October 30, 2007

आस्था नहीं, वैज्ञानिक चेतना

संपादकीय


  • प्रेमकुमार मणि



पिछले कुछ दिनों से मेरे मन में बार-बार यह बात आ रही है कि हम कहां जा रहे हैं। एक तरफ मुल्क में वैज्ञानिक तकनीकी संस्थानों का जाल बिछ रहा है जिसमें लाखों युवा विज्ञान और तकनीक की उम्दा पढ़ाई कर रहे हैं, दूसरी ओर हमारी सामाजिक प्रवृत्तियों में धर्मान्धता, कट्टरता और अवैज्ञानिकता का जोर बढ़ता जा रहा है। जब हमारी पीढ़ी तरूणाई में थी तब इक्कीसवीं सदी का सुनहला स्वप्न देखती थी। हम समझते थे इस स्वप्निल सदी में वर्ग तो शायद कुछ रह जाए, वर्ण और जाति का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। समाज में ज्यादा समानता होगी, न्याय होगा। पंडे और मुल्ले अजायब घरों की चीज हो जायेंगे। इनकी जगह प्रखर बौद्धिक आध्यात्मिक गुरू ले लेंगे। आदि..आदि..

लेकिन जो हुआ सो आपके सामने है। सुनहला स्वप्न, दु:स्वप्न की तरह हमें डरा रहा है। वर्ग, वर्ण, जाति सब की खाई बढ़ी है। असमानता बढ़ी है। पंडे और मुल्ले तो अब राजनीति से लेकर साहित्य तक की पहरेदारी कर रहे हैं। वे बड़ी संख्या में विधान सभाओं और संसद में पहुंच चुके हैं। १९५० के दशक में एक धर्म भीरू राष्ट्रपति ने जब बनारस में पंडों के पैर धोये थे, तब समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। आज मंत्री और मुख्यमंत्री खुले आम ऐसी बेशर्मी कर रहे हैं और कोई इनके खिलाफ एक बयान तक नहीं देता।
मुझे बड़ा झटका तब लगा, जब पिछले दिनों सेतुसमुद्रम् मामले में राष्ट्र की संचित मूर्खता बलबला कर सामने आयी। जिस रोज विश्व हिंदू परिषद ने इसके खिलाफ राष्ट्रव्यापी बंद का आयोजन किया था, मैं दिल्ली में था। मुझे आवश्यक कार्यवश एक जगह जाना था, लेकिन नहीं जा सका, क्योंकि जगह-जगह विहिप का बैनर लगाये भाजपायी रंगरूट राह रोके हुए थे। अपने कमरे में टी.वी पर मैं समाचार देख रहा था। राष्ट्र की 'विराट` मूर्खता के 'भव्य` दर्शन से मैं अचंभित था। यह एक नया भारत था, या कहें इक्कीसवीं सदी के भारत की यह नयी अंगड़ाई थी।

फिर तो मूर्खता की प्रतियोगिता शुरू हो गयी। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के अधिकारियों ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर किया कि राम के सम्बंध में हमारे पास कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं हैं। उन अधिकारियों ने वही कहा था जो सच था। लेकिन इसे लेकर मारा-मारी शुरू हो गयी। जिन्ना के बारे में एक टिप्पणी देकर अपने घराने में अपना राजनीतिक स्वत्व खो चुके आडवानी को लगा कि यही मौका है कि पुन: धर्मान्धता की दीक्षा ले ली जाय। वे आगे आये और भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण और केंद्र सरकार पर हमला किया। केंद्र सरकार की दादी अम्मा को लगा कि यही मौका है अपनी विदेशी मूल को देशी चासनी में डुबोने का। उन्होंने कट्टरता और दिमागी दिवालियेपन के सामने खुद को वैसे ही बिछा दिया जैसे उनके दिवंगत पति ने शाहबानों मामले में मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने खुद को बिछा दिया था। समाजवादी घरानों से आये राजनेताओं को लगा कि लोहिया जी भी तो रामायण मेला लगाते थे। जो हो रहा है, सो होने दो। ऐसी चीजों पर ज्यादा मगज लगाना ठीक नहीं। देश के कवियों, लेखकों, संपादकों में से भी मेेरे जानते कोई सामने नहीं आया कि पूरे मामले को तर्क और बुद्धि के चश्मे से देखा जाय। मूर्खता के इस जलजले से सब सहमे हुए थे। राम हमारी आस्था के चीज हैं। उनकी रक्षा तो होनी चाहिए। कुल मिलाकर यही भाव सामने आया।

मैं भी रामायण का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। दुनिया भर में मेरे जानते किसी भी भाषा में वैसी कृति नहीं है, जैसी कि रामायण है। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि उसे केवल राम की कथा के रूप में स्वीकार किया गया है। रामायण में जो शाश्वत सत्य है, वह यह कि राजपद व्यक्ति को भ्रष्ट बनाता है। किसी भी महापुरुष को वह राजत्व से बचने की सलाह भी देती है। रामायण के नायक पुरुष राम को लें। वह जब तक राजपद से दूर रहते हैं, बहुत ही प्रगतिशील हैं। आयोनिजा सीता, जो जनक को खेत में लावारिश मिली थीं, उनसे विवाह करते हैं राम। संभवत: संस्कारों का यह शिव धनुष था, जिसे तोड़ने से तमाम राजा सकुचा रहे थे और जनक को लगने लगा था कि सीता अब कुअंारी रह जायेगी। आज के इस प्रगतिशील जमाने में भी ऐसी लड़की से विवाह करने के लिए कितने युवा तैयार होंगे, इसे आप समझ सकते हैं। शायद इस विवाह के कारण भी राम को अयोध्या का अभिजात् तबका स्वीकार नहीं कर सका और उन्हें वनवास की सजा मिली। अब वनवास को लीजिए। राम शबरी (जो वनवासिनी थी, आज की आदिवासी ) का जूठा बेर खाते हैं। वनवासियों के साथ ही रहते हैं। गरीब जनता के इस हद तक घुल-मिल जाते हैं कि एक साधारण गरीब-गुरबे की ही भांति उनकी पत्‍नी का भी अपहरण हो जाता है और तब राम आदिवासियों-वनवासियों की ही सेना तैयार करते हैं। (वह अयोध्या के भरत से सहायता नहीं मांगते) और लंका के रावण को पराजित कर सीता को मुक्त कराते हैं। यह राम के जीवन का एक अध्याय है जो बहुत ही प्रगतिशील तत्वों से जुड़ा हुआ है। एक बात ध्यान देने की यह भी है कि राम के इस जीवन का संस्कार विश्वामित्र ने किया है जो गैर ब्राह्मण हैं।

लंका विजय के बाद राम अयोध्या के राजा ही नहीं बल्कि ब्राह्मण वशिष्ठ के पौरोहित्य से भी जुड़ जाते हैं और अब देखिए कि राम का पतन शुरू हो जाता है। सीता के लिए आठ-आठ आंसू रोने वाले और संग्राम करने वाले राम उसकी अग्नि परीक्षा लेते हैं और अंतत: घर निकाला दे देते हैं। जो राम शबरी के झूठे बेर खाता था, अब शंबूक का सिर तराश लेता है और जिस राम की तुलसीदास ने 'रावण रथी, विरथ रघुबीरा` कहकर प्रतिष्ठा की है, वही राम अपने ही विरथ पुत्रों से रथी होकर संग्राम करता है। कोई आश्चर्य नहीं कि अपने ही पुत्रों के हाथ पराजित होने वाले राम ने सरयू में जल समाधि ले ली।

यह है राम का पतन। राजा बनकर राम, रावण से भी ज्यादा पतित हो जाता है। रामायण का यह अमर संदेश है कि यह राजपद व्यक्ति को भ्रष्ट बनाता है। मैंने तो इस रूप में रामायण को देखा है और उसे विश्व की अद्भुत साहित्यिक कृति मानता हूं।

आस्था विचित्र चीज है। जिन चीजों को हम विस्तार से नहीं जानते, उन्हीं चीजों के बारे में हम एक कल्पना कर लेते हैं और फिर यह कल्पना आस्था का रूप ले लेती है। गैलेलियो के जमाने में पादरियों का मानना था कि पृथ्वी ही केंद्र में है और सूर्य उसका चक्कर लगाता है। वे पृथ्वी को स्थिर और सूर्य को चलते हुए देखते रहे थे। विज्ञान की गहरायी में गये बिना यह उनकी आस्था हो गयी थी। गैलेलियो ने दूरबीन (तकनीक) और विज्ञान से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर बतलाया कि पृथ्वी ही सूर्य का चक्कर लगाती है तब पादरी समूह समेत पूरे यूरोप के लोगों को लगा कि गैलेलियो यह क्या कह रहा है। गैलेलियो उसी इटली के थे जहां की सोनिया रही हैं। गैलेलियो को सच कहने के लिए एकांतवास की सजा मिली थी। बाद में गैलेलियो ने दबाव में आकर यह भी कहा कि मैंने जो कहा वह गलत है। लेकिन यूरोप ने गैलेलियो को एक प्रतीक के रूप में लिया। गैलेलियो ने विश्व में तकनीकी क्रांति का सूत्रपात किया और आज की दुनिया गैलेलियो की दुनिया है, पादरियों की नहीं।

मैं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के उन ईमानदार अधिकारियों की प्रशस्ति करना चाहता हूं जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में ठीक-ठीक बात रखी। दूसरा हलफनामा तो गैलेलियो का दूसरा हलफनामा बनकर रह गया। आखिर उन्होंने क्या कहा? कुल मिलाकर उनकी बात यही थी कि राम के बारे में उनके पास पुरातात्विक साक्ष्य नहीं हैं। पुरातत्व इतिहास से जुड़ा विषय है। भारतीय इतिहास के विद्यार्थी यह जानते हैं कि न तो आदि, न प्राक् इतिहास में राम आते हैं, न ज्ञात इतिहास में। भारतीय इतिहास की ठोस शुरूआत हड़प्पा काल से होती है। फिर प्राक् वैदिक, वैदिक और उत्तर वैदिक काल आते हैं। अब वैदिक काल का पुरातात्विक प्रमाण मांगेंगे तो इतिहासकार ज्यादा से ज्यादा वेद ग्रंथ दे सकेंगे। इंद्र या पुरंदर के वज्रा मेरे जानते नहीं मिले हैं। कभी मिल जायेंगे, तो इससे इतिहास में एक नया मोड़ आयेगा। पुरातात्विक सर्वेक्षण से जुड़े लोग उसे दिखला सकेंगे। सौ साल पहले हमारे पास हड़प्पा, बुद्ध, अशोक आदि के पुरातात्विक साक्ष्य नहीं थे। उस समय सर्वेक्षण से यदि इनके प्रमाण मांगे जाते तो वे यही कहते कि हमारे पास ठोस प्रमाण नहीं हैं। नालंदा, विक्रमशिला, कुम्हरार जैसी खुदाइयां सौ साल के भीतर की हैं। इन खुदाइयों से इतिहास के अध्ययन और सोच में मोड़ आये हैं। यदि भविष्य में राम, हनुमान और सीता के पुरातात्विक साक्ष्य मिले तो उससे भी इतिहास में मोड़ आयेंगे और तब भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण दिखला सकेगा कि यह राम की अस्थि है और यह जनक का शिव धनुष। लेकिन अभी आप भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण से यह आशा क्यों करते हैं कि वह कहीं-न-कहीं से कोई प्रमाण दे ही। गलती तो सर्वोच्च न्यायालय की है जो उसने राम को लौकिक दायरे में लाने की कोशिश की। लोग जिस आस्था की बात करते हैं उसे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ही तोड़ा है। लोग इतने कायर हैं कि डर से सच कहना नहीं चाहते। उन्हें संविधान द्वारा दिये गये अभिव्यक्ति के अधिकार का वाजिब इस्तेमाल करना भी नहीं आता।

इसी अंक में राम और रामायण पर दो लेख दिये जा रहे हैं। श्री सुरेश पंडित का लेख रामायण पर द्रविड़ आंदोलन के नेता पेरियार ई.वी. रामास्वामी नय्यकर के नजरिये को सामने रखता है, तो कवि दिनकर का लेख राम कथा के विविध पक्षों को दर्शाता है। राम को लेकर हमारे यहां अनेक काव्य लिखे गये। वे हमारे मिथक हैं। जो लोग मिथकों को इतिहास में शामिल करना चाहते हैं, वे नहीं जानते कितनी मूर्खता कर रहे हैं। मिथक हमें परिकल्पनात्मकता प्रदान करते हैं। बुद्ध या मार्क्स या गांधी मिथक नहीं हो सकते। उन्हें जब हम मिथक बनाना चाहेंगे तो यह भी मूर्खता होगी।

राम का सबसे खूबसूरत प्रयोग भक्तिकाल के शूद्र कवियों ने किया। राम का नाम लेकर वे जातिवाद और ब्राह्मणवाद पर हमला कर रहे थे। पर उनके राम दशरथनंदन राम नहीं थे। आडवानी और सोनिया ने, सर्वोच्च न्यायालय और विहिप-भाजपा की मंडली ने कभी एक बार कबीर के राम पर भी विचार किया है? हम बार-बार किसी असभ्य घटना को मध्ययुगीन घटना बता कर उपहास करते हैं। लेकिन अपने सोच में हम मध्ययुग से पीछे जा रहे हैं। बुद्ध और महावीर के युग से भी पीछे। राम को लेकर, रामायण को लेकर कोई सांस्कृतिक बहस होगी तो उससे हमारे समाज को सांस्कृतिक उर्जा मिलेगी। लेकिन विमर्श और बहस की संस्कृति तो विकसित हो। पूजा और आस्था से केवल अंधविश्वास फैलेगा और यह अंधविश्वास समाज को अन्याय और असमानता के गह्वर में धकेल देगा।

उत्तर भारत में पिछड़ावाद


राजनीति



  • दिलीप मंडल



पिछड़ा राजनीति में आ रहे बदलावों को समझने के लिए एक प्रतीक के रूप में लालू प्रसाद को देखा जा सकता है। उनके अपने रेल मंत्रालय की बात करें तो रेलवे की चर्चा अब लोक कल्याण, नई गाड़ियां चलाने, पुलों की मरम्मत, नई लाइनें बिछाने, रेलवे ट्रैक के बिजलीकरण जैसी बातों के लिए नहीं होती। रेलवे की चर्चा अब लाभ कमाने, डिविडेंड देने, रेलवे के कॉरपोरेटीकरण, पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप, रेलवे की जमीन बेचने, कैटरिंग के निजीकरण, माल ढुलाई में निजी कंपनियों की भूमिका, पिछले दरवाजे से टिकट महंगा करने जैसी बातों के लिए होती है। आज से लगभग तीन दशक पहले एक ब्राह्मण नेता मधु दंडवते रेल मंत्री बने थे। उन्होंने एक फैसला किया कि अब से सेकेंड क्लास की कोच में सीट पर दो इंच फोम होगा। उसके बाद से लकड़ी की सीटें बननी बंद हो गइंर्। और अब आपको शायद याद भी नहीं होगा कि तीन दशक पहले रेलवे का सफर करते समय हमारे साथ कई किलो का भारी भरकम होल्डॉल हुआ करता था। सेकेंड क्लास में सफर करने वालों की दुनिया बदल देने वाले मधु दंडवते ने सामाजिक न्याय किया था, या सामाजिक न्याय लालू कर रहे हैं, आप खुद ही तय कर लीजिए। मधु दंडवते ने ही कोंकण रेलवे की शुरुआत की थी, जिसका फायदा आज करोड़ों लोग उठा रहे हैं। लालू प्रसाद की पूरी कोशिश इन दिनों कॉरपोरेट जगत में लोकप्रिय होने की है। रेलवे की जमीन कॉरपोरेट सेक्टर को देकर और मालढुलाई के निजीकरण से वह अपना यह लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। लालू यादव का नया अवतार लालू यादव का जैंटिलमैन बनना तब नहीं हुआ था जब वह विदेश जाने के लिए सूट सिलवा रहे थे। उन्होंने ने नया अवतार पिछले कुछ साल में ग्रहण किया है। वह दरअसल अब सामाजिक न्याय तो नहीं ही कर रहे हैं, सामाजिक न्याय की राजनीति भी नहीं कर रहे हैं। यह बात बहुत लोगों को चौंका सकती है और वामपंथ की ओर झुके हुए दिल्ली-मुंबई के बुद्धिजीवियों को यह रहस्य आसानी से समझ में भी नहीं आएगा। लालू प्रसाद के भदेसपन और गंवई अंदाज को सामाजिक न्याय का दूसरा रूप मानने वालों को भी यह बात जरूर चौंकाएगी। लेकिन लालू-राबड़ी के लंबे शासनकाल में बिहार में सामाजिक न्याय के नाम पर जिस तरह विकासविरोध की राजनीति हुई, उसका असर अब लालू प्रसाद की राजनीति पर नजर आ रहा है। लालू प्रसाद के नारों की चमक अब बिहार में फीकी पड़ चुकी है। वह जब पहले चुटकुला कहते थे कि बिजली आने से भैंस को शॉक लग जाएगा, या सड़क बनी तो गाड़ियों की धूल आपको फांकनी होगी, तो लोग खूब मजा लेते थे। अब इन चुटकुलों पर बिहार में कोई नहीं हंसता। लालू प्रसाद अब बिहार में ऐसे चुटकुले कहते भी नहीं हैं। वह बिहार की हकीकत को बुद्धिजीवियों से बेहतर जानते हैं। बिहार में अब अगर उनकी वापसी होगी, तो उसका श्रेय लालू प्रसाद को कम और बिहार की सत्ता चलाने वालों पर ज्यादा होगा।

