चल रहा है या बदल जाने को है। आप को विश्वास दिलवाया जा रहा है कि आप सिर्फ महसूस कीजिए कि आपके जीवन में कितना कुछ बदल चुका है। जब जीवन ही बदल रहा हो तो भला फिर उसके मंतव्य और उन मंतव्यों की परिभाषाएं क्यों नहीं बदलंेगी। लेकिन हमारे जैसे, कुछ मूढ़मति किस्म के लोग हैं जो इन बदलावों के नकारात्मक प्रभावों को पकड़ने से बच नहीं पाते। गलत और ठीक के बीच की जिस झीनी रेखा को लगातार समाप्त करने की कोशिशें की जा रही हैं, उन्हीं के बीच कहीं यह प्रभाव भी दफनाए जाने की प्रक्रियाएं जारी है। दुनिया के पूंजीवादी अलम्बरदार चमत्कृत कर डालने वाली ऐसी नई शब्दावलियां एवं सामर्थ्यपूर्ण आर्थिक परिभाषाएं गढ़ते हुए संसार को, उस पूंजी के सागर में डुबो देने में जुटे हैं जो सबल और समर्थ की पक्षधर मात्र है। संसार के अधिकांश समाज की त्रासदी यह है कि उसे सागर की सतह से नीचे उतराने का मौका मिलने की कोई संभावना बचती ही नहीं। विश्वास दिलवाया जा रहा है कि आज अमानवीयता की हदों तक भी जो कुछ बदलता चल रहा है वही जरूरी है। उसका कोई विकल्प तक नहीं। इस पर सोचने, विचारने या गौर करने की जरूरत नहीं है बल्कि अगर कोई जरूरत है तो उसे स्वीकार करने और आत्मसात करने भर की है। पूंजीवादी-सामरिक भूमंडलीकरण की खासियत यही है कि वह एक ऐसी अनुकूलित (कंडीशन्ड) मानसिक प्रक्रिया का निर्माण करता चलता है जो हमें अपने स्तर पर अच्छे या बुरे का फैसला करने का मौका दिए बगैर केवल यह प्रतिपादित करता चलता है कि जो कुछ भी बदलता चल रहा है वह तांत्रिकों के टोटकों की तरह अच्छा ही अच्छा है। इन्हीं पूंजीवादी टोटकों में अनवरत वृद्धि करने के लिए आज का संयुक्त राष्ट्र अपना भरपूर और सक्रिय योगदान दे रहा है। उसके उक्त परिपत्र की भावना का उन्मेष इसी अनुकूलित भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से हो रहा है जो संसार को सामरिक नवपूंजी के बल पर दबाए रखकर अपना गुलाम बनाती है। जो इसके विरोध में तनिक सा भी सिर उठाए उसे आधुनिकतम हथियारों से रौंद दिया जाता है। या अंतत: सद्दाम हुसैन की नियति तक पहुंचा दिया जाता है।

इस भूमंडलीकरण के अभिप्रेत और अनुयायी पिछले कुछ वर्षों से खूब प्रचारित कर रहे हैं कि पूंजीवादी आकार पाने को आतुर हर व्यवस्था में अब 'अच्छे शासन` की जरूरत है। बल्कि इसका निहितार्थ तो यह है कि पूंजीवादी शासन ही अच्छा शासन है। इसलिए इसकी उत्पत्ति, परिभाषीकरण और कार्यान्वयन व्यापक पैमाने पर तीसरी दुनिया के देशों को निर्यात किया व करवाया जा रहा है। 'सुशासन` मेरा अनुवाद है जो सही नहीं है। इसका मूल अंग्रेजी शब्द 'गुड गवर्नेंस` है जो टी.वी समाचार चैनलों में उस 'एक्सक्लूसिव` समाचार की तरह है जिसे जानते सभी हैं फिर भी उसका कॉपीराईट 'एक्सक्लूसिव` कहकर हर कोई अपने नाम लिख लेना चाहता है। इस 'गुड गवर्नेंस` की प्रतिध्वनि ऐसी कमजिन है जो वस्तुत: अपना कोई हिन्दी समानार्थक सम्भव ही नहीं छोड़ती। इसलिए सुशासन कहने की बजाए 'गुड गवर्नेंस` कहना ही उचित होगा। वैसे भी 'सुशासन-अच्छा शासन` की हुंकारें लगाने का मतलब होगा कि आज के हमारे इन बुरे शासकों में, सुधार की हर गुंजाइश के बावजूद, इनके पूर्वजों ने हमें बुरे शासन में सांस लेते रहने को मजबूर कर रखा था। असल में आज के शासन की अमानवीयताएं पिछले किसी भी समय की तुलना में चरम पर हैं और अनवरत विकृतियों की ओर भी बढ़ती चल रही हैं। इन सब के बीच ही 'गुड गवर्नेंस` का फंडा है। इसलिए हमें इस तथ्य से शुरू करना होगा कि यह 'गुड गवर्नेंस` असल में शासन के राजनैतिक या प्रशासनिक अर्थों में अच्छा शासन नहीं है, बल्कि इसका सीधा संबंध उस पूंजीवादी-निजीकरण वाली आर्थिक नीति से है जो संसार को, खास तौर पर तीसरी दुनिया के देशों को भूमंडलीकरण के नाम पर अमेरिका का उपनिवेश बनाती है जिसमें केवल पूंजी और पूंजी स्वामियों का अस्तित्व और वर्चस्व होगा। बाकी बचे दो जून की रोटी के लिए हाड़ तोड़ते लोग उसमें सिर्फ दास होंगे। उनका जीवित अस्तित्व इस धरती पर उत्तर-आधुनिक गुलामों से ज्यादा कुछ नहीं होगा। वे सिर्फ वोट डालने वाले बटन की तरह संचालित होंगे।
इस भूमंडलीकरण ने पिछले देढ़ दशक के अपने भारतीय सफर में कल्पनातीत और अबाध वेग से आर्थिक बाजारीकरण को ऐसी दिशा में मोड़ दिया है जिसके हर शिखर और हर खाई में केवल कार्पोरेट उपभोक्तावाद की चकाचौंध स्थापित हो चुकी है या होने वाली है। वहां यह पूरी तरह स्थापित हो चुका है कि इस राष्ट्र-राज्य की अपनी निजी अर्थनीति का कोई अर्थ मौजूद नहीं है। भले ही सत्तासीन शासक अपने पिछलग्गू अर्थशाय़िों की पीठ पर सवार होकर नई शब्दाबलियां गढ़ रहे हों, लेकिन अपने हर अस्तित्व में वे अब महज बाजार की उत्पत्ति, उसकी उन्नति और उसके विकास के सेवक मात्र हैं। इस देश की जनता के नहीं जो वोट देकर उन्हें सत्ता के एयर-कंडीशन्ड गलियारों तक पहुंचाती है। इनकी सार्वजनिक गर्जनाओं का असल में इस देश की व्यापक जनता और उसके हित से रत्तीभर भी लेना-देना नहीं है, क्योंकि यह सारी आवाजें उसके लिए नहीं बल्कि सुदूर सात समंदर पार बैठे अपने वैश्विक आकाओं को सम्बोधित है। यह जनता जो उन पर घोर विश्वास किए बैठी है वह पूरी तरह भ्रमित है। इस भ्रमित यथार्थ का संदेश उनके लिए सिर्फ यही है कि उदारीकरण, खुले बाजारों की चका-चौंध, निजीकरण की आंधियां, लाभ कमाने की असीमित इच्छाएं एवं उपभोक्तावादी दर्शन की दमक अब भारतीय समाज के जीवन में इस कदर प्रवेश कर चुकी है जिससे आने वाली कई शताब्दियों तक मुक्ति का कोई मार्ग बचता ही नहीं। अमेरिकाई आका क्या यही संदेश भारत सहित संसार की पूरी मानवता को नहीं देना चाहते?

इन बदलावों ने एक ओर जहां भारतीय समाज के आर्थिक रूप से उन्नत हो चुके या हो रहे तबकों एवं उसके पीछे लालसाओं की खाली झोलियां उठाए दौड़ते विशाल मध्यमवर्ग के लिए जहां सुखवाद की बयार बहा दी है, वहीं दूसरी ओर जीवन की बुनियादी जरुरतों के लिए जूझती अधिकांश जनता को अधिकाधिक वंचित करते चलने की प्रक्रिया को तेजी दी है। उन्नत वर्गों का एकमात्र उद्देश्य अधिकाधिक लाभ कमाना और उसे अनवरत बढ़ाते चलना है इसे वे अपनी लागत पूंजी एवं जैसा कि वे अपने लिए कहते है-'एन्टरप्रिन्यूरशिप` पर आने वाले रिस्क फैक्टर की लुभावनी शब्दावलियों के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यही रिस्क फैक्टर सुखवाद की बयार का मूल आधार बन आता है, जो शेष समाज को विज्ञापनों और तथाकथित उपभोक्ता कानूनों के माध्यम से उपभोक्तावाद के गहरे गर्त में धकेलने की सफल साजिशें रचता है। इस लक्ष्य में पहला निशाना नौकरीपेशा मध्यवर्ग है। वस्तुत: यही मध्यवर्ग उपभोक्तामंडी की प्रथम कर्मभूमि है। यह उधार की इच्छाओं से प्रेरित प्रतिस्पर्धात्मक एवं विज्ञापनी खरीद से शुरु कर के अंतत: उस मंडी का सम्पूर्ण हिस्सा हो जाता है। उन्हें भ्रम होने लगता है कि वे सम्पन्नता का हिस्सा होते चल रहे हैं तथा शिखर पर बैठे उन्नत वर्ग तक उनकी पहुंच अब ज्यादा दूर नहीं है। जनता के वोट से चुनी हुई सरकारें जो वस्तुत: उस उन्नत वर्ग की हित रक्षक और प्रतिनिधि हैं वे भी इस मध्यवर्ग को लगातार उपभोक्ता मंडी की चकाचौंध में शामिल होने का निमंत्रण देती रहती हैं। व्यापक पैमाने पर यह मध्यवर्ग इन सरकारों की फिजूल खर्चियों को पूरा करने के लिए टैक्स का ढांचा उपलब्ध करवाता है। (बहुधा तो इन सरकारों के पास शराब का बिक्री-टैक्स मात्र ही उनके उड़नखटोलों को उड़ाए रखने का इंतजाम करता है) धर्म और जाति की राजनीति ने मध्यवर्ग को पक्के वोट बैंकों के रूप में स्थापित करवा ही डाला है इसलिए आर्थिक नीतियां उनके जीवन से क्या खिलवाड़ कर रही हैं इस पर उनका ध्यान पल भर के लिए भी नहीं जाता। महंगाई पर जो मनोरंजक चर्चाएं होती और सुनी जाती हैं उनका महत्व भी धर्म और जाति की राजनीति तक ही सीमित है।

इस सामाजिक स्थिति की व्युत्पत्ति के साथ नेहरू युग में स्थापित सामाजिक कानूनों के नकारा हो जाने का ढोल अब खूब पीटा जा रहा है क्योंकि इनकी मूलभावना वंचित तबकों को न्याय दिलवाने की रही है जबकि आज का भ्रमित राजनैतिक यथार्थ और उसकी नवबाजारवादी अर्थनीतियां भूख, गरीबी, वंचना, बेरोजगारी और साधनहीनता के आस्तित्व को स्वीकार करने से ही इन्कार करती हैं। उनके लिए बेहतर साधन, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और इस प्रकार भविष्य के जीवन की कोई गारंटी नहीं है। व्यक्तिगत और सामाजिक तौर पर उनके होने तक के सारे अर्थ छीन लिए गए हैं। यह तीसरी दुनिया के भीतर एक और तीसरी दुनिया है, जो असल में छठी दुनिया का निर्माण करती है। यह मानवीय दशा असल में राष्ट्रराज्य से सुशासन चाहती है किंतु वर्तमान व्यवस्थाएं जिसे 'गुड गवर्नेंस` कहती हैं, उसकी तो शुरुआत ही सोच के उस बिन्दु से होती है जहां से यह छठी दुनिया दिखती ही नहीं। अच्छा शासन कौन नहीं चाहता। यह तो आदिम मानवीय इच्छा रही होगी कि हर व्यक्ति ऐसी व्यवस्था में जिए जहां वह स्वतंत्र हो, आर्थिक रूप से मुक्त, अपना मनपसंद जीवन जीने के योग्य बने। जब से सामूहिक और सामाजिक जीवनवृत्तियों का उद्भव हुआ है मनुष्यमात्र यही चाहता रहा होगा। लेकिन आज के इस 'गुड गवर्नेंस` की अर्थ ध्वनि अनिवार्यत: सामूहिक क्रियाओं के ऐसे संगठनात्मक कामों के रूप में सुनी जा रही है जिसमें समाज के सामान्य उद्यमों का प्रबंधन निजी हाथों में पूरी तरह सौंप दिया गया हो। यूं कहने को यह सार्वजनिक और निजी, संस्थाओं और व्यक्तियों, राजनीति और अर्थनीति, सामाजिक लक्ष्यों और सर्वमान्य आदर्शों के बीच की संयुक्त सहकारिता है। इन सुंदर शब्दों के पार यह भली भांति महसूस किया जा सकता है कि आज की इस भूमंडलीकृत उत्तर आधुनिक दुनिया के पोल में इस क्रिया-कलाप को भले ही इन अनवरत प्रयासों के रुप में देखे जाने का आग्रह हो, लेकिन यह सारे भ्रमपूर्ण माध्यम समाज के विभिन्न वर्गों के परस्पर विरोधी आर्थिक व सामाजिक हितों को एकीकृत नहीं कर सकते, चाहे वे ऐसे लाखों-लाख दावे ही क्यों न करते चलें। कहा जाता है कि इस राष्ट्र-राज्य की तमाम आधुनिक व्यवस्थाएं ऐसे अनिवार्य संस्थागत उपाय कर रही हैं जो बहुत से अनिवार्य क्रियाकलाप अनुमोदित और निर्देशित करेंगी तथा अन्य का विरोध भी करेंगी जिनके माध्यम से समाज के विभिन्न वर्गों के झगड़े और विवाद निपटाए जा सकेंगे। इन भ्रमपूर्ण वक्तव्यों का वही अर्थ निकलता प्रतीत होता है जो समतामूलक समाज स्थापित करने में जुटी ताकतों का हो सकता है। किन्तु यह बहुत सतही यथार्थ है। गवर्नेंस की पूरी प्रक्रिया कानूनी-साधनत्व के माध्यम से अधिकार और कर्त्तव्यों का निर्धारण करती है लेकिन आज की यह 'गुड गवर्नेंस` असल में उसी कानूनी साधनत्व को नष्ट-भ्रष्ट कर रही है ताकि वंचित तबकों को इतना कंडीशंड कर दिया जाए कि उन्हें जीने के न्यूनतम साधनों की दरकार ही महसूस न हो। उन्हें लगे कि वे जिस भी हालत में हैं वह उनके कर्मों और भाग्य का फल है। इस प्रकार के निहित उद्देश्यों के लिए 'गुड गवर्नेंस` की शब्दाबलियां गढ़ी जानी हैं। पहली नजर में मनमोहक दिखने वाले इन शब्दों की व्याख्या के लिए जो अन्य उपकरण परोसे जाते हैं वे अपने इस मूल से भी ज्यादा मनमोहक हैं। जैसेे-सेवा की अपेक्षा जनसशक्तिकरण की ओर; नाव की तरह खेने की बजाए मार्ग दिखलाए जाने की ओर, इलाज की बजाए परहेज की ओर, खर्च की अपेक्षा आय की ओर.... कहा जा रहा है कि शासन की प्रक्रिया में दक्षता लानी होगी, खर्च कम करना होगा, समय का उपयोग करना होगा, जवाबदेही लानी होगी, जिम्मेदारी और पारदर्शिता स्थापित करनी होगी। इस नवउदारवाद की स्थापित मान्यता है कि इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सरकारों के संचालन में बाजारवादी प्रक्रियाओं का प्रवेश करवाना होगा। तो इस तमाम सौंदर्यपूर्ण शब्दाबली का अंतिम लक्ष्य 'बाजारवादी प्रक्रियाएं` हैं। अब राष्ट्र-राज्य की तमाम सरकारें उपभोक्तावादी हितों से परिचालित होंगी, बाजारोन्मुख होंगी और यह नया जनप्रशासन इन्हें प्रबंधकर्त्ता के रूप में स्थापित करेगा। आय का श्रोत बाजार होगा तो यह प्रबंधन उसी के हित से संचालित होगा। जो भूखे-नंगे बाजार से बाहर होंगे, उनके लिए 'गुड गवर्नेंस` के दायरों में प्रवेश की अनुमति का सवाल फिर उठेगा ही कहां से? वे बेचारे न तो उपभोक्ता हैं, न लाभांश अर्जित और अधिकाधिक बढ़ाने वाले, न टैक्स दे सकने वाले... उनके पास है क्या जो राष्ट्र-राज्य उनके बारे में सोचे। राष्ट्र-राज्य तो 'गुड गवर्नेंस` देने में जुटी संगठित शक्ति है। उसकी इस शक्ति पर भला कौन उंगली उठाएगा।
उसके पीछे संयुक्त राष्ट्र यानी संयुक्त राज्य की भौंहें तनी हुई हैं। उसके बाहर यह क्या कर पाएगा। इसलिए पुरस्कारों की होड़ में शामिल हो जाइए। संयुक्त राष्ट्र का परिपत्र आप-हम सबको ललकार रहा है।

