July 23, 2007

पंकज पराशर


अमेरिकी हित बैंक



पने तानाशाही रवैये और कई तरह के आरोपों के कारण विश्व बैंक के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति के समय से ही पॉल वुल्फोवित्ज विवादों में रहे हैं। अपनी कार्यशैली की वजह से बैंक अधिकारियों से भी उनकी कभी नहीं बनी। आरोपों को उन्होंने जैसे अलंकार की तरह धारण कर लिया था और प्रशासन चलाने का उनका अंदाज किसी देश के तानाशाह-शासक की तरह था। वुल्फोवित्ज ने विश्व बैंक में कार्यरत अपनी प्रेमिका शाहा रिजा का न केवल मनमाने ढंग से वेतन बढ़ा दिया था बल्कि प्रोन्नति के मामले में भी सारे नियम-कानून और परंपराओं को ताक पर रख दिया था। हद तो यह है कि इस्तीफे की घोषणा के बाद उन्होंने संवाददाताओं को संबोधित करते हुए कहा कि रिजा की वेतन वृद्धि के मामले में उनसे कुछ गलतियां हुई हैं लेकिन जो कुछ उन्होंने किया था वह अच्छी भावना से ही किया था। इसके पीछे उनकी कोई चालबाजी नहीं थी। अपना इस्तीफा देेने का कारण भी उन्होंने विश्व बैंक के हित को बताया न कि यह कि उनके कार्यकाल में विश्व बैंक दरअसल 'अमेरिकी हित बैंक` बनकर रह गया था-भ्रष्टाचार के इतने आरोपों के अलावा।

वुल्फोवित्ज की २००५ में विश्व बैंक में नियुक्ति के समय ही यूरोपीय संघ के कुछ वित्त मंत्रियों ने इस नियुक्ति पर गंभीर चिंता जाहिर की थी लेकिन अमेरिका समर्थक मीडिया ने यूरोपीय संघ के वित्त मंत्रियों की चिंता को खबर के लायक नहीं माना। नतीजा आज सामने है और इस नतीजे को देखकर आज जो पूंजी समर्थित मीडिया इसमें गर्मा-गर्म खबर की तलाश कर रहा है उसने ही उस वक्त उन वित्त मंत्रियों के इस आग्रह को अपना समर्थन नहीं दिया था कि वे वुल्फोवित्ज की नियुक्ति से पहले उनसे एक बार मुलाकात करना चाहेंगे। ब्रिटेन के विकास मामलों के मंत्री हिलेरी बैन ने इस पूरे घटनाचक्र पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि इस घटना ने बैंक को काफी नुकसान पहुंचाया है। जर्मनी के विकास मंत्री हाइडमारी विजोरेक जील ने भी कहा कि पॉल वुल्फोवित्ज को स्वयं से ही यह पूछना चाहिए कि उन्होंने अपने अड़ियल रवैये के कारण बैंक को कितना नुकसान पहुंचाया है। इराक के युद्ध के प्रबल पैरोकार पॉल वुल्फोवित्ज व्हाइट हाउस के वफादार नेताओं में से रहे हैं और वे अमेरिका के रक्षा उपमंत्री भी रह चुके हैं। विश्व बैंक में नियुक्ति से पहले वुल्फोवित्ज की छवि एक आक्रामक और स्वामीभक्त की रही है और उनकी नियुक्ति भी अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के द्वारा नामांकन करने के बाद हुई थी। गौरतलब है कि विश्व बैंक का अध्यक्ष सामान्य तौर पर अमेरिका का उम्मीदवार ही होता आया है और इस बैंक में 'वर्ल्ड` केवल संज्ञा भर है।
वर्ल्ड बैंक के (अ) भूतपूर्व अध्यक्ष वुल्फोवित्ज के कारनामे से विश्व बैंक की छवि इतनी खराब हो गई थी कि जो विश्व बैंक दुनिया भर में भ्रष्टाचार से निबटने की बातें करता था वह खुद इसमें आकंठ संलिप्त था। जब वे अध्यक्ष बने थे तो अपनी कड़क और तानाशाही छवि को स्थापित करने के लिए उन्होंने कई देशों को दी जाने वाली सहायता राशि रोक दी। मगर शाहा रिजा के वेतन के मामलेे में नियमों के खिलाफ जाकर उन्होंने फैसला लिया और हालत यह हो गई कि शाहा रिजा का वेतन अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलिजा राइज से भी अधिक हो गया। हालांकि हितों के टकराव को ध्यान में रखकर रिजा का तबादला विदेश मंत्रालय में कर दिया गया था लेकिन वह इस तबादले से कतई खुश नहीं थी और तरह-तरह से तिकड़म भिड़ा रही थी। इसके बाद वर्ल्ड बैंक स्टाफ एसोसिएशन की प्रतिनिधि एलिस केव ने अध्यक्ष पॉल वुल्फोवित्ज के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और उनके खिलाफ माहौल लगातार गर्म होता चला गया। स्टाफ एसोसिएशन के कड़े रूख के बाद उनकी सभी रणनीतियां असफल होने लगीं तब उनके पास अपने पद को छोड़ने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा।

गौरतलब है कि विश्व बैंक के सदस्य १८० से अधिक देश हैं। यूरोप के कई नेताओं ने भी वुल्फोवित्ज के तुरंत इस्तीफे की मांग की थी। इस्तीफे की वजह से वुल्फोवित्ज से अधिक परेशानी अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश को थी। क्योंकि बुश के प्रति इतना स्वामीभक्त विश्व बैंक में शायद ही कोई और आए। १९८९ से १९९३ तक वर्तमान राष्ट्रपति जार्ज बुश के पिता के कार्यकाल में भी वे रक्षा मामलों के अंडर सेक्रेटरी थे। वे आज के उपराष्ट्रपति डिक चेनी के साथ भी काम कर चुके हैं। वरिष्ठ बुश के प्रति वफादार वुल्फोवित्ज ने जूनियर बुश के प्रति भी अपनी वफादारी दिखाई है और बुश प्रशासन के सबसे अधिक आक्रामक नेताओं में से एक उन्हें माना जाता है। इराक युद्ध के बाद वैसे भी बुश की लोकप्रियता का ग्राफ विश्व में जितनी तेजी से गिरा है और अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचाने वाले चरमपंथी गुटों की गतिविधियां जिस तेजी से बढ़ी हैं वह भी उनकी चिंताओं का एक कारण है। इसलिए यह अकारण नहीं है कि व्हाइट हाउस ने पहले वुल्फोवित्ज का भारी समर्थन किया था, लेकिन जब विश्व बैंक सहित पूरी दुनिया में उनके खिलाफ रोष दिखा तो राष्ट्रपति बुश को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह कहना पड़ा कि उन्हें इस बात का बहुत अफसोस है कि विश्व बैंक में ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई।

ताजा मिली एक खबर के मुताबिक विश्व बैंक के निवर्तमान अध्यक्ष पॉल वुल्फोवित्ज के स्थान पर अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्लू बुश ने विश्व बैंक के अगले अध्यक्ष पद के लिए रोंबर्ट जोएलकि का चयन कर लिया है जिसकी औपचारिक घोषणा वे जल्दी ही कर देंगे। वुल्फोवित्ज हालांकि जून माह के अंत तक अध्यक्ष पद पर बने रहेंगे। रॉबर्ट जोएलिक का परिचय यह है कि वे अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रतिनिधि और उप विदेश मंत्री रह चुके हैं और विश्व व्यापार संगठन की दोहा दौर की वार्ता को आगे बढ़ाने में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई थी। इसके साथ ही सूडान में विद्रोही नेताओं के साथ समझौता कराने में भी मध्यस्थता के लिए उन्हें याद किया जाता है। उनके संबंध में यह जान लेना शायद सबसे जरूरी है कि जोएलिक इराक युद्ध की योजना बनाने वालों में से नहीं रहे हैं और बुल्फोवित्ज की तरह वे किसी विवाद में भी नहीं रहे हैं।

यह आरोप नया नहीं है कि विश्व बैंक ने धनी देशों के दवाब में या कहें खास तौर से अमेरिका के दवाब में न सिर्फ वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया है बल्कि गरीब देशों को ऋण के एवज में धनी देशों के उत्पाद के लिए अपने बाजारों को खोलने के लिए तरह-तरह से दवाब भी बनाया है। कहना न होगा कि वर्ल्ड बैंक की इस कार्यशैली के कारण बार-बार उस पर ऊंगली उठाई जाती है। वुल्फोवित्ज ने जिस तरह से एक साथ अपनी तानाशाही और प्रेम दोनों को एक साथ साधना चाहा वह तो उनसे सध नहीं पाया, अलबत्ता इतना जरूर हुआ कि सम्राट अष्टम एडवर्ड की तरह उनकी कुर्सी भी गई और प्रेमिका भी नाराज हो गई।

July 21, 2007

साक्षात्‍कार - गण‍पति


हम जनता की लामबंदी में यकीन रखते हैं - गणपति


आंध्रप्रदेश के माओवादी नेता गणपति राज्यसत्ता से निरंतर संघर्ष के लिए जाने जाते हैं। सीपीआई (माओवादी) की गुप्त कांग्रेस के आयोजन के बाद से वह चर्चा में हैं। इस कांग्रेस के फुटेज विभिन्न विदेशी समाचार चैनलों ने जारी किए थे। १९७८ से ही भूमिगत आंदोलन चला रहे गणपति सीधे साक्षात्कार के लिए उपलब्ध नहीं होते। उन्होंने अपना यह साक्षात्कार पत्र-पत्रिकाओं व टीवी चैनलों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के आधार पर खुद जारी किया है।-सं.,



हमने सुना, कि आपने ३७ सालों के अंतराल के बाद कांग्रेस की है। इतनी देरी क्यों?


गणपति : यह सही है कि हमने आठवीं कांग्रेस १९७० में की थी। लगभग ३७ सालों से कांग्रेस के न होने की वजह देश में क्रांतिकारी शक्तियों की स्थिति है। पिछली कांग्रेस के दो वर्षों बाद
आंदोलन को गंभीर झटका लगा, सर्वोच्च कमेटी-केंद्रीय कमेटी सदस्यों की शहादत, गिरफ्तारी और यहां तक कि एसएन सिंह जैसे सदस्यों की गद्दारी से, जिन्होंने वास्तव में १९७१ में खुद पार्टी में दरार डाल दी, बिखर-सी गयी। कामरेड चारु मजूमदार की शहादत के बाद केंद्रीय कमेटी अनेक गुटों में बंट गयी। मैं गुट (फैक्शंस) कह रहा हूं, क्योंकि वे सब सीपीआइ (एमएल) के हिस्सा थे। लंबे समय तक अलग समूहों के तौर पर उनके अस्तित्व ने समय के साथ उन्हें स्वतंत्र और पार्टियों के रूप में उनके कार्यक्रमों और कार्यनीति (टैक्टिक्स) के साथ अलग पहचान दी। इसके अलावा उन्होंने खुद अपने तरीके से अपने अतीत की आलोचनात्मक समीक्षा की। ऐसी परिस्थितियों ने एकता के आसार को कठिन बना दिया।

कुछ समूह सीधे डांगे और जोशी के पुराने रास्ते पर चलने लगे, हालांकि वे उनकी धारा का विरोधी होने का दावा करते थे, जैसा कि विनोद मिश्र के नेतृत्व में 'लिबरेशन` ग्रुप ने, जिसका पतन १९७० के दशक के गौरवमय संघर्ष के इतिहास के बाद १९८० के दशक की शुरुआत से ही शुरू हो गया था। यह कुछ ऐसा था कि उन्होंने सश संघर्ष (राज्य के खिलाफ) को स्थगित कर दिया, अनिश्चित तौर पर भविष्य के किसी भाग्यशाली दिन के लिए, इस दलील के साथ कि राज्य बहुत शक्तिशाली है और इसके साथ सश मोरचाबंदी अधिक समय और तैयारी की मांग करती है। अत: उन्होंने अपने को तथाकथित सश किसान प्रतिरोध या संघर्ष के सामंतविरोधी चरण (स्टेज) तक सीमित कर लिया। तब से आज तक इन समूहों ने राज्य के साथ सश मोरचाबंदी शुरू करने की तैयारियां पूरी नहीं की हैं। ये टीएन-डीवी, एनडी, सीपी रेड्डी आदि के विभिन्न गुटों जैसे दक्षिण अवसरवादी समूह थे। तब कुछ दूसरों ने सीपीआइ (एमएल) के असली कार्यक्रम को बनाये रखा, मगर अतीत की गलतियों के प्रति आलोचनात्मक नजरिया अपनाने से इनकार कर दिया। वे जड़तापूर्ण तरीके से अंतरराष्ट्रीय स्थितियों के अतिरेकपूर्ण मूल्यांकन और सब्जेक्टिव शक्ति जैसी वाम गलतियों के शिकार हुए, और दुश्मन की शक्ति को कम करके आंकते रहे, जिसके कारण वे कोई महत्वपूर्ण आंदोलन नहीं बना पाये। केवल कुछ पार्टियां सीपीआइ (एमएल) (पीडब्ल्यू) और सीपीआइ (एमएल) (पीयू) थीं, जिन्होंने आठवीं कांग्रेस की बुनियादी धारा को थामे रखा, अतीत की गलतियों और आंदोलन की कमियों के प्रति आत्मालोचनात्मक समीक्षा की और तब धारा को और समृद्ध किया, जनयुद्ध को और समृद्ध धारा पर आगे ले गयीं, और इसीलिए अपेक्षाकृत मजबूत आंदोलन, देश के विभिन्न भागों में, विकसित कर पायीं।

जबकि सीपीआइ (एमएल) की यह स्थिति थी, दूसरी तरफ एमसीसी कामरेड केसी, अमूल्य सेन और चंद्रशेखर के नेतृत्व में एक अलग पार्टी के रूप में विकसित हुई, जिसका कार्यक्रम सीपीआइ (एमएल) के लगभग समान था। दोनों पार्टियां एक पार्टी का हिस्सा हो सकती थीं, मगर ऐतिहासिक कारणों से यह कामरेड सीएम के समय नहीं हो पाया। बाद में जब सीपीआइ (एमएल) खुद १९७२ में टूट गयी, एकता भविष्य की चीज बन गयी। तब से कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों की एकता प्रत्येक क्रांतिकारी संगठन के एजेंडे में एक प्रमुख टास्क बन गया। इच्छा, जैसे कि एकता की ईमानदार इच्छा, बेशक एक महत्वपूर्ण कारक है, मगर जो निर्णायक चीजें हैं, वे हैं राजनीतिक लाइन और पार्टियों की प्रैक्टिस। अत: केवल १९८०-९० के दौरान, जब आंदोलन एमसीसी, सीपीआइ (एमएल) (पीडब्ल्यू) और सीपीआइ (एमएल) (पीयू) जैसी पाटियों द्वारा निर्मित किया जा रहा था, एकता की मजबूत बुनियाद रख दी गयी। जबकि इन पार्टियों के बीच एकता लंबे समय तक राजनीतिक मतभेदों और एकता के लिए सचेत प्रयत्न करने में नेतृत्व की कमजोरियों के कारण न हो सकी। मैं इसके विस्तार में जा सकता हूं, यदि यह जरूरी हो। नौवीं कांग्रेस के आयोजन में इतनी देरी की मुख्य वजह देश में क्रांतिकारी शक्तियों की एकता होने में असफलता रही।


आप पार्टी में लोकतंत्र (जनवाद) कैसे सुनिश्चित करते हैं, जब आप इतने वर्षों तक कांग्रेस नहीं करते? पार्टी की लाइन, टैक्टिक्स और नीतियां बनाने में कैडर कैसे सम्मिलित होते हैं?

गणपति : मैंने ऊपर जो कहा, देश में सभी सच्चे कम्यूनिस्ट क्रातिकारियों की एकता हासिल करने में हमारी असफलता के कारण कांग्रेस के लंबी अवधि तक नहीं होने के बारे में, यह पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का निषेध नहीं है। हरेक क्रांतिकारी पार्टी की अपनी आंतरिक जनवादी प्रक्रिया होती है, नीति निर्माण में कैडरों के इन्वॉल्विंग की। पूर्ववर्ती एमसीसीआइ, सीपीआइ (एमएल) (पीडब्ल्यू) एवं सीपीआइ (एमएल) (पीयू) एक नियमित अंतराल पर अपने केंद्रीय कान्फ्रेंस, प्लेनम और विशेष बैठकें करते रहे हैं, जहां वे अपने पिछले कार्य और जनयुद्ध आगे बढ़ाने में सकारात्मक, नकारात्मक पहलुओं का मूल्यांकन करते रहे हैं, नीतियों और टैक्टिक्स में जरूरी बदलाव और धारा को और समृद्ध करते रहे हैं। अपने सार में एक केंद्रीय अधिवेशन कांग्रेस के सदृश होता है। केवल एक वजह से इसे कांग्रेस नहीं कहा जाता, क्योंकि देश में विभिन्न क्रांतिकारी पार्टियां और समूह हैं।। यह अमूमन महसूस किया गया कि एक कांग्रेस बुलायी जा सकती है-देश की सभी क्रांतिकारी पार्टियों की एकता के बाद। पूर्ववर्ती पार्टियां जो कि अब सीपीआइ (माओवादी) का हिस्सा हैं।-एमसीसीआइ, सीपीआइ (एमएल) तथा सीपीआइ (एमएल) (पीयू) अपने केंद्रीय कान्फ्रेंस और प्लेनम नियमित अंतरालों पर करते रहे हैं। पीडब्ल्यू ने पहला क्षेत्रीय अधिवेशन तेलंगाना के रास्ते पर १९७६ में आयोजित किया था। इसने १९८० में राज्य अधिवेशन किया। इसका केंद्रीय प्लेनम १९९० में, अखिल भारतीय विशेष अधिवेशन १९९५ में और दूसरी कांग्रेस २००१ में हुई। इसी तरह एमसीसीआइ ने केंद्रीय कान्फ्रेंस १९९६ में और पीयू ने १९८३, ८७ व ९६ में किया।

अत: इन अधिवेशनों, प्लेनमों द्वारा पूरी पार्टी लोकतांत्रिक तरीके से बहस-मुबाहिसों, आंतरिक संघर्ष और सभी विवादित मुद्दों पर एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में ाामिल थी। दरअसल सीपीआइ(एमएल) (पीडब्ल्यू) ने कांग्रेस के लिए तैयारियां १९९५ में एमसीसी के साथ विलय की वार्ता टूटने के बाद शुरू कर दी थीं। पीडब्ल्यू का १९९५ का अखिल भारतीय विशेष अधिवेशन (एआइएससी) वास्तव में कांग्रेस के तौर पर योजनाबद्ध किया गया था, मगर अंतिम समय में हमने इसका नाम बदल कर विशेष अधिवेशन रख दिया, लेकिन इसका महत्व कांग्रेस जैसा ही था। यह सीपीआइ (एमएल) (पीयू) के साथ एकता की संभावना को ध्यान में रखते हुए हुआ। २००१ में एकीकृत सीपीआइ(एमएल) (पीडब्ल्यू) ने नौवीं कांग्रेस की, मगर यह कांग्रेस मूलत: भारतीय क्रांति की केवल एक धारा-सीपीआइ (एमएल) से जुड़े क्रांतिकारियों की थी। कांग्रेस पीडब्ल्यू नेतृत्व के इस आकलन के साथ हुई कि एमसीसी के साथ एकता एक लंबे समय, खास कर तब की दोनों पार्टियों के बीच के तनावपूर्ण रिश्ते को पृष्ठभूमि में डाल देगी। बाद में यह आकलन गलत साबित हुआ। कांग्रेस के साढ़े तीन साल के भीतर सीपीआइ (एमएल) (पीडब्ल्यू) तथा एमसीसीआइ के विलय के बाद एक नयी पार्टी सीपीआइ (माओवादी) बनी।। जिन बड़ी पार्टियों ने सीपीआइ (माओवादी) बनायी है, इतिहास से ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया उनमें रही है, तब भी जब हम लंबे समय तक कांग्रेस नहीं कर सके।


हमने कुछ मीडिया रिपोर्टों में सुना कि हालिया संपन्न एकता कांग्रेस में कुछ गंभीर मतभेद उभर आये थे कि आपके फिर से महासचिव चुने जाने का कडा विरोध हुआ, कि कांग्रेस यहां तक कि केंद्रीय कमेटी का चुनाव नहीं कर सकी आदि। क्या ये सही हैं?