लेकिन लालू प्रसाद ने राजनीति में अपना टे्रैक क्यों बदला? क्या वह इसके खतरे से वाकिफ नहीं हैं? अगर वह सामाजिक न्याय की राजनीति नहीं करेंगे तो क्या उनकी हालत बिना पानी वाली मछली की तरह नहीं हो जाएगी? लालू प्रसाद जैसा चतुर नेता इन बातों से वाकिफ नहीं होगा, यह मानना तो सरासर बेवकूफी होगी। कहीं ऐसा करना लालू प्रसाद की मजबूरी तो नहीं है? शायद हां और शायद नहीं भी। ऐसा लगता है कि लालू प्रसाद पर चल रहे मुकदमों के असर से उनकी राजनीति बच नहीं पाई है। सीबीआई की कमान प्रधानमंत्री और प्रकारांतर में कांग्रेस के हाथ में होने की वजह से कांग्रेस के सामने आत्मसमर्पण करना उनकी मजबूरी है। इसलिए कांग्रेस विरोध के गर्भ से जन्म लेने वाला नेता आज केंद्र में कांग्रेस का सबसे खास सिपहसलार बना हुआ है। यह स्थिति लालू प्रसाद ने खुद अपने लिए चुनी है या वह स्थितियों के गुलाम हैं, कहना कठिन है। लेकिन दोनों स्थितियों में उनकी नेतृत्व क्षमता पर संदेह होता है। न्यायपालिका के खिलाफ लालू प्रसाद बोल नहीं सकते। वह तो बस यह कहते हैं कि जज देवता होता है। लेकिन ऐसे समय में जबकि न्यायपालिका सामाजिक न्याय के रास्ते में रोड़ा बन गई है तो न्यायपालिका का गुणगान करना उनकी अपनी राजनीति के लिए खतरनाक है। लेकिन उनके पास शायद इसके अलावा जो विकल्प है, उसके खतरे वह उठाना नहीं चाहते।
लालू प्रसाद की राजनीति अगर इसी रास्त पर चलती रही तो सामाजिक न्याय की ताकतें उनका साथ पूरी तरह छोड़ देंगी। मुलायम सिंह यादव भी ऐसे ही अलगाव के शिकार हो गए हैं। दलित उनसे पूरी तरह छिटक गए हैं और पिछड़ों का एक हिस्सा भी उनका साथ छोड़ चुका है। अब वह कभी राजपूत तो कभी ब्राह्मण सम्मेलन करते घूम रहे हैं। क्या लालू प्रसाद भी इसी रास्ते पर चलने की कोशिश करेंगे? बिहार में यादव-सवर्ण और मुसलमानों के एक हिस्से को जोड़कर वह राजनीति चलाने की कोशिश कर सकते हैं।

ब्राह्मणवादी ताकतों को खुश करने का कोई मौका लालू प्रसाद इन दिनों छोड़ते नहीं हैं। तीर्थ यात्राएं करने से लेकर पूजा पाठ का वह जिस तरह सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे हैं वह उनकी बदलती राजनीति को दिखा रहा है। बीजेपी विरोध उनके लिए सिद्धांत का नहीं, राजनीति का मामला है। मुसलामन वोट की चिंता न हो, या यह तय हो जाए कि ये वोट उन्हें नहीं मिलेगा तो लालू प्रसाद की राजनीति एक और करवट ले सकती है।

अवसान का समय

वास्तव में, १९६० के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। यह धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, जनता दल (यू), इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी आदि समूहों में खंड-खंड हो चुकी है। गैर-कांगे्रसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े-टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से खंड-खंड ही रही है। बुरी बात यह है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका कितना है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा दोष क्या व्यक्तियों का है? उत्तर भारत के पिछड़े नेता इस मामले में अपने पाप से मुक्त नहीं हो सकते हैं, लेकिन राजनीति की इस महत्वपूर्ण धारा के अन्त के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी जिम्मेदार हैं।

दरअसल जिसे हम पिछड़ा या गैर-द्विज राजनीति मानते या कहते हैं, वह तमाम पिछड़ी जातियों को समेटने वाली धारा कभी नहीं रही है। इस राजनीति का नेतृत्व हमेशा ही पिछड़ों में से अगड़ी जातियों ने किया है। कर्पूरी ठाकुर जैसे चंद प्रतीकात्मक अपवादों को छोड़ दें तो इस राजनीति के शिखर पर आपको हमेशा कोई यादव, कोई कुर्मी या कोयरी, कोई जाट, कोई लोध ही नजर आएगा। दरअसल पिछड़ा राजनीति एक ऐसी धारा है जिसका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के बाद पिछड़ी जातियों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही थी। अब जबकि इन जातियों के राजनीतिक सशक्तिकरण का काम लगभग पूरा हो चुका है, तो इन जातियों में मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की न ऊर्जा है, न इच्छा और न जरूरत। इस मामले में पिछड़ा राजनीति अब यथास्थिति की समर्थक ताकत है। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि दलित उत्पीड़न से लेकर मुसलमानों के खिलाफ दंगों में पिछड़ी जातियां बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती दिखती हैं। ऐसा गुजरात में हुआ है, उत्तर प्रदेश में हुआ है और बिहार से लेकर हरियाणा और मध्यप्रदेश तक में आपको ऐसे मामले दिख जाएंगे। अब तो पिछड़ा राजनीति के नेता भाजपायी अंदाज में रामभक्ति भी कर रहे हैं। सेतुसमुद्रम् मामले में नीतीश और लालू प्रसाद ने जो रूख अपनाया, वह हैरान करने वाला है।

१९९० का पूरा दशक उत्तर भारत में पिछड़े नेताओं के वर्चस्व के कारण याद रखा जाएगा। मुलायमसिंह यादव, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, शरद यादव, देवीलाल (दिवंगत), ओमप्रकाश चौटाला, कल्याण सिंह, उमा भारती, अजित सिंह जैसे नेता पूरे दशक और आगे-पीछे के कुछ वर्षों में राजनीति के शिखर पर चमकते रहे हैं। इस दौरान खासकर प्रशासन में और सरकारी ठेके और सप्लाई से लेकर ट्रांसफर पोस्टिंग में इन जातियों के अफसरों को अच्छी और मालदार जगहों पर रखा गया। विकास के लिए ब्लॉक से लेकर पंचायत तक पहुंचने वाले विकास के पैसे की लूट में अब इन जातियों के प्रभावशाली लोग पूरा हिस्सा ले रहे हैं। लेकिन इन जातियों के प्रभावशाली होने में एक बड़ी कमी रह गई है। वो यह कि शिक्षा के मामले में इन जातियों और उनके नेताओं ने आम तौर पर कोई काम नहीं किया है। इस मामले में उत्तर भारत की पिछड़ा राजनीति, दक्षिण भारत या महाराष्ट्र की पिछड़ा राजनीति से दरिद्र साबित हुई है।

विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और यह सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा साफ नजर आती है। इसका असर आपको पिछले साल चले आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान दिखा होगा। अपनी सीटें कम होने की चिंता को लेकर जब सवर्ण छात्र सड़कों पर थे और एम्स जैसे संस्थान तक को बंद करा दिया गया, तब भी पिछड़ी जाति के छात्रों में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। जब सरकार ने आंदोलन के दबाव में ओबीसी रिजर्वेशन को संस्थानों में सीटें बढ़ाने से जोड़ दिया और फिर आरक्षण को तीन साल की किस्तों में लागू करने की घोषणा की, तब भी पिछड़ी जाति के नेताओं से लेकर छात्रों तक में कोई प्रतिक्रिया होती नहीं दिखी। और फिर जब अदालत में सरकार ओबीसी आरक्षण का बचाव नहीं कर पाई और आरक्षण का लागू होना टल गया, तब भी पिछड़ों के खेमे में खामोशी ही रही।

इसकी वजह शायद यह भी है कि पिछड़ी जातियों में कामयाबी के ज्यादातर मॉडल शिक्षा में कामयाबी हासिल करने वाले नहीं हैं। पिछड़ी जातियों में समृद्धि के जो मॉडल आपको दिखेंगे उनमें ज्यादातर ने जमीन बेचकर, ठेकेदारी करके, सप्लायर्स बनकर, नेतागिरी करके, या फिर कारोबार करके कामयाबी हासिल की है। दो तीन दशक तक तो यह मॉडल सफल साबित हुआ लेकिन अब समय तेजी से बदला है। नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों के लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स़ किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़गा।

नई संभावनाओं की जमीन

ऐसे में उम्मीद की किरण कहां है? इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए आपको इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि समाज में बदलाव की जरूरत किसे है। उत्तर भारतीय समाज को देखें तो उम्मीद की रोशनी आपको हिन्दू दलित, महादलित, अति पिछड़ी जातियों, घुमंतू-विमुक्त, और पिछड़े-दलित मुसलमानों के बीच नजर आएगी। भारतीय लोकतंत्र में ये समुदाय अब भी वंचित हैं। यथास्थिति उनके हितों के खिलाफ है। संख्या के हिसाब से भी ये बहुत बड़े समूह हैं और चुनाव नतीजों के प्रभावित करने की इनकी क्षमता भी है। वैसे जाति और मजहबी पहचान की राजनीति की बात करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आने वाले समय में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज होने के साथ शायद आदिम पहचान के दम पर चल रहे भारतीय लोकतंत्र का चेहरा भी बदलेगा। वैसे भी लोकतंत्र जैसी आधुनिक शासन व्यवस्था का जाति और कबीलाई पहचान के साथ तालमेल स्वाभाविक नहीं है।

पत्रकार दिलीप मंडल समाचार चैनल सीएनबीसी से जुड़े हैं।

प्रतिक्रिया


जन विकल्प के सितंबर अंक में लक्ष्मण माने का लेख 'मैं बौद्ध धर्म की ओर क्यों मुड़ा` बहुत अच्छा लगा। लेखक ने ठीक ही कहा है कि धुमंतू जातियां अपनी जीवन शैली के कारण मूल रूप से बौद्ध हैं। उन्होंने बताया है कि घुमंतू जातियों में मूर्ति पूजा नहीं होती, भोजन तक का समान बंटवारा होता है तथा स्त्रियां वहां स्वतंत्र हैं। वे स्वेच्छा से तलाक ले सकती हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी बताया है कि हिन्दू चर्तुवर्ण व्यवस्था में उनका कोई स्थान नहीं है और उनकी परंपराएं उन्हें बौद्ध धर्म के निकट लाती हैं ।
-अमर यादव, कुम्हरार, पटना

अगस्त अंक मिला। यह अंक कई मामले में मुझे महत्वपूर्ण लगा। विशेषकर दो लेख-'आज के तुलसीगण` एवं 'व्यवस्था बहुत कम शब्दों को जानती है`। हिन्दी के साथ बुरा यह हुआ कि हमने अपने विचलनों पर ईमानदारी से बात नहीं की। विचलन या राष्ट्रीय आंकाक्षाओं और व्यक्तित्व की सीमाओं के बीच के अंतर्विरोधों पर जब जानते बूझते चुप्पी साध ली जाती है तब ऐतिहासिक काल क्रम में उठने वाली प्रतिक्रियाएं कटु होती हैं। आजादी तक जहां राष्ट्रवाद अन्य समस्याओं पर चुप्पी साधे रहा वहीं आजादी के बाद निर्माण की राजनीति ने समाज को मुग्धता से बाहर आने नहीं दिया। आप ऐसे अंतर्विरोधों पर खुली बहस चलाएं। परंपरा पर पुनर्विचार करना आज की जरूरत है। इसे आप पूरे आधुनिक साहित्य तक ले जाएं। इस बार कश्मीर पर भी अच्छी सामग्री है।
-बसंत त्रिपाठी, नागपुर

जन विकल्प के अगस्त अंक में कविता-विषयक आपकी टिप्पणी खरी लगी।
-ज्ञानेन्द्रपति, वाराणसी

इस ८वें अंक में संपादकीय, 'माइकथेवर को जानना जरूरी है`, 'व्यवस्था बहुत कम शब्दों को जानती है` आदि सभी ध्यातव्य हंै पर मैं यहां 'शिक्षा की जाति` पर आपका ध्यान अकृष्ट करना चाहता हूं। एम्स में सामंती मानसिकता से ग्रस्त छात्रों को दलितों के साथ उत्कट भेदभाव के साथ-साथ लेखक 'बैठा` और 'अत्रि` जी को पटना के मेडिकल और दूसरे कॉलेजों के हॉस्टल में क्या हो रहा है, यह भी देखना चाहिए। वहां ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, यादव, कुर्मी.. कितने-कितने 'मेस` चलाते हैं। दिनदहाड़े सब के सामने। मजाल है, कोई गैर विरादरी का व्यक्ति यूं ही घुस जाय। दरअसल जातिवाद जैसी व्याधि पर हम कभी सच्चे मन से सीरियस नहीं हुए। क्या दिल्ली, क्या पटना, क्या बनारस! कहने को सभी कहते हैं कि यह गलत है मगर इसके विनाश के लिए पहल करने के सवाल पर बगलें झांकने लगते हैं। विज्ञान इस कालिमा को दूर करने का साधन बन सकता था पर भाई लोगों ने विज्ञान को भी अपनी बात मनवाने का साधन बना लिया। असल जब्बर है जातिवाद।
-संजीव, कार्यकारी संपादक,'हंस`,दिल्ली।

मैंने २४वें पटना पुस्तक मेला में अरुण कमलजी को अपना प्रिय कवि कहा था लेकिन अब यह जाना कि जो समाज (दलित और पिछड़ा) भारतवर्ष का मूल निवासी एवं बहुसंख्यक है, उसी समाज को उन्होंने भुक्खड़ एवं कुत्ता कहकर संबोधित किया है। वंचितों को आवाज देने वाले सामाजिक न्याय के नायक लालूप्रसाद यादव को जोकर, अजूबा एवं महामूर्ख कहने वाले और उनकी मौत पीब और पेशाब में डूबकर होने की कामना करने वाले यह कवि मेरे प्रिय कवि कदापि नहीं हो सकते।
-डा.राजमणि, वेटनरी कॉलेज, पटना

सासाराम रानीखोत आदि से कई साहित्यजनों की सूचना पर 'जन विकल्प` खरीदना और पढ़ना शुरू किया। 'समयांतर`, 'फिलहाल` तरह की यह तीसरी अच्छी पत्रिका प्रतीत हुई।
-वाचस्पति, बनारस

स्वतंत्रता दिवस के पहले आपने काफी अच्छा संपादकीय लिखा है। हम लोगों ने उस संपादकीय पर चर्चा की और मेरे एक दोस्त ने उसे ब्लॉग पर डाल दिया है। बहुत बढ़िया अंक आ रहे हैं।
-अनामिल, वर्धा

भाई प्रमोद रंजन ने इस नये अंक में जो विश्लेषण किया है वह कई मित्रों को अखरेगा जरूर, लेकिन इसमें भी दो राय नहीं कि उनके तर्क बेजोड़ हैं। उनके बेबाक और नए तरह की विश्लेषण-क्षमता लोहा बहुत से मित्र मानेंगे।
-उदभ्रांत, दिल्ली।

आजादी को लेकर संपादकीय में आपने बहुत ज्वलंत विचारोत्तेजक प्रश्न उठाए हैं। मेरा विषय भी 'विभाजन` है। देश विभाजन पर उपन्यास 'टूटी हुई जमीन` भी छपवाया था। आजादी पर नेहरू जी का भाषण बाल्य अवस्था में मैंने भी रेडियो से सुना था फिर मार खाते-सहते हुए जान बचाकर आ कर लंबी सांसंे खींची थी लोगों के ईद-गिर्द बैठकर खाना खाया था। वह दिन हमारे लिये कहां की खुशियां लाया था? कुछ लोग इसे शोक दिवस कहते हैं, लंबी दास्तां है।
-हरदर्शन सहगल, बीकानेर

इतनी सादगी के साथ ऐसी श्रेष्ठ सामग्री का संयोजन प्रस्तुतीकरण अद्भुत है। फिर, एक भी विज्ञापन नहीं। किसी बाजीगर को आसमान में तनी रस्सी पर चलता देखकर उसके कौशल पर जितना विस्मय होता है, आप उससे भी अधिक चमत्कृत कर रहे हैं। अंक में राजूरंजन प्रसाद का आलेख 'व्यवस्था बहुत कम शब्दों को जानती है` अत्यन्त प्रभावशाली है। चरित्र का दोहरापन लेखकों (और शायद सभी बुद्धिजीवियों) की ऐसी कमजोरी है जो लिखे हुए को वह काम करने नहीं देती जो उसे करना चाहिये। गुड़ खाने वाले गुलगुले खाने से बचने की सीख देंगे तो कौन सुनेगा उसे?
-भगवान अटलानी, जयपुर

जन विकल्प के आठवें अंक के संपादकीय में आपने भारत के इतिहास पर नये सिरे से विचार करने की बात कहकर कई तरह के सामाजिक-आर्थिक प्रश्नों को पुन: केन्द्र में लाने की पहल की है। माइक थेवर के बारे में जानकारी मेरे लिए नई है। मैं नहीं जानता और भी कितने पाठक उन्हें जानते हंै। सचमुच ये वे लोग हैं जो चुपचाप अपने काम से उन भ्रामक आशंकाओं की जड़ खोद रहे हैं जिन्हें अभिजात वर्ग जी-जान से पनपाने में मशगूल है। प्रमोद रंजन और राजूरंजन प्रसाद ने जिस तरह से अरूण कमल और आलोक धन्वा के दुहरे व्यक्तित्व से पर्दा उठाया है उसके लिये वे बधाई के पात्र हैं। परन्तु बन्धुवर ऐसे कवि-व्यक्तिव तो हिन्दी में अनेक हैं और लोग उनकी असलियत जानते भी हैं। फिर भी जैसे-तैसे अपनी प्रतिष्ठा बनाए बचाए हुए हैं और पुरस्कार, सम्मान की दौड़ में सबसे आगे हैं।
-सुरेश पंडित, अलवर

प्रमोद रंजन और राजूरंजन प्रसाद का आलेख वृहत्तर विमर्श की संभावना की ओर संकेत है। क्रांतिकारी साथियों का चरित्र हमें उस परिवेश पर सोचने के लिए बाध्य कर रहा है कि कैसे सामाजिक परिवर्तन के राही हाने का दावा करने वाले लोग 'भूमिहार` और 'ब्राह्मण` हो गए हैं। क्रांतिकारी कहे जाने वाले एक राजनीतिक दल के पटना कार्यालय में भूमिहार क्रांतिकारियों और यादव क्रांतिकारियों को अलग-अलग बैठे देखना इस बात का संकेत है कि अब सब कुछ खुल कर कहे जाने की जरूरत है।
-सत्येन्द्र कुमार, पथरी घाट, पटना

ब्राह्मणवाद की पुनर्स्थापना का षड़यंत्र

गीता

  • प्रमोद रंजन

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्‍टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।