हाशिये के लोग और पंचायती राज अधिनियम

समकाल


  • लालचंद ढिस्सा

सत्‍ता , शक्ति और प्रबन्धन के विकेन्द्रीकरण और जैव विविधता का सीधा सम्बन्ध होना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक हाशिये के आदमी के शोषण की सम्भावना बनी रहेगी। क्योंकि १९५० यानी कि संविधान के लागू होने तक विद्यमान सत्ता, शक्ति और प्रबन्धन के विकेन्द्रीकरण का ही परिणाम है, देश की चौथाई से अधिक जनसंख्या का मानवेत्तर सामाजिक स्तरीकरण, प्रस्थिति तथा शोषण। आज देश की जनसंख्या के एक महत्वपूर्ण हिस्से की दशा में बहुत सुधार हुआ है तो उसका कारण है सत्ता, शक्ति और प्रबंधन का तथाकथित केन्द्रीकरण। यह देश विविधताओं से भरा है, कई रंग, कई रूप, तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की भाषा बोलियां, तरह-तरह का स्वाद, तरह-तरह की खूशबू और न जाने क्या-क्या है? इसलिए विकेन्द्रीकरण की जब भी बात होगी, विविधता का प्रश्न अवश्य उठेगा। यह ध्यान रखना होगा कि विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया में कहीं शक्तिहीन, अल्पसंख्यक, कमजोर और हाशिये की जाति-प्रजातियों के साथ अन्याय तो नहीं हो रहा है। विशेषकर उन समूहों या समुदायों के अस्तित्व और हित का ध्यान रखा जाना अनिवार्य होगा जो आज भी हाशिये पर हैं । क्योंकि यह देखा गया है कि अनेक बार जाने-अनजाने ऐसे बहुत से कार्य हो जाते हैं जिसके परिणाम कुछ लोगों के लिए अनर्थकारी हो जाते हैं। एक अच्छे और नेक उद्देश्य को लेकर किया गया कार्य कैसे कुछ समुदायों या समूहों के लिए अभिशाप बन जाता है, इसका उदाहरण है जनजातियों के अस्तित्व और हितों को सुरक्षित रखने के लिए बनाया गया केन्द्रीय (संसद) विधान-पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम १९९६ ।

उपरोक्त विधान ने अनुसूचित जनजातिय समाजों (गैर आदिम) के अन्दर बहुत बड़े प्रश्न खड़े किये हैं। इसके परिणामस्वरूप गैर आदिम जनजातिय समाजों के लिए बहुत बड़े हिस्से को उनके प्रजातांत्रिक एवं संवैधानिक अधिकारों से भी वंचित होना पड़ा है। आदिम जनजातिय समुदायों के संदर्भ में तो ये वैधानिक प्रावधान सही और उचित हो सकते हैं लेकिन गैर आदिम जनजातिय समाजों के लिए यह अधिनियम अभिशाप बन गया है। इस अधिनियम के साथ जुड़े हुए व्यक्तियों एवं अभिकरणों ने इस बात की कल्पना तक नहीं की होगी कि उनका यह कदम एक विशेष वर्ग के लिए इतना अनर्थकारी प्रमाणित होगा। उन गैर आदिम जनजातिय समाजों में जहां पर हिन्दू धर्म के तर्ज पर सामाजिक स्तरीकरण विद्यमान है, के दलितों को पूर्ण रूप से प्रभुवर्ग के शोषण के लिए उपलब्ध करवा दिया गया है। भारत के अनुसूचित जनजातिय समाजों के एक करोड़ से भी अधिक दलितों को, जो आज भी हाशिये पर हैं, इस अधिनियम के चलते पंचायतों में प्रतिनिधित्व तक प्राप्त नहीं है। केंद्रीय (संसद) विधान पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम १९९६ को हिमाचल प्रदेश के अनुसूचित क्षेत्रों के संदर्भ में १९९७ में हिमाचल प्रदेश विधानसभा ने समाविष्ट कर लिया। परिणामस्वरूप अनुसूचित क्षेत्र जिला किन्नौर के २८ प्रतिशत दलित (१९९१ की जनगणना के अनुसार) के लिए अनुसूचित जाति का आरक्षण वर्ष २००० के पंचायत चुनावों से समाप्त कर दिया गया। फलस्वरूप २००१ की जनगणना में उनकी जनसंख्या में भारी कमी दर्ज की गई और जो १९९१ में १९१५३ थी वह २००१ में ७६२५ रह गई। इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों का भी हाल इससे अच्छा नहीं है। ज्ञातव्य है कि अनुसूचित क्षेत्र लहौल के संदर्भ में पंचायत प्रधानों के पदों में आरक्षण नहीं रखने संबंधित अधिसूचना को हि०प्र० उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा चुकी है, और न्यायलय के निर्णय की प्रतीक्षा की जा रही है। इसलिए इस मामले में अधिक कहना उचित नहीं होगा क्योंकि मामला न्यायालय के विचाराधीन है।


यह सब क्यों हुआ? इसके दो करण हैं : पहला कारण यह है कि इस देश के हर आदमी, विशेषकर तथाकथित शिक्षित और अगड़ों को लगता है कि वे हर तरह से पूर्ण हैं, ज्ञान-विज्ञान आदि से। दूसरा सदियों से चली आ रही षड़यंत्र की आदत, जिससे आज भी निजात नहीं पाई जा सकी है। जिसके चलते तथाकथित बुद्धिजीवियों, विद्वानों, नेताओं, नौकरशाहों, प्रभूवर्ग एवं निहित स्वार्थों ने ऐसा माहौल बनाया जिससे कि जनजातिय, आदिवासी, कवायली, गिरिजन, वनवासी, अनुसूचित जनजाति आदि (न जाने कितने नाम दिये जा चुके हैं) के बारे में आम आदमी के दिमाग में एक भयंकर और कौतूहलपूर्ण विचार आ जाता है। जनजातिय व्यक्ति के रूप में दिमाग में ऐसे जानवर की तस्वीर बन जाती है जिसे 'शोकेस` में डालकर रखा जा सकता हो। पंचायती राज अधिनियम विशेषकर पंचायत उपबन्ध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम १९९६ के लागू होने से इस प्रकार की विसंगतियां क्यों पैदा हुइंर्? इसका कारण है बुद्धिजीवियों, नीतिनिर्धारकों, व्यवस्थापकों द्वारा समस्त अनुसूचित जनजातिय समाज या समूहों को समजातीय ( Homogeneous) और निहित स्वार्थों तथा इन समाजों एवं समूहों के प्रभु जातियों एवं शोषकों के द्वारा अनुसूचित जनजातिय समाजों एवं समूहों को समजातीय ( Homogeneous) एवं एकाश्मी (Monolithik) प्रस्तुत करना, जो आदिम जनजातियों के संदर्भ में तो उचित हो सकता है, लेकिन गैर आदिम जनजातियों के संदर्भ में इस प्रयोग से अनर्थ हो रहा है। इन गैर आदिम जनजातियों में हिन्दू समाज की तरह ही जाति प्रथा प्रचलित है और छुआ-छूत, असमानता और शोषण भी उसी तरह रहा है। लेकिन संविधान के लागू होने के बाद जहां हिन्दू, बौद्ध तथा सिख समाज के दलितों को सामाजिक न्याय के नाम पर कुछ संवैधानिक सुरक्षाएं तथा सुविधाएं मिलीं वहीं जनजातिय दलितों या अछूतों को समाज के प्रभू वर्गों के समकक्ष बनाकर उनके साथ सामाजिक अन्याय किया गया। इसी कारण आज उनकी दशा तुलनात्मक दृष्टि से पहले से बदतर हो गई है।

अनुसूचित जनजातियों, आदिवासियों, बनवासियों, गिरिजनों आदि के नामों से जाने जाने वाले समूहों, समुदायों और समाजों के बारे में जन साधारण के अन्दर कई भ्रान्तियां हैं। मैदानी ईलाकों का आदमी इन सबको एक ही समझने की गलती कर बैठता है। यहां तक कि बुद्धिजीवी वर्ग भी इनके अंतरों को गहराई से समझने की कोशिश ही नहीं करते। यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि इनमें एक या सभी समूह, समुदाय या समाज अनुसूचित जनजाति के तो हो सकते हैं, लेकिन सभी एक ही जनजाति के नहीं हो सकते। संविधान की पांचवीं या छठी अनुसूचि में सम्मिलित जो भी समूह, समुदाय या समाज हैं, वे सबके सब अनुसूचित जनजाति में तो आते है परन्तु सब के सब आदिवासी या आदिम जनजाति के नहीं है। जनजातियों के प्रति साधारणतया तथाकथित सम्य समाज का दृष्टिकोण और कार्यपद्धति संदेहपूर्ण रही है। ऐतिहासिक काल से ही तथाकथित सभ्य लोगों ने जनजाति के लोगों को ठग कर या डरा-धमकाकर अपने स्वार्थ हल किये हैं। इनको चिड़ियाघर के जानवरों की तरह प्रदर्शन की वस्तु बना कर पेश किया जाता रहा है, जो आज भी इनमें से ही कुछ की मदद से लगातार चल रहा है। स्वतंत्र भारत के संविधान के बनने, लागू होने और उसमें किए गए इन जनजातियों के हित रक्षा के प्रावधानों के रहते, तथाकथित सभ्य समाज के ठेकेदारों, स्वस्थापित विद्वानों, समाजसुधारकों, राजनेताओं, प्रशासकों तथा विशेषज्ञों ने इन अनुसूचित जनजातियों के प्रस्तुतिकरण में अपने-अपने स्वार्थों का ध्यान रखा है। इसी के कारण आज इन अनुसूचित जनजातियों के अन्दर भी अनेक समस्याएं और अन्तर्विरोध पैदा हुए हैं। इसी को सामने रखते हुए अनुसूचित जनजातियों के स्थापित मानकों, विधानों, अवधारणा तथा प्रस्थिति के ऊपर यह लेख लिखा गया है।


यहां जनजाति ( Tribe) अनुसूचित जनजाति ( Scheduled Tribe ) के बारे में जानना आवश्यक है। जनजाति (Tribe) एक नृवैज्ञानिक अवधारणा है, जबकि अनुसूचित जनजाति ( Scheduled Tribe ) एक संवैधानिक नामावली है। आदिम या आदिवासी अवधारणा को अंग्रेजी के एबोर्जिन ( Aborgin) या ट्राईब ( Tribe) नामावली के हिन्दू रूपांतर के तौर पर अधिक निकट माना जा सकता है, जबकि अनुसूचित जनजाति एक संवैधानिक नामावली है जो उन सभी समूहों, समुदायों तथा समाजों के लिए प्रयुक्त होती है जो भारत के संविधान के पांचवीं और छठी अनुसूचि में सम्मिलित हैं । जैसा कि हमने ऊपर लिखा है अनुसूचित जनजाति, एक 'सिंगल` समुदाय या समाज नहीं है। इस में समूह, समुदाय और समाज तीनों शामिल हैं। यहां पर इस बात को समझना आवश्यक है कि अनुसूचित जनजातियों का संवैधानिक तथा नृवैज्ञानिक वर्गीकरण क्या है?

क) संवैधानिक

Constitutional आधार पर अनुसूचित जनजाति के तीन वर्ग हैं :

१. अनुसूचित (क्षेत्र) जनजातियां।
२. अधिसूचित जनजातियां।
३. यायावर जनजातियां।


१. अनुसूचित (क्षेत्र) जनजातियां ( Scheduled (Area) Tribe ) : इस वर्ग में वे समूह, समुदाय और समाज आते हैं जो क्षेत्र विशेष से सम्बन्ध रखते हैं, जिन्हें भौगोलिक तथा विशिष्ट सांस्कृतिक आधार पर अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया हो। हिमाचल प्रदेश में इसके उदाहरण हैं लाहौल-स्पिति, किन्नौर, पांगी, भरमौर क्षेत्र और स्वंगला, बौध, किन्नौरा, पंगवाला, गद्दी (चम्बा जिला के भरमौर जनजातिय क्षेत्र के गद्दी समाज) आदि।

२.) अधिसूचित जनजातियां .(Denotified Tribes) : इस वर्ग में वे समूह, समुदाय और समाज आते हैं जिन्हें उनकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान तथा पिछड़ेपन के कारण अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया हो।
उदाहरण-हिमाचल प्रदेश में खम्पा, गद्दी (भरमौर के बाहर, जिला चम्बा तथा कांगड़ा आदि के गद्दी समाज) आदि।

३.) यायावर जनजातियां .(Nomadic Tribes) : इस वर्ग में वे समूह, समुदाय और समाज आते हैं जिन्हें उनके पिछड़ेपन, सांस्कृतिक विशिष्टता तथा यायावरी के कारण, जनजाति घोषित किया गया हो। इसका उदाहरण हिमाचल प्रदेश के गुज्जर आदि हैं।


ख. नृवैज्ञानिक

(Anthropological) आधार पर अनुसूचित जनजातियों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है-

१. आदिम जनजातियां।

२. गैर आदिम जनजातियां।



१. आदिम जनजातियां : Primitive Tribes : इस वर्ग में वे अनुसूचित जनजातियां आती हैं जो समाजशा के समुदाय की परिभाषा में आती हैं । सभी आदिम जनजातियां परम्परा से प्रकृति पूजक होती हैं। जिसका अर्थ यह है कि उनमें हिन्दू समाज की तरह जन्म पर आधारित सामाजिक स्तरीकरण या जातिप्रथा (ऊंच-नीच) प्रचलित या मान्य नहीं है अपितु उनकी अपनी एक अलग धार्मिक पहचान तथा सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था है। भारत सरकार के जनजातिय मामलों के मंत्रालय के अनुसार भारत में सिर्फ ७५ आदिम जनजातियां दर्ज हैं।

२. गैर आदिम जनजातियां Non Primitive Tribes : गैर आदिम जनजातियों में वे सब जनजातियां शामिल हैं जो समाजशा के समाज और समूह की परिभाषा की परिधि में आती हैं । अर्थ यह है कि इस प्रकार की अनुसूचित जनजातियों में हिन्दू या अन्य धर्म की समस्त विशेषताएं मौजूद हैं। इसमें हिन्दू धर्म की जाति प्रथा (छुआछूत) भी शामिल है। भारत सरकार की अधिसूचना के अनुसार इस वर्ग में लगभग ७०० अनुसूचित जनजातियां हैं। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि वे सभी "अनुसूचित जनजाति" की तो हैं लेकिन "जनजाति" की नहीं। इसका एक उदाहरण है हिमाचल प्रदेश जहां पर अनुसूचित जनजातियों की संख्या १० है परन्तु इसमें से कोई भी आदिम जनजाति के वर्ग में नहीं आती है। इस विषय में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि आज तक अनुसूचित जनजातिय (गैर आदिम) के प्रभुवर्ग के लोग और तथाकथित बुद्धिजीवी आदि निहित स्वार्थी लोग, ईसाई और इस्लाम के ठेकेदारों की तरह यही प्रचारित करते रहे हैं कि अनुसूचित जनजातियों में जातिप्रथा (ऊंच-नीच) विद्यमान नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि गैर आदिम जनजातियों में से अधिकतर हिन्दू धर्म को मानने वाले समाज हैं । यदि हिन्दू धर्म को मानने वाला समाज है तो इनमें हिन्दू धर्म की समस्त विशेषताएं तो विद्यमान होंगी ही और हिन्दू धर्म की पहली और सबसे बड़ी विशेषता है, इसकी जातिप्रथा (छुआछूत)।

जनजातिय दलित देशवासियों से निवेदन करना चाहते हैं कि वे इस संदर्भ में अपने भ्रमों को दूर कर सच्चाई को समझें। हम जनजातिय दलित भी इस देश को अपना समझते हैं, इसके लिए कुछ करना चाहते हैं। क्या आजादी के ६० वर्षों के बाद भी हमें इस देश को अपना समझने का हक नहीं मिलेगा?