गणपति : ऐसी रिपोर्टें कुछ तो मीडियावालों की अटकलों पर आधारित होती हैं लेकिन इनमें से अधिकतर बातें खुफिया एजेंसियों द्वारा छेडे गये डिसइन्फार्मेशन कैंपेन का हिस्सा होती है। खास तौर पर एपीएसआइबी का ऐसी गलत सूचनाओं के लिए विशेष विभाग है। इस एकमात्र उद्देश्य से कि जनता और पार्टी कैडर में भ्रम फैला सके। वे दोनों माओवादी पार्टियों के विलय के समय से ही, खास कर पिछले एक साल से, ऐसी कहानियां जारी करते रहे हैं। वे लगातार यह अफवाह फैलाने की कोशिश कर रहे हैं कि विलय सैद्धांतिक नहीं था, दोनों तत्कालीन पार्टियों में गंभीर मतभेद थे, और कि दोनों के सोचने की लाइन अलग है, जो उनके व्यवहार में दिखता है और ऐसी ही बकवास।

और हम जानते हैं कि आप जिनका हवाला दे रहे हैं वे तथाकथित मीडिया रिपोर्टें कहां बनतीं हैं। ये पुलिसिया खबरें एसआइबी द्वारा हनामकोंडा से फैक्स की गयीं और २६ मार्च को कुछ तेलुगू अखबारों में छपीं। इन रिपोर्टों के जरिये ये झूठे हमारी पार्टी की स्थिति के बारे में पूरी तरह झूठी तसवीरें प्रोजेक्ट करने की कोशिश करते हैं। वे यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि तब की एमसीसीआइ जनयुद्ध को अधिक-से-अधिक सैन्य कार्रवाइयों के जरिये तेज करना चाहती थी जबकि पीडब्ल्यू के कामरेड सोचते थे कि यह बेहतर है कि कार्रवाइयों को कुछ समय तक टाल दिया जाये और मिलिटेंट जनांदोलन पर ध्यान केंद्रित किया जाये। यह दरअसल देखने में हैरतअंगेज लगता कि ऐसी रिपोर्ट पीएलजीए द्वारा माओवादी आंदोलन के इतिहास की सबसे बड़ी कार्रवाई, रानी बोदली में ६८ पुलिसियों-एसपीओ सहित-की हत्या के ठीक १० दिनों बाद आयी और हमारी इस घोषणा के बाद कि ऐसी और कार्रवाइयां होंगीं, यदि प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग सलवा जुडूम के नाम पर जनसंहार और विनाश की बर्बर कार्रवाई बंद नहीं करता। इन मनगढ़ंत झूठों में एक रत्ती भी सच्चाई नहीं है।

ये पुलिसिया कहानियां यह झूठ भी फैलाती रहती हैं कि 'झटके और मतभेद इतने गंभीर है कि कांग्रेस पोलित ब्यूरो, केंद्रीय कमेटी, केंद्रीय सैन्य आयोग और विभिन्न राज्य कमेटियों का पुनर्गठन तक न कर पायी और कई बड़े नेता अनुशासनात्मक कार्रवाइयों का सामना करते दिखते हैं।` दरअसल भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में हमारे जितनी मजबूत, केंद्र और राज्य की बारीक बुनावटवाली पार्टी संरचना कभी नहीं थी। कांग्रेस ने एक स्वर से केंद्रीय कमेटी का चयन किया, जिसने पोलित ब्यूरो, केंद्रीय सैन्य आयोग, विभिन्न क्षेत्रीय ब्यूरो और केंद्रिय विभागों तथा उपकमेटियों का गठन किया। मैं गर्व के साथ कहूंगा कि भारतीय क्रांति के नेतृत्व के लिए एक मजबूत केंद्रीकृत नेतृत्व की स्थापना कांग्रेस की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। राज्य कमेटियां संबंधित राज्य अधिवेशनों में चुनी जाती हैं न कि कांग्रेस द्वारा। प्रेस विज्ञप्ति एसआइबी के कमजोर होमवर्क को दरसाता है।
रिपोर्टों में यह सुनना अधिक हैरतअंगेज है कि अनुशासनात्मक कार्रवाई, पदावनति सहित, कुछ प्रमुख नेताओं के खिलाफ होनी है। इन दावों में सच एक रत्ती भर भी नहीं है। यह न सिर्फ डिसइन्फार्मेशन कैंपेन को दिखाता है, बल्कि आंध्रप्रदेश में एसआइबी और पुलिस की मनोवृत्ति को भी दिखाता है जो नैराश्यपूर्ण इच्छा करते हैं कि हमारी पार्टी के 'प्रमुख` नेता पदावनत हों।।


तब आप कह रहे हैं कि बिल्कुल कोई मतभेद नहीं हैं?

गणपति : क्यों नहीं? सैद्धांतिक-राजनीतिक बहसें किसी भी कम्यूनिस्ट पार्टी की रगों में होती हैं।। ऐसे आंतरिक संघर्ष के जरिये ही पार्टी लाइन समृद्ध बनती है और पार्टी और मजबूत तथा एकताबद्ध बनती है। हमने अपने मतभेदों को कभी राज नहीं रखा। हमने मतभेदों को अपनी सैद्धांतिक पत्रिका 'पीपुल्स वार` के विगत अंक में प्रकाशित किया है। वर्तमान अंक में कांग्रेस में हुई बहसों की विस्तार से चर्चा है। ये बहसें हमारी पार्टी की मजबूती को दिखाती हैं न कि इसकी कमजोरी को। यह पार्टी के डेमोक्रेटिक क्रेडेंशियल्स और विभिन्न विचारों को सहने की क्षमता को दिखाता है जो हर तरह के विचारों और दृष्टिकोणों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अनुमति देता है, अगर वे पार्टी लाइन को समृद्ध करने की दिशा में रचनात्मक तरीके से उठाये गये हों, और न कि पार्टी को भटकाने की बदनीयती से। कांग्रेस में कामरेडों द्वारा जो विचार रखे गये पूरी ईमानदारी से, लाइन को समृद्ध करने की दृष्टि से और भारतीय क्रांति जिन समस्याओं से दोचार है उनका हल निकालने की दृष्टि से।
यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बिंदु उल्लेखनीय है कि जो मतभेद कांग्रेस में आये वे पूर्ववर्ती एमसीसीआइ-पीडब्ल्यू के बीच में नहीं थे, बल्कि वे एक अकेली पार्टी के भीतर के थे। यदि आप हमारी पार्टी के इतिहास से अवगत हैं तो आप पायेंगे कि इससे भी गहरे मतभेद हमारे शुरुआती अधिवेशनों और कांग्रेस में पैदा हुए थे। १९९५ में पीडब्ल्यू के एआइएससी में अथवा पीयू में केंद्रीय अधिवेशन में १९८७ और १९९६ में, या एकीकृत पीडब्ल्यू के २००१ कांग्रेस में मतभेद गंभीर प्रकृति के थे। वे दुनिया की प्रधान स्थिति, दलाल बडे पूंजीपति और भारतीय जनता के अंतरविरोधों को लेकर, भारत में उत्पादन के उत्पादन आदि को लेकर थे। एक तीखी बहस पार्टी लाइन में दक्षिणपंथी झुकाव के सवाल पर भी थी। पीडब्ल्यू की २००१ कांग्रेस में। ये सभी गंभीर मतभेद एक स्वस्थ बहस और जहां जरूरत हुई वोट के जरिये हल कर लिये गये। अभी के मतभेद पहले जितने गंभीर नहीं हैं। अत: पुराने पीडब्ल्यू और पीडब्ल्यू तथा पीयू के अगस्त १९९८ में विलय के बाद बने एकीकृत पीडब्ल्यू तथा एमसीसीआइ के विलय के बाद बने सीपीआइ (माओवादी) के अंदर मतभेद एक कम्युनिस्ट पार्टी में बहुत स्वाभाविक हैं। कोई भी मतभेद, यहां तक कि बहुत गंभीर मतभेद भी, एक कम्युनिस्ट पार्टी में जनवादी केंद्रीयता के सिद्धांत का पालन करते हुए सुलझाये जा सकते हैं।। यह जनवादी केंद्रीयता के सिद्धांत की महानता है जो एक कम्युनिस्ट पार्टी के अस्तित्व और कार्य करने का आधार होता है। केवल कर्नाटक में एक छोटा ग्रुप, जो खुद को माइनॉरिटी कहता है, टूट कर चला गया, जब उसने राज्य अधिवेशन में दक्षिणपंथी अवसरवादी लाइन के कारण बहुमत खो दिया। यदि उनमें कम्युनिस्ट स्पिरिट और अनुशासन होता और अगर वे पेट्टी बुर्जुआ व्यक्तित्ववाद और अराजक तरीकों से ग्रस्त नहीं रहते तो वे पार्टी में बने रहते और कांग्रेस में अपनी लाइन के लिए लड़ते। बेशक कांग्रेस में बहुमत द्वारा तय लाइन और नीति को मानते हुए किसी को अधिकार है कि वह अपनी लाइन और किसी सवाल पर अपना नजरिया अगली कांफ्रेस में एक बार फिर रख सकता है।


कांग्रेस कहां आयोजित हुई थी? आपने इसे किस तरह मैनेज किया, ऐसे में जबकि सरकार गंभीरता से इसे विफल करने की कोशिश कर रही थी?

गणपति : (हंसते हैं) खुफिया एजेंसियों को अनुमान लगाने दीजिए कि इसे कहां आयोजित किया गया। मीडिया के लिए, हम आपलोगों को कुछ समय बाद ले जायेंगे। इतिहास के बनने के दौरान ये जगहें भावी पीढ़ियों के लिए महान ऐतिहासिक अहमियत हासिल कर लेंगीं। तब हरेक आदमी जाने के लिए आयेगा। मगर वर्तमान के लिए मैं एक चीज कह सकता हूंऱ्यह जनता के बीच किया गया, जनता द्वारा सुरक्षित और प्रकृति द्वारा घिरा हुआ। और बेशक, आयोजन स्थल में हमारे पीएलजीए के लड़ाके थे जो दिन-रात, २४ घंटे की ड्यूटी करते, दुश्मन सेना की हरेक गतिविधि से सचेत और पुलिस बलों को, अगर वे इलाके में घुसने की हिम्मत करते, एंबुश करने के लिए तैयार। यहां तक कि अगर दुश्मन सेना इलाके में घुस भी जाती, हमारे गुरिल्ला यह सुनिश्चित करते कि नेतृत्व को कोई नुकसान नहीं हो। पीएलजीए और आम जनता के पूर्ण आत्मविश्वास के बीच हमने कांग्रेस संचालित की, बिना किसी तनाव या समस्या के। असल में, हमने कांग्रेस को कुछ दिनों के लिए बढ़ाया भी।

कांग्रेस का आयोजन पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अंतिम कार्रवाई है। इस प्रक्रिया के एक हिस्से के रूप में, हमने १५ राज्यों में अधिवेशन किये, इनमें से १२ राज्य स्तरीय अधिवेशन थे, और ये क्षेत्रीय, जोनल/डिविजन/जिला अधिवेशनों और कई जगहों में सबजोनल और एरिया अधिवेशनों के बाद किये गये थे। एक बड़ा शैक्षणिक कैंपेन किया गया, स्टडी कैंपों-क्लासों वगैरह के साथ। इन सबमेंे पिछले साल हमारा बहुत समय लगा। लेकिन व्यापक जन समर्थन और गुरिल्ला बलों द्वारा मुहैया की गयी सुरक्षा के लिए, ये कार्यक्रम दुश्मन द्वारा छेड़े गये निरंतर दमन अभियानों के चलते सामान्यत: असंभव हो गये। हमने कान्फ्रेंस वेन्यू को एओबी में शिफ्ट किया और एक-दो जगहें और थीं जहां हमंे जनता से सूचना मिली कि दुश्मन उन जगहों को घेर रहा है। ये वे लोग हैं जो हमारे आंख और कान हैं और जितने समय तक हम जनता का समर्थन पाते रहेंगे और गोपनीयता के सख्त तरीके बनाये रखेंगे, कोई भी दुश्मन सेना कुछ न कर सकेगी।

और राज्य सरकारों द्वारा कांफ्रेंस और कांग्रेस न होने देने के लिए गंभीर कोशिशें की गयीं।। गत नवंबर-दिसंबर के महीनों में ऐसी खुली घोषणा की गयी। गृह मंत्रालय द्वारा तीन महीनों की अवधि के लिए एक स्पेशल विंग गठित किया गया, कांग्रेस को विफल करने के लिए। वे जानते थे कि यह जनवरी या फरवरी में होगा, क्योंकि गरमी आ जाने के बाद यह अपेक्षाकृत कठिन होगा। अत: कांग्रेस का आयोजन नव एकीकृत पार्टी के लिए विलय के बाद सबसे बड़ी चुनौती बन गया। सौ से अधिक डेलीगेट-माओवादी पार्टी का कोर-दुश्मन को पता लगे बिना विभिन्न राज्यों से आये। पीएलजीए लड़ाकों की एक बड़ी संख्या सुरक्षा उद्देश्यों से लगायी गयी थी। और इस तरह के एक बड़े कैंप के इंतजामों के लिए जाड़े के ठंडे दिन भी उतने आसान नहीं हैं। कहीं से भी हुई एक छोटी लीक कार्यक्रम को बाधित कर देती। इन कठिन हालात में कांग्रेस का सफलतापूर्वक संपन्न होना पार्टी के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। यह दिखाता है कि हरेक चीज संभव है-सतर्कतापूर्ण योजना, काम करने के गोपनीय तरीके, एक प्रतिबद्ध गुरिल्ला बल और जनता के मजबूत समर्थन के साथ।

एक दुखद घटना कांग्रेस की पूर्व संध्या पर हो गयी, हमारे प्यारे कॉमरेडों चंद्रमौलि (बीके) और उनकी जीवनसाथी विजयलक्ष्मी (करुणा) की शहादत की। चंद्रमौलि केंद्रीय कमेटी और केंद्रीय सैन्य आयोग के सदस्य थे और करुणा डीसी सदस्य। वे एपीएसआइबी के गुंडों द्वारा २६ की रात में पकड़ लिये गये और अगले दिन क्रूर यातनाएं देकर मार दिये गये। थोड़ा तनाव था जब हमने उनकी शहादत के बारे में सुना। हालांकि दुश्मन कांग्रेस के बारे में कुछ भी उनसे न पा सका और दोनों अकथनीय यातना, जो उन पर की गयी, के सामने चट्टान की तरह अडिग रहे। बर्बर दुश्मन एक छोटी जानकारी भी इन महान कम्युनिस्टों, भारतीय जनता के गौरवशाली बेटे और बेटी, से न हासिल कर सका। यहां तक कि अपनी शहादत के साथ ही उन्होंने कांग्रेस की सफलता के लिए अपने लहू का योगदान दिया।


एकता कांग्रेस के प्रमुख फैसले क्या रहे? क्या आपकी समग्र योजना और टैक्टिक्स में कोई बदलाव होगा?

गणपति : कांग्रेस की आम दिशा जनयुद्ध को तेज करने और लड़ाई को सभी मोरचों पर ले जाने की रही। ठोस तौर पर यह निर्णय लिया गया कि चलायमान युद्ध के उच्चतर स्तर तक गुरिल्ला युद्ध को ले जाया जाये, उन इलाकों में जहां गुरिल्ला युद्ध एक एडवांस्ड स्टेज में है, और जितना संभव हो सके उतने अधिक राज्यों में सश संघर्ष को बढ़ाया जाये। दुश्मन बलों का ध्वंस इन इलाकों में त्वरित एजेंडा है, जिसके बगैर इन इलाकों में उपलब्धियां बरकरार रखने और उन्हें और आगे बढ़ाने में बेहद दिक्कत होगी। उसी तरह यह एक त्वरित जरूरत है-एक बड़े क्षेत्र को युद्ध क्षेत्र में बदलने की इसलिए हमारे गुरिल्ला बलों के ऊपर काफी दायित्व है। और विस्तार करने में गोपनीयता बहुत महत्वपूर्ण होती है। राज्य द्वारा केंद्रीय बलों और विशेष पुलिस बलों की भारी तैनाती को नजर में रखते हुए कांग्रेस ने दुश्मन ताकतों को गंभीर नुकसान पहुंचाने के लिए विभिन्न रचनात्मक स्वरूप अपनाने की योजना बनायी है। पुलिस और केंद्रीय बल सीख जायेंगे कि हमारे क्षेत्र में घुसना कितना खतरनाक है। हमने पार्टी और पीएलजीए को मजबूत करने, जनता को दुश्मन ताकतों का प्रतिरोध करने के लिए मोबिलाइज करने और इन क्षेत्रों में दुश्मन की सभी तरह की ताकत को नष्ट करके अपने मजबूत आधार के रूप में बदलने का निर्णय लिया है। और यह सब युद्ध में जनता की व्यापक भागीदारी से हासिल होगा। सैकड़ों लोग, और कभी-कभी हजार से भी ज्यादा, दुश्मन के खिलाफ हमलों में शामिल रहते हैं, जैसा कि आपने हालिया प्रतिआक्रामक (काउंटरऑफेंसिव) ऑपरेशनों-रानी बोदली में रीगा में, बोकारो जिले में खासमहल में सीआइएसएफ कैंप पर हमलें में और गत जून महीने के इसी तरह के हमलों में देखा है।

आंध्रप्रदेश में हमने जो अनुभव हासिल किये बढ़ते और निरंतर जारी राजकीय दमन और राज्य प्रायोजित दमन के बीच, यह सब अधिक महत्वपूर्ण है कि हमारी ताकतें जहां वे काम कर रही हैं गोपनीय ही रही हैं। ठीक इसी समय हम प्रत्येक जनांदोलन के अगले मोरचे पर रहेंगे। कांग्रेस ने 'सेज` के खिलाफ संघर्ष का फैसला किया है, जो कुछ भी नहीं है सिवाय भारतीय क्षेत्र में नव उपनिवेशवादी क्षेत्र के। वे न केवल किसानों की उर्वर जमीन की लूट-खसोट कर रहे हैं, बल्कि पूरे देश को निर्बाध रूप से क्रूर शोषण और साम्राज्यवादियों और दलाल बड़े बिजनेस घरानों द्वारा नियंत्रित एक विशेष जोन में बदल देना चाहते हैं। कांग्रेस ने इन संघर्षों में और गहरे जाने क आहवान किया है। हम भारतीय राज्य की क्रूर, फासीवादी प्रकृति को लेकर किसी भ्रम में नहीं हैं, और इसीलिए हरेक तरह की कुरबानी के लिए तैयार रहने के साथ ही काम करने के गोपनीय तरीके बरकरार रखने की निहायत जरूरत है।



अंतिम तौर पर आप अपनी एकता कांगेस की उपलब्धियों और इसके महत्व का किस तरह मूल्यांकन करते हैं?
गणपति : हमारी एकता कांग्रेस भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में महान ऐतिहासिक महत्व की घटना है। यह न केवल सद्य:पूर्ण माओवादी दलों की एकता की प्रक्रिया को रेखांकित करती है, बल्कि भारतीय क्रांति के लिए पार्टी और राजनीतिक लाइन को भी सुदृढ़ करती है। हमारे संस्थापक नेताओं कामरेड सीके और केसी द्वारा स्थापित क्रांतिकारी राजनीतिक लाइन पुनर्सुदृढ़ीकरण और समृद्धिकरण कांग्रेस की सबसे उपलब्धि रही। अनेक सैद्धांतिक-राजनीतिक सवालों पर कांग्रेस में बहस हुई और वे हल किये गये, जिसने एकता को उच्चतर स्तर तक पहुंचा दिया। दूसरी महत्वपूर्ण उपलब्धि रही कि भारतीय क्रांति के लिए एक एकताबद्ध केंद्रीकृत नेतृत्व की स्थापना हुई।


भारतीय क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में १९७० से लंबे समय के बाद एक अकेला निर्देशक केंद्र अस्तित्व में आया है, २००४ के सितंबर में एमसीसीआइ और सीपीएल (एमएल) (पीडब्ल्यू) के विलय के बाद और यह केंद्र कांग्रेस में समग्र पार्टी के अनुमोदन से और अधिक सुदृढ़ और पक्के तौर पर स्थापित हुआ।


हाल के समय में आंध्र प्रदेश में कुछ गंभीर नुकसान हुए हैं।। इनके क्या कारण रहे? क्या आपका आंदोलन कुल मिला कर कमजोर हुआ है? इन नुकसानों के बचने और पहलकदमी पुन: हासिल करने के बारे में आपकी क्या योजना है?


