आज ही जन विकल्प की दो प्रतियां एक साथ मिलीं और मैं उसे पूरी तरह से पढ़ भी गया। आपकी पत्रिका इतनी महत्त्वपूर्ण और विचारोत्तेजक है कि मुझे यह बुरा लगा कि आपने दोनों प्रतियां एक ही अंक (फरवरी,०७) की क्यों भेजी, एक प्रति प्रवेशांक की भी क्यों नहीं भेजी? कभी मैं पटने से 'फिलहाल` निकालता था। आपकी पत्रिका के गेट-अप, आकार-प्रकार और विषय सूची वगैरह को देखकर मुझे उसकी याद आ गई। पत्रिका में दी गई सामग्री भी काफी विचारोत्तेजक लगी। खासकर विपिन चंद्र का इंटरव्यू। जैसे बातचीत में अपनी बात काफी जोरदार ढंग से कहने की उनकी आदत है, वैसे ही इंटरव्यू में भी उन्होंने कहा। हमारे जैसे मार्क्सवादी उसपर कई सवाल उठाएंगे। जिनके जबाव उस इंटरव्यू में नहीं हैं। हिंदी प्रदेश में सही सूचनाओं और नए, शोधपूर्ण विचारों का बहुत अभाव है। यहां माहौल भावनात्मक ज्यादा, गंभीर विचारपूर्ण कम है। आशा है कि आप इसकी आवश्यकता को पूरा करेंगे और पत्रिका को सिर्फ हिन्दी के साहित्यिक बुद्धिजीवियों तक ही सीमित नहीं रखेंगे बल्कि ज्ञान के सभी अनुशासनों से जोड़कर इसे राष्ट्रीय और वैश्विक विचारशीलता के स्तर पर प्रतिष्ठित करेंगे।
-वीरभारत तलवार, जेएनयू, दिल्ली।
In Jan Vikalp Feb,07 issue, I have read portions of the interview, essay on international position by J. Ahmad Bhagalpuri and some poems by Gyanendrapati etc. The paper has high hopes and aims, it seems, as I have understood.
-Aju Mukhopadhyay, ajum24@yahoo.co.in
Greetings for Jan Vikalp, new monthly magazine. I am very happy that you have started this magazine. I am sure it will truely become a vikalp for those who are not really a part of mainstream media. Mainstreamification, in other words, brahmanisation process, which began long ago in the Indian media actually is now distorting the facts and representing the commercial and caste interest of a particular group.I am sure you will promote freethought, humanistic, rationalist ideas in the magazine and also get us some exclusive reports from the field-
Vidya Bhushan Rawat, vbrawat@gmail.com
जनवरी अंक में इतनी अच्छी कविता के लिए धन्यवाद! 'यवन की परी` ने चमत्कृत कर दिया। यह कविता अपनी बात मजबूती से कहने के अर्थ में नेरूदा की कविता ‘I explain a few things’ के समक्ष बैठती है। नारी विमर्श के तो यह कई नए अध्याय खोलती है, जिनसे हम लगभग अपरिचित ही थे। फरवरी अंक में अशोक यादव जी का आर्टिकल भी काफी अच्छा है। खासकर लिबरेशन थियोलॉजी वाला हिस्सा। हलांकि उसमें कुछ मतभेद हो सकते हैं पर कुल मिलाकर काफी अच्छा है।
-रेयाज-उल-हक, पटना।
We will disseminate the information about this new venture. Read a few of the articles already, and they are good.
-Hari P. Sharma, Simon Fraser University, Canada, sharma@sfu.ca
Congralutations! While almost everybody in Delhi has got a copy of your new venture, I am yet to see it. please be kind enough
-Raj Kishore, Delhi, truthonly@gmail.com
Best wishes on the launch of Jan Vikalp. I am circulating the message amongst my friends
-Lalit Surjan, Raipur lalitsurjan@yahoo.com
जन विकल्प के फरवरी अंक में इतिहासकार विपिन चंद्र का साक्षात्कार विचारोत्तेजक है और उन्होंने खुलकर अपना पक्ष रखा है। १८५७ के प्रसंग में लोकगीतों की बात कर उन्होंने सबअर्ल्टन धारा के इतिहासकारांे का समर्थन ही किया है। इस पर कुछ काम हुआ है तथा जल्दी ही प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की तरफ से रश्मि चौधरी की कुंवर सिंह पर किताब आ रही है।
-देवेन्द्र चौबे, जेएनयू, दिल्ली।
Jai Bhim, Brother, I read copy of Jan Vikalp, January,07. Good start. Here are the my views on the 1st article of 'Problems of Democracy' See once A. Lincoln said 'A government of the people, by the people & for the people.' But Indian Leaders have changed this as 'A government of relatives, by the relatives & for the relatives.' These all political parties have made this as a family bussiness & expoliting the people.
-Pradeep Atri. pardeepattri@yahoo.co.in
जन विकल्प की प्रशंसा औपचारिकता ही नहीं है। बड़ी बात यह है कि आप इसे दुनिया भर के पाठकों तक पहुंचा रहे हैं।
-फज़ल इमाम मल्लिक, दिल्ली।
पत्रिका देखी, मुझे जन विकल्प से जुड़कर बहुत खुशी होगी।
-अमित सिंह, लंदन amit.singh.vns@gmail.com
Best of luck for a new begining. I hope your Jan Vikalp have creat a new propeople atmosphare all over Hindi belt.Thanks onces again
-Punj Prakash, New Delhi.
'जन विकल्प` के प्रकाशन से तानाशाहों के यातना शिविरों में हस्तक्षेप होगा जिससे इस विकट दौर की यातनाएं कम होंगी। मैं इस मासिक का स्वागत करता हूं। उद्घाटन अंक की सभी सामग्री उत्कृष्ट है। रेणु और लुट्से के संवाद से आजादी/जनतंत्र की कठिनाई को सहज तरीके से पाठकों के समक्ष रखा गया है। अभय मोर्य, राजकुमार राकेश और फज़ल इमाम मल्लिक के लेख भी अच्छे लगे।
-शरत्, चम्बा, हिमाचल प्रदेश।
आप इतनी मेहनत कर रहे हैं, इसे वेब साइट पर साथ-साथ यूनिकोड हिन्दी में क्यों प्रकाशित नहीं करते? इससे आपका कार्य तमाम विश्व में गूगल के जरिए ढूंढा-खोजा जाकर इस्तेमाल में लिया जा सकता है जो अन्य हिन्दी फॉन्ट होने के कारण अभी संभव नहीं है।
- Ravishankar Shrivastava, 'सराय`, दिल्ली की इंटरनेट मेंलिंग लिस्ट 'दीवान`, raviratlami@gmail.com
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