गीता के रचयिता ने यह श्‍लोक कृष्‍ण की ओर से कहा है। मतलब, 'मैं कृष्‍ण ही वर्णव्यवस्था का रचयिता हूं। मैंने ही गुण और कर्म देखकर चार वर्णों की रचना की। मैं उस सब का कर्ता हूं, पर तुम मुझे अकर्ता ही जानो।` यह श्‍लोक बताता है कि वर्णव्यवस्था किसी ब्राह्मण की रचना नहीं है, यदुकुल के कृष्‍ण ने इसे रचा है। साथ ही गीता का रचयिता यह भी संदेश देता है कि यह 'महान` कार्य कोई गैर ब्राह्मण नहीं कर सकता। कुरूक्षेत्र के मैदान में गीता का उपदेश साक्षात् विष्‍णु देते हैं, यदुवंशी कृष्‍ण तो निमित्त मात्र हैं। इसलिए कृष्‍ण कहते हैं 'तुम मुझे अकर्ता ही जानो`! गीता ऐसे ही छलपूर्ण विरोधाभासों से भरी काव्य रचना है, जिसकी रचना का उद्देश्य ब्राह्मण मिथकों की पुनर्स्थापना था।

पहली सहस्‍त्राब्दि के पूर्वाद्ध में प्राख्यात बौद्ध विचारकों नागार्जुन, असंग, वसुवंधु व अन्य गैर ब्राह्मण चिंतकों के प्रभाव के कारण खतरे में पड़े ब्राह्मणत्व को उबारने के लिए गीता की रचना की गई। यही काम भक्तिकाल (१६वीं ताब्दी) में तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना कर किया। भक्तिकाल में यह खतरा शूद्र कवियों कबीर, रैदास आदि की ओर से था। जिस तरह रामचरित मानस कोई मौलिक रचना न होकर रामायण की पुनर्व्याख्या है उसी तरह गीता अद्वैत वेदांत की। शिल्प और दर्शन की दृष्टि से यह नागार्जुन के 'सौंदरानंद` की भोंडी नकल है।


यह मानने का पर्याप्त आधार है कि इन दिनों गीता और तुलसीदास कृत रामचरित मानस की पुनर्प्रतिष्‍ठा की जो कोशिशें चल रही हैं, उनके पीछे दलितों, पिछड़ों की ओर से ब्राह्मणवाद को मिल रही चुनौती से निबटने और ब्राह्मणत्व पुनर्स्थापित करने का षडयंत्र है। गीता को राष्‍ट्रीय धर्मशास्त्र घोषित करने की कवायद भी महज एक न्यायाधीश की सनक नहीं अपितु उसी बड़े षडयंत्र का हिस्सा है। न्यायालयों के प्रति पर्याप्त सम्मान के बावजूद यह शंका उस समय प्रमाणित होती है जब हम इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस.एन श्रीवास्तव द्वारा गीता को धर्मशास्‍त्र घोषित किए जाने के फैसले और मीडिया में इसकी खबर की तारीखों को देखते हैं।

श्रीवास्तव ने यह फैसला ३० अगस्त, २००७ को दिया। लेकिन मीडिया में यह खबर ११ सितंबर को आई। इस बीच ४ सितंबर का श्रीवास्तव सेवानिवृत भी हो गए। यह एक सामान्य सार्वजिक फैसला था, जिसके लिए किसी स्टिंग आपरेशन की आवश्यकता नहीं थी। पर्याप्त सनसनी तत्व वाली यह खबर ११ दिनों तक क्यों दबी रही? सामान्यत: बनारस के जिस पुजारी मुखर्जी की याचिका पर यह फैसला हुआ था, वह अथवा उसके वकील को ही यह खबर गदगद भाव से तुरंत मीडिया तक पहुंचा देनी चाहिए थी। लेकिन यह खबर ११ तारीख को फ्लैश हुई। १२ सितंबर को विश्व हिन्दू परिषद द्वारा सेतु समुद्रम् परियोजना के विरोध में भारत बंद का आह्वान किया गया था। इस खबर के मीडिया में आने और'भारत बंद` की तारीख में गहरा संबंध है। भारत बंद से ठीक एक दिन पहले इस खबर के फ्लैश होने से गीता के उपरोक्त लोक की भांति ही एक तीर से कई निशाने सधे। पहला तो यह कि श्रीवास्तव के सेवानिवृत हो जाने के कारण उनपर कार्रवाई का खतरा कम हो गया। दूसरा यह कि भारत बंद के हंगामे के कारण मीडिया में इस खबर को उछाले जाने की संभावना समाप्त हो गई। यदि यह खबर अधिक चर्चित होती तो निहित राजनीतिक कारणों से इसका पुरजोर विरोध होता और न्यायाधीश पर कारवाई हो सकती थी। ऐसे में इस फैसले का कोई मूल्य न रह जाता। इसलिए साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाली चालाकी की गई। इस चालाकी के सफल होने पर उच्च न्यायालय के इस फैसले के ब्राह्मणवाद के पक्ष में एक थाती बन जाना तय है, जिसका उपयोग वे मामला ठंडा जाने के (संभवत: वर्षों ) बाद करेंगे। यही उनकी मंशा है क्योंकि वे जानते हैं कि हिन्दू धर्म के दलितों, पिछड़ों और अन्य धर्मालंबियों से राजनैतिक स्तर पर मिल रही प्रबल चुनौतियों के बीच अभी गीता जैसे धर्म ग्रंथ को, जो शूद्रों और स्त्रियों को दोयम दर्जे का मानता है और विधर्मियों के सफाये का संदेश देता है, पुनर्स्थापित करना संभव नहीं है। उनका स्वप्न इस लक्ष्य को सीढ़ी दर सीढ़ी हासिल करने का है। यदि भारतीय संविधान के मूल तत्व सेकुलरिज्म़ की धज्जियां उड़ाने वाले इस फैसले के विरूद्ध आपराधिक मामला दर्ज नहीं होता तो निश्चित रूप से वे भाड़यंत्र के इस सोपान पर सफल रहेंगे। इसलिए यह अनायास नहीं है कि जज श्रीवास्तव द्वारा दिए गए फैसले को ११ दिनों तक दबाए रखा गया और उससे पहले उनके रिटायर हो चुकने की खबर तक नहीं लगने दी गई। इस तथ्य पर भी गौर करें कि धर्मनिरपेक्षता का कांग्रेसी मुखौटा लगाए ब्राह्मणवाद के समर्थकों की ओर से इस फैसले को नजरअंदाज करने देने जोरदार वकालत की गई।


ब्राह्मणवाद की पुनर्स्थापना के षडयंत्र की सफलता की संभावना इस कारण भी बढ़ जाती कि गैर ब्राह्मण तबकों की राजनीतिक स्तर पर सक्रियता संसदीय व्यवस्था में कुछ महत्व पाने भर की है और इससे अधिक चिंताजनक यह कि सांस्कृतिक स्तर पर इनकी सक्रियता नगण्य है। सो, जैसी उम्मीद थी, गैर-ब्राह्मण तबके में सामाजिक स्तर पर भी इस फैसले पर बेहद कम प्रतिक्रिया हुई। यदि उनमें सांस्कृतिक चेतना का विकास हुआ होता तो अपमानजनक शब्दों में उनका जिक्र करने वाले, उन्हें एक मनुष्य के रूप में दूसरे, तीसरे और चौथे दर्जे में रखने वाले ग्रंथ को राष्ट्रीय धर्मशास्‍त्र घोषित किए जाने का जबरदस्त विरोध होता (इस फैसले की सूचना ही इसके लिए काफी होती, इसे चर्चित करने के लिए मीडिया का मुखाक्षेपी होने की आवश्यकता न पड़ती)। जबकि हुआ इसके विपरीत, एक जातीय संगठन, अखिल भारतीय यादव महासभा का बयान इस फैसले के लिए इलाहाबाद न्यायालय के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए समाचार पत्रों में छपा। जिसमें गीता को राष्ट्रीय धर्मग्रंथ बनाने के लिए न्यायालय की मुक्त भाव से प्रशंसा की गई तथा न्यायालय को धन्यवाद दिया गया। इस बयान पर सिर्फ ईसा की वह सुविख्यात पंक्ति-जिसमें उन्‍होंने कहा था, 'उन्हें माफ करना, वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं!`

संविधान है राष्ट्रीय धर्मशसास्‍त्र

  • राम पुनियानी


इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्रीवास्तव ने एक निर्णय में कहा कि भगवत् गीता को राष्ट्रीय धर्मशा घोषित किया जाना चाहिए। जिस मामले के निर्णय में न्यायाधीश ने यह बात कही, वह दो भाइयों के बीच मंदिर के जमीन को बेचने के बारे में विवाद का था। मामले पर अपना निर्णय सुनाने के साथ-साथ न्यायाधीश ने अपनी राय भी लिख दी। उनका कहना था कि चूंकि हमारे राष्ट्रीय पशु, पक्षी इत्यादि हैं इसलिए हमारा राष्ट्रीय धर्मशा भी होना चाहिए और यह दर्जा गीता को दिया जाना चाहिए। न्यायाधीश ने पूरे देश को यह सलाह दी कि सभी नागरिकों को गीता में वर्णित धर्म का पालन करना चाहिए। विश्व हिंदू परिषद् इस निर्णय के सार्वजनिक होते ही मानो उछल पड़ी। विहिप के व्ही.पी. सिंघल ने कहा कि इस निर्णय का न्यायाधीश के हिंदू होने से कोई संबंध नहीं है : 'उन्होंने न्याय किया है, हिंदू के रूप में नहीं बल्कि न्यायाधीश के रूप में`।

गीता मूलत: क्षत्रिय योद्धा अर्जुन को दिया गया उपदेश है। युद्ध क्षेत्र में अपने सामने निकट संबंधियों को देखकर अर्जुन दुखी हो गए और युद्ध करने से पीछे हटने लगे। इस पर कृष्ण ने वैदिक धर्म और वर्ण व्यवस्था की व्याख्या करते हुए अर्जुन को यह समझाया कि अपने वर्ण के अनुरूप कार्य करना पाप नहीं है। उल्टे, अपने वर्ण द्वारा सौंपी गई जिम्मेदारी (जिसे वे धर्म कहते हैं) से भागने वाला व्यक्ति पाप का भागी बनता है। इसलिए, कृष्ण ने अर्जुन से कहा, आगे बढ़ो और युद्ध करो, फिर चाहे तुम्हें उनसे ही क्यों न लड़ना पड़े जो तुम्हारे सगे संबंधी हैं। कृष्ण ने यह भी कहा कि हमें अपने कर्मों के फल की चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि केवल कर्म करना ही हमारा धर्म है। गीता में कृष्ण यह भी कहते हैं कि जब-जब धर्म और वर्ण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था खतरे में पड़ती है तो वे उसकी पुर्नस्थापना के लिए अवतार लेते हैं।

अन्य धर्मों का तो सवाल ही नहीं उठता, कितने हिंदू पंथ इन विचारों से सहमत होंंगे? नाथ, सिद्ध, तंत्र और भक्ति परंपरा मानने वाले हिंदू इस उपदेश को पूरी तरह से खारिज करते हैं। बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों का हिंसा और युद्ध से कोई वास्ता है ही नहीं। गीता चाहे कितनी ही सम्मानीय क्यों न हो, वर्णाश्रम धर्म पर आधरित होने के कारण किसी भी स्थिति में वह दूसरे धर्म के लोगों को स्वीकार्य नहीं हो सकती। इसी तरह अपने सारे गुणों के बावजूद यह राम, शंबूक और बाली के कबीले को कैसे स्वीकार्य हो सकती है? यहां तक कि महिलाएं, जो आज पुरुषांे के समान दर्जा पाने की इच्छुक हैं, वे तक गीता को स्वीकार नहीं कर सकतीं। आज यदि हमारे देश में कोई राष्ट्रीय धर्मग्रंथ है तो वह भारतीय संविधान है, जिसका लोग सम्मान कर सकते हैं और जिससे प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। एक व्यक्ति के रूप में न्यायाधीश श्रीवास्तव को यह स्वतंत्रता है कि वह इस या उस धर्मग्रंथ को मानें। परंतु गीता को राष्ट्रीय धर्मशा घोषित करने की बात अपने निर्णय में कहकर उन्होंने ने अपने पद का दुरूपयोग किया है।

कुछ वर्ष पहले इसी तरह का एक और निर्णय उच्चतम न्यायालय के जस्टिस वर्मा ने दिया था कि 'हिंदुत्व जीवन शैली है।` जस्टिस वर्मा के उस निर्णय का गत वर्षों में हिन्दुवादी सांप्रदायिक शक्तियों ने किस प्रकार का उपयोग किया, यह सर्वविदित है।

एक मिथक का पुनर्पाठ


शक्ति पूजा


  • प्रेमकुमार मणि



पूर्व वैदिक काल, प्राक् वैदिक काल, वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में भी शक्ति के केन्द्र अथवा प्रतीक बदलतेरहे। आर्य सभ्यता का जैसे-जैसे प्रभाव बढ़ा उसके विविध रूप हमारे सामने आये। इसीलिए आज का हिन्दू यदिशक्ति के प्रतीक रूप में दुर्गा या किसी देवी को आदि और अंतिम मान कर चलता है तब वह बचपना करता है


शक्ति के विविध रूपों, यथा योग्यता, बल, पराक्रम, सामर्थ्य व ऊर्जा की पूजा सभ्यता के आदिकाल से होती रही है। न केवल भारत में बल्कि दुनिया के तमाम इलाकों में। दुनिया की पूरी मिथॉलॉजी शक्ति के प्रतीक देवी-देवताओं के तानों-बानों से ही बुनी गयी है। आज भी शक्ति का महत्व निर्विवाद है। अमेरिका की दादागिरी पूरी दुनिया में चल रही है, तो इसलिए कि उसके पास सबसे अधिक सामरिक शक्ति और सम्पदा है। जिसके पास एटम बम नहीं है, उसकी बात कोई नहीं सुनता, उसकी आवाज का कोई मूल्य नहीं है। गीता उसी की सुनी जाती है, जिसके हाथ में चक्र सुदर्शन हो। उसी की धौंस का भी मतलब है और उसी की विनम्रता का भी। कवि दिनकर ने लिखा है: 'क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो/उसे क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो।`
दंतहीन और विषहीन साँप सभ्यता का स्वांग भी नहीं कर सकता। उसकी विनम्रता, उसके क्षमाभाव अर्थहीन हैं। बुद्ध ने कहा है 'जो कमजोर है, वह ठीक रास्ते पर नहीं चल सकता।` उनकी अहिंसक सभ्यता में भी फुफकारने की छूट मिली हुई थी। जातक की एक कथा में एक उत्पाती सांप के बुद्धानुयायी हो जाने की चर्चा है। बुद्ध का अनुयायी हो जाने पर उसने लोगों को काटना-डंसना छोड़ दिया। लोगों को जब यह पता चल गया कि इसने काटना-डंसना छोड़ दिया है तो उसे इंर्ट-पत्थरों से मारने लगे। इस पर भी उसने कुछ नहीं किया। ऐसे लहू-लुहान घायल अनुयायी से बुद्ध जब फिर मिले तो द्रवित हो गये और कहा-'मैंने काटने के लिए मना किया था मित्र, फुफकारने के लिए नहीं। तुम्हारी फुफकार से ही लोग भाग जाते।`

भारत में भी शक्ति की अराधना का पुराना इतिहास रहा है। लेकिन यह इतिहास बहुत सरल नहीं है। अनेक जटिलताएं और उलझाव हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय शक्ति का जो प्रतीक था, वही आर्यों के आने और जमने के बाद नहीं रहा। पूर्व वैदिक काल, प्राक् वैदिक काल, वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में शक्ति के केन्द्र अथवा प्रतीक बदलते रहे। आर्य सभ्यता का जैसे-जैसे प्रभाव बढ़ा उसके विविध रूप हमारे सामने आये। इसीलिए आज का हिन्दू यदि शक्ति के प्रतीक रूप में दुर्गा या किसी देवी को आदि और अंतिम मान कर चलता है तब वह बचपना करता है। सिन्धुघाटी की जो अनार्य अथवा द्रविड़ सभ्यता थी, उसमें प्रकृति और पुरुष शक्ति के समन्वित प्रतीक माने जाते थे। शांति का जमाना था। मार्क्सवादियों की भाषा में आदिम साम्यवादी समाज के ठीक बाद का समय। सभ्यता का इतना विकास तो हो ही गया था कि पकी इंर्टों के घरों में लोग रहने लगे थे और स्नानागार से लेकर बाजार तक बन गये थे। तांबई रंग और अपेक्षाकृत छोटी नासिका वाले इन द्रविड़ों का नेता ही शिव रहा होगा। अल्हड़ अलमस्त किस्म का नायक। इन द्रविडों की सभ्यता में शक्ति की पूजा का कोई माहौल नहीं था। यों भी उन्नत सभ्यताओं में शक्ति पूजा की चीज नहीं होती।

शक्ति की पूजा का माहौल बना आर्यों के आगमन के बाद। सिंधु सभ्यता के शांत-सभ्य गोपालक (ध्यान दीजिए शिव की सवारी बैल और बैल की जननी गाय) द्रविड़ों को अपेक्षाकृत बर्बर अश्वारोही आर्यों ने तहस-नहस कर दिया और पीछे धकेल दिया। द्रविड़ आसानी से पीछे नहीं आये होंगे। भारतीय मिथकों में जो देवासुर संग्राम है वह इन द्रविड़ और आर्यों का ही संग्राम है। आर्यों का नेता इंद्र था। शक्ति का प्रतीक भी इंद्र ही था। वैदिक ऋषियों ने इस देवता, इंद्र की भरपूर स्तुति की है। तब आर्यों का सबसे बड़ा देवता, सबसे बड़ा नायक इंद्र था। वह वैदिक आर्यों का हरक्युलस था। तब किसी देवी की पूजा का कोई वर्णन नहीं मिलता। आर्यों का समाज पुरुष प्रधान था। पुरुषों का वर्चस्व था। द्रविड़ जमाने में प्रकृति को जो स्थान मिला था वह लगभग समाप्त हो गया था। आर्य मातृभूमि नहीं पितृभूमि का नमन करने वाले थे। आर्य प्रभुत्व वाले समाज में पुरुषों का महत्व लंबे अर्से तक बना रहा। द्रविड़ों की ओर से इंद्र को लगातार चुनौती मिलती रही। गोपाल कृष्ण का इतिहास से यदि कुछ संबंध बनता है तो लोकोक्तियों के आधार पर उसके सांवलेपन से द्रविड़ नायक की ही तस्वीर बनती है। इस कृष्ण ने भी इंद्र की पूजा का सार्वजनिक विरोध किया। उसकी जगह अपनी सत्ता स्थापित की। शिव को भी आर्य समाज ने प्रमुख तीन देवताओं में शामिल कर लिया। इंद्र की तो छुट्टी हो ही गयी। भारतीय जनसंघ की कट्टरता से भारतीय जनता पार्टी की सीमित उदारता की ओर और अंतत: एन.डी.ए. का एक ढांचा, आर्यों का समाज कुछ ऐसे ही बदला। फैलाव के लिए उदारता का यह स्वांग जरूरी होता है। जार्ज की तरह शिव को संयोजक बनाना जरूरी था, क्योंकि इसके बिना निष्कंटक राज नहीं बनाया जा सकता था। आर्यों ने अपनी पुत्री पार्वती से शिव का विवाह कर सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की। जब दोनों पक्ष मजबूत हो तो सामंजस्य और समन्वय होता है।जब एक पक्ष कमजोर हो जाता है तो दूसरा पक्ष संहार करता है। आर्य और द्रविड़ दोनों मजबूत स्थिति में थे। दोनों में सामंजस्य और समन्वय ही संभव था। शक्ति की पूजा का सवाल कहां था। शक्ति की पूजा तो संहार के बाद होती है। जो जीत जाता है वह पूज्य बन जाता है, जो हारता है वह पूजक। हालांकि पूजा का सीमित भाव सभ्य समाजों में भी होता है, लेकिन वह नायकों की पूजा होती है, शक्तिमानों की नहीं। शक्तिमानों की पूजा कमजोर, काहिल और पराजित समाज करता है। शिव की पूजा नायक की पूजा है। शक्ति की पूजा वह नहीं है। मिथकों में जो रावण पूजा है वह शक्ति की पूजा है। ताकत की पूजा, महाबली की वंदना।