लालचंद ढिस्सा जनजातीय दलित संघ के अध्यक्ष हैं।

बांग्लादेश में सैनिक सत्ता

समकाल
  • पंकज पराशर

पाकिस्‍तानी कवयित्री फहमीदा रियाज की नज्म़ है 'तुम भी हम जैसे निकले`। यह नज्म़ उन्होंने भारत को लक्षित करके दिल्ली में सुनाई थी लेकिन करिश्मा देखिये कि यह भारत पर तो नहीं, अलबत्ता पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश पर बिल्कुल फिट बैठ रही है। पाकिस्तान के सैनिक हुक्मरान परवेज मुशर्रफ ने जिस चालाकी से तख्त़ा पलट किया उसी चालाकी से उन्होंने इस रणनीति को भी कामयाबी से अंजाम दिया कि बेनजीर भुट्टो लंदन में निर्वासित जीवन जीने को मजबूर हैं और मियां नवाज शरीफ पूरे परिवार सहित सउदी अरब में अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की तरह 'दो गज जमीं भी न मिली कूए यार में` रट रहे हैं। इधर मुशर्रफ साहब अमेरिका और आई.एस.आई दोनों को साध करके सत्ता पर काबिज हैं और न्यायपालिका से भी दो-दो हाथ करने से गुरेज नहीं करते। नाटक की पटकथा वही है लेकिन बांग्लादेश के पात्र और हालात थोड़े अलग हैं। वहां की अंतरिम सरकार के निर्देश पर पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर ही रोक दिया गया। जनवरी में जब अंतरिम सरकार ने देश में आपात काल की घोषणा की तो शेख हसीना देश छोड़कर ब्रिटेन चली गइंर् थीं और अब बेगम खालिदा जिया को भी परिवार सहित देश छोड़कर जाने को मजबूर किया जा रहा है। ताजा खबरों के मुताबिक खालिदा जिया देश छोड़कर जाने को तैयार हो गई हैं। पिछले महीने बेगम खालिदा जिया के बड़े बेटे तारीक रहमान को गिरफ्तार किया गया था और उसके बाद अभी कुछ ही दिनों पूर्र्व खालिदा जिया के दूसरे बेटे अराफात रहमान को भी उनके ढाका स्थित घर से गिरफ्तार कर लिया गया है।

११ जनवरी, २००७ को बांग्लादेश में आपातकाल लागू किया गया था और इस वक्त वहां भ्रष्टाचार विरोधी अभियान तेजी से चल रहा है, जिसके तहत वहां की अंतरिम सरकार ने अब तक ३० पूर्व मंत्रियों, राजनीतिक सलाहकारों, व्यापारियों और नौकरशाहों को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया है और उनके बैंक खाते सील कर दिए हैं। हिरासत में लिए गए लोगों में पूर्व मंत्री और दोनों प्रमुख दलों-बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी और अवामी लीग के नेता शामिल हैं। गिरफ्तार लोगों में पूर्व मंत्री नजमुल हुदा, सलाहउद्दीन चौधरी, अमानुल्लाह अमान, रुहुल कुद्दुस तालुकदार, मीर नसीरउद्दीन और इकबाल हसन मसूद शामिल हैं। हालांकि इन लोगों को हिरासत में लेने की कोई वजह नहीं बताई गई है। यहां यह याद रहे कि जनवरी में आपातकाल लागू होने के बाद पहली बार नेताओं को गिरफ्तार किया गया है। इन गिरफ्तारियों के बाद की स्थिति यह है कि बांग्लादेश की जनता अंतरिम सरकार की इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का खुला समर्थन कर रही है और ऐसा लगता है कि अंतरिम सरकार के इस कदम से वहां की आम जनता राहत ही महसूस कर रही है।

बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने अक्तूबर, २००६ में अंतरिम सरकार को सत्ता सौंपी थी और इस अंतरिम सरकार को पहले राष्ट्रपति इफिताखार चौधरी संभाल रहे थे लेकिन अंतरिम सरकार के कई विवादास्पद फैसलों की वजह से वहां तीव्र विरोध प्रदर्शन हुए जिसके बाद इफिताखार चौधरी ने अपने पद से त्यागपत्र देकर फखरुद्दीन अहमद की अंतरिम सरकार के नये मुखिया के रूप में शपथ दिलवा दी थी। बाद में मुख्य चुनाव आयुक्त एम.ए.अजीज ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया था क्योंकि अंतरिम सरकार ने चुनावी प्रक्रिया से जुड़े सभी विवादास्पद अधिकारियों को इस्तीफा देने के लिए कहा था। नये चुनाव आयुक्त ए.टी.एम.शम्सुल हुदा ने कहा है कि देश में चुनाव करवाने से पहले नए निर्वाचन कानून और नई मतदाता सूची बनाने की जरूरत है इसलिए चुनाव करवाने में कम-से-कम १८ महीनों का वक्त लग सकता है।

तेजी से बदलते घटनाक्रमों के बीच दिलचस्प यह है कि बांग्लादेश के सेनाध्यक्ष ने कहा है कि देश को चुनावी लोकतंत्र की दिशा में वापस नहीं जाना चाहिए। लोकतंत्र की वजह से भ्रष्टाचार, मानवाधिकार हनन और अपराधीकरण बढ़ा है जिसने देश के वजूद के लिए खतरा पैदा कर दिया है। सेनाध्यक्ष के इस बयान के बाद इस आशंका की पुष्टि होती दिखाई दे रही है कि बांग्लादेश में सैनिक शासन की योजना तो नहीं बनाई जा रही? जनरल ने यह खुलासा नहीं किया कि आखिरकार वे कैसी व्यवस्था चाहते हैं? गौरतलब है कि इस वक्त बांग्लादेश में जो अंतरिम सरकार कायम है उसे पूरी तरह सेना का समर्थन हासिल है। इसी कड़ी में बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के कहने पर पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर ढाका जानेवाले विमान पर नहीं चढ़ने दिया गया। सरकार ने पहले ही कह दिया था कि अगर शेख हसीना देश पहंुचती हंै तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा। सरकार ने पिछले साल अक्तूबर में चार प्रदर्शनकारियों की हत्या के मामले में उनके ऊपर मामला दर्ज किया है और उन पर हत्या की कथित साजिश रचने का आरोप लगाया है। अंतरिम सरकार की इस कार्रवाई पर शेख हसीना ने कड़ा एतराज जताया है और हुंकार भरते हुए कहा है कि 'स्वदेश लौटने से रोकना मेरे नागरिक अधिकारों का हनन है। मैं अपने देश लौटना चाहती हूं।` उनके इस बयान के एक दिन बाद ही बांग्लादेश की एक अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना की गिरफ्तारी के लिए जारी वारंट स्थगित कर दिया है। सरकारी अधिकारियों ने स्पष्ट किया है कि वे अगले साल के अंत तक चुनाव कराना चाहेंगे और सेना के एक प्रवक्ता के हवाले से कहा गया है कि शेख हसीना और बेगम खालीदा जिया दोनों बेगमों ने पिछले पंद्रह सालों में देश को बर्बाद कर दिया है। इसलिए किसी भी सूरत में इन दोनों को बांग्लादेश की सत्ता में दोबारा लौटने नहीं देंगे।

बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान के चमत्कारी व्यक्तित्व की जिनको याद हो वे आज के बांग्लादेश को देखकर उसी तरह निराश होंगे जिस तरह पाकिस्तान बनने के बाद खुद जिन्ना को बेहद निराशा हुई थी। भाषा और जनतंत्र के मुद्दे पर पाकिस्तान से अलग हुआ देश बांग्ला देश कट्टरपंथियों की शरणस्थली बन गया है। जिस तरह सैनिक जनरलों के बूटों के तले पाकिस्तान की अवाम के हुकूक को रौंदा जा रहा है उसी तरह अब बांग्लादेश की सेना नहीं चाहती कि देश में दोबारा लोकतांत्रिक शासन लौटे। जिस तरह धर्म एक होने के बावजूद भारत से गये मुसलामानों को आज भी वहां 'मुहाजिर` कहा जाता है। ठीक उसी तरह एक धर्म होने के बाद भी बांग्लादेश में बिहार से गये मुसलमानों का 'बिहारी मुसलमान` कहकर उपहास उड़ाया जाता है, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक भी नहीं माना जाता। सैनिक शासन की वापसी के बाद बांग्लादेश की स्थिति कैसी होगी और उस पर भारत की क्या प्रतिक्रिया होगी, इसके बारे में अभी कुछ भी कहना शायद जल्दबाजी होगी। हालांकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक दोनों पूर्व प्रधानमंत्रियों को थोड़ी राहत मिली है। लेकिन यह अंतराष्ट्रीय बदाब के कारण है, इसे हमें नहीं भूलना चाहिए।

उपभोक्तावाद और परिवार

समकाल

  • प्रमोद रंजन


उपभोक्तावाद परिवार की सामंती संरचना पर मर्मांतक प्रहार कर रहा है। बेशक, यह ऐतिहासिक कार्य है। लेकिन इसके नकारात्मक प्रभावों को अपवाद मानकर उपेक्षित कर देना या इतिहास को घटते हुए महज देखते रहना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में कानूनों के माध्यम से इसके दु प्रभावों को नियंत्रित किए जाने की कोशिश की जानी चाहिए।



एक भारतीय मां ने संपत्ति के लिए जवान पुत़्र की हत्या कर दी !! पिछले दिनों पटना से निकली इस खबर को तर्कसंगत बनाने के लिए मीडिया को मां के अवैध प्रेम संबंध की तलाश करनी होगी या फिर पुत्र के दुश्चरित्र होने की उपकथा ढूंढनी होगी। ऐसा संभव न हो सका तो अखबार और टीवी चैनल संपत्ति विवाद की इस कथा को ज्यादा नहीं बेच पाएंगे। कारण? भारत में यौन शुचिता और चरित्र समानार्थी हैं। यहां किसी को बेईमान होने, धूसखोर होने, जातिवादी होने, ब्लैकमार्केटियर होने, असमानता का व्यवहार करने से या फिर हत्या करने पर भी दु चरित्र नहीं कहा जाता। अगर हत्यारी माता 'सचरित्र` पाई जाती है तो भारतीय मीडिया के पास भी इसे अपवाद मान कर मौन हो जाने के अलावा कोई चारा नहीं। लेकिन क्या यह वास्तव में अपवाद मात्र है?

भारतीय समाज मौजूदा दशक में तेजी से बदल रहा है। हालांकि यह प्रक्रिया इससे काफी पहल आरंभ हो गई थी, लेकिन सुविधा के लिए इसे १९९० के आसपास से माना जाता है। यह बदलाव प्राथमिक रूप से आर्थिक रहे हैं। आर्थिक उछाल और शिक्षा दर की बढ़ोत्तरी ने एक ऐसे तबके को निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग में ला दिया जिनके लिए इंदिरा गांधी के समय चलाए गए बड़े नोटों को देखना भी सपना रहा था। लेकिन सामंतवाद से पूंजीवाद की ओर बढ़े कदमों ने भारतीय समाज की संलिष्‍ट संरचना में बाहरी तौर पर ही हस्तक्षेप किया। जातिगत वर्चस्व के समीकरण बदले, वंचित तबकों की जुबान पर भी सत्ता-स्वाद की कुछ बूंदें टपकीं। किन्तु इससे समाजिक संरचना की मूल ईकाई परिवार अप्रभावित ही रहा। पूंजीवाद जैसे बाहरी उपकरण के लिए यहां तक पहुंच पाना संभव भी नहीं था। (पूंजीवाद की ही तरह कम्यूनिज्म़ भी समाज की आंतरिक संरचना को प्रभावित करने में विफल रहता है, रूस के कम्यूनिस्ट काल में चर्च की लोकप्रियता इसका उदाहरण है) वास्तव में भारतीय संदर्भ में जिस १९९० को हम विभाजक रेखा मानते हैं वह पूंजीवाद के आगमन का नहीं बल्कि भूमंडलीकरण के कारण पूंजीवाद के तेज होने तथा उपभोक्तावाद के आगमन का काल है। यही उपभोक्तावाद अब भारतीय परिवारों के सामंती दरवाजों पर अपने जूतों से ठोकर मार रहा है। मूल्य दरक रहे हैं और अजीबो-गरीब लगने वाली घटनाएं घट रही हैं। 'सचरित्र` हत्यारिन मां या 'दु चरित्र` मटुकनाथों की अपवाद लगने वाली घटनाएं इस विध्वंस के आरंभिक संकेत हैं। उपभोक्तावाद परिवार की सामंती संरचना पर मर्मांतक प्रहार कर रहा है। बेशक, यह ऐतिहासिक कार्य है। लेकिन इसके नकारात्मक प्रभावों को अपवाद मानकर उपेक्षित कर देना या इतिहास को घटते हुए महज देखते रहना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में कानूनों के माध्यम से इसके दु प्रभावों को नियंत्रित किए जाने की कोशिश की जानी चाहिए।


मध्यवर्ग में माता-पिता और संतान के पारंपरिक संबंध त्रासद स्थिति में पहुंचने लगे हैं। शहरों का तो निम्नमध्यवर्ग भी इससे अछूता नहीं रहा है। पूंजीवाद के आगमन के कारण सामंती जकड़न से आजाद हुई जातियों की पहली पीढ़ी के लोग भी बड़ी संख्या में इस विध्वंस के शिकार हुए हैं। बल्कि थोड़ी सी समृद्ध की पहली बरसात के साथ-साथ टेलीविजन के पर्दे से आती उद्दाम लालसाओं की आंधियों को रोक पाने की अक्षमता ने उनके साथ ही ज्यादा तोड़-फोड़ की है। एक स्थूल उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। चतुर्थ श्रेणी के सरकारी कर्मचारी के एकलौते बेटे ने लगभग दो वर्षों पहले अपने दाहिने हाथ पर किरोसीन छिड़क कर आग लगा ली थी। जब मैं उससे मिला तो उसने बताया कि उसकी मां ने उस पर पीटने का आरोप लगाया था। मामला कुछ इस तरह था कि उस लड़के ने मां से पच्चास रुपए मांगे थे। नहीं देने पर माता से उसकी झड़प हुई। लेकिन उसका कहना था कि उसने मां पर हाथ नहीं उठाया। कि वह ऐसा सोच भी नहीं सकता। हां, इतना जरूर था कि वह मां को उस पैसे के खर्च का हिसाब नहीं बताना चाहता था। इस पर उसका बाप अपना सिर मुंडा कर मुहल्ले (पटना सिटी) भर में यह कहता घूमता रहा कि मेरा बेटा मर गया। लड़के ने क्षोभ से भर कर उस हाथ को ही पूरी तरह नष्‍ट कर देना चाहा था जिस हाथ पर माता को पीटने का आरोप था। उसने बताया था कि उसे पैसे पत्नी के अंत:वस्‍त्रों व और गर्भनिरोधक उपायों के लिए चाहिए थे। मां को कैसे बताता? मैंने कहा, तुम खुद कुछ करते क्यों नहीं? तो उसने बताया था कि दहेज से बचे ३० हजार रुपयों से मुर्गी पालन का धंघा अपने आधा कट्ठा के मकान की छत पर आरंभ किया था। लेकिन चल नहीं सका। दहेज वाले पैसे भी पिता ने बहुत हुज्जत करने पर दिए थे। अब वे कुछ भी न देंगे। कोई पैतृक संपत्ति है नहीं। पटना शहर में बना दो कमरों का वह मकान मां के नाम है। नौकरी मिलती नहीं। मजदूरी मैं कर नहीं सकता।

जाहिर है उद्दाम लालसाओं की गिरफ्त दोनों ओर थी। कम साधन के बावजूद अधिकाधिक उपभोग की प्रवृत्ति माता-पिता में थी तो पुत्र भी अपनी आर्थिक वास्तविकता को समझने को तैयार न था। पिछले सप्ताह वह सुदर्शन युवक मुझे विक्षिप्तावस्था में मिला।