गणपति : मैं सहमत हूं कि आंध्रप्रदेश में नुकसान सचमुच गंभीर हैं।। उन्होंने निश्चत तौर पर कुल मिला कर देश भर में क्रांतिकारी आंदोलन पर चिंतनीय प्रभाव डाला है। आंध्रप्रदेश, खासतौर पर उत्तरी तेलंगाना का क्षेत्र लंबे समय से क्रांतिकारी आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण केंंद्र बन गया है और हमारे देश की क्रांतिकारी जनता के लिए महान प्रेरणा है। मगर हमें दिमाग में यह रखना है कि जहां तक आधार क्षेत्र स्थापित करने का सवाल है, केंद्रीय और पूर्वी भारत में अनेक ऐसे पिछडे क्षेत्र हैं जिन्हें पार्टी ने मुक्त करने के त्वरित कार्यभार के साथ चुना है। अत: हमारे आंदोलन का फोकस क्रमिक रूप से दंडकारण्य और बिहार-झारखंड पर हो गया है।
आप अवश्य जानते होंगे कि आंध्रप्रदेश एक आदर्श राज्य, एक प्रयोगधर्मी राज्य बनाया गया था, जहां साम्राज्यवादी, खास तौर पर विश्व बैंक और भारतीय शासक वर्ग ने क्रूर दमन और सुधारों के साथ अपनी रणनीति क्रांतिकारी आंदोलन के खिलाफ लागू किया था। नक्सलवादी आंदोलन से प्रभावित कोई ऐसा दूसरा राज्य नहीं है आंध्रप्रदेश जितनी भारी संख्या में पुलिस कमांडो बलवाला। न ही आप और कहीं ऐसा व्यापक खुफिया नेटवर्क, ढांचा, फंड, चरमपंथ विरोधी युद्ध में प्रशिक्षण और पुलिस की असीमित शक्ति पायेंगे। गत ४ दशकों खास कर १९८० के दशक के मध्य से किसी दूसरे राज्य ने आंध्रप्रदेश जैसा खून-खराबा नहीं देखा। आंध्रप्रदेश की जेलों में मुश्किल से ही कोई राजनीतिक बंदी होगा, क्योंकि नीति गिरफ्तारी के बाद हमेशा क्रांतिकारियों के खात्मे की रही है-भले ही वे केंद्रीय कमेटी के सदस्य हों या समर्थक। फर्जी मुठभेड़ में हत्याएं लगभग ४० साल पहले श्रीकाकुलम संघर्ष के दौरान वेंगल राव के समय से ही परंपरा बन गयी हैं। हजारों करोड़ रुपये खर्च कर दिये गये क्रांतिकारी आंदोलन से लोगों के एक हिस्से को अलगाने के उद्देश्य से तथाकथित सुधारों के नाम पर। एक वाक्य में हम कह सकते हैं कि पार्टी और क्रांतिकारी आंदोलन आंध्रप्रदेश में आरंभिक अवस्था में प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग द्वारा उठाये गये तमाम चरमपंथ विरोधी कदमों के आवेगों को झेल चुका है। हमने दुश्मन की प्रतिक्रांतिकारी टैक्टिक्स, योजनाओं और तरीकों का गहराई से अध्ययन किया है और उनसे सीखा है। आंध्र प्रदेश में आंदोलन ने, हजारों कॉमरेडों की भारी कुरबानी की कीमत पर, हमें बहुमूल्य अनुभव दिये हैं कि कैसे दुश्मन की टैक्टिस और योजनाओं का मुकाबला करें और पराजित करें। इनके सहारे पार्टी अब दूसरे राज्यों में दुश्मन की टैक्टिस को पराजित करने को लेकर ज्यादा लैस-मुनपचचमक है।

झटके और नुकसान दीर्घकालिक जनयुद्ध में अप्राकृतिक नहीं होते। क्रांति एक आड़ी-तिरछी रेखा में चलती है न कि एक सीधी रेखा में।। आंध्र प्रदेश में आंदोलन ने अनेेक उतार-चढ़ाव देखे हैं।, मगर यह हमेशा फीनिक्स की राख की तरह जिंदा हो उठी है। कोई शक नहीं, वर्तमान परिस्थिति में, हम आंध्र प्रदेश में एक कठिन हालात का मुकाबला कर रहे हैं और दुश्मन टैक्टिस की दृष्टि से हमसे आगे है। हमें राज्य नेतृत्व और कैडर के एक अच्छे हिस्से का नुकसान हुआ है, मगर अधिक आशाजनक पहलू यह है कि जनता अब भी हमारी पार्टी के साथ है। पार्टी के आधार समर्थन का क्षय नहीं हुआ है, हालांकि वे हमसे गोपनीय तरीके से मिलते हैं, अपनी समस्याओं के समाधान के लिए हमसे बात करते हैं और वे क्रूर राज्य के सामने आये बिना काम कर रहे हैं। उनके लिए हमारी पार्टी एकमात्र आशा है। लोग क्रांतिकारियों के हर नुकसान पर दुखी होते हैं। आप हमारे शहीदों की श्रद्धांजलि बैठकों में जमा भीड़ से हमारे जन समर्थन को जान सकते हैं। पुलिस गंुडों की धमकियों और प्रतिबंधों के होते हुए भी कॉमरेड चंद्रमौलि (बीके) और करुणा की श्रद्धांजलि सभा में उनके पैतृक करीमनगर जिले के वाडकापुर गांव में २०,००० से अधिक लोग जमा हुए। जनता का तेज गुस्सा और नफरत, प्रतिक्रियावादी शासकों और उनके पुलिसिया ग्रेहाउंड्स, एसबीआइ गुंडों के खिलाफ किसी बड़े अनुपात में उभरेगा और उत्पीड़कों और शोषकों और समाज में लंबे समय से जमा कूड़ा-करकट को बहा ले जायेगा। धरती पर कोई भी ताकत क्रांति की इस ऊंची लहर को न रोक सकेगी, भले आज हम आंध्र प्रदेश में नुकसान और कष्ट झेल रहे हैं। शासक वर्ग आंध्र प्रदेश में क्रांतिकारी आंदोलन की महान क्षमता से अवगत है। यही वह कारण है कि जब वे बढ़-चढ़ कर बोलते हैं कि माओवादी राज्य में पूरी तरह कमजोर हो गये हैं और कि आंध्रप्रदेश माओवादी आंदोलन से निपटने में एक आदर्श राज्य बनेगा, फासीवादी वीएसआर सरकार ग्रेहाउंड कमांडो दलों की क्षमता में दो गुणा बढ़ोतरी, नक्सलवादविरोधी अभियानों के लिए हेलिकॉप्टरों के अर्जन, नक्सल आंदोलन से निपटने के लिए २००० करोड़ की केंद्रीय मदद को मंजूरी जैसी दीर्घकालिक योजनाओंवाले अनेक कदम उठा रही है।

वर्तमान ऐतिहासिक युग विश्वव्यापी विक्षुब्ध बदलावों के साथ बड़े उथल-पुथल का दौर है। यहां तक कि अमेरिका जैसा अधिक शक्तिशाली सैन्यीकृत साम्राज्यवादी इराक या अफगानिस्तान जैसे छोटे देशों में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों को दबाना असंभव पा रहा है। भारत में शासक वर्ग द्वारा साम्राज्यवाद के साथ मिलीभगत से जनता के निष्ठुर शोषण और उत्पीड़न ने विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी है। आज प्रभावी अंतरराष्ट्रीय और घरेलू हालात का फायदा उठाते हुए हम आश्वस्त हैं कि हम आंध्र प्रदेश में इस अस्थायी झटके से बाहर निकल आयेंगे।
और जो अधिक महत्वपूर्ण बात है वह यह है कि हम आंध्र प्रदेश में अपने नुकसानों के होते हुए भी दूसरे अन्य राज्यों में आगे बढ़े हैं। हालात पहले के समय से गुणात्मक रूप से अलग हैं, कि हम अब हम दूसरे राज्यों में आंदोलन को आगे बढाऩे की क्षमता रखते हैं यहां तक कि यदि हम एक या दो राज्य में झटके और नुकसान झेलते हैं तब भी। वे नक्सलबाड़ी, एक श्रीकाकुलम, एक मुशहरी, एक कांकसा या एक सोनारपुर का दमन कर सकते हैं मगर आज क्रांतिकारी आंदोलन कहीं अधिक मजबूत है और व्यापक तौर पर पिछड़े देहातों में फैला हुआ है, जिसकी एक अच्छी बुनी हुई पार्टी संरचना है, सेना है और व्यापक जनाधार है। यह आगे बढ़ रही है-केंद्रीकृत योजना और दिशा के जरिये। अत: राज्य के लिए यह आसन नहीं होगा कि अतीत की तरह आंदोलन को दबा सके, भले ही एक जगह यह थोड़ी बढ़त ले ले। कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश में झटकों से बाहर निकलने के लिए एक ठोस परियोजना बनायी है-प्रतिकूल कारकों (फैक्टरों) के अनुकूल कारकों में परिवर्तन के द्वारा। कुल मिला कर पार्टी और क्रांति का एक महान भविष्य है।


सिंगुर और नंदीग्राम जैसे मुद्दों को आप किस तरह देखते हैं? क्या आपके लोग नंदीग्राम में हिंसा भड़काने में शामिल थे, जैसा कि सीपीआइ (एम) का दावा है? क्या आपका इरादा ऐसे मुद्दों में सक्रिय भागीदारी का है?

गणपति : कोई केवल आश्चर्य ही कर सकता है अगर हम जनता के ऐसे जीवन-मरण के मुद्दों में शामिल न हों।। हमारा इरादा लोगों को शासकों की सैकड़ों सेजों के निर्माण के जरिये विकास के नाम पर दलाल बड़े उद्योगों और एमएनसी को आम जनता से जमीन छीन कर देने की साजिशों और धोखेबाजी भरी नीतियों के खिलाफ लामबंद करना है। सेज नीति का उद्देश्य हमारे देश के अंदर औपनिवेशिक विदेशी क्षेत्र बनाने का है जहां जमीन का कोई कानून लागू नहीं होगा। सेज नीति साम्राज्यवादी एमएनसी के वैश्वीकरण आक्रमण के एक हिस्से के तहत उनके उकसावे पर भारतीय शासक वर्ग द्वारा आक्रामक तरीके से लागू किया जा रहा है। सेज और बड़ी परियोजनाओं द्वारा किसानों की उर्वर जमीन अधिगृहित कर लेने के खिलाफ संघर्ष अधिक-से-अधिक उग्र होता जा रहा है जैसा कलिंगनगर, सिंगुर, नंदीग्राम, लोहंडीगुडा, पोलावरम आदि में देखा गया। सिंगुर और नंदीग्राम, खास कर एक महत्वपूर्ण प्रतीक बन गये हैं-बड़े दलाल घरानों और साम्राज्यवादियों द्वारा शोषण के खिलाफ संघर्ष के।
जैसा कहा गया कि माओवादियों ने नंदीग्राम में हिंसा भड़कायी, सारी दुनिया हंसी इन 'वाम` मोरचा शासकों के मंदमति पर। यहां तक कि गोएबेल्स भी अपनी कब्र से मुड़ कर देखता होगा कि उसकी झूठ बोलने की कला किस तरह बुद्धाओं, करातों, येचुरियों आदि 'मार्क्सवादियों` द्वारा उन्नत हुई है। ये राजनीतिक दलाल मुद्दे को मोड़ने की दुस्साहसपूर्ण कोशिश कर रहे हैं बार-बार यह दोहरा कर कि बाहर से आये माओवादियों ने स्थानीय जनता को भड़काया और तब पुलिस के पास आत्मरक्षा में गोली चलाने के सिवा कोई विकल्प नहीं रह गया। हरेक प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग की तरह बंगाल के 'मार्क्सवादी` शासक भी 'बाहरी हाथ` का राग अलापने लगे हैं, उस गड़बड़ी के लिए जो उन्होंने खुद पैदा की थी। वृंदा करात ने कहा कि माओवादियों ने नंदीग्राम में आने के लिए समुद्री रूट का इस्तेमाल किया। इन तथाकथित सैद्धांतिकों का और उनके तर्कों की निर्धनता के इस राजनीतिक दिवालियेपन देखना घिनौना है। इन दोमुंहे लोगों की नजर में सालेम या टाटा बाहरी नहीं है जबकि माओवादी, जो लोगों के लिए जीते और मरते हैं बाहरी हो गये? इससे भी बदतर, शतुरमुर्गों की तरह, वे सोचते हैं कि दुनिया नहीं जानती है कि कैसे सैकड़ों हथियारबंद गुंडे भारी पुलिस बल के अलावा उनकी पार्टी द्वारा राज्य के विभिन्न हिस्सों से नंदीग्राम नरसंहार को अंजाम देने के लिए लाये गये। करात और येचुरी मात्र निराशा में नंदीग्राम में अपने बर्बर नरसंहार को न्यायोचित ठहराने के लिए इसे बाहरियों पर थोप रहे हैं।

नंदीग्राम ने सामाजिक फासीवादी सीपीआइ (एम) के बर्बर चेहरे को उजागर कर दिया है, जिस के गंुडों ने पुलिस के साथ मिल कर लोगों पर अवर्णनीय अत्याचार किये, महिलाओं का बलात्कार किया, सौ से अधिक लोगों की हत्या की यहां तक कि बच्चों तक की। जो और अधिक घृणित है कि उन्होंने लाशों को यातो गाड़ दिया या उन्हें नदी में फेंक दिया। बुद्धदेव बंगाल के डायर की तरह उभरे और खुद को बड़े दलाल घरानों और एमएनसी का वफादार नौकर साबित किया। एक सच्चे दलाल की तरह, उनकी सरकार ने लोगों से जमीन हथिया कर बड़े बिजनेसों को देने का कार्यभार लिया। एक चीज संदेह के परे स्थापित हो गयी नंदीग्राम में राजकीय आतंक और राज्यप्रायोजित आतंक के साथ कि सीपीआइ (एम) बेहतरीन दांव (इमज) है देश में एमएनसी और बड़े बिजनेसों के लिए और उनके हितों की सुरक्षा के लिए। यह हैरतअंगेज नहीं होगा यदि वे मार्क्सवादी वेश में इस वफादार नौकर को भविष्य में केंद्र की सत्ता में लाने के लिए चुन लें।

जहां तक ऐसे आंदोलनों में हमारी भूमिका की बात है हम निश्चित तौर पर हर कोशिश करेंगे अग्रिम मोर्चे पर पर रहने और आंदोलन को सही दिशा में नेतृत्व देने की। हम लोगों का आहवान करते हैं कि हरेक सेज को युद्ध क्षेत्र में बदल दें और उन्हें भरोसा दिलाते हैं कि सेजों के खिलाफ जनांदोलनों में हमारा पूरा समर्थन उन्हें मिलेगा।

पिछले महीने जेएमएम नेता और जमशेदपुर से सांसद सुनील महतो आपके गुरिल्लों द्वारा पांच अन्य सहित मार दिये गये। ऐसी रिपोर्टें हैं कि उपमुख्यमंत्री सुधीर महतो को भी चेतावनी दी गयी है। ये कार्रवाइयां कहां तक न्यायोचित हैं? क्या आपकी पार्टी भविष्य में ऐसी और राजनीतिक हत्याओं की योजना बना रही है।
गणपति : हम किसी को केवल इसलिए नहीं मारते कि वह एक सांसद या मंत्री है। भले ही सभी विधायक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सरकार द्वारा बनायी सभी नीतियों के जिम्मेदार होते हैं। यह मुख्यत: एक छोटा-सा गिरोह है राजनीतिक नेताओं का जो साम्राज्यवादी सीबीबी-सामंत गंठजोड़ के इशारे पर नीतियों को अंतिम रूप देने में क्रूर भूमिका निभाता है। ऐसे ही नेताओं पर हम हमले करते हैं।

सुनील महतो के मामले में, हमने उन्हें सिर्फ इसलिए मारा क्योंकि वे सक्रिय रूप से झारखंड में क्रांतिकारी आंदोलन पर बर्बर दमन छेड़ने में शामिल थे। वे केवल जेएमएम के नेता ही नहीं थे, वे नागरिक सुरक्षा समिति (एनएसएस) कहे जानेवाले गैंग से भी सक्रिय रूप से जुड़े थे, जिसने २००१ में पूर्वी सिंहभूम जिले में डुमरिया ब्लॉक में लांगो गांव में हमारे ११ पार्टी कैडरों की हत्या में भाग लिया था। भले ही वे इस संहार के मुख्य स्वरूपकार न हों, उन्होंने राज्य द्वारा प्रायोजित इस निजी भाडे के सिपाहियों वाले गैंग की कार्रवाइयों को प्रोत्साहित किया। बाद में, वे माओवादी आंदोलन के खिलाफ 'सेंदरा` नाम से सश कैंपेन के संगठन में शासक वर्ग के गेम प्लान के मुताबिक आदिवासियों में एक हिस्से को काट कर क्रांतिकारी आंदोलन के खिलाफ खड़ा करने में आगे आये। हम पहले से ही बुरे अनुभव छत्तीसगढ़ में कर चुके हैं जहां तथाकथित शांति अभियान, 'सलवा जुडूम` के नाम पर हजारों आदिवासी लोगों के जीवन को तबाह कर दिया गया। पुलिस और कंेद्रीय बलों की संगत में। इन सलवा जुडूम गैंगों द्वारा ७०० से अधिक गांव धूल में मिला दिये गये, लगभग ६०,००० लोग अपने घरों से उजाड़ दिये गये, ४०० से अधिक मार दिये गये, अनेक महिलाओं का बलात्कार हुआ और लोगों की संपत्ति नष्ट कर दी गयी। हमें ए।पी। के भी अनुभव हैं जहां कोबरा, टाइगर्स आदि गैंगों ने कुछ इलाकों में आतंक का अभियान चला रखा था। ऐसी ही एक योजना सेंदरा के नाम से झारखंड में चलायी गयी और सुनील महतो उसके मुख्य नेताओं में थे, माओवादियों में खिलाफ अभियान के अगुआ। तथाकथित तृतीय प्रस्तुति कमेटी (टीपीसी) भी बिहार में यही भूमिका सरकार की मदद से निभा रही है। अत: हमने नौ अप्रैल को पीएलजीए के एक साहसिक हमले में इसके मुख्य नेता 'मुरारी गंजू` को खत्म कर दिया। ऐसे दंड जहां जरूरी हैं वहां दिये जायेंगे-मामला-दर-मामला आधार पर, चुनिंदा तरीकों से, और ये हमारी आम नीति के तौर न लिये जायें।

हम एक चीज साफ कर देना चाहते हैं: हम राजनीतिक पार्टियों के नेताओं और साधारण सदस्यों की अभेदभावपूर्ण हत्या के लिए नहीं हैं। हम मूलत: जनता की लामबंदी में भरोसा रखते हैं, विभिन्न राजनीतिक पार्टियों को अकेला कर देने, उनकी जन विरोधी नीतियों का परदाफाश करने और उनसे लड़ने के लिए और गैंगों द्वारा हमले में जहां जरूरत हुई वहां पीएलजीए स्क्वाड और कार्रवाई दल के जरिये लडने में। सुनील महतो के सफाये को पूरे तौर पर हमारे जेएमएम के विरोध में होने के तौर पर नहीं व्याख्यायित किया जाना चाहिए। हम जेएमएम के खिलाफ नहीं हैं अगर वे जन विरोधी गतिविधियों और क्रांतिकारी आंदोलन पर हमले से बाज आ जायें। हम जेएमएम के कार्यकर्ताओं और साधारण सदस्यों से अपील करते हैं समझने की सेंदरा के नाम पर शासक वर्ग द्वारा आदिवासी जनता को बांटने की साजिश को और उनका आह्उाान करते हैं राज्य प्रोयोजित निजी गैंग एनएसएस और इसी तरह झारखंड में क्रांतिकारी आंदोलन के खिलाफ सेंदरा के कुख्यात अभियान का नेतृत्व करनेवालों से लड़ने की।

हाल ही में आपकी पीएलजीए ने पुलिस और सलवा जुडूम पर सबसे बड़ा हमला किया, छत्तीसगढ़ के रानी बोदली में बड़ी संख्या में पुलिस और एसपीओ को मार कर। क्या आप भविष्य में ऐसे और हमले देखते हैं? और क्या आप विश्वास करते हैं कि ऐसी कार्रवाइयों से सलवा जुडूम रुक सकता है?