लेकिन देवी के रूप में शक्ति की पूजा का क्या अर्थ है? अर्थ गूढ़ भी है और सामान्य भी। पूरबी समाज में मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था थी। पश्चिम के पितृ सत्तात्मक समाज-व्यवस्था के ठीक उलट। पूरब सांस्कृतिक रूप से बंग भूमि है जिसका फैलाव असम तक है। यही भूमि शक्ति के देवी रूप का उपासक है। शक्ति का एक अर्थ भग अथवा योनि भी है। योनि प्रजनन शक्ति का केन्द्र है। प्राचीन समाजों में भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जो यज्ञ होते थे उसमें य़िों को नग्न करके घुमाया जाता था। पूरब में पारंपरिक रूप से शक्ति की प्रतीक मानी जाती रही है। इस परंपरा का इस्तेमाल ब्राह्मणों ने अपने लिए सांस्कृतिक रुप से किया। गैर ब्राह्मणों को ब्राह्मण अथवा आर्य संस्कृति में शामिल करने का यह सोचा-समझा अभियान था। आर्य संस्कृति का इसे पूरब में विस्तार भी कह सकते हैं। विस्तार के लिए यहां की मातृसत्तात्मक संस्कृति से समरस होना जरूरी था। सांस्कृतिक रूप से यह भी समन्वय था। पितृसत्तात्मक संस्कृति से मातृसत्तात्मक संस्कृति का समन्वय। आर्य संस्कृति को स्त्रि का महत्व स्वीकारना पड़ा, उसकी ताकत रेखांकित करनी पड़ी। देव की जगह देवी महत्वपूर्ण हो गई। शक्ति का यह पूर्व-रूप (पूरबी रूप) था जो आर्य संस्कृति के लिए अपूर्व (पहले न हुआ) था।

लेकिन महिषासुर और दुर्गा के मिथक हैं, वह क्या है? दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब तक हमने अभिजात ब्राह्मण नजरिये से ही इस पूरी कथा को देखा है। मुझे स्मरण है १९७१ में भारत-पाक युद्ध और बंगलादेश के निर्माण के बाद पूर्व प्रधानमंत्री और तत्कालीन जनसंघ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अभिनव चंडी दुर्गा कहा था। तब तक कम्युनिस्ट नेता डांगे सठियाए नहीं थे। उन्होंने इसका तीखा विरोध करते हुए कहा था कि 'अटल बिहारी नहीं जान रहे हैं कि वह क्या कह रहे हैं और श्रीमती गांधी नहीं जान रहीं हैं कि वह क्या सुन रही हैं। दोनों को यह जानना चाहिए कि चंडी दुर्गा दलित और पिछड़े तबकों की संहारक थी।` डांगे के वक्तव्य के बाद इंदिरा गांधी ने संसद में ही कहा था 'मैं केवल इंदिरा हूं और यही रहना चाहती हूं।`

महिषासुर और दुर्गा की कथा का शूद्र पाठ (और शायद शुद्ध भी) इस तरह है। महिष का मतलब भैंस होता है। महिषासुर यानी महिष का असुर। असुर मतलब सुर से अलग। सुर का मतलब देवता। देवता मतलब ब्राह्मण या सवर्ण। सुर कोई काम नहीं करते। असुर मतलब जो काम करते हों। आज के अर्थ में कर्मी। महिषासुर का अर्थ होगा भैंस पाले वाले लोग अर्थात भैंसपालक। दूध का धंधा करने वाला। ग्वाला। असुर से अहुर और फिर अहीर भी बन सकता है। महिषासुर यानी भैंसपालक बंग देश के वर्चस्व प्राप्त जन रहे होंगे। नस्ल होगा द्रविड़। आर्य संस्कृति के विरोधी भी रहे होंगे। आर्यों को इन्हें पराजित करना था। इन लोगों ने दुर्गा का इस्तेमाल किया। बंग देश में वेश्याएं दुर्गा को अपने कुल का बतलाती हैं। दुर्गा की प्रतिमा बनाने में आज भी वेश्या के घर से थोड़ी मिट्टी जरूर मंगाई जाती है। भैंसपालकों के नायक महिषासुर को मारने में दुर्गा को नौ रात लग गये। जिन ब्राह्मणों ने उन्हें भेजा था वे सांस रोक कर नौ रातों तक इंतजार करते रहे। यह कठिन साधना थी। बल नहीं तो छल। छल का बल। नौवीं रात को दुर्गा को सफलता मिल गयी, उसने महिषासुर का वध कर दिया। खबर मिलते ही आर्यों (ब्राह्मणों) में उत्साह की लहर दौड़ गयी। महिषासुर के लोगों पर वे टूट पड़े और उनके मुंड (मस्तक) काटकर ही उन्होंने एक नये तरह की माला बनायी। यही माला उन्होंने दुर्गा के गले में डाल दी। दुर्गा ने जो काम किया वह तो इंद्र ने भी नहीं किया था। पार्वती ने भी शिव को पटाया भर था, संहार नहीं किया था। दुर्गा ने तो अजूबा किया था। वह सबसे महत्वपूर्ण थीं। सबसे अधिक धन्या! शक्ति का साक्षात् अवतार ।

पेरियार की दृष्टि में रामकथा


रामायण


  • सुरेश पंडित



राम हिन्दुओं के लिये आदर्श महापुरुष ही नहीं परम पूजनीय देवता भी हैं। उनके जीवन को लेकर जितनी बड़ी संख्या में हिन्दी संस्कृत के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में रामकाव्य लिखा गया है वह उनको अतिमानवीय तो प्रदर्शित करता ही है, दुनिया भर के सारे अनुकरणीय गुणों से सम्पन्न भी दिखाता है। यदि कोई समस्त श्रेष्ठ विशेषणों से विभूषित धीरोदात्त नायक की छवि को अविकल रूप में देखना चाहता है तो उसकी यह इच्छा राम पर लिखे किसी भी महाकाव्य को पढ़ कर पूरी हो सकती है। इसलिये उन पर लिखे गये काव्यों को न केवल भक्ति भाव से पढ़ा व सुना ही जाता है बल्कि उनके चरित्र की रंगमंच प्रस्तुति को भाव विभोर होकर देखा भी जाता है। लेकिन ऐसे भी लोग हैं और उनकी संख्या निश्चय ही नगण्य नहीं है, जो राम के इस महिमा मंडन से अभिभूत नहीं होते और उनकी सर्वश्रेष्ठता को चुनौती देते हैं। उन्हें लगता है कि राम को पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित करने की हठीली मनोवृत्ति ने जान बूझकर उनके आसपास विचरने वाले चरित्रों को बौना बनाया है, साथ ही उनका विरोध करने वालों को दुनिया की सारी बुराइयों का प्रतीक बनाकर लोगों की नजरों में घृणास्पद भी बना दिया है। ऐसे लोग जब पत्र-पत्रिकाओं या पुस्तकों के जरिये अपनी बात रखने लगते हैं तो उन्हें नास्तिक, धर्मद्रोही एवं बुराई के प्रतीक रावण का वंशज घोषित कर उनकी आवाज को दबाने की कोशिश की जाती है और अधिसंख्य हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की कुचेष्टा बताकर प्रतिबन्धित कर दिया जाता है।
लेकिन सारे खतरों का मुकाबला करते हुए भी लोग अपनी बात कहने से चूकते नहीं। राम के आदर्श चरित्र का गुणगान करने वाली सैकड़ों रामकथाओं के बरक्स कई ऐसी किताबें आई हैं या आ रही हैं जो रामायण की अपने ढंग से व्याख्या करती हैं और राम के विशालकाय व्यक्तित्व के सामने निरीह या दुष्ट बनाये गये चरित्रों की व्यथा कथा कहती हैं। राम के चरित्रगत दोषों को उजागर कर वे इन उपेक्षित, उत्पीड़ित लोगों के अपने प्रति हुए अन्यायों, अत्याचारों को सामने रखती हैं। ऐसी ही एक किताब का नाम है 'सच्ची रामायाण`, जिसे १४ सितम्बर १९९९ को महज इस वजह से इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अस्थायी तौर पर प्रतिबंधित कर दिया था क्योंकि वह अधिकतर अन्य रामायणों की तरह राम के विश्ववन्द्य स्वरूप को ज्यों का त्यों प्रस्तुत नहीं करती।

इस रामायण के मूल लेखक हैं ई. वी. रामास्वामी पेरियार जो १८७९ में जन्मे और १९७३ तक जीवित रहे। वह एक सक्रिय स्वाधीनता सेनानी, कट्टर नास्तिक, प्रखर समाजवादी चिन्तक, नशाबन्दी के घनघोर समर्थक और क्रांतिकारी समाज सुधारक थे। उन्होंने, अस्पृश्यता, जमींदारी, सूदखोरी, स्त्रियों के साथ भेदभाव तथा हिन्दी भाषा के साम्राज्यवादी फैलाव के विरुद्ध आजीवन पूरे दमखम के साथ संघर्ष किया। कांग्रेस के राष्ट्रीयतावाद को वह मान्यता नहीं देते थे तथा गांधी जी के सिद्धांतों को प्रच्छन्न ब्राह्मणवाद बताते हुए उनकी तीखी आलोचना करते थे। वह द्रविड़ों के अविवाद्य रहनुमा तो थे ही दक्षिण में तर्क बुद्धिवाद के अनन्य प्रचारक व प्रसारक भी थे। संक्षेप में यदि उन्हें दक्षिण का अम्बेडकर कहा जाय तो शायद ही किसी को कोई आपत्ति हो। १९२५ में उन्होंने 'कुडियारासु` (गणराज्य) नामक एक समाचार पत्र तमिल में निकालना शुरू किया। १९२६ में 'सैल्फ रेस्पेक्ट लीग` की स्थापना की और १९३८ में जस्टिस पार्टी को पुनर्जीवित किया। १९४१ में 'द्रविडार कषगम` के झण्डे तले उन्होंने सारी ब्राह्मणेत्तर पार्टियों को इकट्ठा किया और मृत्युपर्यन्त समाजसुधार के कार्यों में पूरी निष्ठा के साथ जुटे रहे।

लगभग ५० साल पहले उन्होंने तमिल में एक पुस्तक लिखी जिसमें वाल्मीकि द्वारा प्रणीत एवं उत्तर भारत में विशेष रूप से लोकप्रिय रामायण की इस आधार पर कटु आलोचना की कि इसमें उत्तर भारत आर्य जातियों को अत्यधिक महत्व दिया गया है और दक्षिण भारतीय द्रविड़ों को क्रूर, हिंसक, अत्याचारी जैसे विशेषण लगाकर न केवल अपमानित किया गया है बल्कि राम-रावण कलह को केन्द्र बनाकर राम की रावण पर विजय को दैवी शक्ति की आसुरी शक्ति पर, सत्य की असत्य पर और अच्छाई की बुराई पर विजय के रूप में गौरवान्वित किया गया है। इसका अंग्रजी अनुवाद 'द रामायण : ए ट्रू रीडिंग` के नाम से सन् १९६९ में किया गया। इस अंग्रेजी अनुवाद का हिन्दी में रूपान्तरण १९७८ में 'रामायण : एक अध्ययन` के नाम से किया। उल्लेखनीय है कि ये तीनों ही संस्करण काफी लोकप्रिय हुए। क्योंकि इसके माध्यम से पाठक अपने आदर्श नायक-नायिकाओं के उन पहलुओं से अवगत हुए जो अब तक उनके लिये वर्जित एवं अज्ञात बने हुए थे। ध्यान देने योग्य तथ्य यह सामने आया कि इनकी मानवोचित कमजोरियों के प्रकटीकरण ने लोगों में किसी तरह का विक्षोभ या आक्रोश पैदा नहीं किया बल्कि इन्हें अपने जैसा पाकर इनके प्रति उनकी आत्मीयता बढ़ी और अन्याय, उत्पीड़न ग्रस्त पात्रों के प्रति सहानुभूति पैदा हुई।

लेकिन जो लोग धर्म को व्यवसाय बना राम कथा को बेचकर अपना पेट पाल रहे थे, उनके लिये यह पुस्तक आंख की किरकिरी बन गई। क्योंकि राम को अवतार बनाकर ही वे उनके चमत्कारों को मनोग्राह्य और कार्यों को श्रद्धास्पद बनाये रख सकते थे। यदि राम सामान्य मनुष्य बन जाते हैं और लोगों को कष्टों से मुक्त करने की क्षमता खो देते हैं तो उनकी कथा भला कौन सुनेगा और कैसे उनकी व उन जैसों की आजीविका चलेगी। इसीलिये प्रचारित यह किया गया कि इससे सारी दुनिया में बसे करोड़ो राम भक्तों की भावनाओं के आहत होने का खतरा पैदा हो गया है। इसलिए इस पर पाबन्दी लगाया जाना जरूरी है। और पाबन्दी लगा भी दी गई। लेकिन उसी न्यायालय ने बाद में अस्थायी प्रतिबंध को हटा दिया और अपने फैसले में स्पष्ट कहा-'हमें यह मानना संभव नहीं लग रहा है कि इसमें लिखी बातें आर्य लोगों के धर्म को अथवा धार्मिक विश्वासों को चोट पहुंचायेंगी। ध्यान देने लायक तथ्य यह है कि मूल पुस्तक तमिल में लिखी गई थी और इसका स्पष्ट उद्देश्य तमिल भाषी द्रविड़ों को यह बताना था कि रामायण में उत्तर भारत के आर्य-राम, सीता, लक्ष्मण आदि का उदात्त चरित्र और दक्षिण भारत के द्रविड़-रावण, कुंभकरण, शूर्पणखा आदि का घृणित चरित्र दिखला कर तमिलों का अपमान किया गया है। उनके आचरणों, रीति रिवाजों को निन्दनीय दिखलाया गया है। लेखक का उद्देश्य जानबूझकर हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के बजाय अपनी जाति के साथ हुए अन्याय को दिखलाना भी तो हो सकता है। निश्चय ही ऐसा करना असंवैधानिक नहीं माना जा सकता। ऐसा करके उसने उसी तरह अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का उपयोग किया है जैसे रामकथा प्रेमी आर्यों को श्रेष्ठ बताकर करते आ रहे हैं। इस तरह तो कल दलितों का वह सारा साहित्य भी प्रतिबंधित हो सकता है जो दलितों के प्रति हुए अमानवीय व्यवहार के लिये खुल्लम-खुल्ला सवर्ण लोगों को कठघरे में खड़ा करता है।`
पेरियार की इस पुस्तक को तमिल में छपे लगभग ५० साल और हिन्दी, अंग्रेजी में छपे लगभग तीन दशक हो चले हैं। अब तक इसके पढ़ने से कहीं कोई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं दर्ज है। फिर अब ऐसी कौन सी नई परिस्थितियां पैदा हो गई हैं कि इससे हिन्दू समाज खतरा महसूस करने लगा है? यह कैसे हो सकता है कि संविधान लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार तो दे परन्तु धर्म के बारे में कुछ भी पढ़ने व जानने के अधिकार पर अंकुश लगा दे। यह कैसे न्यायसंगत हो सकता है कि लोग रामायण, महाभारत, गीता आदि धार्मिक ग्रन्थों को तो पढ़ते रहें पर उनकी आलोचनाओं को पढ़ने से उन्हें रोक दिया जाय। जहां तक जनभावनाओं का सवाल है इसका इकरतफा पक्ष नहीं हो सकता। यदि राम और सीता की आलोचना से लोगों को चोट लगती है तो शूद्रों, दलितों व स्त्रियों के बारे में जो कुछ हिन्दू धर्म ग्रन्थों में लिखा गया है क्या उससे वे आहत नहीं होते? यह बात भी विचारणीय है।
वस्तुत: पेरियार की 'सच्ची रामायण` ऐसी अकेली रामायण नहीं है जो लोक प्रचलित मिथकों को चुनौती देती है और रावण के बहाने द्रविड़ों के प्रति किये गये अन्याय का पर्दाफाश कर उनके साथ मानवोचित न्यायपूर्ण व्यवहार करने की मांग करती है। दक्षिण से ही एक और रामायण अगस्त २००४ में आई है जो उसकी अन्तर्वस्तु का समाजशास्त्रियों विश्लेषण करती है और पूरी विश्वासोत्पादक तार्किकता के साथ प्रमाणित करती है कि राम में और अन्य राजाओं में चरित्रिक दृष्टि से कहीं कोई फर्क नहीं है। वह भी अन्य राजाओं की तरह प्रजाशोषक, साम्राज्य विस्तारक और स्वार्थ सिद्धि हेतु कुछ भी कर गुजरने के लिये सदा तत्पर दिखाई देते हैं। परन्तु यहां हम पेरियार की नजरों से ही बाल्मीकि की रामायण को देखने की कोशिश करते हैं।
वाल्मीकि रामायण में अनेक प्रसंग ऐसे हैं जो तर्क की कसौटी पर तो खरे उतरते ही नहीं। जैसे वह कहती है कि दशरथ ६० हजार बरस तक जीवित रह चुकने पर भी कामवासना से मुक्त नहीं हो पाये। इसी तरह वह यह भी प्रकट करती है कि उनकी केवल तीन ही पत्नियां नहीं थी। इन उद्धरणों के जरिये पेरियार दशरथ के कामुक चरित्र पर से तो पर्दा उठाते ही हैं यह भी साबित करते हैं कि उस जमाने में स्त्रियों केवल भोग्या थीं। समाज में इससे अधिक उनका कोई महत्व नहीं था। दशरथ को अपनी किसी ी़ से प्रेम नहीं था। क्योंकि यदि होता तो अन्य स्त्रियों की उन्हें आवश्यकता ही नहीं होती। सच्चाई यह भी है कि कैकेयी से उनका विवाह ही इस शर्त पर हुआ था कि उससे पैदा होने वाला पुत्र उनका उत्तराधिकारी होगा। इस शर्त को नजरन्दाज करते हुए जब उन्होंने राम को राजपाट देना चाहा तो वह उनका गलत निर्णय था। राम को भी पता था कि असली राजगद्दी का हकदार भरत है, वह नहीं। यह जानते हुए भी वह राजा बनने को तैयार हो जाते हैं। पेरियार के मतानुसार यह उनके राज्यलोलुप होने का प्रमाण है।