यदि किसी में शहरी बेरोजगार लड़कों से मिलने का माद्दा हो तो उसे अधिकांश जगह कमोबेश ऐसी ही कहानियां मिलेंगी। मेरी जानकारी में कम-ज्यादा ऐसी पच्चासों घटनाएं हैं। और मुझे नहीं लगता कि राजनीति, साहित्य अथवा किसी अन्य प्रकार की अकादमिक दुनिया के प्रतिभाशाली युवाओं के रूझानों के आधार पर समाज की मति-गति का आकलन करना किसी भी दृष्टि से उचित नि क र्ा की ओर ले जाएगा। अपवाद वे प्रतिभाशाली युवा हैं, बहुसंख्या इन सामान्य लोगों की है, इन्हें ही सामाजिक प्रवृति के रूप में समझा जा सकता है। इस बहुसंख्या में अर्ध-रोजगार भी शामिल हैं। तकनीक ने श्रम को बेहद सस्ता कर दिया है। महंगे से महंगे शहरों में भी १ हजार से ३ हजार तक की नौकरी करने वाले युवा हर जगह अंटे पड़े हैं। कंम्प्यूटर आपरेटर, रिसेप्निस्ट, नर्सें, सेल्स मैन, कूरियर पहुंचाने वाले, सूपरवाइजर नुमा लोग और अन्य नई सेवाओं में लगे इन युवाओं को भवि य में भी अच्छा वेतन मिलने की कोई उम्मीद नहीं है। सेवा प्रदाता क्षेत्रों में श्रम लगातार और सस्ता होता जा रहा है। मीडिया में काम करते हुए मैंने देखा कि शिमला जैसे मंहगे शहर में ७० फीसदी पत्रकार १ से १.५ हजार रूपए वेतन पा रहे थे। लगभग २० फीसदी जो उत्तरांचल, बिहार और उत्तरप्रदेश से पलायन कर वहां पहुंचे थे, हाड़-तोड़ मेहनत कर ३ से ४ हजार तक पाते हुए सपरिवार गुजारा कर रहे थे। हिन्दी के जिस 'इंडियाज नं वन डेली` में मैं काम कर रहा था उसमें अनुसेवक को वर्ष २००१ में २५०० हजार रुपया वेतन दिया जाता था। उस अनुसेवक ने काम छोड़ा तो नए को १८०० पर रखा गया। २००५ आते-आते दो और अनुसेवक बदले। जब मैं वहां पहुंचा तो नया अनुसेवक ८०० रुपए पर बहाल हुआ था, वह भी 'इंटरव्यू` के बाद। शायद विश्वास न आए पर हिन्दी समाचार पत्रों में तो ऐसी स्थिति हो गई है कि मुफ्त काम करने वाले पत्रकारों को भी 'बर्खास्त` किया जाता है। यानी श्रम का मूल्य तो दूर, काम करने का अवसर देना भी अब एक अनुकंपा है। प्राय: सभी संस्थानों में ऐसे लोग मिल जाएंगे जिनसे काम सीखने के नाम पर २-२ वर्ष तक मुफ्त काम करवाया जाता है। कथित रूप से काम सीखने तक टिके रहे तो वही ८००-१००० रुपए मासिक वेतन।

इस तरह के अर्ध-रोजगार लोग भी पैतृक संपत्ति पर निर्भर रहने के लिए अभिशप्त हैं। लेकिन पहली बार समृद्धि का स्वाद चखने वाले परिवारों में पैतिर्क संपत्ति नाम की कोई चीज प्राय: नहीं होती। वंचित समुदायों से आनेवाले इन लोगों ने अपनी शिक्षा से कुछ हासिल कर शहरों में एकल परिवार बसाया होता है। उत्तराधिकार कानूनों (भारतीय उत्तदाधिकार अधिनियम तथा हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम) के तहत उनकी संतानों को महज खेती योग्य भूमि में हिस्सा मिल सकता है। जबकि इनके पास देहात में जो थोड़ी बहुत जमीन होती है, वह अक्सर पहले ही बिक चुकी होती है। अगर कुछ बची भी रह गई तो शहर के नगदी जीवन के सामने उनका कोई मोल नहीं। अगर जायज-नाजायज कुछ कमाया-बचाया भी तो उपभोग की असीम इच्छाओं के सामने खेती योग्य जमीन जोड़ने की फिक्र किसे? यह भी एक कारण है कि जहां शहरों में जमीन के भाव आसमान छू रहे हैं वहीं गांवों में आज खेत मिट्टी के भाव बिक रहे हैं । भारतीय गांवों से पैसों का शहरों की ओर आना अनवरत जारी है, शहरों से गांवों की ओर यह प्रवाह ठप है। उपभोक्तावाद ने बाहरी चमक-दमक के साथ-साथ देह और स्वास्थ तक को उपभोग के दायरे में ला दिया है। आखिर उपभोग तो इस नश्वर देह को ही करना है। और यह तभी संभव हो सकता है जब आप अधिकाधिक स्वस्थ, चिर युवा रहें। ब्यूटी पार्लर, जिम से लेकर बाबा रामदेव जैसों के धंधे इसी कारण फल-फूल रहे हैं। इन नव स्वास्थ केंद्रों में जाने वाला शायद ही कोई यह सोचता हो कि, स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्ति क का वास होता है। विज्ञापनी दुनिया उन्हें लगातार बताती रहती है कि 'स्वस्थ शरीर में मंहगे वस्‍त्राभूषण फबते हैं।` बहरहाल, अनेक कारणों से भारतीयों की औसत आयु, उनका यौवन काल बढ़ा है। निश्चित रूप से इस औसत के बढ़ने में नव मध्यम वर्ग के ही बेहतर होते स्वास्थ का योगदान रहा है। अच्छे स्वास्थ ने उनकी लालसाओं की अवधि को लंबा कर दिया है। उपभोग के उत्‍कर्ष को छूते हुए उन्हें बुढ़ापा कभी न आने वाले दु:स्वप्न की तरह लगता है, तो आश्चर्य नहीं। बुढ़ापे का पारंपरिक सहारा मानी जाती रही संतान भी उन्हें अपने तात्कालिक सुखों में कटौती करती प्रतीत होती है। भारतीय उत्तराधिकार विधान भी उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि उनकी पूरी संपत्ति (स्वयं द्वारा अर्जित तथा संयुक्त परिवार से मिला हिस्सा भी) सिर्फ उनके उपभोग के लिए है। अपनी संतान (पुत्री अथवा पूत्र) के प्रति उनका कोई उत्तरदायित्व नहीं है।

भूमंडलीकरण की तरह उपभोक्तावाद भी एक यथार्थ है। इसे किसी धार्मिक नैतिकता या भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर रोका नहीं जा सकता। न इसे अफगानिस्तान, इराक, पाकिस्तान आदि में इस्लामिक तालिबान रोक पाए न ही भारत के हिन्दू तालिबानों में यह कुव्वत है। अक्सर मुगालते में रहने वाले कम्यूनिस्ट मित्र चाहें तो चीन घूम कर आ सकते हैं। वहां के शहरों में महज कुछ वर्ष में यूरोपिय शहरों से कहीं अधिक आलीशान मॉल, शापिंग काम्पलेक्सों ने आकार ले लिया है। जैसे समाजवाद के पूर्व पूंजीवाद का आना प्रक्रिया का हिस्सा है उसी तरह उपभोक्तावाद परिवार के आंतरिक सामंतवाद की समाप्ति में अपना ऐतिहासिक अवदान देने को उद्धत है। वस्तुत: यह कुछ और नहीं परिवार का आंतरिक 'पूंजीवाद` ही है। इसलिए जनतांत्रिक परिवार (अथवा कहें समतामूलक) के बड़े स्वप्न के संदर्भ में उपभोक्तावाद पर बात करते हुए यह आवश्यक है कि हम सिर्फ इसकी लानत-मानत करने की बजाय इसके गुण-दोषों को तटस्थता से समझें। इसके दु प्रभावों को कम करने के लिए देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत जो भी कानून संभव हो बनाएं। यह किसी नैतिकता के रोके नहीं रूकने वाला। इसके जिम्मे एक नया समाजशा गढ़ने की जिम्मेवारी है। इसने जहां नए मध्यवर्ग में अभिभावक और संतान के संबंधों को कटूतापूर्ण बना दिया है वहीं इस तबके की महिलाओं के लिए आर्थिक मुक्ति के द्वार भी खोले हैं। यह छोटी उपलब्धि नहीं है। यौन शुचिता संबंधी दुराग्रहों की समाप्ति की राह भी आने वाले समय में यहां से निकलेगी। दूसरी ओर, यह भी देखने की बात है कि अभिजात तबके में इसका असर कुछ अलग तरह का है। वहां इसने अभिभावक-संतान के संबंधों को मित्रतापूर्ण बनाया है। कौमार्य के बंधनों को ढीला किया है। तात्कालिक उदाहरण के तौर पर अमिताभ-जया और अभि षेक बच्चन के संबंधों तथा सलमान, विवेक ओबराय और ऐश्वर्या राय के त्रिकोणात्मक प्रेम संबधों के बाद अभि षेक बच्चन से उसकी शादी को समझा जा सकता है। पूंजीपति परिवारों के बदलावों को पेज थ्री पार्टियों का निरंतर अध्ययन करते हुए भी देखा जा सकता है। वे अब तोंदियल सेठ-सेठानियां नहीं रहे हैं। अंधानुकरण की नकारात्मक प्रवृति पर पलने वाला उपभोक्तावाद भूल वश ही सही, अनेक सकारात्मक प्रवृतियों को भी मध्यमवर्ग तक पहुंचा रहा है, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।

मार्क्स को याद करते हुए

कार्ल मार्क्स के जन्म दिवस ५ मई पर



  • राजू रंजन प्रसाद

पूंजीवाद ने केवल विश्व-व्यवस्था ही नहीं पैदा की बल्कि मार्क्स जैसा अप्रतिम लेखक भी पैदा किया जो पूरी दुनिया पर एक साथ टिप्पणी करता था, पूरी दुनिया के इतिहास में हस्तक्षेप करता था। मार्क्स आधुनिक विश्व के सबसे आश्चर्यजनक और रोमांचकारी ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं ।


आमतौर पर माना जाता है कि मार्क्सवाद के तीन प्रमुख श्रोत हैं-ब्रिटिश अर्थशास्त्र , जर्मन दर्शनशास्‍त्र और फ्रांसीसी समाजवाद। हिन्दी साहित्य के मान्य मार्क्सवादी आलोचक डा. नामवर सिंह ने कुछ साल पहले पटना में एक व्याख्यान में कहा था कि एक चौथा श्रोत भी है-ग्रीक ट्रेजडी यानी साहित्य। डा. खगेन्द्र ठाकुर के अनुसार पांचवें श्रोत के रूप में विज्ञान के उस समय तक के विकास को भी माना जा सकता है, खासकर के डारविन के द्वारा जीवों के विकास के नियम की खोज को। मैं इन बातों को थोड़ा सुधारकर तथा मितव्ययी होते हुए कहना चाहता हूं कि अब तक के उपलब्ध ज्ञान की कोई ऐसी शाखा न थी जिससे मार्क्स को अप्रभावित बताया जाना संभव है। मार्क्स उन्नीसवीं शताब्दी के नि:संदेह बड़े अध्येता थे। ब्रिटिश म्यूजियम की शायद ही कोई पुस्तक होगी जो मार्क्स की पेंसिल से रंगी जाने को बची हो। मार्क्स आधुनिक विश्व का सबसे आश्चर्यजनक और रोमांचकारी ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं ।

पूंजीवाद ने केवल एक विश्व-व्यवस्था ही नहीं पैदा की बल्कि मार्क्स जैसा अप्रतिम और अभूतपूर्व लेखक भी पैदा किया जो पूरी दुनिया पर एक साथ टिप्पणी करता था, पूरी दुनिया के इतिहास में हस्तक्षेप करता था। यह मार्क्स का और उदीयमान पूंजीवाद का ऐतिहासिक महत्व था। स्वयं पूंजीवाद के इस महत्व को समझे बगैर मार्क्स एवं मार्क्सवाद को समझना आसान नहीं हो सकता। लगता है, हम मार्क्सवादियों ने इस चीज को समझने में कहीं कोई भूल की है। इस तथ्य को हमारे समय के एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी चिंतक की वैचारिक उलझन से समझा जा सकता है। खगेन्द्र ठाकुर पूछते हैं 'मेरा प्रश्न है कि ब्रिटिश अर्थशास्त्र , जर्मन दर्शनशास्‍त्र और फ्रांसीसी समाजवाद का जो स्वरूप उस समय था, वह नहीं होता तो क्या मार्क्सवाद का विकास नहीं होता?` उत्तर भी स्वयं ही देते हैं-'मैं` समझता हूं कि इस प्रश्न के उत्तर में कोई भी नहीं कह सकता कि उन श्रोतों के बिना मार्क्सवाद का विकास नहीं होता। मार्क्स-एंगेल्स के विचारों का विकास केवल पूर्ववर्ती विचारों से नहीं, बल्कि मूलत: उनके अपने समय के सामाजिक स्वरूप और मानवीय संबंधों के अमानुषीकरण का भी परिणाम था जिसने उन्हें नये विचारों की खोज के लिए बेचैन कर दिया।` खगेन्द्र जी मार्क्स की यह उक्ति शायद भूल रहे हैं कि 'कोई भी समस्या स्वयं तभी खड़ी होती है जब उसके समाधान की, भौतिक परिस्थितियां पहले से या तो मौजूद हों या कम से कम निर्माण के क्रम में हों।` शायद इसीलिए वे मार्क्स के पूर्ववर्ती विचारों की महत्ता को कमतर साबित कर (लगभग अस्वीकार की हद तक) मार्क्स के 'नये विचारों` को स्थापित करना चाहते हैं। अपने विचारों के नयेपन का इतना अधिक भ्रम मार्क्स को भी न था। कोई भी व्यक्ति ऐसा केवल तभी कह सकता है जब वह इतिहास की विकासमानता और निरंतरता को न समझ पाने की स्थिति में हो। ऐसी स्थिति मार्क्सवाद विरोधी स्थिति है, यह मार्क्स के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन करती है। लगता है, विकास और निरंतरता का बोध मार्क्स को ज्यादा था, मार्क्सवादियों को कम है। मार्क्स ने बहुत ही विनम्रतापूर्वक कहा था कि हीगेल का दर्शन जो सिर के बल खड़ा था, मैंने उसे महज पैर के बल कर दिया है। यह मान लेने से मार्क्स का महत्व कम नहीं हो जाता। 'नये विचार` गढ़ने का दायित्व भी तो मार्क्स को इतिहास ही ने प्रदान किया था।


विडंबना कहिए कि मार्क्स को पढ़ा तो बहुत गया किंतु समझा कम ही गया। मार्क्स के विचारों को मार्क्सवादी विवेक के बगैर रट्टा मारा गया। एक बार मैंने अपने एक मार्क्सवादी मित्र से चर्चा के दौरान कहा कि मैं मार्क्स को एडिट करता हुआ पढ़ता हूं तो शीघ्र ही उनकी नजर में मैंं वामपंथी भटकाव का शिकार हो गया। लोग यह भूल जाते हैं कि मार्क्स के विचार जीवन-पर्यंत विकसित व परिवर्धित होते रहे हैं। लेकिन इस बात का कोई यह मतलब न निकाले कि मार्क्स आज की बदली हुई परिस्थितियों में अप्रासंगिक हो गये हैं।


कम्युनिस्ट घोषणापत्र का महत्व इस बात में है कि उसमें मार्क्स की लगभग सभी स्थापनाएं ठोस एवं बीज रूप में हैं। सन् १८७२ ई. में जर्मन संस्करण की भूमिका लिखते हुए एंगेल्स ने स्वीकार किया था कि 'पिछले पच्चीस सालों में परिस्थिति चाहे कितनी भी बदल गई हो, इस घोषणापत्र में निरूपित आम सिद्धांत आज भी उतने ही सही हैं, जितने कि पहले थे। ..लेकिन घोषणापत्र तो एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया है जिसमें परिवर्तन का अब हमें कोई अधिकार नहीं रह गया है।` कम्युनिस्ट घोषणापत्र ऐतिहासिक दस्तावेज अपनी प्राचीनता की वजह से नहीं बना है बल्कि इसलिए कि ऐतिहासिक महत्व का है।

मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी दोनों ही थोडा-बहुत अंतर के साथ मार्क्स के ऊपर यह आरोप लगाते हैं कि उन्होंने सामाजिक परिवर्तन में भौतिक शक्तियों की भूमिका पर अनावश्यक रूप से ज्यादा जोर दिया है। मार्क्स ने ठीक-ठीक शब्दों में आधार एवं अधिरचना की बात कही थी और यह भी कि आर्थिक मूलाधार में परिवर्तन से, समस्त बृहदाकार ऊपरी ढांचे में भी देर-सबेर रूपांतरण हो जाता है। मार्क्स यह स्पष्ट करना भी न भूले थे कि इतिहास के एक लंबे दौर में अधिरचना भी एक भौतिक शक्ति का रूप धारण कर लेती है। इसलिए मार्क्स पर लगाया गया यह आरोप कि उन्होंने आर्थिक शक्तियों को ही निर्णायक माना है, बेबुनियाद है। यह सही है कि मार्क्स ने भौतिक शक्तियों पर तुलनात्मक रूप से ज्यादा जोर दिया है। ऐसा तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की वजह से हुआ है। मार्क्स को कई स्तर और मिजाज का लेखन करना पड़ता था। तत्कालीन स्थितियों से मुकाबला करने के लिए उन्होंने एक अलग शैली और भाषा विकसित कर ली थी। उनकी शैली पर टिप्पणी करते हुए एंगेल्स ने पूंजी (खंड-२) की भूमिका में लिखा है 'बोलचाल के रूप बहुत ज्यादा, अक्सर रूक्ष और हास्यपूर्ण शब्दावली। मार्क्स के साहित्य का अच्छा खासा हिस्सा गालियों से भरा है। कभी-कभी मन में आता है कि मार्क्स की गालियों का संकलन कर एक रोचक पुस्तक तैयार की जा सकती है।`