गणपति : १६ मार्च को छत्तीसगढ़ में बीजापुर पुलिस जिले में रानी बोदली में हमारी पार्टी (सीपीआइ माओवादी) के पीएलजीए द्वारा पुलिस कैंप पर साहसिक हमलावर विरोधी रणनीतिक आपरेशन किया गया, जिसमें एसपीओ सहित ६८ पुलिसकर्मी मार दिये गये, सलवा जुडूम के नाम पर राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा नियंत्रित आतंक के क्रूर शासन का एक अपरिहार्य नतीजा था। आपको दंडकारण्य में वास्तविक जमीनी हालत जाननी होगी यह समझने के लिए कि क्यों ऐसे बड़े ऑपरेशन प्लान किये जाते हैं।

जून, २००५ से लगभग दो सालों से, छत्तीसगढ़ में बीजेपी सरकार और केंद्र की यूपीए सरकार ने नरसंहार, यातना और हजारों आदिवासी किसानों की गिरफ्तारी, सैकड़ों महिलओं के सामूहिक बलात्कार और हत्या, हजारों घरों, जंगली अन्न, आदिवासियों की समस्त संपत्ति के विध्वंस, हजारों मवेशियों को खोल कर ले जाने या मार देने, जबरदस्ती लाखों लोगों को ८०० गांवों से भगा देने और दंडकारण्य में खास कर दंतेवाड़ा, बस्तर, कांकेर, बीजापुर और नारायणपुर जिलों में किसी के माओवादी समर्थक होने या क्रांतिकारी जनसंगठन से जुड़े रहने के संदेह पर धमकी देने और डराने के प्रतिक्रांतिकारी आतंकी अभियान को प्रायोजित किया है। हरेक माह वेतन भुगतान पर ५,००० से अधिक युवा भाड़े के सरकारी सैनिकों में तौर पर भरती किये गये, उन आदिवासियों के खिलाफ जो जमीन, जीवन और आजादी के लिए सीपीआइ; माओवादी के नेतृत्व में लड़ रहे हैं। नागा और मिजो बटालियनें सीआरपीएफ और अन्य विशेष पुलिस बलों के साथ खास तौर पर छत्तीसगढ़ बुलायी गयीं, जो आदिवासी आबादी के खिलाफ बेहद पाशविक और अमानवीय कार्रवाइयां कर रही हैं।

एक पूरी आबादी के खिलाफ इन सभी क्रूर हमलों का मतलब है श्मशान की शांति स्थापित करना और टाटाओं, रुइआसों, एस्सारों, मित्तलों, जिंदलों और साम्राज्यवादी एमएनसी जैसे खूंखार शिकारियों के लिए निर्बाध लूट के लिए रास्ता साफ करना। एक लाख रुपये से अधिक के एमओयू छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा इन कारपोरेट दलाल बड़े बिजनेस घरानों के साथ साइन किया गया है, राज्य के समृद्ध खनिज और वन संपदा को हड़पने के लिए। इन दिन-दहाड़े लुटेरों के आदेश पर प्रतिपक्षी कांगेसी नेता महेंद्र कर्मा बीजेपी के गृहमंत्री रामविचार नेताम जैसे आदिवासी दलाल और अन्य इस आदिवासी आबादी के खिलाफ प्रतिक्रांतिकारी युद्ध का नेतृत्व कर रहे हैं।
केंद्रीय बलों की भारी संख्या तैनात है, जो अब १३ बटालियनों से अधिक हो गयी है, राज्य बल की अतिरिक्त बटालियनों की भरती और यहां तक कि भाड़े के पुलिस बल में १४ वर्ष तक के बच्चों की भी भरती हो रही है। पंजाब में युवाओं के नरसंहार के लिए कुख्यात, केपीएस गिल, को खासतौर पर मुख्यमंत्री का सलाकार नियुक्त किया गया है। एक कारपेट सुरक्षातंत्र पुलिस कैंपों के साथ लाया गया है लोगों में आतंक पैदा करने के लिए।
हम सीपीआइ; माओवादी की केंद्रीय कमेटी की ओर से एक बार फिर राज्य और कंेद्र सरकारों को चेतावनी देते हैं कि भूमकाल सेना और पीएलजीए और जनता इससे भी बड़े पैमाने पर हमले करेगी, यदि सलवा जुडूम के नाम पर हत्या का अभियान जल्द से जल्द छोड़ा नहीं गया।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि मध्यवर्ग ने हमेशा से यथास्थिति की इच्छा रखी है। भारतीय मध्यवर्ग और अधिक सामर्थ्यवान/शक्तिशाली होता जा रहा है। उसे सहयोजित करने की आपकी क्या योजना है?
गणपति : यह सच है कि भारतीय मध्यवर्गीय आबादी में वृद्धि हुई है। साथ-साथ मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा बढ़ती हुई कीमतों, बेरोजगारी, जिंदगी की बढ़ती हुई असुरक्षा, शिक्षा पर बढ़ते हुए खर्च के कारण पारिवारिक खर्च में भारी वृद्धि, स्वास्थ्य, यातायात इत्यादि, जो बहुत हद तक निजीकृत हो गये हैं और मध्यवर्ग के एक महत्वपूर्ण हिस्से की पहुंच से बाहर हो गये हैं , के कारण गहरे संकट के दौर से गुजर रहा है। संक्षेप में मध्यवर्ग की संख्या में वृद्धि के बावजूद यह वर्ग बहुत ही निराशाजनक स्थिति में है। अत: हम देखते हैं कि मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से में असंतोष उसे अपनी मांगों के लिए गलियों में उतर जाने के लिए मजबूर कर रहा है, जैसाकि शिक्षकों, सरकारी कर्मचारियों, छात्रों और यहां तक कि उन दुकानदारों की हड़तालों से देखा जा सकता है जो ाापिंग मॉलों और रीटेल क्षेत्र में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश से प्रभावित होते हैं।। ध्यान देने की एक और महत्वपूर्ण बात है कि कल के दिनों की विलासी वस्तुएं आज के उपभोक्ताओं के लिए आधारभूत जरूरतें बन गयी हैं। और इन जरूरतों की सूची बड़े पैमाने पर उपभोक्ता वस्तुओं के भारी उत्पादन और बाजार द्वारा उपभोगवादिता को बढ़ावा देने के कारण दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। अत: इस वर्ग के सदस्यों के बीच असंतोष और झुंझलाहट बढ़ रही है, क्योंकि वे इन चीजों को अपने लिए प्राप्त नहीं कर सकते हैं। चूंकि उनकी आय का अधिकांश हिस्सा मौलिक जरूरतों जैसे भोजन, कपड़े और घर पर खर्च हो जाता है।

मध्यमवर्ग इन मुद्दों से बहुत अधिक प्रभावित है, जैसे बढ़ती कीमतें, असुरक्षा, भ्रष्टाचार, उनके बच्चों के लिए बेराजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च, भूमि माफिया द्वारा दी जानेवाली धमकियां इत्यादी। इनको ध्यान में रखते हुए, पार्टी ने मध्यवर्ग को संघर्ष के लिए पे्ररित करने की योजनाएं बनायी हैं।


सश संघर्ष अनिवार्य क्यों है? क्या यह सही नहींं है कि हिंसा के कारण भारी संख्या में लोग पार्टी से दूर रहने पर मजबूर हो जाते हैं?

गणपति : सश संघर्ष या अहिंसक संघर्ष का प्रश्न व्यक्तिपरक सनक या किसी व्यक्तिविशेष या पार्टी की इच्छाओं पर आधारित नहीं है। यह किसी एक की इच्छा से मुक्त है। यह सभी ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर बना एक नियम है। यह इतिहास की एक सच्चाई है कि संसार में कहीं भी, वर्ग समाज के इतिहास में, प्रतिक्रियाशील शासक वर्ग ने जनांदोलन का हिंसक दमन किये बिना सत्ता नहीं छोड़ी है, या सत्ता में बने रहने के लिए हिंसक प्रतिरोध प्रदर्शन नहीं किया है जब तक कि उन्हें जबरन न हटाया गया हो। बेशक, शांतिपूर्ण आंदोलन या प्रदर्शनों के माध्यम से समाजिक व्यवस्था में लाये गये परिवर्तनों के उदाहरण दिये जा सकते हैं, लेकिन ये सब मात्र सामाजिक व्यवस्था के परिवर्तन मात्र थे-तंत्र परिवर्त्तन नहीं।। शासक वर्ग का एक हिस्सा एक हिंसक क्रांति के बिना शासक वर्ग के दूसरे हिस्से को सत्ता सौंप सकता है, लेकिन जब एक शासक वर्ग बिल्कुल विभिन्न सोचवाले वर्ग से प्रतिस्थापित होता है तो बात बिलकुल अलग होती है। फिर भी हम पाते हैं कि सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन भी हिंसक झड़पों के बिना हो सकते हैं जैसाकि अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में देखा गया है। वास्तव में हमलोगों को बिना सश संघर्ष की जरूरत के तंत्र में परिवर्तन लाकर काफी खुशी होगी।
जब हमने संघर्ष की शुरुआत की तो यह मुख्य रूप से जनसाधारण से संबंधित मामलों जैसे जमीन, जीविका और सामंती और साम्राज्यवादी शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति के लिए एक शांतिपूर्ण आंदोलन था। यह तो साधारण-सी बात है कि कोई सामंत जमीन पर अपना अधिकार या सत्ता इसलिए छोड़ दे, क्योंकि जनसाधारण अपने मौलिक अधिकार के रूप में इसकी मांग कर रहे हैं। जमींदार जनांदोलन/प्रतिरोध का दमन करने के लिए अपने पास उपलब्ध हर साधन का इस्तेमाल करेगा। वह स्थानीय पुलिस, और विशेष सैन्य बल, केंद्रीय अर्धसैनिक बल या जरूरत पड़े तो सेना की भी मदद लेगा। जब कभी हम ने सामंतविरोधी संघर्ष की शुरुआत की तो हमने ऐसा ही पाया। जैसे १९७० के आखिरी के वर्षों के दौरान जगत्याल में, मजदूरों द्वारा जमींदारों का बहिष्कार किया गया तो वे गांवों से भाग गये। हमारा क्रांतिकारी आंदोलन सौ से अधिक गांवों में फैल गया तो उसने सत्ता को हिला कर रख दिया। इस अहिंसक संघर्ष के बाद जो हुआ, वह उन लोगों के लिए आंखे खोलनेवाली बात होनी चाहिए जो सश संघर्ष के विरोध में भ्रम के शिकार हैं।। कुछ हफ्तों के बाद वे जमींदार भाड़े के सिपाहियों के गांवों में वापस आये और बड़े पैमाने पर हिंसा और कठोर दमनात्मक हथकंडे अपनाये, जैसे गिरफ्तारी, मज़दूरों का उत्पीड़न, उनकी सम्पत्ति की बरबादी की जाने लगी। उस क्षेत्र को अशांत घोषित किया गया, जनसाधारण के मौलिक अधिकारों से उन्हें वंचित किया गया और इसी तरह के अन्य कठोर कदम उठाये गये। और इसी बिंदु पर पार्टी श उठाने पर मजबूर हो गयी। यही बात साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षो तथा राष्ट्रीय आंदोलनों के साथ भी सत्य है। कौन अपनी अनमोल जिंदगी को खोना चाहेगा या मुश्किलों का सामना करना चाहेगा जब जनसाधारण की मांग जैसे जमीन पर उनका अधिकार, साम्राज्यवादी शोषण और उत्पीड़न से उनकी मुक्ति शांतिपूर्ण तरीकों के माध्यम से पूरी हो जाये। सभी आंदोलन शांतिपूर्ण आंदोलनों के रूप में शुरू हुए लेकिन प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग की गतिविधियों के कारण इन आंदोलनों ने सश संघर्ष का रूप ले लिया। इराक का मामला इस बात का एक खूबसूरत उदाहरण है कि कैसे वहां की पूरी आबादी को उन साम्राज्यवादियों के खिलाफ श उठाना पड़ा, जिन्होंने तेल की लालच के लिए बेलगाम हिंसा का प्रयोग किया। यही फिलीस्तीन, कश्मीर या और कहीं के लिए भी सत्य है।

आपके प्रश्न का दूसरा हिस्सा एक बहुत बड़ी मिथ्या है। सश संघर्ष की वजह से जनसाधारण कहीं भी पार्टी से दूरनहीं हुए है। जबकि वारस्तविकता यह है कि जहां राज्य ने अपना दमनकारी हथकंडा अपनाया है, वहां प्रभावशालीप्रतिरोध की कमी एक निराशाजनक बात है। दमनकारी सैन्यबल को हराये बिना लोगों को इकट्ठा करना या उनमेंविश्वास जगाना असंभव है। वास्तव में ये सिर्फ हमारी गुरिल्ला टुकड़ियां नहीं हैं जो प्रतिरोध कर रही हैं। जनसाधारण सैन्य बल के खिलाफ सश प्रतिरोध में पीएलजीए का समर्थन करके और बहादुरी से लड़कर मुख्यभूमिका निभा रहे हैं।। यह जमीनी सच्चाई है, यद्यपि बुद्धिजीवी अपने महलों में बैठ कर जो कुछ भी सोचें औरसिद्धांत का निर्माण करे। (अगले अंक में जारी) (यह जन विकल्‍प के जून 2007 अंक में प्रकाशित हुआ )

(साक्षात्कार का दूसरा भाग,जन विकल्‍
के जुलाई 2007 अंक में प्रकाशित हुआ )