कैकेयी जब अपनी शर्तें याद दिलाती है और राम को वन भेजने की जिद पर अड़ जाती है तो दशरथ उसे मनाने के लिये कहते हैं-'मैं तुम्हारे पैर पकड़ लेने को तैयार हूं यदि तुम राम को वन भेजने की जिद को छोड़ दो।` पेरियार एक राजा के इस तरह के व्यवहार को बहुत निम्नकोटि का करार देते हैं और उन पर वचन भंग करने तथा राम के प्रति अन्धा मोह रखने का आरोप लगाते हैं।

राम के बारे में पेरियार का मत है कि वाल्मीकि के राम विचार और कर्म से धूर्त थे। झूठ, कृतघ्नता, दिखावटीपन, चालाकी, कठोरता, लोलुपता, निर्दोष लोगों को सताना और कुसंगति जैसे अवगुण उनमें कूट-कूट कर भरे थे। पेरियार कहते हैं कि जब राम ऐसे ही थे और रावण भी ऐसा ही था तो फिर राम अच्छे और रावण बुरा कैसे हो गया?
उनका मत है कि चालाक ब्राह्मणों ने इस तरह के गैर ईमानदार, निर्वीर्य, अयोग्य और चरित्रहीन व्यक्ति को देवता बना दिया और अब वे हमसे अपेक्षा करते हैं कि हम उनकी पूजा करें। जबकि बाल्मीकि स्वयं मानते हैं कि राम न तो कोई देवता थे और न उनमें कोई दैवी विशेषताएं थी। लेकिन रामायण तो आरम्भ ही इस प्रसंग से होती है कि राम में विष्णु के अंश विद्यमान थे। उनके अनेक कृत्य अतिमानवीय हैं। जैसे उनका लोगों को शापमुक्त करना, जगह-जगह दैवी शक्तियों से संवाद करना आदि। क्या ये काम उनके अतिमानवीय गुणों से संपन्न होने को नहीं दर्शाते?

उचित प्यार और सम्मान न मिलने के कारण सुमित्रा और कौशल्या दशरथ की देखभाल पर विशेष ध्यान नहीं देतीं थी। बाल्मीकि रामायण के अनुसार जब दशरथ की मृत्यु हुई तब भी वे सो रही थीं और विलाप करती दासियों ने जब उन्हें यह दुखद खबर दी तब भी वे बड़े आराम से उठकर खड़ी हुई। इस प्रसंग को लेकर पेरियार की टिप्पणी है-'इन आर्य महिलाओं को देखिये! अपने पति की देखभाल के प्रति भी वे कितनी लापरवाह थी।` फिर वे इस लापरवाही के औचित्य पर भी प्रकाश डालते हैं।

पेरियार राम में तो इतनी कमियां निकालते हैं किन्तु रावण को वे सर्वथा दोषमुक्त मानते हैं। वे कहते हैं कि स्वयं बाल्मीकि रावण की प्रशंसा करते हैं और उनमें दस गुणों का होना स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार रावण महापंडित, महायोद्धा, सुन्दर, दयालु, तपस्वी और उदार हृदय जैसे गुणों से विभूषित था। जब हम बाल्मीकि के कथनानुसार राम को पुरुषोत्तम मानते हैं तो उसके द्वारा दर्शाये इन गुणों से संपन्न रावण को उत्तम पुरुष क्यों नहीं मान सकते? सीताहरण के लिए रावण को दोषी ठहराया जाता है लेकिन पेरियार कहते हैं कि वह सीता को जबर्दस्ती उठाकर नहीं ले गया था बल्कि सीता स्वेच्छा से उसके साथ गई थी। इससे भी आगे पेरियार यह तक कहते हैं कि सीता अन्य व्यक्ति के साथ इसलिये चली गई थी क्योंकि उसकी प्रकृति ही चंचल थी और उसके पुत्र लव और कुश रावण के संसर्ग से ही उत्पन्न हुए थे। सीता की प्रशंसा में पेरियार एक शब्द तक नहीं कहते। अपनी इस स्थापना को पुष्ट करने के लिये वह निम्न दस तर्क देते हैं-

१. सीता के जन्म की प्रामाणिकता संदेहास्पद है। उन्हें भूमिपुत्री प्रचारित करते हुए यह कहा जाता है कि राजा जनक को वह पृथ्वी के गर्भ से प्राप्त हुइंर् थीं। जबकि पेरियार का कथन है कि वह वास्तव में किसी बदचलन की सन्तान थी जिसे उसनेे अपना दुष्कर्म छुपाने के लिये फेंक दिया था। बदचलन स्‍त्री की सन्तान का भी वैसा ही होना अस्वाभाविक नहीं है। इस सम्बंध में पेरियार स्वयं सीता के शब्द उद्धृत करते हैं-'मेरे तरुणाई प्राप्त कर लेने के बाद भी कोई राजकुमार मेरा हाथ मांगने नहीं आया क्योंकि मेरे जन्म को लेकर मुझ पर एक कलंक लगा हुआ है।` इसी बात को आगे बढ़ाते हुए वह कहते हैं-'जनक सीता की आयु २५ वर्ष की हो जाने तक कोई उपयुक्त वर नहीं तलाश पाये। हारकर उन्होंने अपनी व्यथा से ऋषि विश्वामित्र को अवगत करवाया और सहायता की याचना की। तब विश्वामित्र सीता की आयु से काफी छोटे राम को लेकर आये और सीता ने उनसे विवाह करने में तनिक भी आपत्ति नहीं की। इससे प्रमाणित होता है कि सीता हताश हो किसी को भी पति के रूप में स्वीकार करने के लिये व्याकुल थी।`

२. पेरियार का दूसरा तर्क भरत और सीता के संबंधों को लेकर है। जब राम ने वन जाने का निर्णय कर लिया तो सीता ने अयोध्या में रहने से बिल्कुल इन्कार कर दिया। इसका कारण यह था कि विवाह के कुछ दिनों बाद से ही भरत ने सीता का तिरस्कार करना शुरू कर दिया था। राम स्वयं भी सीता से कहते हैं कि तुम भरत की प्रशंसा के लायक नहीं हो। आगे सीता फिर कहती है-'मैं भरत के साथ नहीं रह सकती क्योंकि वह मेरी अवज्ञा करता है। मैं क्या करूं? वह मुझे पसन्द नहीं करता। मैं उसके साथ कैसे रह सकती हूं।` सीता की ये स्वीकारोक्तियां भी उसके चरित्र को सन्देहास्पद बनाती हैं। आखिर भरत सीता को क्यों नापसन्द करते थे। यह सवाल सीधा सीधा सीता के चरित्र पर उंगली उठाता है।

३. सीता हीरे जवाहरात के आभूषणों के पीछे पागल रहती है। राम जब उसे अपने साथ वन ले जाने को तैयार हो जाते हैं तो उसे सारे आभूषण उतार कर वहीं रख देने को कहते हैं। सीता अनिच्छापूर्वक ऐसा करती तो है पर चोरी छुपे कुछ अपने साथ भी रख लेती है। रावण जब उसे हर कर ले जाता है तब वह उनमें से एक-एक उतार कर डालती जाती है। अशोक वाटिका में भी वह अपनी मुद्रिका हनुमान को पहचान के लिये देती है। तात्पर्य यह कि आभूषणों के प्रति उसका इस हद तक मोह यह तो स्पष्ट करता ही है कि वह इनके लिये अपने पति की आज्ञा की भी अवहेलना कर सकती है यह भी जताता है कि वह इनके लिये अनैतिक समझौते भी कर सकती है।

४. सीता मिथ्याभाषिणी है। वह उम्र में बड़ी होकर भी राम को तथा रावण को अपनी उम्र कम बताती है। उसकी आदत उसके चरित्र पर शंका उत्पन्न करती है।

५. सीता को वन में अकेला इसीलिये छोड़ा जाता है ताकि रावण उसे आसानी से ले जा सके। वह स्वयं भी राम को स्वर्ण मृग के पीछे और लक्ष्मण को राम की रक्षा के लिये भेजती है जिससे वह अकेली हो और स्वेच्छा से काम करे।

६. सीता लक्ष्मण को बहुत कठोर शब्दों में फटकारती है और यहां तक कह देती है कि वह उसे पाना चाहता है। इसीलिये राम को बचाने नहीं जाता। उसके इस तरह के आरोप उसकी कलुषित मानसिकता को प्रकट करते हैं।

७. एक बाहरी व्यक्ति (रावण) आता है और सीता के अंग प्रत्यंगों की सुन्दरता का, यहां तक कि स्तनों की स्थूलता व गोलाई का भी वर्णन करता है और वह चुपचाप सुनती रहती है। इससे भी उसकी चारित्रिक दुर्बलता प्रकट होती है।


८. सीता का अपहरण कर ले जाते समय वह रावण को अनेक प्रकार का शाप देती है। यदि वह सचमुच सती पतिव्रता होती तो रावण को तभी भस्मीभूत हो जाना चाहिये था। लेकिन वह तो जैसे ही रावण के महल में प्रविष्ट होती है उसका रावण के प्रति प्रेम बढ़ने लगता है।

९. जब रावण सीता से शादी करने के लिये निवेदन करता है तो वह मना तो करती है लेकिन आंखें बन्द करके सुबकने भी लगती है। पेरियार उसके इस व्यवहार पर शंका जताते हैं।

१०. वह सीता के रावण के प्रति आकर्षित होने के दो प्रमाण और देतें हैं-(क) चन्द्रावती की बंगाली रामायण से एक घटना का वह उल्लेख करते हैं-राम की बड़ी बहन कुंकुवती उन्हें धीरे से यह बताती है कि सीता ने कोई तस्वीर बनाई है और वह उसे किसी को दिखाती नहीं है। उस तस्वीर को वह छाती से लगाये हुए है। राम स्वयं सीता के कमरे में जाते हैं और वैसा ही पाते हैं। वह तस्वीर रावण की होती है। (ख) सी.आर.श्रीनिवास अयंगार की पुस्तक 'नोट्स ऑन रामायण` में भी सीता रावण की तस्वीर बनाते हुए राम के द्वारा रंगे हाथों पकड़ी जाती है।

अन्त में पेरियार उस प्रसंग का वर्णन करते हैं जब अयोध्या में राम सीता से अपने सतीत्त्व को साबित करने के लिये शपथ खाने को कहते हैं। वह ऐसा करने से मना कर देती है और पृथ्वी में समा जाती है। रामभक्त इसे सीता के सतीत्व की चरमावस्था घोषित करते हैं जबकि पेरियार कहते हैं कि अपने को सच्चरित्र प्रमाणित न कर पाने के कारण ही सीता जमीन में गड़ जाती है।

ऐसे राम और ऐसी रामायण कथा आदर व श्रद्धा के लायक बन सकते हैं? यह सवाल है पेरियार का।

दरअसल पेरियार ने इसे एक ऐसे लम्बे निबंध के रूप में लिखा है जिसमें पहले रामायण पर उनके विचार दिये गये हैं और बाद में उसके हर चरित्र की आलोचना की गई है।

रामायण के बारे में वह बड़ी साफगोई से कहते हैं कि रामायण वास्तव में कभी घटित नहीं हुई। वह तो एक काल्पनिक गल्प मात्र है। राम न तो तमिल थे और न तमिलनाडू से उनका कोई सम्बन्ध था। वह तो धुर उत्तर भारतीय थे। इसके विपरीत रावण उस लंका के राजा थे जो तमिलनाडू के दक्षिण में है। यही कारण है राम और सीता न केवल तमिल विशेषताओं से रहित हैं बल्कि उनमें देवत्व के लक्षण भी दिखाई नहीं देते। महाभारत की तरह यह भी एक पौराणिक कथा है जिसे आर्यों ने यह दिखाने के लिये रचा है कि वे जन्मजात उदात्त मानव हैं जबकि द्रविड़ लोग जन्मना अधम, अनाचारी हैं। इसका मुख्य उद्देश्य ब्राह्मणों की श्रेष्ठता, स्त्रियों की दोयम दर्जे की हैसियत और द्रविड़ों को निन्दनीय प्रदर्शित करना है। इस तरह के महाकाव्य जानबूझकर उस संस्कृत भाषा में लिखे गये जिसे वे देवभाषा कहते थे और जिसका पढ़ना निम्न जातियों के लिये निषिद्ध था। वे इन्हें ऐसी महान आत्माओं द्वारा रचित प्रचारित करते हैं जो सीधे स्वर्ग से दुनिया का उद्धार करने के लिये अवतरित हुई थी। ताकि इनकी कथाओं को सच्चा माना जाय और इनके पात्रों व घटनाओं पर कोई सवाल न उठाये जायें। आर्यों ने जब प्राचीन द्रविड़ भूमि पर आक्रमण किया तब उनके साथ दुर्व्यवहार तो किया ही उनका अपमान भी किया और अपने इस कृत्य को न्यायोचित व प्रतिष्ठा योग्य बनाने के लिये उन्होंने इन्हें ऐसे राक्षस बनाकर पेश किया जो सज्जनों के हर अच्छे कामों में बाधा डालते थे। श्रेष्ठ जनों को तपस्या करने से रोकना, धार्मिक अनुष्ठानों को अपवित्र करना, पराई स्त्रियों का अपहरण करना, मदिरापान, मांसभक्षण एवं अन्य सभी प्रकार के दुराचरण करना इन्हें अच्छा लगता था। इसलिये ऐसे आततायियों को दंडित करना आर्य पुरुषों की कर्तव्य परायणता को दर्शाता है। अब यदि तमिलजन इस तरह की रामायण की प्रशंसा करते हैं तो वे अपने अपमान को एक तरह से सही ठहराते हैं और स्वयं अपने आत्मसम्मान को क्षति पहुंचाते हैं।
शिक्षित तमिल जब कभी रामायण की चर्चा करते हैं तो उनका आशय 'कम्ब रामायण` से होता है। यह रामायण वाल्मीकि की संस्कृत में लिखी रामायण का कम्बन कवि द्वारा तमिल में किया गया अनुवाद है। लेकिन पेरियार मानते हैं कि कम्बन ने भी वाल्मीकि की रामायण की विकारग्रस्त प्रवृत्ति और सच्चाई को छुपाया है और कथा को कुछ ऐसा मोड़ दिया है जो तमिल पाठकों को भरमाता है। इसलिये वे इस रामायण की जगह आनन्द चारियार, नटेश शाय़िार, सी.आर. श्रीनिवास अयंगार और नरसिंह चारियार के अनुवादों को पढ़ने की सिफारिश करते हैं।

लेकिन अफसोस है पेरियार भी रावण की प्रशंसा उसी तरह आंख मूंदकर करते हैं जिस तरह वाल्मीकि ने राम की की है। वह वाल्मीकि पर यह आरोप लगाते हैं कि उन्होंने स्त्रियों की न केवल अवहेलना की है बल्कि उन्हें हीन दिखाने की कोशिश भी की है। लेकिन वह स्वयं भी सीता की मन्थरा व शूर्पणखा की तरह अवमानना करते हैं। क्योंकि वह एक आर्य महिला है। क्या आर्य होने पर स्त्रि स्त्रि नहीं रहती? इस तरह पेरियार कई जगह द्रविड़ों का पक्ष लेते हुए रामायण के आर्य चरित्रों के साथ अन्याय भी करते हैं। अनेक कमियों के बावजूद यह पठनीय है। क्योंकि इससे तस्वीर का एक और पहलू सामने आता है।

चर्चित आलोचक सुरेश पंडित विभिन्न विषयों पर लिखते हैं।

राम-कथा के विविध रूप

दूसरा पहलू

राष्ट्रकवि का विरुद पाये दिनकरजी का यह गद्यांश हमने उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय` से लिया है। शीर्षक हमारा है। दिनकरजी न केवल कवि थे, बल्कि एक गंभीर संस्कृति-चिंतक भी थे। राम कथा पर उनका यह लेख कई जरूरी पहलुओं को सामने लाता है। २००७ दिनकरजी की जन्मशती का भी वर्ष है।-सं