जिन लोगों को मार्क्स के सामाजिक-राजनीतिक परिवेश की समझ है वे भौतिक शक्तियों पर जोर वाली बात आसानी से समझ और पचा पाते हैं। भारत में नेहरू लिखते हैं, 'इस व्यर्थ बात को तूल देकर कहा जाता है कि मार्क्स ने जीवन के आर्थिक पहलू ही को अधिक महत्व दिया है। उसने ऐसा जरूर किया है, क्योंकि यह आवश्यक था और लोग इसे भुला देने की तरफ झुक रहे थे, लेकिन उसने दूसरे पहलुओं की कभी अवहेलना नहीं की है और उन ताकतों पर ज्यादा जोर दिया है जिनकी वजह से लोगों में जान आ गई है और घटनाओं को रूप मिला है।` जून १९३१ में लार्ड लोथियन ने लंदन-स्कूल आव इकनॉमिक्स के सालाना जलसे के मौके पर अपने भाषण में कहा था : 'हमलोग बहुत दिन से जो सोचने के आदी हो गए हैं क्या उसकी अपेक्षा मौजूदा समय की बुराईयों की मार्क्स द्वारा की गई तजवीज में कुछ ज्यादा सच्चाई नहीं है? मैं मानता हूं कि मार्क्स और लेनिन की भविष्यवाणियां अत्यंत कठोर रूप से सच हो रही हैं। जब हम पश्चिमी दुनिया की तरफ, जैसी की वह है और उसकी हमेशा की तकलीफों की ओर निगाह डालते हैं, तो क्या यह साफ मालूम नहीं देता कि हमें उसके मूल कारणों को अब तक हम जिस हद तक पहुंचने के आदी हो गए हैं उससे कहीं अधिक गहराई के साथ जरूर ढूंढ़ निकालना चाहिए? और जब हम ऐसा करेंगे, हम देखेंगे कि मार्क्स की तजवीज बहुत कुछ सही है।` आज 'सभ्यता-संघर्ष` के दिनों में भी मार्क्स की तजवीज उतनी ही प्रामाणिक और प्रासंगिक है।


पूंजीवादी एवं प्राक-पूंजीवादी समाजों का विश्लेषण कर मार्क्स कम्युनिष्ट घोषणापत्र में इस नतीजे पर पहुंचे थे कि अभी तक आविर्भूत समस्त समाज का इतिहास (अर्थात् समस्त लिपिबद्ध इतिहास) वर्ग-संघर्षों का इतिहास रहा है। आधुनिक पूंजीवादी समाज ने, जो सामंती समाज के ध्वंस से पैदा हुआ है, वर्ग-विरोधों को खतम नहीं किया किंतु इसने समस्त समाज को सीधे-सीधे पूंजीपति और सर्वहारा वर्गों में बांटकर इसने वर्ग-विरोधों को सरल बना दिया है। उत्पादन के औजारों में लगातार क्रांतिकारी परिवर्तन और उसके फलस्वरूप उत्पादन के संबंधों में, और साथ-साथ समाज के सारे संबंधों में क्रांतिकारी परिवर्तन के बिना पूंजीपति वर्ग जीवित नहीं रह सकता। पारंपरिक उद्योग की जगह ऐसे नये-नये उद्योग ले रहे हैं, जिनकी स्थापना सभी सभ्य देशों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाती है; ऐसे उद्योग आ रहे हैं जो उत्पादन के लिए अब अपने देश का कच्चा माल इस्तेमाल नहीं करते उत्पादन के तमाम औजारों में तीव्र उन्नति और संचार साधनों की विपुल सुविधाओं के कारण पूंजीपति वर्ग सभी राष्ट्रों को, यहां तक कि बर्बर से बर्बर राष्ट्रों को भी सभ्यता की परिधि में खींच लाता है।


भारतीय इतिहास के अध्ययन एवं अनुभव से हम जानते हैं कि कच्चे माल की लूट एवं तैयार माल की अबाधित खपत के लिए अंग्रेजों ने इस देश को अपना उपनिवेश बनाया था। कच्चे माल की लूट ने देशी कारीगरों-कलाकारों के लिए आजीविका का संकट पैदा कर दिया। भारत के शहरों के कारीगर रोजगार-मुक्त हो देहातों को पलायन करने लगे। औपनिवेशिक शासन के दिनों में भारत का देहातीकरण जिस व्यापक पैमाने पर हुआ, इतिहास में शायद ही कोई दूसरी मिसाल हो। शहर से देहात की ओर पलयान से कृषि-उत्पादन में ठहराव आया और जनसंख्या-वृद्धि का दबाव महसूस किया गया। जहां-जहां उपनिवेश कायम हुए, कुछ न कुछ ऐसा अवश्य घटा। माल्थस जैसे साम्राज्यवाद के पैरोकार चिंतक ने देश की गरीबी का कारण जनसंख्या वृद्धि को बताया जबकि मार्क्स इसे साम्राज्यवादी लूट का परिणाम बता रहे थे। आधुनिक भारतीय राजनीति के पितामह कहे जाने वाले आरंभिक अर्थशाी़ दादाभाई नौरोजी ने 'संपदा अपहरण का सिद्धांत` (प्राख्यात ड्रेन थ्योरी) विकसित कर मार्क्स के विचारों की पुष्टि की थी। नौरोजी ने भारत की लूट से संबंधित बातें भारत में वैकल्पिक अर्थशा विकसित करने वाली किताब 'इंडियाज पॉवर्टी एंड अन ब्रिटिश रूल इन इंडिया` में कह थी। उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के नाम पर आज फिर एक वर्ग विदेशी पूंजी की आवश्यकता पर बल दे रहा है। उनके मंसूबों की सही समझ के लिए मार्क्स का अध्ययन आवश्यक है। मार्क्स के विश्लेषण के आलोक में उनकी भी राजनीति समझी जा सकती है जो अंग्रेजों के भारत में देर से आने और शीघ्र चले जाने का रोना रोते हैं। नंदीग्राम पुलिस संरक्षण में किया गया नरसंहार भी कोई अलग काहनी नहीं कहता। मार्क्स को आज पढ़ते हुए इन घटनाओं के अंतर्सबंध तलाशे जा सकते हैं।
यह सच है कि स्थितियां बदली हैं। उन्नीसवीं-बीसवीं शती में सस्ते श्रम की पूर्ति साम्राज्यवादी देश उपनिवेशों से मजदूरों अथवा गुलामों को ले जाकर करते थे। उक्त काल में भारत के कोने-कोने से मजदूरों का जत्था गया था। ऐसा करना आज लाभकारी नहीं रहा। उन तमाम देशों में जहां बड़ा और खुला बाजार है, उसी देश की धरती पर सस्ते श्रम आदि तमाम संसाधनों का उपभोग करते हुए उद्योग धंधे विकसित करना लाभकारी माना जा रहा है। देशी सरकारें विदेशी कंपनियों को लगभग मुफ्त संसाधन मुहैया करा रही हैं । भारत जैसे राष्ट्र-राज्य की संप्रभु और लोक कल्याणकारी सरकारें लोक कल्याणकारी नीतियों को घाटे की नीति बताकर विदेशी कंपनियों की एजेंटी कर रही हंै और 'बुद्धिजीवियों` को विमर्श का एक नया विषय दे दिया गया है- 'राष्ट्र-राज्यों का भविष्य।` सभी आत्मतुष्ट और गद्गद् भाव से आंखें मूंदकर डूब-उतरा रहे हैं। सरकार की पैंतरेबाजी में शामिल और भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के दफ्तरों को एन.जी.ओ. में तब्दील कर देनेवाले मार्क्सवादी चेलों को शायद कभी मार्क्स याद आ जाएं!

क्या कानून जजों के लिए नहीं?

इंटरनेट से


  • सत्येंद्र रंजन


न्यायिक सक्रियता के इस दौर में न्यायपालिका की वर्गीय प्राथमिकताओं पर बहस तेज होती जा रही है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की तरफ से कराए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष रहा है कि न्यायपालिका ने प्रगतिशील फैसलों और जनहित याचिकाओं पर सशक्त पहल के दौर को अब पलट दिया है और उसने जन विरोधी रूख प्रदर्शित किया है।


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय है कि किसी न्यायिक अधिकारी के गलत फैसला देने पर उसके खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती, न ही उसे सजा दी जा सकती है। यह मामला उत्तर प्रदेश के एक ऐसे न्यायिक अधिकारी के मामले में आया है, जिस पर घूस लेने का आरोप लगा। इसकी जांच करायी गयी। इसके आधार पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उस न्यायिक अधिकारी को दो वेतनवृद्धि रोकने और पदावनति करने की सजा सुनायी। सुप्रीम कोर्ट ने उस न्यायिक अधिकारी को जिला जज के रूप में नियुक्त करने और उसके खिलाफ कार्यवाही की अवधि के सभी वेतन-भत्तों का भुगतान करने का आदेश भी दिया। (द हिंदू, १९ अप्रैल २००७) इसके पहले हाई कोर्टों में दो जजों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति की आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया। इनमें न्यायमूर्ति एसएल भयाना के खिलाफ जेसिका लाल हत्याकांड में दिल्ली हाई कोर्ट ने कड़ी टिप्पणियां की थीं। उधर न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला पर रिलायंस एनर्जी को लाभ पहुंचाने का आरोप था। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम से इन दोनों की तरक्की पर पुनर्विचार करने की अपील की। लेकिन जजों के इस समूह यानी कॉलेजियम ने इन आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए न्यायमूर्ति को दिल्ली हाई कोर्ट का जज नियुक्त कर दिया। न्यायमूर्ति भल्ला को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया।

इस देश में न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी अंतिम फैसले में सरकार या संसद का कोई दखल नहीं है। साथ ही न्यायपालिका के भीतर कहां कैसी कार्रवाई की जाए यह भी उच्चतर न्यायपालिका ही तय करती है। कतिपय स्थितियों में इसे एक स्वस्थ परिघटना माना जा सकता था। तीन दशक पहले जब कार्यपालिका सर्वशक्तिमान दिखाई देती थी और सरकार जजों की नियुक्ति अपनी सुविधा से करती थी, उस समय ऐसी न्यायिक स्वतंत्रता की मांग पुरजोर तरीके से उठी थी। एक लिहाज से यह संतोष की बात हो सकती है कि आखिरकार अब न्यायपालिका ने भारत में एक स्वतंत्र हैसियत बना ली है। राजनीतिक विवादों के बीच न्यायिक निष्पक्षता किसी भी लोकतंत्र की जरूरी शर्त है और मौजूदा न्यायिक स्वतंत्रता इसे सुनिश्चित कर सके तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि न्यायपालिका में अपनी स्वतंत्रता जताने के साथ-साथ राज्य-व्यवस्था के दूसरे समकक्ष अंगों के कार्य और अधिकार क्षेत्र में दखल देने की प्रवृति बढ़ती जा रही है। इसे न्यायिक सक्रियता का नाम दिया गया है। यानी ऐसी सक्रियता जो दूसरे अंगों में मौजूद बुराईयों और लापरवाहियों को दूर करने के लिए एक मुहिम के रूप में शुरू की गयी है। जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार और जन समस्याओं के प्रति उनके उदासीन रवैये पर जज अक्सर कड़ी फटकार लगाते हैं, जिसे मीडिया में खूब जगह मिलती है। जज कानून के साथ-साथ अक्सर नैतिकता को भी परिभाषित करते सुने जाते हैं। इसका एक लाभ यह हुआ है कि शासन के विभिन्न अंगों के उत्तरदायित्व को लेकर जनता के बड़े हिस्से में जागरूकता पैदा हुई है। इससे सार्वजनिक जीवन में आचरण की कुछ कसौटियां आम लोगों के दिमाग में कायम हुई हैं । यह बहुत स्वाभाविक है कि लोग उन कसौटियों को न्यायपालिका पर भी लागू करना चाहें। आखिर लोकतंत्र की आम धारणा और अपनी संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका भी जनता की एक सेवक है। उसके सुपरिभाषित कार्य और अधिकार क्षेत्र हैं। लोगों को यह अपेक्षा रहती है कि शासन का यह अंग अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए अपने इन कर्त्तव्यों का सही ढंग से पालन करे। साथ ही जब सार्वजनिक आचरण की अपेक्षाओं को खुद न्यायपालिका ने काफी ऊंचा कर दिया है, तो उस कसौटी पर खुद वो भी खरा उतरे।

देश के कई प्रधान न्यायाधीश न्यायपालिका के निचले स्तर में भ्रष्टाचार मौजूद हाने की बात स्वीकार कर चुके हैं। ऐसे में अगर निचली अदालत के किसी न्यायिक अधिकारी पर लगे इल्जाम को जांच में सही पाया गया और हाई कोर्ट ने उस आधार पर सजा सुनाई तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर कैसी मिसाल कायम की है, इसे समझ पाना मुश्किल है। साथ ही अगर किन्ही जजों की, भले वे निर्दोष हों, लेकिन सार्वजनिक जीवन में उनकी इतनी नकारात्मक छवि बनी हो कि राष्ट्रपति को उनकी तरक्की पर एतराज जतना पड़े, तो क्या उनके पक्ष में से खड़ा रहना न्यायिक स्वतंत्रता को जताने की सही मिसाल मानी जाएगी? इस संदर्भ में यह एक प्रासंगिक सवाल है कि क्या इन सब कदमों से न्यायपालिका की इज्जत बढ़ रही है?

न्यायिक सक्रियता शुरू होने और उसे जनता के एक बड़े हिस्से में मिले समर्थन की परिस्थितियों पर अगर गौर करें तो खुद न्यायपालिका से जुड़े लोगों के लिए यह सवाल अहम् हो जाता है। केन्द्र में राजनीतिक अस्थिरता और न्यायिक सक्रियता एक ही दौर की परिघटनाएं हैं। १९९० के दशक में भारतीय समाज एक बड़ी उथल-पुथल से गुजरा। एक तरफ सामाजिक न्याय की बढ़ती आकांक्षा से कमजोर तबकों में मजबूत गोलबंदी हुई और दूसरी तरफ उसकी प्रतिक्रिया में शासक समूहों ने उग्र दक्षिणपंथी रुख अख्तियार किया। इस टकराव का एक परिणाम राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आया। किसी एक पार्टी को बहुमत मिलना लगातार दूर की कौड़ी बनता गया। ऐसे में केंद्र में कमजोर सरकारों का दौर आया, और संसद में बिखराव ज्यादा नजर आने लगा। नतीजा यह हुआ कि शासन व्यवस्था के इन दोनों अंगों के लिए अपने अधिकार को जताना लगातार मुश्किल होता गया। ऐसे दौर में न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने भी अपनी नई भूमिका बनायी। इस दौर में राजनेताओं की अकुशलता और शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार ज्यादा खुलकर सामने आने लगे, जिससे आम जन में विरोध और नाराजगी का गहरा भाव पैदा हुआ। ऐसे में जब न्यायपालिका ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती बरती या शासन के आम कार्यों में दखल देना शुरू किया तो मोटे तौर पर लोगों ने उसका स्वागत किया।
यह बात ध्यान में रखने की है कि न्यायपालिका इसलिए लोगों का समर्थन पा सकी क्योंकि आम तौर पर उसकी एक अच्छी छवि लोगों के मन में मौजूद रही थी अगर यह छवि मैली होती है तो फिर न्यायपालिका वैसे जन समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकती। वह छवि बनी रहे, इसके लिए अंग्रेजी की यह कहावत शायद मार्गदर्शक हो सकती है कि 'सीजर की पत्नी को शक के दायरे से ऊपर होना चाहिए।` यह विचारणीय है कि क्या हर हाल में, न्यायपालिका के हर अंग का बचाव ऐसी छवि को बनाए रखने में सहायक हो सकता है?

