October 4, 2007

अंधविश्वास का पुल


सेतु समुद्रम् परियोजना



  • मुसाफिर बैठा


भारतीय संविधान में उल्लिखित नागरिकों के दस मूल कर्तव्यों में से एक कहता है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे। इस सामान्य से लगते क्रांतिकारी प्रावधान पर यदि हर नागरिक अमल कर ले तो हमारा समाज कूढ़मग्ज़ से वैज्ञानिक मन हो जाएगा। किन्तु इस वैज्ञानिक-तार्किक समय में हमारे देश की धर्म भावना का बढ़ता आलोड़न तो उलट सत्य ही सामने रखता है। देवघर (बाबाधाम!) में श्रद्धालुओं की उमड़ी रिकार्ड तोड़ भीड़ सदृश अनेक अवैज्ञानिक अंधविश्वासी घटनाएं और जोर पकड़ रही हैं जो हमारे संविधान की भावना को मुंह चिढ़ाती हैं। अपने देश में आज नए सिरे से आस्थावादी लोग बुद्धि, विवेक, तर्क, विज्ञान भैतिक यथार्थ आदि का निषेध कर समाजिक जड़ता व यथास्थितिवाद के पोषण का अभियान चला रहे हैं। 'राम सेतु` (आदम का पुल व नल सेतु नाम भी प्रचलित) का हालिया धार्मिक बखेड़ा भी एक ऐसा ही बुद्धि-विवेक हरण करने वाला खेल है। आइए, इस प्रसंग को विस्तार से देखें और विवेकवादी नजरिए से खंगालें।
भारत सरकार इन दिनों तमिलनाडु के रामेश्वर के तटवर्ती क्षेत्र में एक महत्वाकांक्षी परियोजना 'सेतु समुद्रम् शिपिंग कैनाल प्रोजेक्ट` (प्रचलित नाम 'सेतु समुद्रम् परियोजना` ) पर काम कर रही है। इस परियोजना को पूरा करने के क्रम में 'राम सेतु` नामक समुद्री ढंाचे को आंशिक रूप से तोड़ना पड़ेगा। परियोजना के पूरा होने के बाद पश्चिमी समुद्र तट और बंगाल की खाड़ी के बीच सीधा जलपोत परिवहन मार्ग खुल जाएगा। वर्तमान में जलपोत लगभग ६५० कि.मी. (३५० समुद्री मील) की लंबी दूरी तय करते हुए श्रीलंका का चक्कर लगा कर ही पश्चिमी तट से बंगाल की खाड़ी तक आवाजाही कर पाते हैं। नया रास्ता खुल जाने से यह दूरी कोई ४०० कि.मी घट जाएगी। फलस्वरूप, समुद्र तटीय प्रदेशों, खासकर तमिलनाडु को व्यापक आर्थिक व औद्योगिक लाभ मिलने की संभावना है। लेकिन इस परियोजना के पूर्ण होने में एक अड़चन आ खड़ी हुई है। उस क्षेत्र में अवस्थित 'राम सेतु` नाम से अभिहित जलसेतु नुमा ढांचे को अक्षुण्ण रखने, क्षतिग्रस्त नहीं करने के प्रश्न पर कुछ हिंदू धार्मिक संगठन, साधु-संत एवं न्यस्त स्वार्थ वाले कथित पर्यावरण प्रेमी आंदोलन की मुद्रा में हैं। विरोध हिंदू आराध्य राम के नाम पर ही है। यह विरोध दक्षिण से शुरू हुआ और अब वाराणसी एवं अयोध्या जैसे उत्तर भारतीय धर्मपीड़ित नगरों में पसर रहा है।