  • रामधारीसिंह दिनकर

राम-कथा का मूल स्रोत क्या है तथा यह कथा कितनी पुरानी है, इस प्रश्न का सम्यक् समाधान अभी नहीं हो पाया है। इतना सत्य है कि बुद्ध और महावीर के समय जनता में राम के प्रति अत्यन्त आदर का भाव था, जिसका प्रमाण यह है कि जातकों के अनुसार, बुद्ध अपने पूर्व जन्म में एक बार राम होकर भी जनमे थे और जैन-ग्रन्थों में तिरसठ महापुरुषों में राम और लक्ष्मण की भी गिनती की जाती थी। इससे यह अनुमान भी निकलता है कि राम, बुद्ध और महावीर, दोनों के बहुत पहले से ही समाज में आदृत रहे होंगे। विचित्रता की बात यह है कि वेद में राम-कथा के अनेक पात्रों का उल्लेख है। इक्ष्वाकु, दशरथ, राम, अश्वपति, कैकेयी, जनक और सीता, इनके नाम वेद और वैदिक साहित्य में अनेक बार आये हैं, किन्तु, विद्वानों ने अब तक यह स्वीकार नहीं किया है कि ये नाम, सचमुच, राम-कथा के पात्रों के ही नाम हैं। विशेषत: वैदिक सीता के सम्बन्ध में यह समझा जाता है कि यह शब्द लांगल-पद्धति (खेत में हल से बनायी हुई रेखा) का पर्याय है, इसीलिए, उसे इन्द्र-पत्नी और पर्जन्य-पत्नी भी कहते हैं। सीता खेत की सिरोर (हल-रेखा) का नाम था, इसका समर्थन महाभारत से भी होता है, जहां द्रोणपर्व जयद्रथ-वध के अन्तर्गत ध्वजवर्णन नामक अध्याय में (७.१०४) कृषि की अधिष्ठात्री देवी, सब चीजों को उत्पन्न करने वाली सीता का उल्लेख हुआ है। हरिवंश के भी द्वितीय भाग में दुर्गा की एक लम्बी स्तुति में कहा गया है कि 'तू कृषकों के लिए सीता है तथा प्राणियों के लिए धरणी` (कर्षुकानां च सीतेति भूतानां धरणीति च)। इससे पंडितों ने यह अनुमान लगाया है कि राम-कथा की उत्पत्ति के पूर्व ही, सीता कृषि की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वैदिक साहित्य में पूजित हो चुकी थीं। पीछे, जब अयोनिजा, सीता की कल्पना की जाने लगी, तब उस पर वैदिक सीता का प्रभाव, स्वाभाविक रूप से, पड़ गया।

राम-कथा का उद्गम खोजते-खोजते पंडितों ने एक अनुमान लगाया है कि वेद में जो सीता कृषि की अधिष्ठात्री देवी थीं, वे ही, बाद में, आयोनिजा कन्या बन गयीं, जिन्हें जनक ने हल चलाते हुए खेत में पाया। राम के सम्बन्ध में इन पंडितों का यह मत है कि वेद में जो इन्द्र नाम से पूजित था, वही व्यक्तित्व, कालक्रम में, विकसित होकर राम बन गया। इन्द्र की सबसे बड़ी वीरता यह थी कि उसने वृत्रासुर को पराजित किया था। राम-कथा में यही वृत्रासुर रावण बन गया है। ऋग्वेद (मंडल १, सूक्त ६) में जो कथा आयी है कि पंडितों ने गायों को छिपा कर गुफा में बन्द कर दिया था और इन्द्र ने उन गायों को छुड़ाया, उससे पंडितों ने यह अनुमान लगाया है कि यही कथा विकसित होकर राम-कथा में सीता-हरण का प्रकरण बन गयी।

किन्तु, ये सारे अनुमान, अन्तत:, अनुमान ही हैं और उनसे न तो किसी आधार की पुष्टि होती है, न किसी समस्या का समाधान ही। राम-कथा के जिन पात्रों के नाम वेद में मिलते हैं, वे निश्चित रूप से, राम-कथा के पात्र हैं या नहीं इस विषय में सन्देह रखते हुए भी यह मानने में कोई बडी बाधा नहीं दीखती कि राम-कथा ऐतिहासिक घटना पर आधारित है। अयोध्या, चित्रकूट, पंचवटी, रामेश्वरम्, अनन्त काल से राम-कथा से सम्पृक्त माने जाते रहे हैं। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि दाशरथि राम, सचमुच, जनमे थे और उनके चरित्र पर ही वाल्मीकि ने अपनी रामायण बनायी? इस सम्भावना का खण्डन यह कहने से भी नहीं होता कि वाल्मीकि ने आदि रामायण में केवल अयोध्या-काण्ड से युद्ध-काण्ड तक की ही कथा लिखी थी; बाल-काण्ड और उत्तर-काण्ड बाद में अन्य कवियों ने मिलाये।

अनेक बार पंडितों ने यह सिद्ध करना चाहा कि रामायण बुद्ध के बाद रची गयी और वह महाभारत से भी बाद की है। किन्तु, इससे समस्याओं का समाधान नहीं होता। भारतीय परम्परा, एक स्वर से, वाल्मीकि को आदि कवि मानती आयी है और यहां के लोगों का विश्वास है कि रामवतार त्रेता युग में हुआ था। इस मान्यता की पुष्टि इस बात से होती है कि महाभारत में रामायण की कथा आती है, किन्तु, रामायण में महाभारत के किसी भी पात्र का उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार, बौद्ध ग्रन्थ तो राम-कथा का उल्लेख करते हैं, किन्तु, रामायण में बुद्ध का उल्लेख नहीं है। रामायण के एक संस्करण में जावालि-वृत्तान्त के अन्तर्गत बुद्ध का जो उल्लेख मिलता है (यथा हि चौर: स तथा हि बुद्ध:) उसे अनेक पंडितों ने क्षेपक माना है। यह भी कहा जाता है कि सीता का हिंसा के विरुद्ध भाषण तथा राम के शांत और कोमल स्वभाव की कल्पना के पीछे 'किंचित् बौद्ध प्रभाव` है। किन्तु, यह केवल अनुमान की बात है। अहिंसा की कल्पना बुद्ध से बहुत पहले की चीज है। उसका मूल भारत को प्राग्वैदिक संस्कृति में रहा होगा। बुद्ध ने सिर्फ उस पर जोर दिया है। बुद्ध के पहले के हिन्दुत्व में ऐसी कोई बात नहीं थी जो रामायण के वातावरण के विरुद्ध हो। रामायण प्राग्-बौद्ध काव्य है, इस निष्कर्ष से भागा नहीं जा सकता।

राम-कथा की व्यापकता

रामायण और महाभारत भारतीय जाति के दो महाकाव्य हैं। महाकाव्यों की रचना तब सम्भव होती है, जब संस्कृतियों की विशाल धाराएं किसी संगम पर मिल रही हों। भारत में संस्कृति-समन्वय की जो प्रक्रिया चल रही थी, ये दोनों काव्य उसकी अभिव्यक्ति करते हैंं। रामायण में इस प्रक्रिया के पहले सोपान हैं और महाभारत में उसके बाद-वाले। रामायण की रचना तीन कथाओं को लेकर पूर्ण हुई। पहली कथा तो अयोध्या के राजमहल की है, जो पूर्वी भारत में प्रचलित रही होगी; दूसरी रावण की जो दक्षिण में प्रचलित रही होगी; और तीसरी किष्किन्धा वानरों की, जो वन्य जातियों में प्रचलित रही होगी। आदि कवि ने तीनों को जोड़कर रामायण की रचना की। किन्तु, उससे भी अधिक सम्भव यह है कि राम, सचमुच ही, ऐतिहासिक पुरुष थे और, सचमुच ही, उन्होंने किसी वानर-जाति की सहायता से लंका पर विजय पायी थी। हाल से यह अनुमान भी चलने लगा है कि हनुमान नाम एक द्रविड़ शब्द 'आणमन्दि` से निकला है, जिसका अर्थ 'नर-कपि` होता है। यहां फिर यह बात उल्लेखनीय हो जाती है कि ऋगवेद में भी 'वृषाकपि` का नाम आया हैं वानरों और राक्षसों के विषय में भी अब यह अनुमान, प्राय: ग्राह्य हो चला है कि ये लोग प्राचीन विन्ध्य-प्रदेश और दक्षिण भारत की आदिवासी आर्येतर जातियों के सदस्य थे; या तो उनके मुख वानरों के समान थे, जिससे उनका नाम वानर पड़ गया अथवा उनकी ध्वजाओं पर वानरों और भालुओं के निशान रहे होंगे।

रामायण में जो तीन कथाएं हैं, उनके नायक क्रमश: राम, रावण और हनुमान, हैं, और ये तीन चरित्र तीन संस्कृतियों के प्रतीक हैं, जिनका समन्वय और तिरोधान वाल्मीकि ने एक ही काव्य में दिखाया है। सम्भव है, यह बात सच हो कि 'राम, रावण और हनुमान के विषय में पहले स्वतंत्र आख्यान-काव्य प्रचलित थे और इसके संयोग से रामायण काव्य की उत्पत्ति हुई है। जिस प्रकार, आर्य और आर्येतर जातियों के धार्मिक-संस्कारों से शैव धर्म की उत्पत्ति हुई, उसी प्रकार, वैष्णव धर्म की रामााश्रयी शाखा में भी आर्येतर जातियों के योगदान हैं।

रामावतार

कृष्णाश्रयी वैष्णव धर्म की विशेषता यह थी कि उसमें कृष्ण विष्णु पहले माने गये एवं उनके सम्बन्ध की कथाओं का विस्तृत विकास बाद में हुआ। राम-मत के विषय में यह बात है कि राम-कथा का विकास और प्रसार पहले हुआ, राम विष्णु का अवतार बाद में माने गये। भंडारकर साहब ने तो यहां तक घोषणा कर दी थी कि विष्णु के अवतार के रूप में राम का ग्रहण ग्यारहवीं सदी में आकर हुआ। किन्तु, अब यह मत खंडित हो गया है। अब अधिक विद्वान यह मानते हैं कि ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व वासुदेव कृष्ण विष्णु के अवतार माने जाने लगे थे और उनके अवतार होने की बात चलने के बाद, बाकी अवतार भी विष्णु के ही अवतार माने जाने लगे; तथा उन्हीं दिनों राम का अवतार होना भी प्रचलित हो गया। वैसे अवतारवाद की भावना ब्राह्मण-ग्रन्थों में ही उदित हुई थी। शतपथ-ब्राह्मण में लिखा है कि प्रजापति ने (विष्णु ने नहीं) मत्स्य, कूर्म और वराह का अवतार लिया था। तैत्तिरीय-ब्राह्मण में भी प्रजापति के वराह रूप धरने की कथा है। बाद में, जब विष्णु की श्रेष्ठता सिद्ध हो गयी, तब मत्स्य, कूर्म और वराह, ये सभी अवतार उन्हीं के माने जाने लगे। केवल वामनावतार के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि वामन, आरम्भ से ही, विष्णु के अवतार माने जाते रहे हैं। वामन के त्रिविक्रम रूप का उल्लेख ऋग्वेद के प्रथम मण्डल द्वितीय अध्याय के बारहवें सूक्त में है।


राम-कथा के विकास पर रेवरेण्ड फादर कामिल बुल्के ने जो विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित किया है, उसके अनुसार वेद में रामकथा-विषयक पात्रों के सारे उल्लेख स्फुट और स्वतंत्र हैं। रामकथा-सम्बन्धी आख्यान-काव्यों की वास्तविक रचना वैदिक काल के बाद, इक्ष्वाकु-वंश के राजाओं के सूतों ने आरंभ की। इन्हीं आख्यान-काव्यों के आधार पर वाल्मीकि ने आदि-रामायण की रचना की। इस रामायण में अयोध्या-काण्ड से लेकर युद्ध-काण्ड तक की ही कथावस्तु का वर्णन था और उसमें सिर्फ बारह हजार श्लोक थे। किन्तु, इस रामायण का समाज में बहुत प्रचार था। कुशी-लव उसका गान करके और उसके अभिनेता उसका अभिनय दिखाकर अपनी जीविका कमाते थे। काव्योपजीवी कुशी-लव अपने श्रोताओं की रुचि का ध्यान रखकर रामायण के लोकप्रिय अंश को बढ़ाते भी थे। इस प्रकार, आदि-रामायण का कलेवर बढ़ने लगा। ज्यों-ज्यों राम-कथा का यह मूल-रूप लोकप्रिय होता गया, त्यों-त्यों, जनता को यह जिज्ञासा होने लगी कि राम कैसे जनमे? सीता कैसे जन्मीं? रावण कौन था? आदि-आदि। इसी जिज्ञासा की शांति के लिए बाल-काण्ड और उत्तर-काण्ड रचे गये। इस प्रकार, राम की कथा रामायण (राम-अयन अर्थात राम का पर्यटन) न रहकर, पूर्ण रामचरित के रूप में विकसित हुई। इस समय तक रामायण नरकाव्य ही था और राम आदर्श क्षत्रिय के रूप में ही भारतीय जनता के सामने प्रस्तुत किये गये थे। इसका आभास भगवद्गीता के उस स्थल से मिलता है, जहां कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि श धारणा करने वालों में मैं राम हूं-'राम: शभ़ृतामहम्।`

रामचरित, ज्यों-ज्यों लोकप्रिय होता गया, त्यों-त्यों, उसमें अलौकिकता भी आती गयी। अन्तत: ईसा के सौ वर्ष पूर्व तक आकर राम, निश्चित रूप से, विष्णु के अवतार हो गये। किन्तु, यह कोई निश्चयात्मक बात नहीं है। क्योंकि राम की, बोधिसत्व के रूप में, कल्पना ई.पू. प्रथम शती के पूर्व ही की जा चुकी थी। इसलिए, सम्भव है, अवतार भी वे पहले से ही माने जाते रहे हों।

किन्तु, बाद के साहित्य में तो राम की महिमा अत्यन्त प्रखर हो उठी तथा पूरे-भारवर्ष की संस्कृति, दिनों-दिन, राममयी होती चली गयी। बौद्ध और जैन साहित्य को छोड़कर और सभी भारतीय साहित्य में राम विष्णु के अवतार के रूप में सामने आते हैं। हां, बुद्ध धर्म के साथ राम-कथा का जो रूप भारत से बाहर पहुंचा, उसमें वे विष्णु के अवतार नहीं रहे, न उनके प्रति भक्ति का ही कोई भाव रह गया।

राम को लेकर समन्वय

भारत में संस्कृतियों का जो विराट समन्वय हुआ है, राम-कथा उसका अत्यन्त उज्जवल प्रतीक है। सबसे पहले तो यह बात है कि इस कथा से भारत की भौगोलिक एकता धवनित होती है। एक ही कथासूत्र में अयोध्या, किष्किन्धा और लंका, तीनों के बंध जाने के कारण, सारा देश एक दीखता है। दूसरे, इस कथा पर भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में रामायणों की रचना हुई, जिनमें से प्रत्येक, अपने-अपने क्षेत्र में, अत्यन्त लोकप्रिय रही है तथा जिनके प्रचार के कारण भारतीय संस्कृति की एकरूपता में बहुत वृद्धि हुई है। संस्कृत के धार्मिक साहित्य में राम-कथा का रूप, अपेक्षाकृत, कम व्यापक रहा; फिर भी, रघुवंश, भटि्टकाव्य, महावीर-चरित, उत्तर-रामचरित, प्रतिमा-नाटक, जानकी-हरण, कुन्दमाला, अनर्घराघव, बालरामायण, हनुमान्नाटक, अध्यात्म-रामायण, अद्भूत-रामायण, आनन्द-रामायण आदि अनेक काव्य इस बात के प्रमाण हैं कि भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों के कवियों पर वाल्मीकि-रामायण का कितना गम्भीर प्रभाव पड़ा था। जब आधुनिक देश-भाषाओं का काल आया, तब देशी-भाषाओं में भी रामचरित पर एक-से-एक उत्त्म काव्य लिखे गये और आदि कवि के काव्य-सरोवर का जल पीकर भारत की सभी भाषाओं ने अपने को पुष्ट किया।

राम-कथा की एक दूसरी विशेषता यह है कि इसके माध्यम से शैव और वैष्णव मतों का विभेद दूर किया गया। आदि-रामायण पर शैव मत का कोई प्रभाव नहीं रहा हो, यह सम्भव है, किन्तु, आगे चलकर राम-कथा शिव की भक्ति से एकाकार होती गयी।

जातक कथाएं

वैदिक हिन्दुओं के पुराणों को बौद्धों और जैनों ने अपनाया और उनके माध्यम से वे अपने अहिंसावाद का प्रतिपादन करने लगे। इस क्रम में हम देखते हैं कि विमलसूरिकृत पउमचरिय (पदम-चरि, तीसरी-चौथी शती ई.) में बालि वैरागी बनकर सुग्रीव को अपना राज्य दे देता है और स्वयं जैन-दीक्षा लेकर तपस्या करने चला जाता है। अनामकं जातकं (इसका भारतीय पाठ अप्राप्य है। तीसरी शताब्दी में कांड्ग-सड्ग-हुई के द्वारा जो चीनी अनुवाद हुआ था वह उपलब्ध है।) में राम पिता की आज्ञा से वन नहीं जाते, प्रत्युत, अपने मामा के द्वारा आक्रमण की तैयारियों की वार्ता सुनकर स्वयं राज्य छोड़ कर वन में चले जाते हैं, जिससे रक्तपात न हो। इस जातक के अनुसार, राम ने बालि का भी वध नहीं किया। प्रत्यतु, राम के शर-सन्धान करते ही बालि, बिना वाण खाये हुए भी, भाग खड़ा हुआ।
राम-चरित का हिन्दू-हृदयों पर जो प्रभाव था, उसका भी शोषण बौद्ध और जैन पंडितों ने अपने धर्म की महत्ता स्थापित करने को किया। दशरथ-जातक (पांचवीं शताब्दी ई. की एक सिंहली पुस्तक का पाली अनुवाद है), अनामकं जातकं तथा चीनी त्रिपिटक के अंतर्गत त्सा-पौ-त्सग-किड्ग (भारतीय मूल अप्राप्य; चीनी अनुवाद का समय ४७२ ई.) में आए हुए दशरथ-कथानम् एवं खोतानी-रामायण और स्याम के राम-जातक के अनुसार, बुद्ध अपने पूर्व जन्म में राम थे, ऐसा कहा गया है। संभव है, जब बौद्ध पंडित बुद्ध को राम (या विष्णु के) अवतार के रूप में दिखाने लगे, तब हिंदुओं ने बढ़कर उन्हें दशावतार में गिन लिया हो।

एक विचित्रता यह भी कि रावण पर जैन और बौद्ध पुराणों की श्रद्धा दीखती है। गुणभद्र के उत्तर-पुराण में राम-कथा का जो वर्णन मिलता है, उसमें कहा गया है कि लंका-विजय करने के बाद लक्ष्मण एक असाध्य रोग से मरे और मरने के बाद उन्हें नरक प्राप्त हुआ, क्योंकि उन्होंने रावण का वध किया था। इस कथा में रावण के जेता राम नहीं, लक्ष्मण दिखलाये गये हैं। इस कथा की एक विचित्रता यह भी है कि इसके अनुसार, सीता मन्दोदरी के पेट से जन्मी थीं। किन्तु, ज्योतिषियों के यह कहने पर कि यह बालिका आपका नाश करेगी, रावण ने उसे सोने की मंजूषा में बंद करके दूर देश मिथिलाा में कहीं गड़वा दिया था।