यहां हम इस बात को नहीं भूल सकते कि न्यायिक सक्रियता के इसी दौर में न्यायपालिका की वर्गीय प्राथमिकताओं पर बहस तेज होती जा रही है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की तरफ से कराए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष रहा है कि न्यायपालिका ने प्रगतिशील फैसलों और जनहित याचिकाओं पर सशक्त पहल के दौर को अब पलट दिया है और उसने जन विरोधी लबादा ओढ़ लिया है। इस अध्ययन में कहा गया है-हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों ने कई जन विरोधी फैसले दिये हैं। इनसे उनकी प्राथमिकताओं में पूरा बदलाव जाहिर हुआ है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है। (डीएनए, १६ अप्रैल, २००७) शायद इससे कड़ी आलोचना कोई और नहीं हो सकती।

बौद्धिक क्षेत्र में न्यायपालिका की इन प्राथमिकताओं को भारतीय लोकतंत्र में चल रहे विभिन्न हितों के व्यापक संघर्षों की पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है। दरअसल, जिस दौर में न्यायिक सक्रियता शुरू हुई, उसी दौर में राजनीतिक सत्ता के ढांचे में बदलाव की ऐतिहासिक प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी। सदियों से दबाकर रखे गये समूहों ने लोकतंत्र की आधुनिक व्यवस्था के तहत मिले मौकों का फायदा उठाते हुए अपनी राजनीतिक शक्ति विकसित की और यह शक्ति आज किसकी सरकार बनेगी , यह तय करने में निर्णायक हो गयी है। एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के जिस सिद्धांत को भारतीय संविधान में अपनाया गया, उसका असली असर दिखने में कुछ दशक जरूर लगे, लेकिन उससे एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हुई, जिसने भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल दिया है। राज सत्ता पर बढ़ते अधिकार के साथ अब ये समूह सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी अपने लिए अधिकार और विशेष अवसरों की मांग कर रहे हैं। जाहिर है, जिनका सदियों से इन संसाधनों पर वर्चस्व है, वे आसानी से समझौता करने को तैयार नहीं हैं। राजनीतिक रूप से लगातार कमजोर पड़ते जाने के बाद इन तबकों की आखिरी उम्मीद अब कुछ संवैधानिक संस्थाओं से बची है। इसलिए कि इन संस्थाओं में आम तौर पर अभिजात्य वर्गों के लोग ही आते हैं, और उनका अपना नजरिया भी यथास्थितिवादी होता है। सार्वजनकि नीतियों के मामले में न्यायापालिका के अगर पिछले एक दशक के रुझान पर नजर डाली जाए तो इस वर्गीय नजरिए की वहां भी झलक देखी जा सकती है। मोटे तौर पर यह रुझान कुछ ऐसा रहा है : मजदूर और वंचित समूहों के अधिकारों को न्यायिक फैसलों से संकुचित करने की कोशिश की गयी है। बंद और आम हड़ताल को गैर-कानूनी करार दिया गया है। चार साल पहले तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल के मामले में तो यह फैसला दे दिया गया कि कर्मचारियों को हड़ताल का अधिकार ही नहीं है। इस तरह मजदूर तबके ने लंबी लड़ाई से सामूहिक सौदेबाजी का जो अधिकार हासिल किया, उसे कलम की एक नोक से खत्म कर देने की कोशिश हुई। कर्मचारियों और मजदूरों के प्रंबधन से निजी विवादों के मामले में लगभग यह साफ कर दिया गया है कि मजदूरों को कोई अधिकार नहीं है, प्रबंधन कार्य स्थितियों को अपने ढंग से तय कर सकता है। अगर इसके साथ ही विस्थापन, विकास और पूंजीवादी परियोजनाओं के मुद्दों को जोड़ा जाए तो देखा जा सकता है कि कैसे न्यायपालिका के फैसलों से मौजूदा शासक समूहों के हित सधे हैं।

अब अगर सामाजिक और राजनीतिक मामलों पर गौर करें तो संवैधानिक संस्थाओं की तरफ से न सिर्फ लोकतंत्र को सीमित करने बल्कि कई मौकों पर लोकतंत्र के रोलबैक की कोशिश होती हुई भी नजर आती है। इसकी एक बड़ी मिसाल शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का मामला है। वरिष्ठ वकील एमपी राजू ने इस आरक्षण पर रोक लगाए जाने के बाद लेख में लिखा है- यह फैसला काफी हद तक प्रतिगामी भेदभाव के अमेरिकी सिद्धांत पर आधारित है। यह सिद्धांत यह है कि विशेष सुविधाएं देने के लिए जो वर्गीकरण किया जाएगा, उससे उन वर्गों से बाहर रह गए तबकों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इस प्रकरण में इसका मतलब है कि अगड़ी जातियों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इससे यह सवाल जरूर उठता है कि क्या न्यायपालिका ऊंची जातियों और अभिजात्य वर्गों के हित-रक्षक की भूमिका में सामने आ रही है? और क्या संसद और सरकारों के प्रति उसका कड़ा, कई बार इन अंगों के प्रति अपमानजनक सा लगने वाला उसका नजरिया असल में इसलिए ऐसा है कि लोकतंत्र के इन अंगों में कमजोर वर्गों का अब निर्णायक प्रतिनिधित्व होने लगा है?

इन सवालों पर न्यायपालिका से जुड़े अंगों और व्यापक रूप से पूरे देश में आज जरूर बहस होनी चाहिए। आधुनिक लोकतंत्र स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के सर्वमान्य मूल्यों और शक्तियों के पृथक्करण के बुनियादी सिद्धांत पर टिका हुआ है। इसमें कोई असंतुलन पूरी व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकता है। आजादी के बाद शुरुआती दशकों में कार्यपालिका के वर्चस्व और केंद्र की प्रभुता की वजह से कई विसंगतियां पैदा हुइंर्, जिससे देश के कई हिस्सों में राजनीतिक हिंसा की स्थितियां और अलगाव की भावना पैदा हुई। विकेंद्रीकरण और आम जन की लोकतांत्रिक अपेक्षाओं को प्रतिनिधित्व देने वाली नई शक्तियों के उभार से वह असंतुलन काफी हद तक दूर होता नजर आया है। लेकिन इस नए दौर में न्यायपालिका का रुख नई चिंताएं पैदा कर रहा है। ये चिंताएं तभी दूर हो सकती हैं, जब न्यायपालिका सीज़र की पत्नी वाली कहावत पर खरी उतरते हुए तमाम तरह के संदेहों से ऊपर बनी रहे। यानी उससे जुड़े लोगों की अपनी छवि भी संदेह से परे रहे और उसके वर्गीय नजरिये पर भी सवाल न उठें।

वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन एनडीटीवी इंडिया में कार्यरत हैं।
(मोहल्ला.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)

सफर के दौरान : चार कविताएं




  • सुरेश सलिल


मौसम विज्ञानी

खिड़की से गर्दन उचकाते हो
और मौसम विज्ञानी होने का दावा करने लग जाते हो!
चुनार के इंर्ट-भट्टे
या जिउनाथपुर की धुआं उड़ाती चिमनियां
पूरे देश की तो छोड़िये
महज़ मिर्जाप़ुर का भी मौसम-सत्य नहीं हैं।

खिड़की से जितना खुशनुमा नज़र आता है पहाड़
अगर उसकी तलहठियों में जाकर
उसकी उपत्यकाओं को हथेली से छूकर
देख सकते, तो..

खिड़की से बाहर ही क्यों-
ऐन तुम्हारे सामने की बर्थ पर
यह जो कमसिन औरत लेटी है
और उसकी बगल़ में
सिकुड़े-सिमटे दो बच्चे,
उनके लिबास से
औरत के होंठों पर पुती लिपस्टिक से
सोये बच्चों के हाथों में भिंचे अंकल चिप्स के थैले से
क्या उस औरत के जिस्म की
झुर्रियां गिन सकते हो
बच्चों के बौने सपनों का मौसम पढ़ सकते हो?

तुम्हारी सारी विशेषज्ञता
शोध-सर्वेक्षण
तुम्हारी सारी कविताओं के दिगंत
खिड़की के चौखटे तक ही फैले हैं
और तुम मौसम विज्ञानी होने का दावा करते हो! ...


सफ़र बनाम सफ़र

रेल के सफ़र
और जिंदग़ी के सफ़र में
कोई समानता नहीं है।
सफ़र दोनों हैं
दुर्घटनाएं दोनों में हो सकती हैं
लेकिन जिंद़गी का सफ़र पटरी-पटरी तै नहीं होता।
दिल्ली से कलकत्ते के रेल-सफ़र में
इलाहाबाद आयेगा ही
मुगल़सराय आयेगा ही
लेकिन जिंद़गी के सफ़र में
न मंज़िल का दावा आप कर सकते हैं
न बीच के पड़ावों का।

रेल के सफ़र में
(वातानुकूलित डिब्बों में खा़सतौर से)
खिड़कियां बंद करके बैठते हैं यात्री
उंगलियों पर गिनते रहते हैं
बीच के स्टेशनों के नाम
और घड़ी पर नज़र रखते हैं।
लिहाज़ा लेट भले हो जाएं
अपने गंतव्य तक पहुंचते हैं,
अगर कहीं..

जिंदग़ी के सफ़र में
खिड़कियां खुली रहती हैं-
फ़र्ज करिये
खिड़की से अचानक
कोई दृश्य दिख गया
जो आपको अपनी तरफ़ बुला रहा हो-
स्वाभाविक है कि आप
कलकत्ता पहुंचने की बात को बाद देकर
वहीं उतर जायेंगें -
भले उस दृश्य से जुड़ने के
नतीजे से आप वाक़िफ़ न हों।

तो, भाई जान, यह रहा ज़िंदगी का सफ़र!

जिंद़गी की राह पकड़
चला था कलकत्ते
साथ में बीवी-बच्चे,
सिर पर-कंधों पर
गठरी-मोठरी लादे..
वे चले थे टे्रन से
एकदम छुट्टाछरीदा-
खिड़कियां बंद किये।
एक से दूसरी सीट
एक से दूसरा डिब्बा
एक से दूसरी टे्रन बदलते-बदलते
पहुंच गये अखिऱकार कलकत्ता!
मुमकिन है
कल बंगाल की खाड़ी के रास्ते
या आसमान में तैरते
हांगकांग, तोक्यो
या कहीं और पहुंच जाएं..
.. और आप
आसनसाल या बर्दवान
धनबाद या चासनाला में
हाथ-पैर लहूलुहान करते ही रह जायें,
या... !


अर्थवान

सड़क एक जगह पहुंच कर समाप्त हो जाती है
वह जगह लेकिन मंज़िल नहीं होती-

किसी की भी मंज़िल नहीं होती
(सड़क की, न सड़क पर चलने वाले की..)

सड़क किसी मंज़िल की गारंटी नहीं है
मंज़िल की गारंटी है संकल्प

खिर गये हों जब सभी संकल्प
तो समय थम जाता है
और मंज़िल पा लेने का भ्रम पाले लोग
उसी थमे समय में थम जाते हैं
मंज़िल तक पहुंचने से कहीं ज्या़दा अर्थवान है
चलते रहना-

न मिले गर
न मिले मंज़िल
-गम़ क्या है!



छोटी कविताएं

१.
दिन भांय-भांय करते हुए
और रातें सांय-सांय-
टूट कर यहां से हम और कहां जायं?

२.
क्या अगले ज़माने के लोग भी
जागते रहते थे सारी रात?..

३.
गल़त राग पर धड़धड़ाये चला जा रहा है तू
ऐ मेरे बिगड़े दिल!
सभी राग-रागिनियों का समय
निर्धारित है

४.
उम्र का ज़िक्र नहीं
फ़िक्र नहीं
मौसम की-
मेरी आंखों में ख्व़ाब हैं अब भी

जाति केवल मानसिकता नहीं

साक्षात्‍कार


  • चिंतक योगेन्द्र यादव से अनीश अंकुर की बातचीत


जाति एक सामाजिक ढांचा है, संगठन है। केवल मानसिकता होती तो उसका शुद्ध विचारधारा से विरोध किया जा सकता था लेकिन चुंकि वह शुद्ध मानसिकता नहीं है, उसके पीछे बहुत बड़ा सामाजिक संगठन है, जो दिन-रात अपने आपको पुनरुत्पादित करता है जो परंपरागत पेशे से जुड़ा है। जब तक उसमें कोई व्यवस्थित हस्तक्षेप नहीं किया जाए यह व्यवस्था अपने आपको पुनरुत्पादित करती रहेगी।


अनीश अंकुर : आपने-अपने कल के व्याख्यान में जाति को सिर्फ सामाजिक श्रेणी (सोशल कटेगरी) के रूप में देखा है जबकि यह एक आर्थिक श्रेणी (इकोनॉमिक कटेगरी) भी है। आप हमेशा शब्द इस्तेमाल करते हैं 'ब्राह्मणवाद।` जबकि यह एक स्थापित सा तथ्य है कि 'जाति` भारतीय सामंतवाद की विशिष्ट अभिव्यक्ति है। सामंतवाद का जिक्र आप प्राय: नहीं करते। क्या यह सचेत है?

योगेन्द्र यादव : हम आरक्षण या ऐसे किसी भी मामले पर मीडिया या बुद्धिजीवियों में पूर्वाग्रह को सीधे-सीधे उनकी जाति व उसमें एक सचेत जातिवाद से जोड़कर देखते हैं। अमूमन ऐसा विचार बन गया है कि जातिवादी पूर्वग्रह इसलिए आते है क्‍योंकि किसी न किसी स्तर पर यह अगड़ों का जातीय षडयंत्र है। मैं इस धारणा से दूर हटना चाहता था। मैने कहा कि जातीय चेतना जाति के असर का केवल एक स्तर है इसके अलावा अवचेतन स्तर पर जातीय संस्कारों का बड़ा असर होता है। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण चीज है जातीय ढांचा। एक ढांचे के बतौर जाति कैसे उन परिस्थितियों का निर्माण करती है जिसमें हम सोचते हैं। जाति के कई और परिणाम होते हैं। जाति की खुद की बुनावट कई चीजों को लेकर बनी है जिसमें परंपरागत पेशा बहुत जरूरी चीज है। अगर मुझे समय मिले, जाति व्यवस्था के बारे में विस्तार से कहने के लिए, तो शायद मैं इन चीजों का जिक्र करूं। आरक्षण के सवाल पर मैंने खुद कहा था कि अब मेरी मान्यता है कि पिछड़ों के लिए आरक्षण केवल जातीय आधार पर नहीं होना चाहिए क्योंकि हमारे समाज में जो भेदभाव है वह अनेक स्तरों पर व अनेक कारणों से बना है जिसमें आर्थिक कारण भी शामिल हैं। लेकिन एक बात आप ठीक कह रहे हैं कि 'सामंतवाद` शब्द का मैंने जिक्र नहीं किया। यह निश्चय ही किसी न किसी स्तर पर सचेत रहा होगा। मुझे अक्सर महसूस होता है कि भारतीय समाज की विशिष्टता को समझने के लिए सीधे-सीधे यूरोपीय इतिहास से रूपक उठाकर इस्तेमाल करना हमारी बहुत मदद नहीं करता। क्‍योंकि रूपक की अपनी ताकत होती है। वह किन्हीं स्मृतियों से नहीं चले आते। अगर आप यह कहें कि मै सामंतवाद शब्द व उससे जुड़े तमाम सिद्धांतों के बोझ से बचना चाहता हूं तो यह गलत नहीं होगा। मुझे यह जरूर महसूस होता है कि हमारे यहां के इतिहास लेखन में जिस किस्म से सामंतवाद शब्द का प्रयोग हुआ है वह बहुत उपयोगी नहीं है। खासतौर पर जाति व्यवस्था की विशिष्टता को समझने के लिए। इसकी उपयोगिता पर मुझे शंका होती है। इसका मतलब यह नहीं कि किसी भी बड़े फ्रेम का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। मैं किसी भी मामले में पोस्ट मार्डर्निस्ट नहीं हूं और अपने लेखन व सोच में इसका आलोचक रहा हूं। तो आग्रह यह नहीं है कि किसी बड़े फ्रेम का इस्तेमाल न किया जाए लेकिन सामंतवाद वह बड़ा फ्रेम हो सकता है, इसमें मुझे संदेह है।


अनीश अंकुर : आपने कहा कि सामंतवाद से बचना सचेत कोशिश है। मैं थोड़ा और जानना चाहता हूं। इस जातीय चेतना को पुनरूत्पादित करने वाली कौन सी शक्तियां हैं? आप कहते हैं कि आधुनिकता 'जाति` को मजबूत बनाती है। जाति एक पूर्व आधुनिक श्रेणी (प्री-मॉडर्न कटेगरी) है। जब आधुनिकता आई तो स्वभाविक प्रक्रिया में जाति को खत्म हो जाना चाहिए था। क्या कारण है कि यह आधुनिक युग में भी बनी हुई है। आपने जाति को महज 'मानसिकता` का प्रश्न बताया। मैं यही जानना चाहता हूं कि इस मानसिकता को बनाए रखने वाली, इसे खुराक पहुंचाने वाली शक्तियां कौन सी हैं?