यह भारतीय इतिहास का निर्णायक समय है : गणपति




अहिंसक तरीके से आंदोलन क्यों नहीं हो सकते हैं?
गणपति : आपको यह प्रश्न दूसरे तरह से रखना चाहिए। आपको प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग से यह प्रश्न पूछना चाहिए, यदि वे सुनने को तैयार हों , कि वे आंदोलनों को शांतिपूर्ण ढंग से क्यों नहीं होने देते? शासक वर्ग से मेरा तात्पर्य है बड़े जमींदार, बड़ी कंपनियां, साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां, सत्ताधारी भारत सरकार और इसके सश बल, राज्य की पुलिस और अधिकारी वर्ग। वे लोग उन लोगों को क्यों पीटते हैं, गिरफ्तार करते हैं, प्रताड़ित करते हैं या उनकी हत्या कर देते हैं-जो हड़ताल पर जाते हैं। वे हड़ताल पर जानेवाले मजदूरों और कर्मचारियों की नौकरियां क्यों खत्म कर देते हैं? वे शांतिपूर्ण ढंग से धरना या सभा करते हुए लोगों पर गोलियां बरसाने के लिए भाड़े के सिपाहियों, सीआरपीएफ और सेना को क्यों भेजते हैं? खाकीधारियों को औरतों का बलात्कार करने, संपत्ति को बरबाद करने और भारतीय संविधान के नियमों का उल्लंघन करके फर्जी मुठभेड़ करने की अनुमति कैसे दी जाती है? लेकिन फिर भी ऐसे अमानवीय कृत्यों के बावजूद उन्हें बिल्कुल निर्दोष माना जाता है। वे कलिंगनगर, नंदीग्राम, अरवल, इंद्रावली में हुए निर्मम हत्याओं और ऐसे ही जघन्य अमानवीय कृत्यों को स्वच्छंदता से कैसे अंजाम दे देते हैं? कश्मीर में लापता लोगों के मुद्दे को लेकर किये गए प्रदर्शन को न सिर्फ नजरअंदाज किया गया है, बल्कि प्रदर्शनकारियों पर निर्ममता से आक्रमण भी किया जाता रहा है। मणिपुर में आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट क्यों लगाया गया है जबकि वास्तव में भारतीय सेना और सश बल ही पीड़ितों, महिलाओं पर जुल्म ढा रहे हैं जैसा कि मनोरमा बलात्कार मामले में देखा जा सकता है। क्या आप इन खाकी वर्दीधारियों के कृत्यों को भूल सकते हैं, जो प्रदर्शनकारियों को निर्ममता से पीट कर उनके सिरों को फोड़ देते हैं और यही नहीं, जब वे गंभीर रूप से घायल होकर गिर जाते हैं तब भी ये लोग उन्हें नही बख्शते।
संसार में कहीं भी शासक वर्ग ने शांतिपूर्ण ढंग से जनसाधारण की जमीन के अधिकार की मांग और यातनाओं से मुक्ति की मांग को पूरा नहीं होने दिया है; यहां तक कि प्रजातांत्रिक राज्य भी उसी हद तक ऐसा होने देते हैं जहां तक उनकी पूर्ववत स्थिति यथावत् बनी रहे, उन्हंे शोषण करने और काफी मुनाफा का मौका मिले। अहिंसा और कर्म-भाग्य-शोषक वर्ग के सिद्धांत और दोअर्थी नारे हैं, जिनके आधार पर वे जनसाधारण पर जुल्म करते हैं और अपना आधिपत्य स्थापित करते हैं। शुरुआत में कोई भी अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए हिंसात्मक तरीकों को नहीं अपनाता है और न ही ऐसी कोई इच्छा रखता है। यह सिर्फ तभी होता है जब उनके शांतिपूर्ण प्रदर्शनों, रैलियों, धरनों, भूख हड़ताल इत्यादि पर ध्यान नहीं दिया जाता है या दमन करने की कोशिश की जाती है और तब उन्हंे मजबूरी में हिंसात्मक तरीकों को अपनाना पड़ता है। यह एक निर्विवाद सत्य है, फिर चाहे यह सामंत विरोधी सश कृषि संघर्ष हो या उत्तर पूर्व या कश्मीर का राष्ट्रवादी आंदोलन हो या कोई भी साम्राज्य विरोधी संघर्ष हो। इस सार्वभौमिक सत्य की पुष्टि करने के लिए आपको न सिर्फ भारत के बल्कि संसार के किसी भी हिस्से में सश आंदोलनों की उत्पत्ति पर नजर डालने की जरूरत है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि जनसाधारण द्वारा अपनाए गए संघर्ष का प्रारूप हमेशा से ही शासक वर्ग की गतिविधियों पर निर्भर करता है न कि शासक वर्ग संघर्ष के आधार पर अपनी गतिविधियां तय करता है। और आपको यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आज भी हम हिंसात्मक और अहिंसात्मक दोनों ही तरह के संघर्षों को अपनाते हंै।
आपकी हिंसा स्वरक्षा के लिए है या सत्ता हासिल करने के लिए?
गणपति : कहा जाये तो आप इन दोनों उद्देश्यों को अलग नहीं कर सकते। दीर्घकालीन परिदृश्य में या अन्तत: हमारा उद्देश्य सत्ता हासिल करना है जिसके बिना लोगों को साम्राज्यवाद या सामन्तवाद के चंगुल से छुड़ाया नहीं जा सकता। वर्तमान अन्यायपूर्ण सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता। लेकिन अपनी सत्ता को यथावत् बनाये रखने के लिए शासकवर्ग पार्टी पर, जनसाधारण पर बर्बर दमनकारी हथकण्डों का उपयोग कर रहा है। अत: जनसाधारण को आंदोलनों के लिए प्रेरित करने के क्रम में शुरुआती अवस्था में ही हमें सश संघर्ष को बढ़ावा देना पड़ता है और लम्बे समय तक हमारे युद्ध की यही प्रकृति होगी और हमारे सभी हमलावर विरोधी रणनीतिक योजनाएं और अभियान स्वसुरक्षा के रूप में देखे जायेंगे।
भारतीय सत्ता बहुत शक्तिशाली होती जा रही है। सत्ता से लड़ने की आपकी क्या योजना है?
गणपति : रणनीतिक तौर पर कहा जाये तो यह सत्य है कि सत्ता की ताकत बढ़ती जा रही हैै। वह सेना और आंतरिक सुरक्षा के लिए काफी खर्च कर रही है, क्रान्तिकारी ताकतों, राष्ट्रवादी आन्दोलन और जनतांत्रिक आंदोलनों का दमन करने के लिए थैली खोलकर राज्यों को धन का आवंटन कर रही है।
फिर भी दमनकारी ताकतों की वृद्धि एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे को सामने लाती है कि भारतीय सत्ता के लिए दमनकारी ताकतों को बढ़ाए बिना जन आंदोलनों पर नियंत्रण करना असंभव हो रहा है। इस तरह से देखा जाये तो सुरक्षा बल में वृद्धि सामर्थ्य को नहीं दर्शाती, बल्कि यह इस बात को उजागर करती है कि सत्ता कमजोर हो गयी है और यह पुराने ढंग से शासन करने में विश्वास नहीं करती। यह सत्ता में बने रहने के लिए और शोषण की प्रक्रिया जारी रखने के लिए शासक वर्ग द्वारा निरंकुश बल पर आश्रित रहने के दुस्साहस को दर्शाता है। यदि देश में जनतांत्रिक आंदोलनों की वृद्धि नहीं हुई होती तो राज्य तन्त्र को मजबूत बनाने और दमनकारी बल को बढ़ाने की आवश्यकता ही नहीं होती।
लेकिन मैं आपको लगभग भुला दी गई सच्चाई से अवगत कराता हूं। कि कोई भी सत्ता, चाहे वह कितनी ही ताकतवर क्यों न हो जनता की ताकत के आगे नहीं टिक सकती। जैसा कि कामरेड माओ ने इंगित किया है कि सबसे ताकतवार सत्ता भी कागजी शेर होती है। कल के दिनों में हमने देखा कि किस प्रकार सबसे शक्तिशाली देश की सबसे शक्तिशाली सेना को वियतनाम में करारी हार स्वीकार कर बैठना पड़ा। आज सम्पूर्ण संसार इराक में साधारण अप्रशिक्षित पर दृढ़ राष्ट्रीय मुक्ति के लड़ाकुओं और अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में लड़ रही शक्तिशाली सेना के बीच की भिड़ंत को देखकर आश्चर्यचकित है। अन्तत: निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि स्वतंत्रता प्रेमी लोग सत्ता से ज्यादा शक्तिशाली हंै और इस सार्वभौमिक सत्य को भूला नहीं जा सकता कि जहां उत्पीड़न होगा वहां प्रतिरोध होगा। सत्ता चाहे कितनी भी ताकतवर क्यों न लगे या हो, इसे जनसाधारण के प्रतिकार के सामने घुटने टेकने होंगे।
अभी हाल में हुई हमारी एकता कांग्रेस-नौवीं कांग्रेस में इस मुद्दे पर विस्तार से विश्लेषण किया गया है और योजनाएं तैयार की गई हंै कि किस प्रकार जनसाधारण द्वारा सत्ता का प्रतिकार किया जाए, जो सामन्तवादी, साम्राज्यवादी ताकतों तथा बड़ी कम्पनियों द्वारा प्रताड़ित हुए हैं। और बेशक इसके साथ-साथ सैन्य बल की क्षमताओं की वृद्धि करके प्रतिरोध होना चाहिए। भारतीय सत्ता की ताकतों और कमजोरियों के विशेष अध्ययन की शुरुआत की गयी है। आप तो जानते ही होंगे कि सबसे शक्तिशाली शत्रु का भी कोई न कोई कमजोर पहलु होता है। हमें इन कमजोर पहलुओं को ठीक ढंग से पहचानना है और जीत हासिल करने के लिए उन पहलुओं पर हमला करना है।
आप चुनाव के माध्यम से संसद में जाकर प्रजातांत्रिक तरीके से मुद्दों को क्यों नहीं उठाते?
गणपति : यह उस व्यक्ति के लिए एक तर्कसंगत प्रश्न है जो तथाकथित संसदीय प्रजातंत्र के बाह्य आवरण से ही अवगत है। जरूरी है सिर्फ प्रारूप को ही नहीं बल्कि उसके सार, उसके केंद्र को देखना। यदि आप प्रजातंत्र के बाहरी आवरण को हटायेंगे तो अन्दर सड़े हुए दुर्गंधयुक्त शव को पायेंगे/सड़ा हुआ तंत्र पायेंगे। इसलिए लेनिन ने संसद को सुअरबाड़ा के रूप में और महज एक हलचलवाली बातूनी दुकान के रूप में वर्णित किया है। हमलोग इसे बातूनी दुकान क्यों कहते हैं? सबसे पहले संसद द्वारा लोगों की वास्तविक समस्याओं को कभी संबोधित ही नहीं किया जा सकता, उनके हल की बात तो छोड़ ही दी जाये। संसदीय संस्था उसके लिए बनी ही नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि उनके पास कोई सामर्थ्य नहीं है। वे जनसाधारण के लिए लाभकारी कुछ प्रस्तावों को पारित तो कर सकते हैं लेकिन उन्हें कार्यपालिका के माध्यम से लागू किया जाता है जिसके पास वास्तविक शक्ति होती है। हमलोग लैंड सीलिंग एक्ट, अस्पृश्यता, दहेज इत्यादि पर बने कानून की स्थिति से वाकिफ़ तो हैं ही। यह कार्यपालिका ही है जो सभी प्रक्रियाओं, नियमों, कानूनों का कार्यान्वयन करती है। इंदिरा गांधी के शासनकाल में आपातकाल के दौरान जब संसद की ताकत को उच्छेदित किया गया था तो कार्यपालिका की वास्तविक ताकत सामने आई थी। लेकिन गलियों में गुजर बसर करनेवाला आदमी जानता है कि किस प्रकार कर अधिकारी, सिपाही और स्थानीय मजिस्ट्रेट उसकी जिंदगी तय करते हैं।। कितना ही खूबसूरत और आकर्षक कोई अधिनियम क्यों न लगे, अन्तत: पैसे की ताकत बल और भाई-भतीजवाद ही उसकी जिन्दगी के हरेक पहलू को तय करते हैं।

दूसरी ओर संसदीय संस्था सदा यथास्थिति को बनाये रखने के लिए प्रयासरत रहती है और तंत्र में परिवर्तन की कोई आवश्यकता ही नहीं समझती। वे जनसाधारण के बीच अपनी विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए समय-समय पर कुछ दिखावटी परिवर्तन कर देते हैं।। सबसे महत्वपूर्ण तो यह बात है कि वास्वतिकता यही है कि साम्राज्यवादी, सामन्तवादी ताकतें बड़े जमींदार और माफिया संसद पर अपना नियंत्रण बनाये हुए हैं।। जो संसद का हिस्सा बनते हैं वे इन लॉबियों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं और इनके हाथों की कठपुतली मात्र होते हैं। एक नेक इरादे वाला संसद सदस्य भी इन बड़े प्रभावशाली लोगों द्वारा बनाए गए कानून से बाहर जाने की कल्पना नहीं कर सकता। यदि संसद के कार्यों का आकलन किया जाए तो आप पाएंगे कि लगभग ९० प्रतिशत कार्यवाही कचरे जैसी है, जिसका लोगों की वास्तविक समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है।

'चुनाव का तंत्र एक बहुत बड़ा ढांेग है` इस बात को स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है, एक स्कूल जानेवाला बच्चा भी इस बात को जानता है। क्या शराब और पैसे से मतों को खरीदने और जातीय, धार्मिक भावनाओं को प्रेरित करने को आप प्रजातंत्र कहेंगे? और चुनाव के बाद विधायकों को बाजार की किसी वस्तु की तरह खरीदने को क्या प्रजातंत्र कहा जायेगा? यदि नरेन्द्र मोदी, गुजरात में हजारों मुसलमानों का हत्यारा, चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री पद के लिए दोबारा चुना जा सकता है; यदि अपराधी, डकैत और बिल्कुल भ्रष्ट राजनीतिज्ञ चुने जा सकते है; यदि मतों को बन्दूक की नोंक पर और बूथ पर कब्जा करके प्राप्त किया जा सकता है तो क्या आप सच में यह सोचते हैं कि इस तथाकथित प्रजातंत्र का कोई अर्थ है?

इसलिए हमारी पार्टी में उन दूसरी कम्युनिस्ट राजनैतिक पार्टी से अलग बिल्कुल स्पष्टता पाई जाती है जो क्रान्तिकारी होने का दावा तो करती है परन्तु वास्तविकता तो यह है कि वे संसदीय राजनीति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। हमारी यह मान्यता है कि संघर्ष से ही जनसाधारण की समस्याओं को हल किया जा सकता है और संसदीय संस्थाएं भ्रामक स्थिति पैदा करने के अलावा कुछ नहीं कर सकतीं। संसद लोगों के आक्रोश को निकालने का सेफ्टी वाल्व है, नहीं तो तंत्र टुकड़ों में विस्फोटित हो जाएगा। आप सोचते हैं कि संसद में मुद्दा उठाना प्रजातंत्र है लेकिन हमारा मानना है कि जनसाधारण सुसंगठित रूप से प्रदर्शन करके प्रजातंत्रिक तरीके से मुद्दा उठाये। हमलोग हमेशा इस तरह के संघर्षों का समर्थन करेंगे और गैर प्रजातांत्रिक ढंग से चुने गए उन शक्तिहीन संसदीय संस्थाओं के दलदल में कभी पांव नहीं रखेंगे जो बड़े व्यापारिक संस्थानों और सामंतों के उपकरणों का काम करते हंै और साम्राज्यवादियों के सिद्धांत के अनुसार चलते हैं।


क्या आपको डर है कि यदि आप संसद में शामिल होंगे तो आपकी पार्टी भी भ्रष्ट हो सकती है?

गणपति : इस प्रश्न का उत्तर मेरे पहले दिये गए स्पष्टीकरण में समाहित है। एक शब्द में कहा जाये तो संसद में शामिल होकर भ्रष्ट होने से ज्यादा सच तो यह है कि भ्रष्ट दल और राजनीतिज्ञ ही संसदीय तंत्र का हिस्सा बन सकते हैंं। विशेष रूप से हमारी पार्टी का मानना है कि संसद की आर्थिक ताकत के समक्ष सच्चे व्यक्तियों की प्रजातांत्रिक सत्ता कायम करना ही लोगों के लिए वास्तविक विकल्प है। हमलोग देश के कुछ हिस्सों में लोगों की सत्तावाली ऐसी संस्थाएं बना चुके हैं जैसे दण्डकारण्य में जनता सरकार। ये क्रांतिकारी संस्थाएं दिखाती हैं कि किस प्रकार वास्तविक सामर्थ्य का इस्तेमाल किया जाता है जो कि नपुंसक, भ्रष्ट और आपराधिक संसदीय संस्थाओं से बिल्कुल भिन्न होती है।


आपका जनाधार क्या है?
गणपति : हमारे जनाधार में वृहत पीड़ित जनसमुदाय, धरती पर रह रहे शोक संतप्त लोग, कंगाल, विमुख, विक्षुब्ध लोग समाहित हैं। मजदूर, किसान, मध्यम वर्ग, दलित, औरतें, आदिवासी और करोड़ों मेहनती लोग हमारे जनाधार का निर्माण करते हैं ये वृहत आबादी वास्तविक भारत है न कि समाज के पांच या दस प्रतिशत शोषक वर्ग की आबादी से भारत की पहचान होती है। इस वृहत आबादी को क्रान्ति की जरूरत है और वे हमारी ओर आशाभरी दृष्टि से देखते हैं, यद्यपि उन्होंने वास्तविकता में हमें देखा भी नहीं है। जब हमारे व्यक्तिपरक बल में वृद्धि होगी तो हम देश भर में इन पीड़ितों के बीच प्रवेश करेंगे। आज उन सारे क्षेत्रों में समाज के इस पीड़ित हिस्से के बीच हमारा एक मजबूत ठोस आधार बन गया है जहां हम सश सामन्त विरोधी कृषि संघर्ष का नेतृत्व कर रहे हैंं। फिर भी अब भी शहरी क्षेत्रों में समाज के दूसरे हिस्सों जैसे मजदूर वर्ग, छात्रों, युवाओं, मध्यवर्ग, छोटे व्यापारियों, फेरीवालों के बीच अपनी पैठ बनाने की आवश्यकता है।

क्या आप कोई सांख्यिकी आंकड़ा दे सकते हैं जिससे पता चले कि पिछले एक वर्ष में आपके कैडर बेस में कितनी वृद्धि हुई है?

गणपति : मैं ठीक-ठीक सही आंकड़े नहीं दे सकता हूं क्योंकि हम अपने दुश्मनों को अपने पार्टी के वास्तविक विकास के बारे में सही जानकारी नहीं दे सकते हैं। उन्हें अन्वेषण संस्थाओं और खुफिया एजेंसियों के माध्यम से अंदाजा लगाने और आंकड़े इकट्ठा करने दीजिए। लेकिन इन एजेन्सियों द्वारा तैयार किए गए हमारी पार्टी के विकास की रफ्तार और हमारे संघर्ष के आंकड़ों को देखकर हमलोग प्रभावित हैं। लेकिन एक बात मैं स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि कुछ राज्यों में काफी नुकसान के बावजूद हमने पिछले एक साल में अपने कैडर बेस, मास बेस में काफी वृद्धि की है।

भारतवर्ष का कितना हिस्सा माओवादी नियंत्रण के अन्तर्गत है? एक बार भारत के प्रधानमंत्री ने कहा था ६०४ जिलों में से १६० जिलों में माओवादी नियंत्रण है। क्या यह अतिशयोक्ति है?
गणपति : जैसा कि मैंने पहले कहा कि हमारे आन्दोलन के विषय में ऐसे आंकड़ों को देखकर हम काफी प्रभावित होते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री के इस कथन से तो यह स्पष्ट है कि भारत के प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग के लिए हम कितना भयानक दु:स्वप्न बन गए हैं। वास्तव में कई एजेंसियां आंकड़े यह दिखाने के लिए निकालती हैं कि माओवादी कितना बड़ा खतरा बन गए हैं। एक लेखक का कहना है कि हम २ जिला प्रति सप्ताह के रफ्तार से बढ़ रहे हैं। दूसरे का कहना है कि २००५ में हम ६४ जिलों से बढ़कर २००७ में १६९ जिलोंे में फैल गए हैं। दूसरे शोधकर्त्ता का कहना है कि माओवादी अरुणाचल प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के अधिकांश हिस्सों में फैल चुके हैं। ये सारे आंकड़े मात्र उनकी कल्पना की उपज हंै और वे इन्हें बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं ताकि अधिक से अधिक सैन्य बल भेजा जा सके और क्रांतिकारी आन्दोलन का दमन करने के लिए अधिक से अधिक केन्द्रीय फंड का आवंटन हो।

यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि माओवादी उतने सारे जिलों को नियंत्रित करते हैं लेकिन जहां तक हमारे प्रभाव का प्रश्न है तो वह दिए गए आंकड़ों से कहीं अधिक है।


जनशक्ति से आपका क्या तात्पर्य है, जैसा कि हमने पश्चिम बंगाल में देखा है-कम्युनिस्ट क्या करते हैं जब वे सत्ता में आ जाते हैं? आप कैसे सुनिश्चित करेंगे
कि आप जनसाधारण को ताकत दे पायेंगे?