जैन-पुराणों में महापुरुषों की संख्या तिरसठ बतायी गयी है। इनमें से २४तो तीर्थंकर हैं, ८ बलदेव, ८ वासुदेव और ८ प्रतिवासुदेव। राम आठवें बलदेव, लक्ष्मण आठवें वासुदवे और रावण आठवें प्रतिवासुदवे हैंं नव वासुदेवों में एक वासुदेव कृष्ण भी गिने जाते हैं। बौद्ध ग्रंथ लंकावतार-सूत्र में रावण तथा बुद्ध का, धर्म के विषय में संवाद उद्धृत है। इससे भी रावण के प्रति बौद्ध मुनियों का आदर अभिव्यक्त होता है। रावण जैनों के अनुसार जैन और बौद्धों के अनुसार बौद्ध माना गया है।

रामकथा के विषय में जैन और बौद्ध पुराणों में कितनी ही अद्भुत बातों का समावेश मिलता है। उदाहरण के लिए, दशरथ-जातक में सीता राम की बहन बतायी गयी हैं और यह भी उल्लेख आया है कि लंका से लौटने पर राम ने सीता से विवाह किया। पउमचरिय में दशरथ की तीन नहीं, चार रानियां थीं, ऐसा उल्लेख मिलता है, जिनके नाम १. कौशल्या अथवा अपराजित, २. सुमित्रा, ३.कैकेयी और ४. सुप्रभा थे। इसमें राम का एक नाम पद्म भी मिलता है। पउमचरिय में यह भी कथा है कि हनुमान जब सीता की खोज करते हुए लंका गये, तब उन्होंने वहां वज्रमुख की कन्या लंकासंुदरी से विवाह किया। गुणभद्र की राम-कथा (उत्तर-पुराण) में राम की माता का नाम सुबाला मिलता है। दशरथ-जातक और उत्तर-पुराण में यह भी लिखा है कि दशरथ वाराणसी के राजा थे, किन्तु, उत्तर-पुराण में इतना और उल्लेख है कि उन्होंने साकेतपुरी में अपनी राजधानी बसायी थी। इन विचित्रताओं को देखकर यह नहीं समझना चाहिए कि ये कथाएं वाल्मीकि-रामायण से पूर्व की हैं और वाल्मीकि ने इनका परिष्कार करके अपनी राम-कथा निकाली। वाल्मीकि-रामायण इन सब से प्राचीन है। फिर भी, रामायण से इनकी जो भिन्नता दीखती है, उसका कारण यह हे कि बौद्ध और जैन मुनि अपने सम्प्रदाय का पुराण रचने के समय, केवल रामायण पर ही अवलम्बित नहीं रहते थे, प्रत्युत, वे उस विशाल कथा-साहित्य से भी सामग्री ग्रहण करते थे जो जनता में, मौखिक रूप से, फैला हुआ था। विशेषत:, जब जनश्रुतियों से अथवा उन्हें मोड़-माड़कर अहिंसा का प्रतिपादन करने में सुविधा दीखती, तब उस सुविधा का लोभ ये लोग संवरण नहीं कर सकते थे। केवल अहिंसा ही नहीं, बौद्ध एवं जैन शैलियों और परंपराओं की दृष्टि से भी जो बातें अनुकूल दीखती होंगी, उन्हें ये मुनि अवश्य अपनाते होंगे। दशरथ-जातक की अप्रामाणिकता तो इससे भी प्रमाणित होती है कि दशरथ-जातक का जो रूप जातककट्टवराणना में प्रस्तुत है, वह शताब्दियों तक अस्थिर रहने के बाद पांचवीं शताब्दी ईसवी में लिपिबद्ध किया गया। अत:, इसमें परिवर्त्तन की संभावना रही है, विशेष करके दूर सिंहलद्वीप में, जहां रामायण की कथा उस समय कम प्रचलित थी। इसके अज्ञात लेखक का भी कहना है कि 'मैंने अनुराधापुर की परंपरा के आधार पर यह रचना की है`।

यह समझना भूल है कि बौद्ध और जैन पंडितों ने वैदिक धर्म का तिरस्कार करने के लिए राम-कथा अथवा दूसरी कथाओं में फेर-फार कर दिया, क्योंकि ऐसे फेर-फार वैदिक धर्मावलंबी कवियों ने भी किये हैं। उदाहरण के लिए, रघुवंश में कालिदास ने यह कहीं भी नहीं लिखा है कि सीता विष्णु की शक्ति की अवतार हैं। दशावतार-चरित्रम् में क्षेमेन्द्र ने रावण को तपस्वी के रूप में रखा है तथा यह बताया है कि रावण सीता को पुत्री-रूप में प्राप्त करना चाहता था।

दशरथ-जातक में सीता राम की बहन बतायी गयी हैं और फिर राम और सीता के विवाह का भी उल्लेख किया गया है। ऐसा सम्बन्ध कुछ बौद्ध पंडितों की दृष्टि में दूषित नहीं था। बुद्धघोष-कृत सुत्त-निपात-टीका में शाक्यों की उत्पत्ति बताते हुए कहा गया है कि वाराणसी की महारानी के चार पुत्र और पांच पुत्रियां थीं। इन नव सन्तानों को रानी ने वनवास दिया। उन्हीं की सन्तानों ने 'कपिलवत्थु` नामक नगर बसाया और चूंकि राजसन्तान के योग्य वन मेंं कोई नहीं था, इसलिए चारों राजुकमार अपनी बहनों से ब्याह करने को बाध्य हुए। ज्येष्ठा कन्या 'पिया` अविवाहित रहकर सबों की माता मानी जाने लगी। यही शाक्यों की उत्पत्ति की कथा है। खोतान में प्रचलित एक राम-कथा में कहा गया है कि वन में राम और लक्ष्मण, दोनों ने सीता से विवाह किया।

वैदिक, बौद्ध एंव जैन पुराणों में जो कथाएं मिलती हैं, उनमें से कितनी ही तो एक ही कथा के विभिन्न विकास हैं। सभी जातियों की संस्कृतियों का समन्वय ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, त्यों-त्यों विभिन्न कथाएं भी, एक दूसरी से मिलकर, नया रूप लेने लगीं, और जो कथाएं पहले एृक रूप में थीं, उनमें भी वैविध्य आ गया। विशेषत:, रामकथा पर तो केवल भारत ही नहीं, सिंहल, स्याम, तिब्बत, हिन्देशिया, बाली, जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों में बसने वाली जनता की रुचि का भी प्रभाव दृष्टिगोचार होता है। आदिवासी कथा के अनुसार गिलहरी को पीठ पर जो रेखाएं हैं, वे रामचन्द्र के द्वारा खींची गयी थीं, क्योंकि गिलहरी ने उन्हें मार्ग बताया था। तेलुगु रामायण (द्विपाद रामायण) के अनुसार, लक्ष्मण जब राम के साथ वन जाने लगे, तब उन्होंने निद्रा-देवी से दो वरदान प्राप्त किये-एक तो पत्नी उर्मिला के लिए चौदह वर्ष की नींद तथा दूसरा अपने लिए वनवास के अंत तक जागरण। सिंहली रामकथा में 'बालि हनुमान का स्थान लेता है, वह लंका दहन करके सीता को राम के पास ले जाता है।` कश्मीरी रामायण के अनुसार, सीता का जन्म मन्दोदरी के गर्भ से हुआ था। बंगाल के कृत्तिवासी रामायण के बहुत-से स्थलों पर शाक्त-सम्प्रदाय की छाप पायी जाती है। खोतानी रामायण (पूर्वी तुर्किस्तान में प्रचलित) में राम जब युद्ध में मूच्र्छित होते हैं, तब उनकी चिकित्सा के लिए सुषेण नहीं, प्रत्युत, बौद्ध वैद्य जीवक बुलाये जाते हैं तथा 'आहत रावण का वध नहीं किया जाता है।` स्यामदेश में प्रचलित 'राम कियेन` रामायण में हनुमान की बहुत-सी प्रेम-लीलाओं का वर्णन किया गया है। प्रभा, बेड.्काया, नागकन्या, सुवर्णमच्छा और अप्सरा वानरी के अतिरिक्त, वे मन्दोदरी के साथ भी क्रीड़ा करते हैं। स्याम में ही प्रचलित राम-जातक में 'राम तथा रावण चचेरे भाई माने गये हैं।`

पुराणों की महाकथाओं में ये जो विविधताएं मिलती हैं, उनकी ऐतिहासिकता चाहे जो हो किन्तु यह सत्य है कि वे अनेक जातियों और जनपदों की रुचियों के कारण बढ़ी हैं, और यह भी हुआ है कि जिस लेखक को अपने सम्प्रदाय के समर्थन में जो कथा अनुकूल दीखी, उसने उसी कथा को प्रमुखता दे डाली अथवा कुछ फेर-फार करके उसे अपने मत के अनुकूल बना लिया।

दो दलित कविताएं



  • मुसाफिर बैठा

सुनो द्रोणाचार्य

सुनो द्रोणाचार्य सुनो
अब लदने को हैं दिन तुम्हारे
छल के
बल के
छल-बल के

कि लंगड़ा ही सही
अब लोकतंत्र आ गया है
जिसमें एकलव्यों के लिए भी
पर्याप्त स्पेस होगा
मिल सकेगा अब जैसा को तैसा
अंगूठा के बदले और
हनुमानकूद लगाना लगवाना अर्जुनों का
न कदापि अब आसान होगा

तब के दैव राज में
पाखंडी लंगड़ा था न्याय तुम्हारा
जो बेशक तुम्हारे राग दरबारी से उपजा होगा
था छल स्वार्थ सना तुम्हारा गुरुधर्म
पर अब गया लद दिन दहाड़े हकमारी का
वो पुरा ख्याल पुरा जमाना

अब के लोकतंत्र में तर्कयुग में
उघड़ रहा है
छलात्कारों, हत्कर्मों, हरमजदगियों का कच्चा चिट्ठा
जो साफ शफ्फाफ बेदाग बनकर
अब तक अक्षुण्ण खड़ा था
तुम्हारे द्वारा सताए गयों के
अधिकार अचेतन रहित होने की बाबत

चेतो डरो या कि कुछ करो द्रोण
कि बाबा साहेब के सूत्र संदेश
पढ़ो शिक्षित बनो संघर्ष करो
की अधिकार पट्टी पढ़ गुन कर
इन्कलाबी प्रत्याक्रमण बुभुझु युयुत्सु
तुम्हारे सामने भीमकाय जत्था खड़ा है।



ईश मोर्चे पर औकात

द्विजो,
तुम्हारा वर्णश्रेष्ठता का अहंमहल
अब तो भरभरा कर
गिर ही जाना चाहिए

कि अब तक
ब्रह्मा के अलैंगिक मुख से जनमे
वरद संतान थे तुम
और इस पर अकुंठ अभिमान था तुम्हें
परंतु किंचित शक संदेह भी

कि अब तो
अलैंगिक मानव जन्म भी
होने संभव हैं आधुनिक तकनीकों के तहत
कि यह आमद
तुम्हारे कथात्मक जन्म वजूद को
कहीं प्रमाणित भी करती है
और वर्तमान वजूद को चिंदी चिंदी भी
कि इस तकनीक धनी समय में
कैसे बचाओगे अपना द्विजपन

कि अब तो
एकछत्र ईश-बिचौलिया राज भी
छिन रहा है, छीज रहा है तुम्हारा पंडित

कि पटना के नवांकुर स्टेशन हनुमान मंदिर
और सोनपुर मेले के पौराणिक हरिहरनाथ मंदिर में
तुम्हारे अक्षर संस्कारी तन मन को
परंपरा-घृणित दलित हाथों से भी
ग्रहण करने पडेंगें पावन प्रसाद
कि इस पाप का प्रक्षालन कैसे करोगे

मुझे नहीं मालूम
कि तुम्हारे छूत की क्या होगी बिसात
और ईश मोर्चे पर अब
कैसे तौलोगे अपनी औकात?

बसंत त्रिपाठी की कविता



मैं बनारस कभी नहीं गया

हिंदी का ठेठ कवि
अपने जनेऊ या जनेऊनुमा संस्कार पर
हाथ फेरता हुआ
चौंकता है मेरी स्वीकारोक्ति पर
अय्..बनारस नहीं गए
नहीं गए, न सही
जरूरत आखिर क्या है
ऐसी स्वीकारोक्तियों की
इन्हीं बातों से कविता में
आरक्षण की प्रबल मांग उठ रही है
हुंह..दलित साहित्य..उसने मुंह बनाया

मैं बनारस कभी नहीं गया
लेकिन वह मुझे कविताओं में मिला
कर्मकाण्डी पिता की अतृप्त इच्छाओं में मिला
मां कमर के दर्द से परेशान हो
नींद में अक्सर चीख-चीख उठती है
बनारस..बनारस..

कबीर यहीं से कुढ़कर
मगहर की ओर निकल गए थे
उसे पंडों, लुटेरों, दलालों,
गंगा और माणिकर्णिका को सौंप

अभी कुछ दिन पहले की बात है
पटना जाते हुए रास्ते में
उसका रेलवे स्टेशन मिला था
बिल्कुल सुबह साढ़े पांच का वक्त
बनारस जाग रहा था
उसके ऊपर का कुहरीला आवरण
धीरे-धीरे खींच रहा था सूरज

स्टेशन की उस गहमागहमी में
मैंने एक अधेड़ को निर्लिप्त पेशाब करते देखा
यह जान रहिए
कि वह प्लेटफार्म पर खड़े होकर
पटरियों पर पेशाब नहीं कर रहा था
चलते-चलते सहसा रुका
और प्लेटफार्म पर पेशाब करने लगा

मुझे वह अजीब लगा
मुझे बनारस ही अजीब-सा लगा
गंदा, अराजक, अव्यवस्थित और दंभी
स्टेशन की खिड़की से मैंने बनारस को देखा
और मुझे दहशत हुई
इसलिए
मैं बनारस कभी नहीं गया।

भारतीय इतिहास लेखन मार्क्सवादी नहीं, राष्ट्रवादी है




सुधीर चंद्र उन इतिहासकारों में हैं जिन्होंने भारतीय इतिहास के अध्ययन को एक नयी दिशा दी है। 'जन विकल्प` के सहयोगी वसंत त्रिपाठी ने उनसे यह साक्षात्कार २००३ में किया था। तब दिल्ली में भाजपा सरकार थी। यह बातचीत आज भी प्रासंगिक है।


इतिहासकार सुधीर चन्द्र से वसंत त्रिपाठी की बातचीत


हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जिसमें इतिहास के अंत की घोषणा एवं इतिहास के पुनर्लेखन की मांग साथ-साथ है। बतौर इतिहासकार आप इस अंतर्विरोधी समय को किस रूप में लेते हैं?

सुधीर चंद्र : 'इतिहास के अंत` की बात मैं गंभीरतापूर्वक नहीं लेता हूं, हां इतिहास के पुनर्लेखन का मुद्दा, जाहिर है, आज की परिस्थिति में बहुत अहम् हो गया है, लेकिन यह भी कोई नया मुद्दा नहीं है। हर पीढ़ी अपना इतिहास नए सिरे से देखना और रचना चाहती है। आज जो परेशानी हो रही है वह यह है कि जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियां हमारे यहां व्याप्त हंै, जिस तरह से हिन्दुत्व जोर पकड़ रहा है और जो सरकार दिल्ली में है, वह कोशिश कर रही है कि एक ऐसा इतिहास लिखा जाए जो उनके नज़रिये को पुष्ट करे उसे मैं ज्यादा सीरियस और विकट मानता हूं। 'अंत` की बात छोड़ दीजिए, उसमें कोई जान नहीं है।

मुझे भरत झुनझुनवाला, जो मुक्त आर्थिक नीति और वर्ण-व्यवस्था के समर्थक हैं, का एक लेख याद आ रहा है जिसमें उन्होंने कहा है कि भारत का पूरा इतिहास-लेखन केवल मार्क्सवादी इतिहास लेखन है, इसलिए वह एकांगी है। क्या आप भी भारतीय इतिहास लेखन को केवल मार्क्सवादी इतिहास-लेखन मानते हैं या इतिहास की सही-समझ?

सुधीर चंद्र : मैं बहुत पढ़ा-लिखा आदमी नहीं हूं और 'कन्फेस` करूं कि मैंने भरत झुनझुनवाला का नाम पहली बार सुना है। लेकिन आपने जो वर्णन किया है वह खासा दिलचस्प है क्योंकि मुक्त आर्थिक नीति का हिमायती वर्ण-व्यवस्था का भी हिमायती हो यह तो भयंकर आंतरिक विरोध है। यह कौन-सी सोच है जो दुनिया की अर्थ-व्यवस्था के लिए तो फ्रीडम चाहती है लेकिन आपके अपने सामाजिक ढांचे की बात हो तो उसमंे किसी तरह की मुक्ति नहीं स्वीकारती। मुझे यहीं थोड़ा शक हो रहा है इन महोदय पर।
भरत झुनझुनवाला अपने लेखों में धर्म और वर्ण को आज के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण मानते हैं और फिर मुक्त आर्थिक नीति का भी समर्थन करते हैं।

सुधीर चंद्र : हां, लेकिन देखिए कि वर्ण-व्यवस्था क्या है? यही, कि जो जिस वर्ण मंे पैदा हुआ उसे उसी वर्ण में रहना है और जो मुक्त अर्थ-व्यवस्था है वह यह नहीं कहती है कि जो जिस वर्ग में पैदा हुआ है, उसी में रहेगा या जो जिस वर्ण में पैदा हुआ उसी में रहेगा।

लेकिन दोनों ही स्थितियों में हित तो लगभग एक ही वर्ग का होता है?

सुधीर चंद्र : कैसे?

मुक्त आर्थिक व्यवस्था को ही लें। इसमें यह कितनी संभावना बनती है कि एक मजदूर या एक किसान, एक बड़ा उद्योगपति बन जाए?