योगेन्द्र यादव : मेरे हिसाब से जाति को पूर्व आधुनिक कहना गलत है। या यूं कहें कि पूर्व आधुनिक और आधुनिक शब्द का इस्तेमाल एक विश्लेषण के तौर पर करना बहुत ज्यादा उपयोगी नहीं है। किसी चीज को पूर्व आधुनिक इसलिए कहना कि वह औपनिवेशिक राज से पहले हिंदुस्तान में थी तो इस वर्णात्मक अर्थ में तो है पूर्व आधुनिक। लेकिन जब हम किसी चीज को आधुनिकता से पूर्व या कई बार परंपरागत संस्थाएं बोलते हैं तो उसके पीछे सिद्धांत, एक पूरे सिद्धांत का बोझ होता है; जो बताता है कि कौन सी चीजें पुरातन हैं। हमें आज के समाज का विश्लेषण करते वक्त जहां तक हो सके इस बोझ को परे रख कर सोचना चाहिए। मैं नहीं समझता जाति केवल मानसिकता है। जाति एक सामाजिक ढांचा है, संगठन है। केवल मानसिकता होती तो उसका शुद्ध विचारधारा से विरोध किया जा सकता था लेकिन चुंकि वह शुद्ध मानसिकता नहीं है उसके पीछे बहुत बड़ा सामाजिक संगठन है, जो दिन-रात अपने आपको पुनरूत्पादित करता है जो परंपरागत पेशे से जुड़ा है। व्यवसाय, शिक्षा में अवसरों और उनकी अनुपस्थिति, समाज में ऊंच-नीच, शक्ति समीकरण से जुड़ा है इसलिए जाति व्यवस्था, जब तक उसमें कोई व्यवस्थित हस्तक्षेप नहीं किया जाए यह व्यवस्था अपने आपको पुनरूत्पादित करती रहेगी। इसमें आधुनिकता के दो किस्म के बहुत बड़े योगदान हैं जिसे हमें समझना चाहिए। पहला आधुनिक शिक्षा का योगदान। जिसे हमने सोचा था कि जाति व्यवस्था को तोड़ने का सबसे बड़ा औजार बनेगी वही आधुनिक शिक्षा व्यवस्था दरअसल जाति व्यवस्था को पुख्ता करने का औजार बनी, दो-तीन मायनों में। एक तो यह कि हमारे समाज में आधुनिक शिक्षा, तामाम किस्म के जो विशेषाधिकार थे, उनका जरिया बनी। जिसके पास अंग्रेजी थी उनको जिंदगी में बेहतर नौकरी के अवसर मिले। चूंकि अंग्रेजी और आधुनिक शिक्षा समाज के उन्हीं वर्गों, जातियों, समुदायों को मिल पाई जो आज से १००-१५० साल पहले इस स्थिति में थे कि वह इस शिक्षा को ग्रहण कर सकें। इसलिए हमारे यहां अंग्रेजी और आधुनिकता एक जातीय ढांचे में घुल मिल गई। इस वजह से यह असर हुआ। दूसरा आधुनिक राजनीति। आधुनिक राजनीति ने जो प्रतिस्पर्धात्मक परिस्थिति पैदा की, चुनावी राजनीति का जो गणित है उसने यह मांग पैदा की कि आपको अपने लिए वोट बैंक ढूंढना है, न मिले तो उसका आविष्कार करना है। इसलिए कई जगह जातियों का आविष्कार किया गया या तो खोज की गई। जिस जाति को बिहार में आजकल यादव कहा जाता है वह दरअसल तीन उपजातियों या समुदायों का राजनैतिक गठबंधन है। समझौतावादी राजनीति के चलते जिसका अविष्कार किया गया। इसी तरह से आप तमाम राज्यों में देखिए। चुनावी राजनीति जिसको हम पार्टी पॉलिटिक्स कहते हैं। हम भूल जाते है कि Party शब्द अंग्रेजी Part शब्द से निकला है यानी कि Party आस्तित्व में आती ही इसलिए है ताकि वो समाज का विभाजन कर सके। विभाजन एक संयोग नहीं है, वह इसका मूलमंत्र है। आधुनिक राजनीति इस मान्यता पर आधारित है कि समाज को टुकड़ो में बाटेंगे , उसमें प्रतिस्पर्धा कराके सत्ता का निर्धारण करेंगे इसलिए चुनावी राजनीति दुनिया के हर इलाके में यह मांग करती है कि उसके लिए विभाजन किया जाए या तो बने बनाए विभाजनों को प्रज्जवलित किया जाए या फिर विभाजनों का अविष्कार किया जाए। चाहे वह श्वेत-अश्वेत हो, फ्रेंच भाषा भाषी हो फ्लेमिस्ट भाषा भाषी का सवाल हो बेल्जियम में। चाहे वह नस्ल का सवाल हो, रंग काया धर्म का। दुनिया के तमाम देशों में आधुनिकता एक समुदाय के निर्माण की मांग पैदा करती है। हमारे यहां आधुनिकता ने जाति समुदाय के निर्माण की मांग का स्वरूप लिया है इसलिए आधुनिकता ने जाति को पुष्ट किया है और यही करना था। पता नहीं क्यों नेहरू के जमाने में हम इस भोलेपन में थे कि ये आधुनिकता के मंजर इन संस्कारों को समाप्त कर देंगे। यह उस जमाने का भोलापन था और कुछ नहीं। हकीकत उससे अलग थी। यह होना स्वाभाविक था।

अनीश अंकुर : यहां पर मैं सवाल के रूप में एक बात रखना चाहता हूं। कल आपने व्याख्य़ान में कहा था कि लालू यादव इसलिए हारे क्योंकि वे गलत लोगों के हाथों में फंस गए थे। उनके इरादे (इन्टेंशन) गलत नहीं थे जबकि कल ही आपने कहा था कि मैं सही-गलत इरादे के सिद्धांत, या तर्क को नहीं मानता। यह अंर्तविरोध क्यों है? क्या आपको नहीं लगता कि सामंतवाद शब्द इस्तेमाल न कर पाने की वजह से आपको इरादे वाले तर्क का सहारा लेना पड़ा। जैसे मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा। देखने का एक नजरिया यह है कि लालू यादव एक खास ऐतिहासिक अवसर पर लंबी-लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दौरान आए। स्वामी सहजानंद का किसान आंदोलन, त्रिवेणी संघ, समाजवादी आंदोलन, कम्युनिस्ट आंदोलन व जयप्रकाश आंदोलन यानी लोगों के बीच जो सामंतवाद विरोधी चेतना थी उसकी अभिव्यक्ति लालू यादव में हुई। पर बाद में लालू यादव ने उन्हीं सामंती शक्तियों के साथ समझौता किया। रणवीर सेना इन्हीं के वक्त सबसे खूंखार रूप में आयी। यदि हमारे इलाके में जाएं वहां के बड़े सामंत लालू के साथ हैं। यदि आप पिछले चुनाव के ३-४ सीटों का विश्लेषण करें तो आप पाएंगे कि तमाम उच्च जातियों का ध्रुवीकरण उच्च जातियों का विरोधी मानी जाने वाली राजद के पक्ष में हुआ। विशेषकर जहां उसकी लड़ाई एमएल से थीऱ्यदि आप सामंतवाद से बचेंगे तो इसे कैसे समझेंगे?
लालू यादव की हार के कई विश्लेषणों में एक महत्वपूर्ण विश्लेषण यह है कि जिस सामंतवाद विरोधी मंच पर लालू आए बाद के दौर में उन्हीं शक्तियों से समझौते की वजह से निचली जातियों, तबको से उनका अलगाव बढ़ा। परिणामस्वरूप उनकी हार हुई।

योगेन्द्र यादव : लालू यादव चुनाव हारे इसलिए कि समाज के अलग-अलग तबकों का एक बड़ा गठबंधन जो उन्होंने बनया था वह गठबंधन बिखरने लगा। उस गठबंधन में सेंध लगी। क्योंकि लालू का राज लोगों की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाया। उसने एक सीमित अपेक्षा को पूरा किया और वह था जातीय वर्चस्व की घुटन से मुक्ति दिलाने का सपना। उसको उन्होंने आंशिक रूप से पूरा किया। उस लिहाज से १९९१ में लालू की जीत, १९८९ में जो जीत थी वो अधूरी थी, बहुत बड़ी जीत थी। लालू प्रसाद की पहली सरकार को यदि आप सामाजिक अर्थ में क्रांतिकारी कहें तो मैं उसको स्वीकार करूंगा। इसलिए नहीं कि सरकार ने कुछ क्रांतिकारी काम किया बल्कि इसलिए कि इस सत्ता परिवर्तन, कि सत्ता अगड़ों के संपूर्ण वर्चस्व से हटकर उसके बाहर हाशिये पर पड़े समूहों के हाथ में आ सकती थी, यह बात स्थापित करना बिहार के संदर्भ में क्रांतिकारी था। जैसे-जैसे समय बीता वैसे-वैसे यह क्रांतिकारी पक्ष जो था वह गौण होता गया। दो-तीन वजहों से। एक तो इसलिए कि वह धीरे-धीरे पिछडों की सत्ता होने की बजाए, पिछडों में एक जाति विशेष की सत्ता बनती गई और दरअसल जाति विशेष के साथ-साथ एक परिवार विशेष की सत्ता बन गई। और यह चेहरा बहुत खुल कर सामने आ गया था जो लोकतांत्रिक कतई नहीं था। दूसरा कि सरकार से लोगों की जो न्यूनतम अपेक्षा रहती है कम से कम सुरक्षा, थोड़ा बहुत विकास, वह लेशमात्र भी पूरी नहीं हुई। दरअसल गरीबों की असुरक्षा बढ़ी और यह बात गरीबों से बहुत समय तक ओझल नहीं रह सकती थी। इसके चलते, उन्हीं के जो पक्के समर्थक थे, उनका मोह भंग होना शुरू हुआ और उन्होंने विकल्प की तलाश शुरू की। बिहार की इतने सीमित विकल्पों की जो राजनीति है उसके चलते लोगों को नया विकल्प जल्दी से मिला नहीं, इसलिए ९० के दशक के चुनावों में बात नहीं बन पाई। २००० में भी किसी तरह काम चला। इसलिए इतना लंबा अरसा लगा। नहीं तो मेरे ख्याल में २००० आते-आते उस सरकार की जो कुछ भी, सामाजिक बदलाव की क्षमता थी, चूक गई थी। ९५-९६ तक काफी हद तक चूक चुकी थी उसके बाद कुछ बचा नहीं था सरकार में। लेकिन ये विकल्पहीनता थी बिहार की और जो सबसे बड़ा विकल्प था वो कहीं न कहीं अगड़ों के राज से जुड़ा था। यह भय इसको टाल रहा था। असली सवाल यह नहीं कि वह हारे क्यों बल्कि यह है कि वह इतना कम क्यों हारे? और इतनी देर से क्यों हारे अगर ऐसी सरकार कोई हरियाणा में चलाता, तमिलनाडु में चलाता तो उसे एक सीट भी नहीं मिलती। लालू सरकार का एक पक्ष जिसे 'शुद्ध सामंती` कहना चाहिए वह था उनका व उनके परिवार का व्यक्तिगत व्यवहार। उसका जो सांस्कृतिक पहलू है वह शुद्ध रूप से सामंती है, था। उनका व्यक्तिगत व्यवहार, परिवार व दूसरे लोगों से, उनकी बेटियों की शादियां, तमाम जो शैली है लालू की, उसे सामंतवाद की नकल कहा जा सकता है और वह एक बहुत बड़ी त्रासदी की तरफ इशारा करता है कि जो हाशिया ग्रस्त समूह सत्ता पर कभी काबिज भी होते हैं तो उनके सामने सत्ता का कोई मॉडल नहीं होता। सरकार बना के, 'राजा` बन के क्या करना है इनके सामने कोई स्वस्थ मॉडल नहीं है। राजा बनके पिछले राजाओं की नकल करनी है। वह भी भोंडी नकल। यह बताता है कि हमारे यहां का पिछड़ा नेतृत्व वाकई वैचारिक, मानसिक राजनैतिक तौर पर पिछड़ा हुआ है। वह न सिर्फ समाज के पिछड़े तबके का नेता है बल्कि दुर्भाग्यवश वह बहुत पिछड़ा नेता है। लालू यादव उसकी जीती जागती मिसाल हैं। इसको मैं सामंतवाद कहने से इसलिए कतराता हूं क्योंकि सामंतवाद केवल एक शैली नहीं है। सामंतवाद केवल एक सांस्कृतिक आग्रह नहीं है। वह एक आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था का नाम है। मुझे लगता है कि अगर लालू और उनके दरबारियों के व्यवहार के सामंती पक्ष को नोट कर लें, उसके बाद सामंतवाद जैसे भारी शब्द का इस्तेमाल करने से हमें विश्लेषण में भारी मदद मिलती है-ऐसा मुझे दिखाई नहीं देता। मेरे लिए कोई भी श्रेणी अपने आप में सच्ची या झूठी नहीं होती। वह उपयोगी अथवा अनुपयोगी होती है। मुझे अक्सर पश्चिम के इतिहास से ली गई इन बड़ी अवधारणाओं के बारे में यही लगता है कि वह दिखाती कम है छुपाती ज्यादा है। यह बात सच है कि राजनैतिक सत्ता अक्सर या कुछ बुनियादी मायने में ढांचागत सीमाओं के भीतर काम करती है लेकिन हम अक्सर इसे ढांचागत सीमाओं को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर देखते हैं । हम भूल जाते हैं कि उन सीमाओं के भीतर कितना कुछ किया जा सकता है। सामान्य दैनंदिन राजनीति उन सीमाओं के भीतर होने वाला खेल है अगर प्रश्न यह है कि लालू प्रसाद यादव की सरकार ने बिहार में बुनियादी आर्थिक क्रांति क्यों नहीं की तो उत्तर वही होगा, जो आपने कहा यानी जो यहां स्थापित आर्थिक-सामाजिक सत्ता के समीकरण से टक्कर नहीं लेगा। जिसका एक पक्ष सामंती है (पूरा नहीं) वो व्यक्ति आर्थिक सामाजिक जीवन में क्रांति नहीं ला सकता। लेकिन अगर आपका सवाल यह है कि उस सरकार ने १५ साल में सड़कें क्यों नहीं बनवाई? सरकार ने प्राइमरी स्कूल में व्यवस्था को दो सूत भी बेहतर क्यों नहीं किया? सरकार ने उच्च शिक्षा के संस्थानों का समस्त सत्यानाश क्‍यों कर दिया? यहां के प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओ की हालत बद से बदतर क्‍यों होती गई? इन सवालों का सीधा उत्तर आपको आर्थिक ढांचे में नहीं मिलेगा। क्योंकि अगर आप इसका उत्तर आर्थिक ढांचे में ढूढना चाहेंगे तो फिर आपको देखना पड़ेगा कि देश के अन्य राज्यों में जहां कमोबेश इस किस्म का आर्थिक ढांचा है बिहार जितना बुरा नहीं लेकिन कमोबेश रहा है। वहां ये चीजे क्यों हो जाती हैं ? हम जब राजनीति की ढांचागत सीमाओं की बात करते हैं या एक जमाने में मार्क्सवादी लोग 'बेस एवं सूपरस्ट्रक्चर` की बात करते थे हम कहते हैं In the last instance हम यह भूल जाते हैं कि राजनीति में उस last instance से पहले अनेकानेक instance होते हैं जिसमें हम अपना जीवन जीते हैं। रोजमर्रे की राजनीति को समझना, उस पर टिप्पणी करना उन सीमाओं के भीतर का खेल है वो एक बहुत बड़ा सवाल है। ढांचे को क्यों नहीं तोड़ा? ये प्रश्न बिहार में १९५२ से लेकर आज तक आ रही हर सरकार पर लागू होता है इससे यह आप समझ नहीं सकते कि लालू जी की सरकार १५ साल क्यों चली। जब गिरी तब क्यों गिरी? पहली बार क्यों नहीं गिर गई। हमारा ज्यादातर समय इन छोटे सवालों में गुजरता है इसलिए हमें उसे बारीकी से देखना पड़ेगा और कोई रास्ता मैं नहीं देखता।


अनीश अंकुर : बिहार, पूर्वी उत्तरप्रदेश व बंगाल स्थायी बंदोवस्त (परमानेंट सेटलमेंट) का इलाका माना जाता है। जिसे लार्ड कार्नवालिस ने लागू किया था। बंगाल ने अपने आपको सचेत रूप से स्थायी बंदोवस्त से अलग किया। जो कि दूसरी जगहों पर संभव नहीं हो पाया। बिहार वगैरह चूंकि स्थायी बंदोवस्त का इलाका है कहीं इसी वजह से तो दिक्कत नहीं है?