गणपति : इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अधिकांश लोगों की तरह आप भी नामों से उलझन में पड़ गए होंगे। बस इसलिए कि एक पार्टी अपने आप को कम्युनिस्ट पार्टी कहती है, वह पार्टी कम्युनिस्ट बन गई। ठीक उसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी कहने से वह भारत के जनसाधारण की पार्टी या समाजवादी पार्टी करने से समाजवादी दर्शनवाली पार्टी नहीं बन जाती। वास्तविकता तो यह है कि सीपीआइ (एम) ने बहुत पहले ही साम्यवादी परियोजना तथा मार्क्सवादी दर्शन को त्याग दिया था, यद्यपि यह अपने आप को मार्क्सवादी पार्टी कहती है। यह १९६७ में नक्सलबाड़ी के सश कृषक आंदोलन की शुरुआत के साथ सामाजिक फासीवादी पार्टी बन गयी, जब बाद के १९६० से लेकर १९७० के दशक के शुरुआती वर्षों के दौरान पश्चिम बंगाल के गृहमंत्री ज्योति बसु के आदेश पर हजारांे क्रान्तिकारियों का संहार कर दिया गया था। १४ मार्च को नंदीग्राम में हुआ नरसंहार, सिंगुर में लोगों के संघर्ष का निर्मम दमन और बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सेज बनाने की अनुमति देने की मुक्तकण्ठ से की गई घोषणा तथा राज्य को इन शार्कों के लिए आश्रय स्थल में तब्दील करने का प्रयास इस बात की ओर इशारा करता है कि किस प्रकार बुद्धदेव की मार्क्सवादी पार्टी टाटा, सलेम और दूसरी साम्राज्यवादी कम्पनियों के आदेश पर काम करती हैं नन्दीग्राम में पुलिस और सीपीआइ (एम) के कार्यकर्ताओं ने जिस प्रकार मिलकर पहले से ही रचे गए षड्यंत्र के तहत नरसंहार को अन्जाम दिया उससे भारत की नई पीढ़ी के सामने उनका सामाजिक फासीवादी चेहरा उजागर हो गया है। पश्चिम बंगाल में सिर्फ फासीवादी सत्ता ही रह गई है।

अब जनशक्ति के आपके प्रश्न की ओर आते हैं। हमलोग जनशक्ति तभी कहते हैं जब सत्ता वास्तव में लोगों के हाथों में हो। आप इसे दण्डकारण्य, बिहार और झारखण्ड के कुछ हिस्सों में देख सकते हैं। हमलोगों ने आंधप्रदेश के कुछ गांवों में इसे स्थापित किया था, लेकिन हमारे सश बलों की कमजोरियों के कारण ये बर्बाद हो गए, क्योंकि केन्द्रीय और राज्य के विशेष बलों के प्रतिकार के सामने ये टिक नहीं पाये। जहां कहीं हमने प्रारम्भिक अवस्था में लोगों की सत्तावाली संस्थाओं को स्थापित किया है, वहां अपनी जिन्दगी का निर्वहन करने में उनकी भागीदारी को और सामूहिक ढंग़ से स्कूल, टंकियों, अस्पताल का निर्माण करने तथा अपनी उत्पादकता को बढ़ा कर गांवों को विकसित करने, सामन्ती न्यायलयों में गए बिना आपसी मतभेदों को सुलझाने, संक्षेप में अपनी मंजिल तय करने में जनसाधारण की ऊर्जा और नेतृत्व को देखा जा सकता है। जहां हमारी लोक सेना सरकार के सश बलों को नेस्तनाबूत करने में सफल हुई है, वहां लोगों का जमींदारों, जंगल अधिकारियों, बड़े ठेकेदारों और सिपाहियों द्वारा शोषण नहीं होता है। जनसाधारण के दावों के कारण बड़ी औद्योगिक और बहुराष्ट्रीय कम्पनियां दूर ही रहती हैं। इन हिस्सों में औरतों को भी देश के दूसरे हिस्सों में रह रही औरतों की तुलना में अधिक स्वतंत्रता प्राप्त है।

हमलोगों को लोक सेना को मजबूत करके शक्तिशाली बल का निर्माण करके, लोकयुद्ध को तीव्र करके दुश्मनों के बल को क्षीण करके और आधार क्षेत्र की स्थापना करके जनसाधारण की शक्ति को स्थानीय स्तर से बढ़ा कर ऊंचे स्तरों पर ले जाना है। इन आधार क्षेत्रों में ही यह शक्ति और ठोस बनती है फिर भी देशभर में सत्ता पर अंतिम कब्जा होने तक लोगों को गांवों और दूसरे क्षेत्रों में अपनी शक्ति का इस्तेमाल करने में मुश्किलें होंती हैं। इन सीमाओं को ध्यान में रखते हुए आपको लोगों की शक्ति को देखना होगा।


लेकिन विश्वस्तर पर यह संघर्ष अब वैश्वीकरण समर्थक बनाम इस्लाम के उभार का रूप ले रहा है-इस संदर्भ में आप एक वर्गरहित समाज को कैसे देखते हैं?

गणपति : वैश्वीरकण लोगों पर, सदियों से लोगों के मन में संजोए गए नैतिक मूल्यों पर आक्रमण है। वैश्वीकरण बाजारू फंडामेंटलिज्म की विचारधारा है। बाजारू फंडामेंटलिस्ट देश में सदियों से संजोयी गयी हर चीज को बरबाद कर रहे हैं । वे वैश्विक आधिपत्य की स्थापना के उद्देश्य से मात्र लालच और स्वार्थ को बढ़ावा देते हैं और इस 'उच्च` उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे सोचते हैं कि विश्व की बरबादी भी कोलेटरल डैमेज है।
संसार भर में वैश्वीकरण के खिलाफ लोगों की एक लहर उमड़ पड़ी है। और इस्लामी उभार साम्राज्यवाद, वैश्वीकरण और युद्ध के खिलाफ विश्वस्तर के जन उभार का एक अभिन्न हिस्सा है।
एक वर्गरहित समाज-साम्यवाद-की स्थापना सचेत मानवीय कर्तव्य है और यह मानवीय चेतना के परिवर्तन से सम्भव है। और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विश्वस्तर पर साम्राज्यवाद को खत्म करना होगा और हर देश में इसकी प्रतिक्रिया को समाप्त करना होगा। इस्लामी उभार साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के खिलाफ लोगों की, खास कर मुसलमानों की प्रतिक्रिया है। जब तक साम्राज्यवाद का अस्तित्व है और जब तक यह एशिया और अफ्रीका के देशों में इस्लाम के पतनोन्मुखी प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग का समर्थन करेगा तब तक मुसलमानों के लिए अपनी रुढ़िवादिता से बाहर निकलना सम्भव नहीं होगा। सिर्फ विश्वस्तर पर साम्राज्यवाद की समाप्ति के बाद ही मुसलमान जनता अपनी अस्पष्ट विचारधाराओं और नैतिक मूल्यों से बाहर निकल सकती है और यह वर्गहीन समाज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करेगा।


इस्लामी उभार के विषय में आपकी क्या धारणा है?

गणपति : इस प्रश्न का उत्तर दिये गए स्पष्टीकरण में समायोजित है। संक्षेप में कहा जाये तो हम इस्लामी उभार को समकालीन संसार में एक प्रगतिशील साम्राज्यवादी विरोधी बल के रूप में देखते हैं। इराक, अफगानिस्तान, फिलिस्तीन, कश्मीर, चेचन्या और दूसरे देशों में चल रहे संषर्घ को इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा हो रहा संघर्ष मानना गलत होगा। संघर्ष के इस प्रारूप को सभ्यताओं का टकराव भी नहीं माना जा सकता, जिसे बहुत पहले सैम्युअल हटिंगटन द्वारा सिद्धांत के रूप में पेश किया गया था और इसे अब फिर से पुनर्जीवित किया जा रहा है। संक्षेप में, ये सभी राष्ट्रीय मुक्ति के युद्ध हैं यद्यपि इन संघर्षों में इस्लामी कट्टरपंथियों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हमलोग वैचारिक तथा राजनैतिक दोनों ही दृष्टिकोणों से धार्मिक कट्टरपंथ का विरोध करते हैं क्योंकि यह वर्ग भेद और वर्ग संघर्ष को अस्पष्ट बना देता है और जनसाधारण को वर्ग उत्पीड़न का शिकार बना देता है। फिर भी, मेरे अनुसार इस्लामी कट्टरपंथ अमेरीका, इंग्लैंड, जापान और दूसरे साम्राज्यवादी देशों द्वारा प्रोत्साहित बाजारू फंडामेंटलिज्म के खिलाफ संघर्ष में जनसाधारण का मतैक्य है।

यह उभार निश्चित रूप से मुसलमान जनसाधारण के बीच साम्राज्यवाद विरोधी प्रजातांत्रिक चेतना को बढ़ाएगा और उन्हें दूसरी धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील और क्रांतिकारी ताकतों के नजदीक ले आएगा। मैं इस्लामी उभार को इस्लाम के आंदोलन में कट्टरपंथी विचारधारा के आधिपत्य के बावजूद मुसलमान लोगों के बीच प्रजातांत्रिक जागरूकता की शुरुआत के रूप में देखता हूं।। हमारी पार्टी इस्लामी उभार का समर्थन करती है और सभी साम्राज्य विरोधी बलों से उनका जुड़ाव चाहती है।


हिज्बुल्ला के नसरुल्ला ने कहा है कि लेफ्ट को इस्लामवादियों के नजदीक आना चाहिए। भारतीय संदर्भ में आपकी क्या सोच है?

गणपति : मौलिक रूप से मैं हिज्बुल्ला के नसरुल्ला के कथन से सहमत हूं। यह समझना चाहिए कि नसरुल्ला इस्लामिक देशों में साम्राज्यवाद से राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष की ओर इशारा करते हैं।
समय की मांग यह है कि साम्राज्यवाद, खासकर अमरीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ सभी ताकतों को एक होना पड़ेगा क्योंकि यह हजारों वर्षों के इतिहास द्वारा प्राप्त मानव मूल्यों को बलपूर्वक बर्बाद कर रहा है और एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के हर राष्ट्र को प्रताड़ित कर रहा है। लेफ्ट भी प्रजातांत्रिक होने का दावा नहीं कर सकता यदि वह इस्लामिक आंदोलन में सम्मिलित उन बलों से नहीं एकीकृत हो जो साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वे सभी आन्दोलन जो विभिन्न देशों में इसलामी ताकतों के नेतृत्व में चलाए जा रहे हैं, प्रकृति से प्रजातांत्रिक हैं। इन आंदोलनों के नेतृत्व के द्वारा इस्तेमाल की गई धार्मिक भाषा इनकी प्रजातांत्रिक और साम्राज्य विरोधी प्रकृति को परिवर्त्तित नहीं करती।


नेपाल के विषय में आपका क्या मानना है?

गणपति : हमारी पार्टी के अधिकारिक मोर्चे से सम्बंधित जानकारियां हमारी पत्रिका, पीपुल्स वार के पिछले अंक में कथनों, साक्षात्कारों और लेखों में दे दी गई है। पिछले साल हमारे पार्टी प्रवक्ता का साक्षात्कार भी छपा था। हमलोग नेपाल में हो रहे परिवर्तन को लेकर विभिन्न माओवादी दलों से विचार विमर्श कर रहे हैं।

नेपाल के लोगों ने राजतंत्र के खिलाफ संघर्ष में बहुत योग्यता दिखाई थी लेकिन यह संघर्ष अभी अधूरा ही रहा। वास्तविक संघर्ष ज्ञानेन्द्र और उस राजतंत्र के खिलाफ नहीं है जो नेपाल के जनसाधारण के शोषण और सामन्ती साम्राज्यवादी उत्पीड़न
का प्रतीक है। सामन्ती बलों, साम्राज्यवादियों, भारतीय तथा स्थानीय व्यापारिक संस्थानों को उखाड़ कर फेंके बिना, मात्र ज्ञानेन्द्र के निष्कासन से नेपाली जनसाधारण की समस्याओं का समाधान नहीं होगा। यह लोकयुद्ध में जीत के उपरान्त ही संभव हो सकता है। कोई संसद भी इन प्रतिक्रियावादी शासकों का कुछ बिगाड़ नहीं सकती।

हमारा मानना है कि इक्कसवीं सदी के प्रजातंत्र के नाम पर कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) ने बहुदलीय प्रजातंत्र का जो कदम उठाया है उससे नेपाल में लोक युद्ध में भटकाव का गम्भीर खतरा पैदा हो गया है। यह कहते हुए कि क्रांति के बाद पूंजीवाद के वापसी को रोकने के लिए ऐसा कदम जरूरी है, वे राजनैतिक अधिग्रहण के पहले ही चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं। यह क्रांति को दुष्प्रभावित करेगा। हमलोग इन प्रश्नों पर नेपाल के माओवादियों से विचार विमर्श कर रहे हैं। हमलोग उन्हें बता रहे हैं कि संसदीय प्रजातन्त्र के विषय में भ्रम न रखंे। लगभग छह दशकों का संसार भर में और भारत के संसदीय प्रजातंत्र का इतिहास दिखता है कि यह कितना गलत है।

समझौते का सबसे खतरनाक हिस्सा हथियारों को जब्त करके और कैंटोनमेंट में योद्धाओं को रखकर पीएलए को निरी़कृत करना है। इससे कुछ अच्छा परिणाम प्राप्त नहीं होगा बल्कि जनसाधारण को निरस्‍त्रीकरण करके उन्हें फिर से आततायिओं की दया पर छोड़ दिया जाएगा। न ही सामा्रज्यवादी और न हीं बड़े पड़ोसी जैसे भारत और चीन नेपाल की समाजिक आर्थिक अर्थव्यवस्था में कोई आधारभूत परिवतर्न होने देंगे। यदि उनकी अभिलाषाओं को माओवादियों के द्वारा लोक युद्ध या संसद द्वारा क्षति पहुंचाई गई तो वे मूक दर्शक नहीं बने रहेंगे। अत: बहुदलीय प्रजातंत्र के नाम पर संसद में प्रवेश करके माओवादी सामन्ती और साम्राज्यवादी शोषण को खत्म करने के उद्देश्य को कभी प्राप्त नहीं कर पा सकते हैं। उन्हें या तो तंत्र में समायोजित होना होगा या शासक वर्ग के साथ सत्ता को बांटने की वर्त्तमान नीति को छोड़कर सत्ता हासिल करने के लिए सश संघर्ष को जारी रखना होगा। बौद्ध मत के मध्यमार्ग जैसा कुछ नहीं है। वे बुर्जुआ द्वारा आविष्कार किए गए खेल के नियमों को नहीं तय कर सकते।
दोनों ही, राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय क्षेत्रों में काफी तेज रफ्तार से परिवर्तन हो रहे हैं। इस हलचल में आप अपनी पार्टी की क्या भूमिका मानते हैं?
गणपति : हमारी पार्टी को राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्थिति में बहुत बड़ी भूमिका निभानी है। हमारी कांग्रेस ने वर्तमान राजनैतिक स्थिति का विश्लेषण किया है और पार्टी और लोगोें के लिए अपील जारी की है। इसने स्थिति का उपयोग करने के लिए और जारी लोकयुद्ध में जीत हासिल करने के लिए जरूरी रणनीति बनाई है। नई केन्द्रीय कमीटी ने इन रणनीतियों को समयबद्ध कार्यक्रम और योजना का रूप देकर इन्हें और कारगर बनाने की कोशिश की है। कांग्रेस के द्वारा हमारे देश में और संसार के लोगों के समक्ष उत्पन्न समस्याओं को लेकर कई संकल्प लिये गए। हमें आशा है कि हम इन मामलों में कारगर रूप से काम कर पाएंगे और जनांदोलन को व्यापक राजनैतिक-सैन्य जनांदोलन का रूप दे पायेंगे।
अगले दस से बीस वर्षों में संसार भर में राजनैतिक और समाजिक उथल-पुथल का दौर होगा और हमारा देश साम्राज्यवाद के खिलाफ और शासक वर्ग की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ जनांदोलनों का साक्षी बनेगा जैसे सेज के निर्माण, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों के विस्थापन, डैकोनियन कानून, सरकारी दमन, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, मुद्रास्फीति, समाजिक कल्याण की ओर सरकार की बेरुखी इत्यादि के खिलाफ वृहत पैमाने पर जनांदोलन होंगे। देशभर में लोगों और सत्ता के बीच सैन्य युद्ध आम बात होगी और मुझे पक्का पता है कि हमारी पार्टी इन आंदोलनों में सबसे आगे होगी। यह हमारे देश की पीड़ित जनता को नेतृत्व प्रदान करने की स्थिति में पहुंच जाएगी। हमारी पार्टी पर प्रतिबंध लगा कर, हमारे साथियों की हत्या करके, लोगों का निर्मम दमन करके, क्रांन्तिकारी आंदोलन से जुड़े लोगों को डरा धमका कर, और हर सम्भव दमनकारी हथकण्डों को अपनाकर भी विशाल पीड़ित आबादी का हमारी पार्टी द्वारा नेतृत्व को टाला नहीं जा सकता। प्रतिक्रियावादी पार्टियां, संसदीय तंत्र लोगों के नजरों में गिर चुके हैं और लोग अपनी वास्तविक मुक्ति के लिए हमारी पार्टी की ओर आशापूर्ण दृष्टिकोण रखते हैं।



और अंतत: क्या आपको ऐसा लगता है कि भारतीय माओवादी संघर्ष के इतिहास में यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण समय है? यदि ऐसा है, तो क्यों?

गणपति : मुझे यह नहीं मालूम कि इस प्रश्न को रखते हुए आपके दिमाग में क्या कुछ चल रहा है। लेकिन कई कारणों से मैं कहूंगा- हां। जब पहली बार आप ३७ वर्षों के बाद दो मुख्य माओवादी धाराओं के मिलन के बाद क्रान्ति के लिए एक एकल निर्देशन केन्द्र की उत्पत्ति को देखते हैं तो यह वास्तव में भारतीय माओवादी संघर्ष के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण समय है। और इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। एकता कांग्रेस आयोजित करना हाल के वर्षों में पार्टी के लिए एक चुनौती रही है। साम्राज्यवादियों की सलाह से, शासक वर्ग ने कांग्रेस को भंग करने के हर सम्भव प्रयास किये है। फिर भी केंद्रीय कमेटी और हमारी पार्टी की अन्य कमेटियों की सतर्क योजना के कारण हमारे पीएलजीए के बहादुर योद्धाओं द्वारा प्रदान सुरक्षा के कारण और सदा सजग क्रान्तिकारी जनसाधारण के सहयोग से हमलोग इस विशालकाय प्रजातांत्रिक काम को पूरा कर सके जो दो साल पहले शुरू हुआ था। यह गर्व की बात है कि पन्द्रह दिनों तक सफल रूप से कांग्रेस का संगठन करके हमलोग अपने दुश्मनों को कड़ी मात दे पाए।
यह दूसरे कारण से भी महत्वपूर्ण समय है। आजकल माओवादी आंदोलन के सामने दूरस्थ गांवों में मजबूत पीएलए का गठन और आधार क्षेत्र का निर्माण करना बहुत बड़ी चुनौती है। भारत में प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग आधार क्षेत्र के निर्माण को रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है, क्योंकि इससे सड़े हुए संसदीय तंत्र और आपराधिक, जातीय, फासीवादी संसदीय दलों के खिलाफ एक वास्तविक विकल्प मिल जायेगा। अत: हमलोग सिर्फ केन्द्रीय बलों और राज्य के विशेष बलों की चौकियों की स्थापना को ही नहीं देखते हैं बल्कि स्थानीय आबादी को सशी़कृत करके तथा प्रशिक्षित करके क्रांतिकारी आन्दोलनों के सामने प्रस्तुत करके भी नरसंहार किये जा रहे हैं जो हमें क्रांतिपूर्व रूस के ब्लैक हंड्रेड और फासीवादी हिटलर के नाज़ी दलों की याद दिलाते है। यही स्थिति दण्डकारण्य में सलवा जुडूम के नाम पर और बिहार और झारखण्ड में सेंदरा के नाम पर विद्यमान है। वे लोग और अधिक रक्तपात के लिए भारतीय सेना को भेजने से नहीं हिचकेंगे और माओवादी आंदोलन केवल दुश्मन बलों के इन हमलों को करारा जवाब देकर ही आगे बढ़ सकता है। अत: इस प्रकार हम वर्तमान समय को भारत में माओवादी संघर्ष के इतिहास का निर्णायक समय मानते हैं।

और आखिरी कारण, जिस वजह से हम वर्तमान समय को निर्णायक मानते हैं, वह यह है कि हममाओवादियों के सामने करोड़ों की जनता को उस समय नेतृत्व देने की जरूरत है जब सम्पूर्ण देश एकनव उपनिवेश में तब्दील हो रहा है, जब देश को सेज के नाम पर साम्राज्यवादियों और बड़ी कंपनियों के हाथों में बेचा जा रहा है, जब करोड़ो लोगों को तथाकथित विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित किया जा रहा है, जब मजदूर, किसान, कर्मचारी, छात्र, बुद्धिजीवी, दलित, औरतें, आदिवासी, राष्ट्रीयताएं, धार्मिक अल्पसंख्यक और दूसरे क्रांति की आग में धधक रहे हैं
(समाप्त) अनुवाद : ज वि टी