सुधीर चंद्र : मैं यही बात तो कह रहा हूं। मुझे जो विडंबना लग रही है, वह यही है कि मजदूर तो बड़ा-व्यापारी हो सकता है, बड़ा 'इंडस्ट्रीयलिस्ट` हो सकता है, शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकता। इसमें विडंबना तो है और इसमें जो विरोध है मैं उस विरोध की बात कर रहा हूं कि आप मुक्त आर्थिक व्यवस्था के हिमायती हैं तो यह केवल आर्थिक ही क्यों हो, सामाजिक क्यों न हो, राजनीतिक क्यों न हो। खैर, ये तो उनका फैसला है और आप भी तय कर सकते हैं कि दोनों में कोई अंतर्विरोध है या नहीं। लेकिन आपका जो मुख्य सवाल है कि इतिहास-लेखन पर सिर्फ मार्क्सवादी हावी रहे हैं, तो मेरी परेशानी दूसरी है। और वह यह है कि पिछले ६०-७० सालों से, अगर ज्यादा नहीं तो, (भारतीय इतिहास-लेखन) पर जो चीज हावी रही है, वह राष्ट्रवाद है। तो हमारा जो इतिहास-लेखन है, वह राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन रहा है। और एक अर्से से, जिन्हे हम मार्क्सवादी इतिहास लेखन मानते हैं, मसलन, मैं एक ही नाम लूंगा-विपिन चंद्र। चूंकि उनका काफी बड़ा नाम है, उनको मार्क्सवादी इतिहासकार माना जाता है। मैं अक्सर अपने से सवाल पूछता हूं और औरों से भी कि मार्क्सवादी इतिहासकार कौन होता है? वो जो घोषणा करे कि मेरी विचारधारा मार्क्सवादी है, कि मैं पार्टी का कार्ड-होल्डर हूं, और उनका इतिहास-लेखन सिर्फ इसलिए मार्क्सवादी इतिहास लेखन होगा कि वो कोई कार्ड-होल्डर है या उसने घोषणा की है कि वह मार्क्सवादी है या तब वह मार्क्सवादी इतिहासकार होगा जब वह मार्क्सवादी इतिहास-लेखन के सिद्धांतों को अपने इतिहास लेखन में लागू करेगा। यदि सिर्फ विपिन चंद्र की ही बात करें तो उनके 'राइज़ एण्ड ग्रोथ ऑफ इकोनोमिक नेशनलिज्म` में, जिसको लेकर उनका इतना नाम हुआ है और बाद का लेखन भी, उसमें वर्ग-संघर्ष है ही नहीं। हिन्दुस्तान में राष्ट्रवाद जिस तरह से पनपा और विकसित हुआ अगर आप उस राष्ट्रवाद में भारतीय समाज के निहित स्वार्थ की टकराहट नहीं देखते कि किस तरह से जमींदार या उद्योगपति या पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय तबके के निहित स्वार्थों को पूरा किया राष्ट्रवाद ने, या जो दलित, गरीब या दमित लोग हैं, उनके हितों की अनदेखी की राष्ट्रवाद ने, अगर इस बड़े वर्ग-संघर्ष को राष्ट्रवाद के आदर्श या राष्ट्रवाद की विचारधारा के नाम पर भुला दिया जाए तो मार्क्सवादी इतिहास-लेखन तो नहीं होगा। तो मेरी परेशानी यह है, और मेरी बड़ी आलोचना है भारतीय इतिहास-लेखन को लेकर कि वह प्राय: राष्ट्रवादी रहा है। मैं तो चाहता हूं कि मार्क्सवादी होता फिर उससे टकराहट होती। लेकिन कहां है मार्क्सवादी।

लेकिन यदि सुमित सरकार के इतिहास लेखन को लें, खास कर 'आधुनिक भारत` को, तो उसमें उन्होंने वर्ग-संघर्ष के बहुत प्रारंभिक स्वरूप को दिखाया है, क्या आप उन्हें भी राष्ट्रवादी इतिहासकार ही कहेंगे?

सुधीर चंद्र : आपकी बात सही है, सुमित सरकार ने वर्ग-संघर्ष को एक हद तक अपने इतिहास लेखन में लिया है लेकिन सुमित सरकार पर भी राष्ट्रवाद का आदर्श हावी है और सुमित सरकार जिस तरह से इस समय 'सबाल्टर्न हिस्टीरियोग्राफी` की आलोचना कर रहे हैं, वह इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। सबाल्टर्न हिस्टीरियोग्राफी ने एक बड़ा काम यह किया कि जिनको वे 'फ्रेंगमेंट्स` कहते हैं टुकड़े समाज के, आप टुकड़ों को महत्वपूर्ण मानें। ऐसा नही है कि समष्टि के नाम पर जो कुछ होता है वह अच्छा और सही होता है। सबार्ल्टन हिस्टीरियोग्राफी के ऊपर एक बड़ा चार्ज यह लगता है कि ये राष्ट्रवाद को नहीं मानते, इसलिए इनके इतिहास को गंभीरता से लिया जाए तो एक दिन देश के टुकड़े हो जाएंगे। मैं खुद सबाल्टर्न हिस्टीरियोग्राफी का सदस्य नहीं हूं अपना स्वतंत्र लेखन और शोध करता हूं लेकिन मुझे यह बहुत जरूरी लगता है कि राष्ट्रवाद की विचारधारा को लेखक 'क्वोश्चन` करना सीखे क्योंकि इतिहासकार का फलक दस या बीस साल का नहीं बल्कि सदियों का होता है और अगर सदियों का हिसाब लगाएं तो राष्ट्र आने-जाने वाली माया है। आज राष्ट्र है, कल होगा या नहीं इसका कोई भरोसा नहीं है। यदि हम यह मान लें कि यही एक इकाई है जिसके संदर्भ में हमें अपने समाज और देश के इतिहास को समझना है तो मेरे हिसाब से यह सही नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि देश के टुकड़े हो जाएं तो मुझे बड़ी खुशी होगी। ये तो, जो ऐतिहासिक शक्तियां हैं तथा हमारा नेतृत्व कितना विवेकपूर्ण है इस पर निर्भर करेगा। लेकिन यह मानकर न चलें कि ये शाश्वत है। कोई राष्ट्र न शाश्वत था और न शाश्वत होगा।

मुझे बहुवचन में छपा आपका एक लेख याद आ रहा है जिसमें आपने अपना धर्म परिर्वतन करने वाले कुछ ईसाइयों पर काम किया है। आपने उसमें बताया है आजादी के आंदोलन के समय धर्म और राष्ट्रवाद दो अलग-अलग कोटियां थीं। लेकिन इधर चलकर धर्म और राष्ट्रवाद एक कोटि बन गए हैं। इसकी क्या वजह है?

सुधीर चंद्र : धर्म और राष्ट्रवाद की बात है तो देखिये ये कितनी बड़ी विडंबना है कि हिन्दुत्व का जो प्रणेता था वह नास्तिक था और इसी विडंबना को आप आगे बढ़ाएं तो पाकिस्तान को बनाने में जिस एक व्यक्ति का सबसे ज्यादा योगदान था उसका भी इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं था तो क्या वास्तव में एक हो रहे हैं या कोई और ही खेल हो रहा है यहां धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर। अगर आप उनसे पूछें तो वह यह भी कह देंगें कि हम धर्म की बात नहीं कर रहे। तब वे हिन्दुस्तान को 'हिन्दुस्थान` कह कर एक नई व्याख्या कर देंगे। यानि सुविधानुसार कभी धर्म और राष्ट्र एक हो जाते हैं और कभी असुविधा होने पर अलग हो जाते हैं। लेकिन जिन नवधर्मी ईसाइयों की मैं बात कर रहा था, उसमें जो महत्वपूर्ण मुद्दा है वह न सिर्फ धर्म और राष्ट्र के अंतर्संबंध का है बल्कि धर्म और संस्कृति के संबंध का भी है। अपने देश में धर्म और संस्कृति कुछ इस तरह से अंतर्गुंफित है कि इसको अलग नहीं किया जा सकता, पैदा होने से लेकर मौत तक सभी क्रियाकलापों में आप इसे देख सकते हैं चाहे इसे आप सांस्कृतिक कहें, सामाजिक कहें या धार्मिक। तो जहां धर्म और संस्कृति बिल्कुल मिश्रित हो गए हों वहां इन नवधर्मियों ने एक बड़ी बात कही कि हम हिन्दूधर्म छोड़ रहे हैं लेकिन अपनी संस्कृति नहीं। धर्म और संस्कृति का इतना सोच समझ कर विच्छेद करने वाले ये पहले लोग थे और दूसरा महत्वपूर्ण काम इनका यह है कि इन्होंने धर्म और राष्ट्रवाद को भी इसी तरह से स्पष्ट किया कि जरूरी नहीं कि एक ही धर्म को मानने वाले लोग राष्ट्रवादी हो सकते हैं या जिसे आप विदेशी धर्म कहते हैं उसको मानने वाले लोग राष्ट्रवादी नहीं हो सकते। उन्होंने कहा कि हम भारतीय हैं, हम हिन्दू नहीं हैं, हम ईसाई हैं और राष्ट्रवाद के मामले में किसी भी भारतीय से पीछे नहीं हैं तो धर्म, संस्कृति और राष्ट्र के बीच एक नया संबंध स्थापित होता है, जिसकी पहल इन्होंने की।

कुछ इतिहासकारों ने अंग्रेजों के आने से पहले के भारत को एक सुदृढ़ भारत के रूप में देखा है। हो सकता है कुछ हद तक यह सही हो लेकिन वे भारत के तमाम अंतर्विरोधों को नकार देते हैं या चुप्पी साध लेते हैं। तो क्या वास्तव में अंग्रेजों के पहले का भारत सुदृढ़ भारत था या यह भी उन इतिहासकारों की राष्ट्रवादी सोच है?


सुधीर चंद्र : सुदृढ़ तो नहीं था। जब एक बार मुगल साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया तो क्षेत्रीय शक्तियां उभर कर आइंर् और उन क्षेत्रीय शक्तियों में कोई संतुलन नहीं बैठ पाया। संभव है कि उनमें संतुलन बैठता। ये भी संभव है कि उनमें से कोई एक शक्ति सर्वशक्तिमान होकर पूरे देश पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेती लेकिन इससे पहले ही विदेशी शक्तियों का आगमन हो गया और उन विदेशी शक्तियों में अंग्रेज सबसे शक्तिशाली साबित हुए और उन्होंने अपना राज कायम कर लिया। तो मैं सुदृढ़ होने की बात तो नहीं कहूंगा।

लेकिन उन इतिहासकारों के विश्लेषण में जाति को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है और कहा जाता है कि अंग्रेजों ने ही जाति लिखने की परंपरा डाली जिसके कारण जाति-संघर्ष बढ़े उनसे पहले यह विस्फोटक रूप में नहीं था..

सुधीर चंद्र : नहीं-नहीं.. मैं यह जानता हूं कि काफी लोगों का मानना है कि अंग्रेजों ने जिस तरह से क्लासिफिकेशन करना शुरू किया और खास तरह से जनगणना में जाति को महत्वपूर्ण स्थान देना शुरू किया.. यह भी कहा जाता है कि अंग्रेजों के आने के बाद ही लोगों ने जाति-सूचक नाम अपने नाम के साथ जोड़ना शुरू किया, उससे पहले नहीं जोड़े जाते थे.. इन सबके बावजूद मेरा मानना है कि जाति तो थी और खासी मज़बूत थी और इतनी मज़बूत थी कि तब आपको अपनी जाति का नाम लगाने की भी ज़रूरत महसूस नहीं होती थी। उसके बगैर भी लोग जान लेते थे कि कौन किस जाति का हैै। यह संभव है कि अंग्रेजों के आने के बाद यह प्रवृति थोड़ा जोर पकड़ी होगी।
यदि आधुनिक साहित्य को देखें तो वह वैदिक परंपरा के इतिहास और मिथक से जिस तत्परता से जुड़ जाता है उतना अवैदिक परंपरा के इतिहास और मिथक से नहींं। उसमें समस्याएं कौन-सी उठाई गई हैं यह थोड़ी देर के लिए छोड़ दें तो क्या इसके पीछे साहित्यकार के अवचेतन में वैदिक परंपरा की स्वीकारोक्ति तो नहीं है? क्योंकि आप जानते हैं कि दलित साहित्य की एक प्रमुख आपत्ति इसी को लेकर है।
इस विषय पर मैंने ज्यादा मनन नहीं किया है लेकिन मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है, खासकर तब जब आप इसे दलितों से जोड़ देते हैं और यह जायज है। मैं बस इतना इशारा करना चाहूंगा कि १९वीं सदी के जिन नवधर्मी ईसाइयों की बात मैं कर रहा था उन्होंने अपने अतीत (भारतीय अतीत) को जब नए सिरे से समझने की कोशिश की तो उसमें बौद्ध धर्म पर उनका बहुत बल था और साथ ही संत साहित्य पर भी बहुत बल था। मसलन बंगाल में, जहां यह सिलसिला शुरू हुआ, लाल बिहारी हैं, जो १८४० में ईसाई बने, ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण और सशक्त पत्रिका निकालनी शुरू कि 'बंगाल मैगजीन` और उन्होंने नए तरह से भारतीय इतिहास लेखन का प्रयास शुरू किया, स्वयं भी और दूसरों के मार्फत भी। उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य, इतिहास और दर्शन पर लोगों से अपनी पत्रिका के लिए लिखवाया। प्राचीन भारतीय धर्मों में दो बड़ी धाराएं इनके उस पुनर्लेखन में आई-एक बौद्ध धर्म और दूसरा चैतन्य। चैतन्य के बाबत तो इनके इतिहास में यह था कि चैतन्य ने हिन्दू धर्म के खिलाफ बगाव़त की थी, लेकिन चैतन्य के जो अनुयायी थे वे अंततोगत्वा 'को-ऑप्ट` हो गए और वे चैतन्य को भूल गए। मैं इस बात पर इसलिए बल दे रहा हूं उन्होंने बौद्ध और जैन से जो मुक्तिवाले तत्व मिल सकते थे उन्हें तो लिया ही, यदि हिन्दू धर्म में भी कुछ गुंजाइश दिखती थी तो उसे भी लेते थे। ये लगभग १९वीं सदी के अंतिम दशक तक दिखाई पड़ता है। उसके बाद हिन्दू धर्म और संस्कृति का ऐसा बोल-बाला हो जाता है कि यह धारा सूख जाती है। यह केवल नवधर्मी ईसाइयों तक ही सीमित नहीं रहा। उन्नीसवीं सदी के कुछ प्रखर, धार्मिक और सामाजिक सुधार से जुड़े सुधारकों ने भी संत परंपरा के कुछ रेडिकल रूप को उजागर करने की कोशिश की।

संत साहित्य की बात हो रही है तो एक बात और, जब साहित्यकार या आलोचक मिथकों को लेता है तो उसके सकारात्मक पक्षों की बात करता है, उसके अंतर्विरोधों की बात नहीं करता और यदि पाठक उसके अंतर्विरोधों को जान रहा हो तो उस पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। जैसे भक्तिकाल के रामानुजाचार्य को लें जिनको भक्तिकाल का प्रवर्तक माना जाता है। कहा जाता है कि रामानुज ने दक्षिण में जैनों के दमन में अग्रणी भूमिका निभाई। अब यदि पाठक रामानुज के इस रूप को जान रहा है तो वह भक्तिकाल या संत साहित्य से कैसे जुड़ सकेगा? यदि दलित को मालूम है कि उसके खिलाफ लड़ने वाले व्यक्ति को प्रोजेक्ट किया जा रहा है तो वह साहित्य की उस धारा से कैसे जुड़ सकेगा?


सुधीर चंद्र : देखिए जिसे मालूम है वह तो बड़ी आसानी से अलग हो जाएगा। लेकिन इसमें सिर्फ मालूमात का ही महत्व नहीं होता। आपने मिथकों की बात की, वह महत्वपूर्ण है। अक्सर इसमें लड़ाई किसी दूसरे स्तर की होती है। वहां यह नहीं है कि आप तथ्य का मुकाबला तथ्य से कर सकते हैं। फिर वह मिथक की बात नहीं होती। फिर आपकी मान्यता ज्यादा प्रभावशाली हो जाती है। अगर ये बात चल गई और एक ने भी चला दी और चूंकि यही सही कि उसको मान लिया जाए तो वह चला जाएगा और उसे चलना चाहिए।

इधर उपन्यासों में सीधे इतिहास को कथ्य बनाने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ रही है जैसे-'पहला गिरमिटिया`,'कितने पाकिस्तान` या और भी। यदि साहित्य में सीधे इतिहास को कथ्य बनाया जाए तो साहित्यकार को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?


सुधीर चंद्र : देखिए, मेरा मानना तो यह है कि जो साहित्य और इतिहास का वर्गीकरण होता है उसका कोई सबल आधार नहीं है। यह एक प्रोटोकॉल है। जैसे परंपरा चली आ रही है कि आप एक चीज़ को साहित्य कह देते हैं और दूसरे को इतिहास। विधाओं का यह जो वर्गीकरण है उसमें काफी मनन और चिंतन की गुंजाइश है। मैं तो चाहूंगा कि इतिहासकार ही साहित्यकार हो लेकिन अगर साहित्यकार इतिहास में जाता है तो उसे कुछ तो उससे भिन्न करना होगाा जो पारंपरिक रूप से इतिहासकार करते रहे हैं। मैं फिर से कहूं कि आदर्श स्थिति तो वह होगी जिसमें इतिहासकार और साहित्यकार मिलकर कुछ ऐसा करें कि वह काल अथवा वह व्यक्ति जीवन्त बनके मुखरित हो, जिसके बारे में आपने लिखने का फैसला किया है जिसे समझने का आपने फैसला किया है। तो 'पहला गिरमिटिया` यदि सिर्फ पारंपरिक इतिहास की पुस्तक बन कर रह जाती है तो उसे उपन्यास का नाम ही क्यों दिया जाए? फिर फर्क सिर्फ इतना हो जाता है कि गिरिराज जी पेशे से उपन्यासकार हैं और कोई दूसरा पेशे से इतिहासकार। तो जो बात मैं मार्क्सवादियों के इतिहास की कर रहा था वैसी ही बात हो गई कि यह उपन्यास कैसे हो गया? केवल इसलिए कि इसे लिखने वाला उपन्यासकार है। तो कहीं कोई फर्क आएगा और वह फर्क मैं इस तरह प्रकट करना चाहूंगा, अगर आपको आपत्ति न हो तो, कि इतिहासकार कुछ विवश हो जाता है अपने पेशे के प्रोटोकॉल के चक्कर में कि जो लोगों के असल नाम हैं, उनका इस्तेमाल करे। उपन्यासकार पर ऐसी कोई पाबन्दी नहीं रहती।