योगेन्द्र यादव : राजनीति का बुनियादी विश्लेषण करने में यही एक खोट रहती है कि हम भूल जाते हैं कि एक ही बुनियाद पर अलग-अलग किस्म की इमारत बन सकती है। प्रश्न पर निर्भर करता है और मुझे लगता है कि हम अक्सर जरूरत से ज्यादा बुनियाद के आधार पर चीजों को विश्लेषित करने की कोशिश करते हैं । इससे एक आत्मिक सुख मिलता है कि हमने बहुत अच्छी एक्सप्लानेशन दे दी। लेकिन दरअसल रोजमर्रे की राजनीति की बहुत गहरी एक्सप्लानेशन देना कई बार बड़ा खतरनाक होता है। जैसे स्थाई बंदोबस्त के सवाल से पश्चिम बंगाल की सरकार को जोड़ देना। यह मान कर चलना है कि जहां-जहां स्थाई बंदोबस्त था वहां-वहां इस किस्म का वामपंथी उभार होना अनिवार्य था। सीपीआई जो बिहार की बहुत महत्वपूर्ण पार्टी थी वो बिहार में विफल क्यों हुई। बंगाल में सफल क्यों हुई। इन सवालों का जवाब देने के लिए मैं फिर कहूंगा हम बुनियाद का सहारा न लें, तो वह समझदारी होगी और पश्चिम बंगाल में सीपीएम इसलिए सफल है क्योंकि उसने सामंतवाद को खत्म कर दिया, मैं इससे सहमत नहीं हूं। देखिए बहुत बड़े जमींदार बचे ही नहीं थे। १९७७ में बिहार जैसी स्थिति नहीं थी। पश्चिम बंगाल में सीपीएम ने यही किया कि बंटाईदार बेदखल नहीं हो सकें इसकी गारंटी कर दी। अब उसे सीधे-सीधे कार्नवालिस से जोड़ना वो राजनीति की अपनी reductionists reding है। मुझे खौफ होता है क्‍योंकि मैंने इस प्रकार के अध्ययन के दुष्परिणाम देखे हंै। एक गैर यूरोपीय मुल्क के इतिहास और राजनीति को समझने के लिए यूरोप से ली गई विचारधारा को Reductionist तरीके से इस्तेमाल करना बहुत खतरनाक हो सकता है।

अनीश अंकुर : अब थोड़ी बात आरक्षण संबंधी बहस पर कर लें। १९९० में आरक्षण विरोधी आंदोलन हुआ था। उसके बाद आरक्षण करीब-गरीब हमारे राजेमर्रा की बातचीत का हिस्सा बन चुका है। १६ वर्षों बाद फिर से दुबारा आरक्षण विरोधी उभार हुआ। इन दोनों उभारों में बुनियादी फर्क क्या है? वह क्या चीज है कि १६ वर्षों बाद दुबारा उसी ताकत से उभर कर आ जाती है?

योगेन्द्र यादव : पहले देखिए कॉमन क्या है। हमारे समाज में अभी भी हालांकि आरक्षण व्यवस्था लागू है लेकिन सामाजिक न्याय के बारे में समाज में एक राय नहीं बन पाई है। खास तौर पर समाज के उस तबके में जिसे इसका कोई फायदा नहीं मिला। उस तबके में इसको लेकर एक छटपटाहट है। शहरी मध्यम वर्ग और अगड़ी जाति के लोगों में इसको लेकर कहीं दबा छुपा गुस्सा है। जैसे ही वक्त मिलता है वह गुस्सा बाहर आ जाता है। यह व्यवस्था भले ही ६० साल पुरानी हो लेकिन हमारे अगडे समाज का मानस इसे स्वीकार नहीं कर पाया है। इसकी वजह से जब भी मौका मिलता है यह बाहर आ जाता है। दूसरा, जो हमारी मीडिया है उसकी ताकत बहुत बढ़ी है, पिछले कुछ सालों में। मीडिया जो सवर्ण पूर्वग्रहों का काफी शिकार है, इसको काफी हवा देता है। आपने देखा होगा कि इस बार आरक्षण के खिलाफ जो आंदोलन हुआ उसे मीडिया ने लगभग आग्रह करके चलवाया। शुरू में तो लोग इस आंदोलन में शामिल नहीं हो रहे थे लेकिन जब टीवी चैनल चार-पांच लोगों के विरोध को रैली के रूप में दिखाने लगे तो जाहिर है उसमे थोड़ी जान आ गई। तो मीडिया उसका बहुत बड़ा पक्ष है। तीसरा, हमारी राजनैतिक मुख्यधारा है जो हमारे राजनैतिक दल हैं उनमें एक वैचारिक कमजोरी आई है। कहने को हर कोई इसके प्रति प्रतिबद्ध है क्योंकि किसी की हिम्मत नहीं है इसका विरोध करने की। हरेक को वोट दिखाई देता है लेकिन थोड़ा सा आप खुरचिए तो दलों के अंदर इस सवाल को लेकर उहापोह है। यह कुछ हद तक कांग्रेस में और बहुत हद तक बीजेपी में है। इन दोनों पार्टियों ने, जिन्होंने औपचारिक रूप से इसका समर्थन किया है, लेकिन कहीं न कहीं दुविधाग्रस्त हैं। तो ये तीनों पक्ष हैं जिसकी वजह से ये चीजें बार-बार आती हैं । अब अंतर क्या है? एक तो यह कि मीडिया की ताकत पहले से तो बढ़ी है लेकिन मीडिया का पूर्वग्रह पहले से कम हुआ है। सामाजिक न्याय के प्रवक्ता इस बात को मानते नहीं हैं लेकिन मेरी अपनी समझ है कि मीडिया खास तौर पर संपादकीय पृष्ठों में जहां मीडिया राय देता है, ९० की तुलना में ज्यादा संतुलित था। लेकिन मीडिया की ताकत कई गुना बढ़ गई तो उसका कम असंतुलित होना भी भारी पड़ा। दूसरा रोचक अंतर है कि इस बार आरक्षण का विरोध करने वाले अपने आपको समतावादी कह रहे थे। मतलब कि आरक्षण के विरोधियों ने १६ साल में कुछ सीखा। मुझे लगता है कि आरक्षण के समर्थकों ने १६ साल में बहुत कुछ नहीं सीखा। वे लगभग वहीं खड़े हैं जहां १६ साल पहले थे। वही बेचारगी, वही स्थूल तर्क और वहीं छुपाने की प्रवृत्ति यानी ओबीसी के भीतर जो तमाम सतहें हंै उनके बारे में चुप्पी साधने की प्रवृत्ति। वे इसके बारे में आंकड़े तर्क और सिद्धांत गढ़ने में असफल रहे लेकिन मंडल-२ का एक असर जरूर हुआ कि कहीं न कहीं सबके मन में ज्यादा डर बैठा हुआ है कि ये कुछ ऐसा है जिसको हाथ लगा दोगे तो पता नहीं कहां डसेगा इसलिए राजनैतिक सत्ता और आंदोलनकारी, सब इसकी सीमाओं के प्रति कहीं ज्यादा सजग हैं।


अनीश अंकुर : योगेन्द्र जी क्या आपको लगता है कि आरक्षण विरोध का इस बार एक अर्थशास्‍त्र था। उदाहरण के लिए मैं बताऊं जब ९३वां संविधान संशोधन आया तो उसमें कहा गया कि जितने वित्तरहित प्रोफेशनल कॉलेज हैं उसमें भी ५० प्रतिशत आरक्षण लागू होगा। एक अध्ययन के अनुसार निजी वित्तरहित प्रोफेशनल संस्थानों में ५ लाख १५ हजार छात्र हैं। २० हजार के लगभग मेडिकल छात्र हैं। मान लीजिए यदि एक छात्र के लिए इन संस्थानों में ३ लाख रुपया भी लिया जाता है तो कितनी बड़ी पूंजी इसमें शामिल है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। और क्या ये संयोग नहीं है कि मुंबई में जो आरक्षण विरोधी आंदोलन हुए उसे प्रोफेशनल Event managers ने ऑर्गेनाइज किया। चूंकि निजी संस्थानों को भी आर्थिक घाटा उठाना पड़ता आरक्षण लागू होने पर। अत: प्राइवेट में आरक्षण की बात पहुंचे इससे पहले सरकारी संस्थानों में ही आरक्षण के मुद्दे को ब्लॉक कर दिया जाए। क्या इसके पीछे एक सुचिंतित अर्थशा नहीं था? जिसकी ओर आप लोगों ने भी कम ध्यान दिया, मेरे ख्याल से सिर्फ पूर्वग्रह पर ही ज्यादा जोर रहा?

योगेन्द्र यादव : यह आसान अर्थशा तो नहीं ही था। आरक्षण विरोध के पीछे कुछ बहुत बड़े स्वार्थ काम कर रहे थे। उन स्वार्थों में आर्थिक स्वार्थ का हिस्सा भी था। अगर निजी वित्तरहित संस्थानों में भी आरक्षण होता तो ये स्पष्ट नहीं है कि वो आरक्षण में भी अधिक फीस क्यों नहीं मांग सकते। सीधा-सीधा आर्थिक घाटा उनको हो रहा है ये अभी स्पष्ट नहीं है। घाटा यह था कि उनको जाति विशेष के लोगों को लेना पड़ता। जो आर्थिक घाटा नहीं है एक दूसरे किस्म का घाटा है। जब तक आप जाति का द्वार नहीं खोलेंगे तब तक आप उस घाटे को घाटे की तरह समझ नहीं सकते। इसके पीछे दूसरी रणनीति थी वो यह कि निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण की बात भारत सरकार ने ठीक उसी समय चलाई थी। मुझे ऐसा महसूस होता है कि समझ यह थी कि यहीं पर इतना बवाल खड़ा कर दो, अगर इस बवाल खड़ा करने से शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण रूकेगा नहीं तो भी सरकार व राजनेता सचेत हो जाएंगे। भई ये तो बड़ा लफड़ा है। निजीक्षेत्र की अपने यहां तक आरक्षण न पहुंचने देने की एक रणनीति इसमें थी जो शायद सफल हुई लेकिन वह भी शुद्ध आर्थिक नहीं है।
टाटा को अगर ओबीसी के उम्मीदवारों को बहाल करना पड़े तो टाटा को आर्थिक घाटा क्या है, यह मुझे अभी स्पष्ट नहीं है। जब तक आप उनकी मानसिकता में जातीय पक्ष को नहीं देखेंगे तब तक आप इस नफे-घाटे को समझ ही नहीं पाएंगे। हिन्दुस्तान की राजनीति व समाज का विश्लेषण करने में जब तक आप आर्थिक पक्ष के अलावा कुछ भारतीय संदर्भ में आर्थिक पक्ष को नहीं समझेंगे जिसको हमारे मित्र कहते थे 'सोशल लॉजिक ऑफ कैपटलिज्‍म ' अन्यथा टाटा को ओबीसी को आरक्षण देने में क्या जाता है, लेकिन उसका कुछ जाता है। वो परेशान है। क्यों परेशान है, आर्थिक घाटे की वजह से नहीं। ये कोई दूसरा गेम है।


अनीश अंकुर : १९९० के बाद, ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया शुरू होने के साथ मीडिया की भूमिका में क्या बदलाव आया है? आपने कहा कि अब मीडिया ताकतवर हो गया है। क्या मीडिया ऐसी स्वतंत्र चीज ( Independent entity) है जो ताकतवर या कमजोर हो सकती है? या कहीं यह ताकतवार इस कारण तो नजर नहीं आती क्योंकि यह ताकतवर लोगों के पक्ष में खड़ी है? जैसे ही यह कमजोर लोगों का मुद्दा उठाती है इसे अपनी हैसियत, अपनी औकात पता चल जाती है, किसानों की आत्महत्या का मामला हो या फिर अन्य मुद्दे राज्य उन पर कोई ध्यान ही नहीं देता।
१९९० के बाद के दौर में जिसे मीडिया के शक्तिशाली हो जाने का दौर कहा जाता है। इस दौर में कहीं यह मीडिया का शक्तिशाली लोगों के पक्ष में निर्णायक झुकाव मयासंबद्धता (Decisive shift) तो नहीं है?

योगेन्द्र यादव : मैं निश्चित मानता हूं कि मीडिया ताकतवर हुआ है। निश्चित ही वह ताकतवर लोगों के पक्ष में खड़ा है लेकिन यह मानना कि केवल ताकतवर लोगों के पक्ष में खड़े होने की वजह से वो ताकतवर बना है यह बात कतई गलत है। आज से २० साल पहले मीडिया ताकतवर लोगों के पक्ष में खड़ा था। हिन्दुस्तान का मीडिया कभी भी गरीब-गुरबे का मीडिया नहीं रहा है लेकिन उस वक्त मीडिया की यह औकात नहीं थी कि सरकारों को झुका दे, राजनेताओं पर इतना दबाव बनाए कि उनके लिए असंभव हो जाए उसका प्रतिकार करना। ये बात सच है कि जब मीडिया की आवाज समाज में ताकतवर आवाज के साथ जुगलबंदी करती है तो उसका असर बढ़ जाता है लेकिन मीडिया की अपनी ताकत को आप कम करके मत आंकिए। फिर मैं यही कहूंगा कि ये तो विश्लेषण है क्यांेकि जो आपका प्रश्न है उसके पीछे यह समझ है कि एक शासक वर्ग है जिसके हाथ में कई औजार हैं और महत्वपूर्ण बात वह औजार नहीं वह वर्ग है जो उन औजारो को चला रहा है। मीडिया उनमें एक औजार है। मैं समझता हूं यह एक अधूरी समझ है। गलत नहीं है। इसलिए कि हर औजार अपनी एक स्वायत्तता लेकर आता है। यह बात सच नहीं है कि मीडिया ने जब-जब गरीब की आवाज उठाई है तो उसका असर कुछ नहीं हुआ है। यह बात सच नहीं है कि मीडिया ने किसानों की आत्महत्या के मामले को उठाया। केवल दो अखबारो ने उठाया, केवल कुछ दिनों के लिए उठाया। अगर हिंदुस्तान का मीडिया जिस किस्म से आरक्षण जैसे छोटे सवाल को डेढ़ महीने तक पहले पेज की सुर्खियां बनाए रख सकता है तो अगर उस तरह से किसानों की आत्महत्या को १५ दिनों के लिए सुर्खियां बना देता तो आप देखते कि देश की सरकार हिल जाती। यह सच नहीं है कि मीडिया ने राजस्थान के अकाल की कोई खबर नहीं बनाई। हकीकत ये है कि मीडिया ने देश की गरीबी पर बहुत व्यवस्थित रूप से पर्दा डाला है। गरीब के सच को लोगों की आंखों से ओझल किया है। इसलिए मेरा मानना है कि मीडिया खास तौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने के बाद से मीडिया की ताकत बढ़ी है। आप कह सकते हैं कि जो शासक होते हैं वो अलग-अलग मुंह के जरिए अपनी बात रखते हैं। कभी-कभी मीडिया भी वैसा ही प्रतीत होता है लेकिन अगर ऐसा भी है तो हमारे लिए जरूरी है ये देखना कि कब शासक वर्ग किस मुंह से बोलता है और कब कौन सा मुंह पीछे हो जाता है। अगर हम यह विश्लेषण नहीं करेंगे तो फिर हम रोजमर्रा की राजनीति के दांव-पेंच को नहीं समझ पाएंगे।


अनीश अंकुर : आरक्षण के समर्थन में जो बड़ी-बड़ी रैली आयोजित हुई, मीडिया ने उसे लगभग उपेक्षित किया। पिछले १६-१७ वर्षों में मीडिया की जो सामाजिक भूमिका रही है उसमें क्या बदलाव आया है? वैसे तो मीडिया के भीतर अभी भी पहले की तरह एक प्रतिबद्ध समूह है, जो मिशनरी जील के साथ काम करता है। लेकिन सामान्य प्रवृति देखें तो पिछले डेढ़ दशकों के बदलाव को आप कैसे देखते हैं? बड़े सवालों पर भयानक व रहस्यमय चुप्पी और गैर महत्वपूर्ण सवालों को जरूरत से ज्यादा उछालना। इसे कैसे देखते हैं आप?


योगेन्द्र यादव : आप ठीक कह रहे हैं। मैं इसको एक दूसरी चीज से जोड़कर देखता हूं जो लोग नहीं देखते। वो ये कि पिछले १५ सालों में मीडिया का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है। अखबरों का पाठक वर्ग और टीवी के दर्शकों की संख्या में एक अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। पहले ५० साल में मीडिया का जितना विस्तार हुआ होगा लगभग उतना विस्तार पिछले १०-१२ साल में हो गया। छोटा मीडिया कुछ चंद लोगो के एजेंडे से चल सकता था। उन चंद लोगों में से कुछ सदाशय लोग होते तो उनका एजेंडा बड़े पैमाने पर दिखता। लेकिन मीडिया का अभूतपूर्व विस्तार हुआ, प्रतिस्पर्धा बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ी, जिस प्रतिस्पर्धा के चलते मीडिया इस बारे में बहुत सचेत हुआ कि उसका श्रोता-पाठक कौन है? चूंकि मीडिया वालों को अब पता लग गया है कि उसका श्रोता खासकर उसके विज्ञापनों का श्रोता पाठक वर्ग मुख्यत: शहरी मध्यम वर्ग है। इसलिए मीडिया पहले से कहीं ज्यादा सचेत रूप से शहरी मध्यम वर्ग को निशाना बना रहा है व उसके चलते जो शहरी मध्यम अगड़े वर्ग की चिंताएं है वो चिंताएं अब मीडिया में बड़ी बेशर्मी से परोसी जा रही हैं। पहले इस बारे में लाज-संकोच था क्योंकि आज से १५ साल पहले संपादक प्रसार के आंकड़े नहीं देखा करते थे। १५ साल पहले समाचार संपादक टीआरपी भी नहीं देखा करते थे। उन्हें पता भी नहीं होता था कि टीआरपी आखिर किस बला का नाम है। आज चूंकि मीडिया ज्यादा प्रोफेशनल है इसलिए वो ज्यादा बेशर्म है। इसलिए वो देश के सामान्य व्यक्ति के सरोकार से ज्यादा कटा हुआ है वो समाज के एक छोटे वर्ग की इच्छाओं पर नाच रहा है।