राजूरंजन प्रसाद


समय मुर्दागाडी नहीं होता

निर्मला पुतुल की छिटपुट कविताओं ने मुझे कभी काफी प्रभावित किया था। ठीक-ठीक शब्दों में बयान करूं तो वह आकर्षक लगभग सम्मोहन जैसा था; किंतु संग्रह पढ़कर मुझे अपनी राय में थोड़ा संशोधन करना पड़ा। अब मुझे उनकी कविताओं में अंतर्निहित खतरे भी साफ-साफ नजर आने लगे हैं, वैसे, पुतुल की कविताओं की जो रचनात्मक प्रतिबद्धता और ईमानदारी है, मैं निस्संदेह उसका कायल हूं।

लगभग दो-तीन वर्ष पहले इतिहासकार रोमिला थापर की एन।सी.आई.आर.टी. द्वारा छठी कक्षा के लिए प्रकाशित पुस्तक 'प्राचीन भारत` पढ़कर मैं सन्न रह गया था। उक्त पुस्तक में रोमिला थापर ने लिखा है 'धन्य हैं आदिवासी जिन्होंने आदिम संस्कृति और संरचना को अपने मूल रूप में बरकार रखा जिससे इतिहासकारों को अध्ययन हेतु आवश्यक स्रोत उपलब्ध हो सके।` वाह कैसी सोच है यह! हम अपने बौद्धिक व आत्मिक विकास के लिए किसी खास जाति अथवा समुदाय के आर्थिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से अविकसित बने रहने की आकांक्षा पाले रहते हैं। यह है 'सभ्य समाज` का संस्कृति-विमर्श! मुझे दुख है कि निर्मला पुतुल भी जाने-अनजाने में 'भलेमानुषों ` की कुछ इसी तरह की सदास्था और सदिच्छा की शिकार होती हैं। वे लिखती हैं 'बाजार की तरफ भागते/सबकुछ गड्डमड्ड हो गया है इन दिनों यहां/उखड़ गये हैं बड़े-बड़े पुराने पेड़/और कंक्रीट के पसरते जंगल में/खो गयी है इसकी पहचान`। मैं बगैर किसी लाग-लपेट के कहूं कि कवयित्री यहां आदिवासी-संस्कृति के जिन प्रतीक-चिन्हों की बात करती हैं वे बहुत स्पष्ट अर्थों में एक अविकसित समाज के अवशेष हैं। उनके विलुप्त होते जाने पर इस तरह अविवेक के आंसू बहाना आदिवासी समाज व संस्कृति का रक्षक अथवा शुभचिंतक होना नहीं कहा जा सकता। दरअसल हमारा समाज और पूरी दुनिया का प्रत्येक समाज इस कबीलाई समाज की मंजिल को (हालांकि आदिवासी समाज को उन अर्थों में कबीलाई समाज नहीं कहा जा सकता) पार कर ही उत्तर-आधुनिक (?) समय में आया है। भारत में बौद्ध धर्म की पूरी लड़ाई वैदिक संस्कृति के विरूद्ध 'बाजार` को स्थापित करने अथवा समर्थन देने की है। वेदकालीन भारत में सूदखोरी एवं वेश्यावृत्ति अनैतिक कर्म थी; पहली बार बौद्ध धर्म ने ही इसे मान्यता प्रदान की। ये दोनों ही मूल्य शहरी समाज के अर्थात् बाजार-केन्द्रित अर्थतंत्र के उत्पाद थे। तत्कालीन समाज में बौद्ध-धर्म का शायद यही सार्थक हस्तक्षेप था। एक अपरिवर्तनशील संस्कृति की अवधारणा के बारे में बात करते हुए हम अक्सर ही उसके अवश्यंभावी खतरों की तरफ से अपनी आंखें मूंद लेते हैं। परिवर्तनशील समय और समाज में अपरिवर्तनीय संस्कृति एवं पहचान की कल्पना वैज्ञानिक विश्वासों के साथ की जा सकती है क्या? आदिवासी संस्कृति की मूल पहचान को बनाये रखने की निर्दोष चिंता निर्मला पुतुल के संग्रह की केन्द्रीय समस्या लगती है। कवयित्री के अनुसार, 'उतना भी बच नहीं रह गया 'वह`/संथाल परगना में/जितने/की उनकी/संस्कृति के किस्से` और फिर, 'कायापलट हो रही है इसकी/तीर-धनुष-मांदल-नगाड़ा-बांसुरी/सब बटोर लिये जा रहे हैं लोक संग्रहालय/समय की मुर्दागाड़ी में लादकर` निर्मला जी को अब कौन समझाए कि समय 'मुर्दागाड़ी` नहीं होता। समय को न समझने पर अलबत्ता रचना बहुत जल्द मुर्दा हो जाएगी।

निर्मला पुतुल की कविताओं का मूल स्वर विद्रोह का है। यह विद्रोह बहुआयामी है। ग्लोबल और श्रेष्ठ संस्कृति के विरूद्ध स्थानीय संस्कृति का विद्रोह तो कहीं मर्द-संस्कृति के विरूद्ध नारी अस्मिता का विद्रोह। 'अपने घर की तलाश में` जो कविता है वह इसी विद्रोह-भाव से लिखी गई है। पुरुष के घर में ी़ अपने होने का प्रमाण ढूंढती है, अपना अर्थ खोजती है-'धरती के इस छोर से उस छोर तक/मुट्ठी भर सवाल लिये मैं/दौड़ती-हांफती-भागती/तलाश रही हूं सदियों से निरंतर/अपनी जमीन, अपना घर/अपने होने का अर्थ!!` स्‍त्री का यह संघर्ष सभ्यता की शायद पहली और अंतिम कहानी है। कवयित्री की तेज निगाहें इस बिडंबना को रेखांकित किये बगैर नहीं रहतीं कि 'ी़ स्वयं में घर की तरह रहती हुई दरअसल घर से बाहर रहती है।` पुरुष प्रधान समाज में आत्म-निर्वासन झेलती एक स्‍त्री का दुख है यह।

निर्मला पुतुल की कविताओं में दुख एक कध पैदा करता है क्योंकि दुख से मुक्ति की बेचैनी है यहां, उसके लिए कठोर संघर्ष है। यहां 'धान रोपती पहाड़ी आरोप रही है अपना पहाड़-सा दुख/सुख की एक लहलहाती फसल के लिए` इतना ही नहीं, 'पहाड़ तोड़ती तोड़ रही है/पहाड़ी बंदिश और वर्जनाएं।` निर्मला के समवय कवि संजय कुंदन के यहां ये वर्जनाएं टूटती नजर नहीं आतीं। उन्हें आदमी की तुलना में ईश्वर पर ज्यादा भरोसा है जबकि पुतुल कहती हैं 'मत ब्याहना उसे देश में/जहां आदमी से ज्यादा/ईश्वर बसते हों।`

July 18, 2007

वसीम अख्‍तर






मौत के कगार पर
बनारस के बुनकर




पूर्वी उत्तर प्रदेश विशेषकर बनारस हथकरघा उद्योग की दृष्टि से विशेष महत्व रखता है। यहां की साड़ियां अपनी कलात्मकता के कारण देश-विदेश में प्रसिद्ध रही हैं साथ ही भारत की सांस्कृतिक विरासत का अटूट अंग भी रही हैं। रोजगार की दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण है। असंगठित क्षेत्र में कृषि के बाद हथकरघा दूसरा सबसे बड़ा उद्योग है। यह देश के ६५ लाख से भी अधिक लोगों को रोजगार देता है। अकेले उत्तर प्रदेश में १२ लाख से अधिक लोगों का जीवन इस उद्योग पर टिका है। लेकिन जब से नए आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ तब से बुनकरों का यह परम्परागत व्यवसाय बुरी तरह घाटे में चल रहा है। जिसका सीधा असर बुनकरों के जीवन पर देखा जा सकता है। स्थिति इतनी गम्भीर हो चुकी है कि मोहम्मद कासिम जैसे बुनकर कुएं में कूद कर आत्महत्या तक कर रहे हैं। ज्ञात हो कि बनारस के बजरडीहा के बुनकर मोहम्मद कासिम ने पिछली २५ मई को आत्महत्या कर ली थी। ऐसे में इस सवाल पर विचार करना आवश्यक हो जाता है कि जो बुनकर प्रतिदिन १२ से १४ घंटे लगातार काम करता है उसे आत्महत्या क्यों करनी पड़ रही है।

मंदी का सीधा कारण सूरत की सस्ती साड़ियां बतायी जा रही हैं। लेकिन इसके अलावा कई ऐसे कारक हैं जो हथकरघा उद्योग और बुनकरों की बदहाली के लिए जिम्मेदार हैं। हथकरघा बुनकर सदा से शोषण का शिकार रहा है। देश को आजाद हुए ६० साल हो चुके हैं लेकिन बुनकरों को शोषण से मुक्ति नहीं मिल सकी है। उनकी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। उल्टे उनकी हालत पहले से कहीं अधिक खराब हुई है। उनके पूणे के लिए स्थानीय महाजन जिम्मेदार हैं। महाजन वे लोग हैं जो बुनकरों को कच्चा माल यानी धागा या सूत दे कर साड़ियां तैयार कराते हैं। बुनकर उनको प्रति साड़ी की दर से मजदूरी का भुगतान करते हैं। महाजन इन साड़ियों को दूर-दराज के व्यापारियों को बेच कर मुनाफा कमाते हैं। बहुत से बुनकर खुद बाजार से धागा खरीद कर साड़ी तैयार करते हैं और उसे स्थानीय महाजन को बेचते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में तैयार साड़ियों का खरीदार महाजन ही होता है। महाजन के माध्यम से ही साड़ियां देश के विभिन्न हिस्सों में पहुंचती हैं। एक तरह से महाजन बुनकर और बाजार के बीच पुल का काम करता है। लेकिन यह पुल बुनकरों के लिए बेहद हानिकारक है। महाजन बुनकरों को एक तो मजदूरी कम देता है दूसरे भुगतान में महीनों लगा देता है। औसतन ऐसा होता है कि महाजन बुनकरों द्वारा तैयार साड़ियों में कोई खराबी निकाल उनकी पूरी मजदूरी ही हजम कर जाता है। जाहिर है महाजन बुनकरों के श्रम पर अपनी पूंजी खड़ी करता है लेकिन बुनकर जो सबसे अधिक मेहनत करता है उसे कोई फायदा नहीं मिलता है। महाजनों द्वारा बुनकरों का शोषण कोई नई बात नहीं है। इसका जीवंत चित्रण अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने उपन्यास 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया` में किया है। लेकिन मौजूदा दौर में स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि अब महाजन भी मंदी की मार से सुरक्षित नहीं रह गए हैं। क्योंकि सूरत की सस्ती और नए फैशन वाली साड़ियों के सामने बनारसी साड़ियों की चमक-दमक फीकी पड़ गई है।

बनारसी साड़ियों में प्योर कॉटन और सिल्क के धागों का इस्तेमाल किया जाता है और इसे बुनकर अपने हाथों और पैरों की सहायता से ताना-बाना चलाकर बुनता है। इसलिए इन साड़ियों को तैयार करने में समय और श्रम अधिक लगता है। जिसके कारण इसकी लागत अधिक पड़ती है। जबकि सूरत के व्यवसायी आधुनिक पावरलूम मशीनों की सहायता से कम पूंजी, समय और श्रम में अधिक साड़ियां तैयार कर लेते हैं। इस कारण उनकी साड़ियों की लागत कम पड़ती है। दूसरी तरफ बाजारवादी अर्थव्यवस्था के परिणाम स्वरूप जिस उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास हो रहा है उसमें उपभोक्ताओं में 'चीप एंड बेस्ट` की मनोवृति बढ़ी है। जिससे स्वभाविक रूप से बनारसी साड़ियों का बाजार मंदा हुआ है। इसके अलावा फैशन के नए प्रतिमानों मसलन सलवार-सूट और जींस-शर्ट के बढ़ते चलन ने भी बनारसी साड़ी उद्योग को नुकसान पहुंचाया है।

महाजनों के शोषण और मुक्त बाजार व्यवस्था की मार झेल रहे बुनकरों को दो दिन तक लगातार १४-१४ घंटे काम करने के बाद एक साड़ी की मजदूरी मात्र २६ रुपए मिलती है। इस राशि में घर के बच्चे और औरतों की मजदूरी भी शामिल होती है, जो साड़ी की बुनाई में मुख्य बुनकर की मदद करते है। जाहिर है २६ रुपए में बुनकर परिवार की दैनिक आवश्यकताओं का पूरा होना असंभव है। यही कारण है बनारस के बुनकर अपना खून और जिगर के टुकड़ों को बेचने से लेकर आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहे हैं ।

यद्यपि बुनकरों के कल्याण के लिए समय-समय पर सरकारी योजनाएं बनती रही हैं। लेकिन योजनाओं का लाभ या तो बुनकर समुदाय के ऊपर के लोग उठाते हैं या फिर वे शास्‍न और प्रशासन के भ्र टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। (चरखा)



वसीम अख्तर जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में शोध छात्र हैं।

July 17, 2007

ज्ञानेश्‍वर शंभरकर


कलंक


सिर पर मैला ठोने की प्रथा



मानवता के लिए कलंक, अमानवीय, निकृष्ट जैसे कई नाम दिए गए। अनेक पुस्तकें लिखी गईं , कानून बने, योजनाएं बनीं, आयोग बने। करोड़ों रुपए खर्च किए गए। मगर सिर पर मैला ढोने की प्रथा आज भी बरकरार है। हम इस प्रथा को समाप्त नहीं कर पाए हैं। मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में है। सफाई कर्मचारी आंदोलन, ६ अन्य सहयोगी संगठन और मैला ढोने वाले ७ व्यक्तियों ने वर्ष २००३ में इस संबंध में एक जनहित याचिका दाखिल की थी।

१२ लाख लोगों का व्यवसाय

संविधान की धारा १७, १४, १९ और २१ के आधार पर याचिका में अस्पृश्यता पर पाबंदी, समता, स्वतंत्रता, जीवन की सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को रेखांकित करते हुए शीर्ष अदालत से अनुरोध किया गया है कि वह इस प्रथा पर पूरी तरह से रोक लगाने और इससे जुड़े लोगों के समयबद्ध पुनर्वास का निर्देश केंद्र और राज्य सरकारों को दे। १९९३ के मैलावहन, रोजगार और शुष्क शौचालयों के निर्माण (प्रतिबंध) कानून के क्रियान्वयन की मांग की गई है। अलावा इसके, कोर्ट के ध्यान में यह बात भी लाई गई है कि देश में १२ लाख लोग इस निकृष्ट व्यवसाय से जुड़े हैं।
हालांकि, इस याचिका के दाखिल होने के बाद अनेक राज्यों ने अदालत को बताया कि उनके यहां यह प्रथा अब नहीं है और मैलावाहकों का अन्य व्यवसाय में पुनर्वास कर दिया गया है। मगर राज्यों ने इसके लिए भी तीन साल का वक्त लिया और वह भी अदालत की फटकार के बाद। कुछ राज्यों ने प्रथा के अस्तित्व को स्वीकार किया तो कुछ ने इसके अस्तित्व से ही इन्कार किया। राज्यों द्वारा शुष्क (बिना पानी के) शौचालयों के अस्तित्व से इन्कार करने का अर्थ है कि उनके यहां मैला ढोने की प्रथा का भी अस्तित्व नहीं है।

अस्तित्व से ही इन्कार

सवाल यह है कि अगर राज्य समस्या के अस्तित्व से ही इन्कार करेंगे तो फिर उसके हल की कोशिश कैसे होगी? सुनवाई के दौरान अदालत ने केंद्र और राज्य सरकार के सभी विभाग और मंत्रालयों को वरिष्ठ अधिकारियों के मार्फत ६ महीने के भीतर शपथपत्र दाखिल करने का अंतिम आदेश दिया था। अदालत ने कहा, शपथपत्र में मैला ढोने की प्रथा का उल्लेख हाने पर पुनर्वास और उसकी समाप्ति के समयबद्ध कार्यक्रम के संबंध में सुझाव भी दिए जाएं। अदालत ने असत्य वक्तव्य के लिए चेतावनी भी दी थी। लगभग सभी राज्यों ने कहा कि उनके यहां शुष्क (बिना पानी के) शौचालयों को नष्ट कर दिया गया है। लेकिन, इस क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने इसे सिर्फ और सिर्फ झूठ का पुलिंदा बताया।
केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने वर्ष २००२-०३ में स्वीकार किया था कि आज भी ६.६७ लाख लोग मानव मैला ढोने का काम करते हैं। देश के २१ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ९२ लाख शुष्क शौचालय अस्तित्व में है। उक्त मंत्रालय ने २२ जुलाई २००५ को एक प्रेस विज्ञप्ति में इन आंकड़ों की पुष्टि करते हुए कहा, उत्तर प्रदेश में १.४९ लाख, मध्य प्रदेश में ८०,००० और गुजरात में ६४,००० मैलावाहक हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रकाशित 'रिपोर्ट ऑन प्रिवेंशन ऑफ एट्रॉसिटीज अगेन्स्ट शेडयूल कास्ट` (नवंबर २००५) के अनुसार, देश में ६,७६,००९ मैलावाहक हैं, जिसमें से ३,९४,६३८ का पुनर्वास हो गया है जबकि, तय कार्यक्रम के मुताबिक २ अक्टूबर २००२ तक पूरी तरह पुनर्वास कर दिया था। १० सितंबर २००१ तक ५४ लाख में से केवल १४ लाख ६० हजार शुष्क शौचालयों को पानी वाले शौचालयों में रूपांतरित किया गया। इसमें ३६४३ शहर ही मैलावाहक मुक्त घोषित किए गए।
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के शपथपत्र के अनुसार 'वर्ष २००२ तक १.५६ लाख लोगों को प्रशिक्षण दिया गया, ४.०८ लाख लोगों का पुनर्वास किया गया और राज्यों को ७१२.१४ करोड़ रुपए आवंटित किए गए। १९८९ में ४ लाख मैलावाहक थे।` मगर लोकलेखा समिति की ९वीं रिपोर्ट के मुताबिक, इस मंत्रालय ने अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग आंकड़े पेश किए हैं। जैसे, असम में १९९७ और १९९९ में मैलावाहकों की संख्या में तीन गुना वृद्धि दिखाई देती है।