परियोजना पर गर्भ विचार १८६० के औपनिवेशिक भारत में ही 'इंडियन मैरिन्स` कमांडर के ए.डी.टायर ने दिया था। वैसे परियोजना पर सरकारी विचारों की सुगबुगाहट गुलाम और स्वतंत्र भारत में होती रही है, पर निर्णायक घड़ी पिछली केंद्र सरकार के समय आई। पिछली भाजपा नीत 'धार्मिक` सरकार के समय में इस परियोजना को मंजूरी मिली और मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा ०२ जुलाई, २००५ को इसमें विधवत् हाथ लगा। इस मुद्दे पर भाजपा के हाथ बंधे रहने के कारण ज्यादा बवाल नहीं हो पा रहा है, वरना, यह मुद्दा भी अयोध्या के कलंकित रामजन्मभूमि आंदोलन (जिसकी परिणति व्यापक अल्पसंख्यक नरसंहार में हुई) की तरह ही राजनीतिक जामा पहन लेता। वैसे, कुछ धर्म संगठन 'रामकर्मभूमि आंदोलन` नाम से इसे उछालने की कोशिश तो कर ही रहे हैं।
सेतु निर्माण के पक्ष-विपक्ष पर बात करें तो इस परियोजना से कोई चिंताजनक पर्यावरणीय अथवा पारिस्थितिकीय क्षति की संभावना नहीं बनती। जो निजी पर्यावरण संगठन या पर्यावरण हितैषी इस परियोजना के विरोध में खड़े हो रहे हैं, उनकी सदिच्छा संदिग्ध है। अमेरिकी अंतरिक्ष संस्था 'नासा` के सैटेलाइट आधारित वर्ष २००३ में जारी कथित 'रामसेतु` के जिन चित्रों के आधार पर रामनामी संत-महंत व भक्तजन उछल-कूद मचा रहे हैं, उनके लिए 'नासा` का टटका स्पष्टीकरण मूर्च्छा लाने वाला है। उसने अपने उपग्रह-चित्रों एवं उसके अध्ययनों से इस सेतु के मानव निर्मित ढांचा होने को एकदम से नकार दिया है। 'समुद्र सेतु निगम` ने २६ जुलाई, २००७ को 'नासा` भेजे अपने 'ई-मेल` में यह स्पष्ट करने को कहा था कि यह ढांचा मानव निर्मित है या नहीं। मालूम हो कि पुरातात्विकों एवं भूगर्भवेत्ताओं के मुताबिक प्रशनगत 'रामसेतु` दरअसल चूने के पत्थरों के ढूहों या टीलों (Shoals) की एक श्रृंखला है जो श्रीलंका के निकटवर्ती मन्नार के द्वीप समूहों तथा रामेश्वरम् तट के बीच की ४८ कि.मी. की लंबाई मंे फैली हुई है।

महाभारत, वाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस जैसे पौराणिक धार्मिक ग्रंथों की शरण गहने पर हमें जितना मुंह उतनी बातें मिलती हंै। इनके हवाले से उठाए गए तथ्यों की धैर्यपरक वस्तुनिष्ठ छानबीन करने से 'रामसेतु` के आस्तित्व को पचाना मुश्किल है। इस सेतु के आकार-प्रकार व उम्र के संबंध में प्रदत्त विरोधाभासी सूचनाओं में छत्तीस का आंकड़ा है। राम के जन्मकाल और कथित सेतु की आयु के आधार पर भी यही सिद्ध होता है कि राम ने इसका निर्माण नहीं कराया था।

विवादित सेतु की पहचान उसकी वर्तमान भौगोलिक स्थिति एवं संरचना को देखते हुए पौराणिक ग्रंथों में वर्णित सेतु से कतई नहीं की जा सकती। अगर हम मान भी लें कि यह सेतु कतिपय मानवों व बंदर-भालुओं जैसे सांसारिक जीवों द्वारा कथित त्रेता युगीन राम की देखरेख में बनाया गया तो भी यह कौन विवेकवान चित्त इस तथ्य को स्वीकार करेगा कि करोड़ों वर्ष पूर्व की राम की यह निर्मित्ति, जो चूने के पत्थरों की है, आज भी आस्तित्ववान है और वहां की भौगोलिक स्थितियां भी जस की तस हैं!

श्रीलंका की ओर से 'राम सेतु` पर कोई ऐतिहासिक जानकारी अनुपलब्ध है, वहां 'राम कथा` के प्रचलन के किसी श्रोत का भी अता-पता नहीं मिलता। अलबत्ता, मौजूदा विवादित सेतु समुद्रम् परियोजना पर जरूर प्रतिक्रिया मिलती है जिसका उन्मादी रामभक्ति से कोई लेना-देना नहीं है।'अब सेतु के सहारे` (दैनिक 'हिन्दुस्तान`, वाराणसी, दिनांक ०६ अप्रैल, ०७) शीर्षक लेख के अनुसार इस परियोजना का सबसे पहला विरोध भारत में नहीं बल्कि श्रीलंका के तमिल उग्रवादियों द्वारा किया गया। व्यापक समुद्री परिवहन सुविधा होने पर इन उग्रपंथियों को अपनी गतिविधियां फैलाने में खतरे की आशंका है, अत: वे इसका विरोध कर रहे हैं। श्रीलंका की सरकार और वहां की गैरतमिल आबादी (खासकर बहुसंख्यक सिंहली) की ओर से इस परियोजना पर कोई विरोध नहीं आना भी उनकी राम विषयक निस्संगता को प्रदर्शित करता है। बहरहाल, समय आ गया है कि इस जैसे अंधविश्वास व राजनीतिक स्वार्थों पर पलने वाले अन्य मामलों में भी, हम विज्ञान के आईने में अपने पुराख्यालों के तंग रेशों को खुरचकर विवेकसंगत सोच अपनाएं ताकि वैज्ञानिक विकास के मार्ग में बाधक न बनें अंधविश्वासी आस्थाओं के पुल।

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