१९४७ में आया था विधेयक

नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (कैग) ने मैलावाहक मुक्ति और पुनर्वास राष्ट्रीय योजना के तहत वर्ष १९९२ से २००२ तक के व्यय का अध्ययन किया। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक, 'केंद्र द्वारा राज्यों को दिया गया ६०० करोड़ रुपया सचमुच शौचालयों में बह गया।`
१५ अक्तूबर १९४७ को बृहंमुंबई में इस संबंध में बहसें हुइंर्। अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार प्रतिबंधक) कानून १९८९, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग, मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, सफाई कर्मचारी आयोग, सफाई कर्मचारी आर्थिक और विकास महामंडल जैसे आयोग बने। वर्ष १९९३ में मैलावाहक रोजगार और शुष्क शौचालयों का निर्माण (प्रतिबंधित) कानून बना। मगर इस कानून के तहत १३ साल बाद भी एक बार भी कानूनी कार्रवाई नहीं की गई है। कानून में एक साल की सजा, २० हजार रुपए तक जुर्माना अथवा दोनों सजाओं का प्रावधान है। मगर यह कानून किसी 'बिना दांतों वाली योजना` जैसा है। इसके तहत, कामगार स्वयं मामला दाखिल नहीं कर सकता। यह अधिकार सफाई निरीक्षक और कलेक्टर को दिया गया है। खुले गटर, मैनहोल और सेफ्टी टैंकों की सफाई करने वाले कामगार इसमें शामिल नहीं हैं। राज्यों ने इस कानून को स्वीकार तो कर लिया, मगर शायद उसके नियम और प्रावधानों को स्वीकार नहीं किया। इसलिए इच्छित परिणाम भी दिखाई नहीं देते। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कार्यकर्ताओं के दबाव के चलते हाल में इस कानून को स्वीकार किया गया है। यह कानून किसी भी राज्य में तभी लागू होता है जब राज्य सरकार अधिसूचना जारी कर किसी विशिष्ट क्षेत्र में कानून के प्रावधानों को लागू करने की तिथि घोषित करती है। ९० दिनों की पूर्वसूचना पर अधिसूचना जारी की जाती है।

तमिलनाडु

जिन राज्यों में मैला ढोने की प्रथा का अभी भी अस्तित्व है, ऐसे राज्यों के समक्ष योजना आयोग ने उक्त कानून स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा। कानून स्वीकार नहीं करने पर राज्यों की वार्षिक योजना में से केंद्रीय सहायता में कटौती अथवा सहायता रोकने की सिफारिश की। इस संबंध में कुछ राज्यों का उदाहरण दिया जा सकता है। वर्ष २००१ की जनगणना के मुताबिक तमिलनाडु में १.४१ करोड़ घरों में से ९१.९० लाख से भी अधिक में शौचालय नहीं हैं। केवल ३२.९१ लाख घरों में ही वॉटर क्लोसेट सुविधा उपलब्ध है। शुष्क (बिना पानी के) शौचालयों की संख्या करीब ६.६५ लाख है, जबकि गड्डे वाले शौचालय १०.३५ लाख हैं। वॉटर क्लोसेट सुविधा के मामले में राष्ट्रीय औसत (२३.२२ प्रतिशत) की तुलना में तमिलनाडु में धर्मपुरी, थिरुपन्नापलाई, विल्लूपुरम, पेरांबदूर, विरुधूनगर जैसे १३ जिलों का प्रतिशत १८.०२ है। तामीझर पेरावई संगठन का दावा है कि राज्य में ३५५६१ व्यक्ति मैला ढोने के काम में जुटे हैं। बताया जाता है कि तिरूचेंदुर में विशेष पर्व पर लाखों लोग इकट्ठा होते है। वहां अस्थायी रूप से गड्ढे वाले शौचालयों का निर्माण किया जाता है और ५०० लोगों को तैनात किया जाता है। हाइटेक शहर के रूप में विख्यात हैदराबाद से कोई २० किलोमीटर दूर दर्जनों शुष्क शौचालय हैं। लक्ष्य था, दिसंबर २००२ तक ही राज्य को शुष्क शौचायल से मुक्त करने का। बाद में इस अवधि को बढ़ाकर दिसंबर २००५ कर दिया गया। लेकिन, हालत आज भी जस के तस है।

आंध्रप्रदेश

आंध्र प्रदेश शेड्यूल्डकास्ट कोऑपरेटिव फाइनांस कार्पोरेशन और सफाई कमर्चारी आंदोलन द्वारा संयुक्त रूप से २००१ में कराए गए सर्वेक्षण के मुताबिक राज्य में नगरपालिका और ग्राम पंचायतों द्वारा संचालित सार्वजनिक शुष्क शौचालयों की संख्या २५७६२ थी। इसमें कुर्नूल में सर्वाधिक ४७८२, अनंतपुर में ४१७३, पश्चिम गोदावरी में ३५०३, कडपा में २३२४, विशाखापट्टन में २२५१ और पूर्व गोदावरी में २२४८ शौचालय थे। इसमें ३०९२१ लोग लगे हुए थे। बाद में अधिकृत आंकड़े प्राप्त करने की कोशिश ही नहीं हुई। शुष्क शौचालयों की संख्या दो लाख से अधिक होने का अनुमान व्यक्त किया जाता है। सरकार का दावा है कि उसने २०००-०१ और २००३-०४ के दौरान ६९.४३ करोड़ रुपया खर्च कर २८०९९ मैलावाहक और उन पर निर्भर लोगों का वैकल्पिक और सम्मानजनक व्यवसाय में पुनर्वास कर दिया है। वर्ष २००५-०६ में ११९७५ लोगों के लाभर्थ २३.९६ करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था।
नागरिक समाज समूह इसे केवल कागज पर का खेल भर मानते हैं। उनके मुताबिक सरकारी सहायता नाममात्र की होती है। बैंक कर्ज स्वीकार करने में आनाकानी करते हंै। केवल कागजों पर कर्ज मंजूर और वसूली दिखाकर खाते बंद कर दिए जाते हैं। थक-हारकर पुनर्वसित व्यक्ति फिर इसी पेशे की तरफ लौट जाता है। इस संबंध में राज्य के एक कार्यकर्ता का साक्षात्कार आंख खोलने के लिए काफी है। उसके मुताबिक, 'एक सार्वजनिक शौचालय में करीब ४०० शौचकूप होते हैं। उसमें से हाथ से मैला निकालना पड़ता है। यह विश्व का अत्यंत घृणित और निकृष्ट दर्जे का व्यवसाय है, और इस व्यवसाय से जुड़े लोगों को जातिव्यवस्था में सबसे निचला दर्जा दिया गया है।` (तुटलेले लोक-पृ.२१)

गुजरात

नवसर्जन ट्रस्ट के मुताबिक गुजरात में ५५,००० मैलावाहक हैं। गुजरात राज्य में हाथ से मैला निकालने वाला एक व्यक्ति कहता है-'जब हम मेहनत-मजदूरी के काम में होते है तब भी सवर्ण कहते हैं कि हमारे करीब मत आओ, चाय-पान की दुकान में दलितों के लिए अलग कप आदि रखी जाती है। चाय और नाश्ता खरीदकर खाने के बाद भी कप-प्लेट हमें ही साफ करनी पड़ती है। हम मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते। हमें सवर्णों की बस्तियों में नल से पानी भरने से रोका जाता है। पानी के लिए हमें एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। जब हम उन्हें अपने नागरिक अधिकारों के बारे में बताते हैं तो सरकारी और नगर प्रशासन के अधिकारी हमें जला डालने तक की धमकी देते हैं। परिणामस्वरूप हमें चुप ही रहना पड़ता है।` (तुटलेले लोक-पृ.७)

राष्ट्रीय मानसिकता

दरअसल, मैला ढोने के मूल में जातीयता ही है और जातीयता हमारी राष्ट्रीय मानसिकता में अवस्थित है। मैला ढोने वाले विभिन्न राज्यों में हत, हादी, वाल्मीकि, धानुक, मेहतर, मेथर, भंगी, पाकी, थोट्टी, मादिगा, भिरा, लालबेगी, चुहरा, बालाशाही, यानुदिस, हलालखोर, अरुणथाथिअर, सिक्कालियर जैसे अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं। मगर येे सब सामाजिक व्यवस्था में निम्न माने जाने वाले दलित-अस्पृश्य वर्ग में ही शामिल हंै। इसमें भी य़िां ७० प्रतिशत हैं। पुरुष ज्यादातर सफाई निरीक्षक होते हैं। मैलावाहक परिवारों में महिलाओं का यह काम करना अनुचित नहीं माना जाता। क्योंकि हमेशा आर्थिक तंगी में जीने वाले इस समुदाय को महिलाओं के काम करने से थोड़ा-बहुत पैसा और बचा-खुचा भोजन मिला जाता है। मजदूरी की दर कहीं प्रति माह २० रुपया प्रति शौचायल है तो कहीं १० रुपया। एक व्यक्ति प्रतिदिन साधारणत: ५० घरों में काम करता है। एक तरफ शहरों में स्वच्छता का अभाव, नॉन-फ्लैश शौचालयों की अधिकता, ग्रामीण भागों में शौचालय की अपेक्षा खुले मैदान का इस्तेमाल इस प्रथा को बढ़ाने में सहायता ही करते हैं। दूसरी ओर मैला ढोने के लिए गाड़ियों का अभाव, हाथ के मोजे-गमबूटा आदि उचित साधनों की कमी के कारण सिर पर मैला ढोने के अलावा और कोई विकल्प बचता नहीं। बदले में मिलती है, केवल सामाजिक उपेक्षा।
इन लोगों को छोटे शहरों और गांवों में नीची नजरों से देखा जाता है। मुख्य समूह से दूर स्थिति बस्तियों में मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जीना पड़ता है। कहीं-कहीं तो उच्च जाति के लोग गिलास में पानी भी पीने को नहीं देते। इस संबंध में २० वर्षीय युवती का अनुभव देखिए-'अचानक, मैं मैला से भरी हुई टोकरी लेकर गटर में गिर पड़ी। मगर कोई मदद को नहीं आया। मैं तब तक वैसे ही गटर में पड़ी रही जब तक कि दूसरी मैला ढोने वाली महिला नहीं आ गई और तब मुझे महसूस हुआ कि मैं विश्व की सबसे बदनसीब लड़की हूं।` (फ्रंटलाइन २२ सितंबर २००६, पृ.५) उसी युवती का पति कहता है, 'रिश्वतखोरी के चलते कोई दूसरा व्यवसाय मिला नहीं। आखिर इसी व्यवसाय में आना पड़ा। यह काम हाल में निजी क्षेत्र में आ गया है। कभी-कभी सफाई के लिए पानी तक उपलब्ध नहीं रहता। ऐसे में बाहर से खुले गटर से बाल्टी में पानी लाना पड़ता है। कई लोग तो शौचालय में भी गड्ढे के बाहर ही शौच कर देते हैंं। उनके मुताबिक यह सब साफ करना सफाई कर्मचारी का काम है।` (फ्रंटलाइन, २२ सितंबर २००६, पृ. ६)

बीमारियों का घर

यह सवाल स्वच्छता और सामाजिकता के साथ ही स्वास्थ्य से भी जुड़ा है। 'एनवायरनमेंटल सैनिटेशन इंस्टीट्यूट गांधी आश्रम` के अनुसार अधिकांश मैलावाहक एनिमिया, डायरिया आदि बीमारियों से ग्रस्त हैं। ६२ प्रतिशत लोगों को श्वास रोग, ३२, प्रतिशत त्वचारोग, ४२ प्रतिशत पीलिया और २३ प्रतिशत अंधत्व के शिकार हैं। सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय कार्बन मोनोऑक्साइड के जहरीले प्रभाव और प्राणवायु के अभाव में अनेक कर्मचारियों की मृत्यु होती रहती है। खुले गटर भी मलेरिया, डेंगू, गैस्ट्रो, हेपटाइटिस को निमंत्रण देते रहते हैं। ऐसा नहीं कि इसका कोई उपाय या योजना नहीं है। मगर नौकरशाही और लालफीताशाही यहां भी आड़े आ जाती है। सरकारी योजनाएं लाने वाले विभाग के पास क्रियान्वयन मशीनरी नहीं होने के कारण एक विभाग दूसरे की तरफ उंगली उठाता रहता है। खुले तौर पर जल आपूर्ति और बिजली आपूर्ति की तरह लोगों का रोष स्वच्छता के संबंध में दिखाई नहीं देता। परिणामस्वरूप सरकार और महानगर व्यवस्था भी इस तरफ से आंख-कान बंद ही रखते हैं।

राजकीय इच्छाशक्ति का अभाव

इस संबंध में हाल की योजना यानी वर्ष २००७ तक मैला ढोने की प्रथा को पूरी तरह समाप्त करने की राष्ट्रीय कार्ययोजना है। मैलावाहक मुक्ति और पुनर्वास की पूरी जिम्मेदारी शहरी रोजगार ओर गरीबी निर्मूलन मंत्रालय पर सौंपी गई है। मगर केवल केंद्र सरकार अकेले इस पर विजय नहीं प्राप्त कर सकती। क्योंकि स्वच्छता राज्यों से जुड़ा विषय है। दरअसल, इसमें राजकीय इच्छाशक्ति का अभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। संसद में अनुसूचित जाति के ७९ सदस्य हैं, मगर यह समस्या उनकी चिंता का विषय कभी नहीं बनती। रेल जैसा भारी भरकम सरकारी विभाग भी इसमें अपवाद नहीं है। रेलवे डिब्बों में खुली प्रणाली के कारण प्लेटफार्म सफाई आवश्यक होती है। अनेक रेलवे स्टेशनों पर मैलासफाई की पर्याप्त मशीनरी उपलब्ध नहीं है। रेलवे ने सुप्रीम कोर्ट में कहा, उसके पास मशीनरी उपलब्ध कराने के लिए 'धन का अभाव` है। और कहा कि, पूर्णत: सीलबंद शौचव्यवस्था विचाराधीन है। और, विभिन्न तकनीकी शैलियों पर विचार जारी होने की बात कहते हुए निश्चित समयसीमा तय करने से इन्कार कर दिया।
उत्तरांचल ने तो अपने शपथपत्र में डंके की चोट पर कहा, 'जब तक शुष्क शौचालय हैं तब तक उसकी सफाई करने वाले मैलावाहक भी रहेंगे ही।` सरकारों ने ही अगर इसका समाधान करना ठान लिया होता तो सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता।

वैश्विक हस्तक्षेप

विश्व के बाजार में तब्दील होने के इस दौर में आंदोलन तक वैश्विक स्तर पर होने लगे हैं। दलितों की समस्याएं भी इसमें अपवाद नहीं है। 'ह्यूमन राइट्स वॉच` नामक अंतराष्ट्रीय संस्था के एक प्रतिनिधिमंडल ने १९९८ में जनवरी से मार्च और जुलाई-अगस्त में गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि राज्यों का दौरा किया। अनेक लोगों के साक्षात्कार लिए, मार्च १९९९ में संस्था ने 'ब्रोकन पीपल` नामक २९१ पेजों की एक रिपोर्ट अमेरिका में जारी की। 'तुटलेले लोक` (टूटे हुए लोग) उसी का सारांश है। भारत सरकार, सभी राज्य, संयुक्त राष्ट्रसंघ, विश्व बैंक और अन्य अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्था, भारतीय दानदाता और व्यापार-उद्योग के भागीदारों के लिए अनेक सिफारिशें की गइंर्। खबर है कि अमेरिकन कांग्रेस ने एक विधेयक पारित कर कहा है कि, 'अगर भारत में मैलावहन मजूरी प्रतिबंधित नहीं की जाती है तो भारत में जारी जल और स्वच्छता विषयक परियोजनाओं के खिलाफ अमेरिका विश्व बैंक में अपनी टिप्पणी (मत) दर्ज कराए। समझा जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वंशभेद निर्मूलन समिति, मानवाधिकार समिति, वर्णभेद निर्मूलन विषयक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (अगस्त १९९६) और साउथ एशिया ह्यूमन राइटस् डाकुमेंटेशन सेंटर इं. ने भी इस संबंध में हस्तक्षेप किया है।
डरबन परिषद (२००१), दलितों के स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन, मलेशिया (अक्तूबर १९९०), लंदन (१६-१७ सितंबर २००३), वैंकूवर कनाडा (१६-१८ मई २००३), दलित विजन फॉर ट्वेन्टी फर्स्ट सेंचुरी के अलावा ६ अगस्त २००५ को अमेरिका में हुए सम्मेलन 'कांग्रेसनल हियरिंग` में भी यह मामला उठाया गया है। कट्टर मानवाधिकार समर्थक तथा न्यू जर्सी के कांग्रेस के रिपब्लिकन सदस्य एवं सभागृह की अंतर्राष्ट्रीय संबंध समिति के उपाध्यक्ष क्रिस्तोफर स्मिथ ने इस सम्मेलन की अध्यक्षता की। उनका वक्तव्य सोचने पर मजबूर कर देता है। 'एक चौथाई जनसंख्या को दूसरे स्तर का मानवीय दर्जा देना केवल बलपूर्वक मानवाधिकार का उल्लंघन ही नहीं, बल्कि आर्थिक, राजकीय गतिहीनता का सूचक है। एक समय अफ्रीकी नागरिकों को अमेरिका में मूलभूत अधिकार और अवसर देने से मना कर दिया गया था। आज तक हम उसका परिणाम भुगत रहे हैं।`

भारत की प्रगति में बाधक

अमेरिका का एक नेता अपने पूर्वजों की गलतियों को स्वीकार करता है। मगर भारत में अस्पृश्यता को पूर्व जन्म का पाप माना जाता है। उपसमिति की नेता और कैलिफोर्निया की कांग्रेस सदस्य बारबरा ली के मुताबिक, 'भारत में अस्पृश्यता जैसी सामाजिक परंपरा का पालन करना आधुनिक भारत की प्रगति में बाधक है।`
एक अंतर्राष्ट्रीय कमेटी के समक्ष भारतीय कार्यकताओं ने मांग की थी कि १५ करोड़ से अधिक अस्पृश्य और आदिवासियों के साथ होने वाले भेदभाव, शोषण और अत्याचार पर रोक लगाने के लिए अमेरिका तथा संयुक्त राष्ट्र को भारत में हस्तक्षेप करना चाहिए। साथ ही, अमेरिकी प्रशासन को विश्व बैंक और अन्य बहुराष्ट्रीय संस्थानों के अधिकारियों को निर्देश देकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भारत में विभिन्न परियोजनाओं के लिए दी जाने वाली राशि बिना किसी भेदभाव के खर्च हो और दलित कोटा अलग से रखा जाए 'हाउस इंटरनेशनल सबकमिटी ऑन ग्लोबल ह्यूमन राइट्स एंड इंटरनेशनल ऑपरेशन` के समक्ष 'इंडियाज अनफिनिश्ड एजेंडा: इक्वैलिटी एंड जस्टिस फॉर २०० मिलियन विक्टिम्स ऑफ द कास्ट सिस्टम` संबंधी गवाही देते हुए उक्त मांग भारतीय कार्यकर्ताओं ने रखी थी। मांग करने वालों में उदितराज, कांचा इलिया, इंदिरा सिंह आठवले, टी.कुमार, जोसेफ डिसूजा आदि शामिल थे।

प्रतिबद्धता का सवाल

कुल मिलाकर सवाल परिचय, शिक्षा और विकल्प का नहीं, बल्कि प्रतिबद्धता का है। सरकार का जोर पुनर्वास पर अधिक, व्यवसाय-मुक्ति पर कम होता है। सरकारी योजनाएं बनती हैं, क्रियान्वयन की समयसीमा भी तय होती है, मगर उसका हमेशा उल्लंघन होता रहता है। इसलिए इस संवेदनशील और मिश्रित सामाजिक-आर्थिक समस्या को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हल करने की जरूरत है। सरकार और नागरिक प्रशासन द्वारा शुष्क शौचालयों को तोड़ने का व्यापक कार्यक्रम चलाना, पुनर्वास के तहत कम से कम दो एकड़ जमीन देना और अन्य संबंधित कदम उठाना सरकार के लिए असंभव नहीं हैं। उम्मीद करें कि नागरिकों की क्रियाशीलता, राष्ट्रीय उपाय, राजनीति प्रतिबद्धता और अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते यह प्रथा एक दिन जड़-मूल से समाप्त की जा सकेगी।

ज्ञानेश्वर शंभरकर सामाजिक कार्यकार्ता व लेखक हैं। (मराठी से अनुवाद : मनोहर गौर)

( जुलाई,2007)