'Jan Vikalp' has its own active participation in bringing Justice, Equality and liberty to society. This Hindi monthly, published from Patna, one of the oldest cities of India.
July 13, 2007
प्रमोद रंजन
ताअजीम के मेआंर परखने होंगे
प्रतिष्ठत साहित्यिक पत्रिका नया ज्ञानोदय के युवा पीढ़ी विशेषांक से संबंधित विवाद के दोनों पक्ष इसी तरह के हैं । गैरऱ्यथार्थपरक, और अंतत: कलावादी। यह विवाद उतना ही व्यक्तिवादी भी है जितना कि कोई ऐसी बहस हो सकती है जो सामाजिक यथार्थ से इतर आभासी दुनिया में चले। अंक में रचनाकारों के परिचय जिस रूचि से दिए गए हैं, वह भी कला, कला के लिए का ही संकेतक है। बावजूद इसके नया ज्ञानोदय के इस विशेषांक की ऐतिहासिक सार्थकता है कि इसने भूमंडलीकृत समय की नई रचनाशीलता को विमर्श के केंद्र में ला दिया।
विवाद की शुरूआत नया ज्ञानोदय के मई, २००७ विशेषांक में प्रकाशित विजय कुमार के लेख से हुई। उन्होंने 'तरुण` कवियों में नयापन न होने की शिकायत करते हुए कहा कि उनमें स्थापित होने की हड़बडी है, 'चारों तरफ केवल उत्सवधर्मिता, अफरा-तफरी और धमाचौकड़ी मची है। इतना नॉन-सीरियस, झूठा और प्रदर्शनकारी वातारवरण हिन्दी में पहले कभी नहीं रहा।` उसी अंक में पत्रिका के संपादक रवीन्द्र् कालिया ने विजय कुमार के लेख को घोर आपत्तिजनक मानते हुए टिप्पणी की कि 'विजय कुमार जी की चेतना पर प्रकारान्तर से कोई दूसरी ही पीढ़ी हावी है.. अपनी चर्चा की उतावली पिछली पीढ़ी में देखी जा रही थी, युवा पीढ़ी के रचनाकार इसके प्रति एकदम निरपेक्ष हैं।` इस वैचारिक असहमति के बाद कालिया जी ने व्यक्तिगत आरोप जड़े 'पिछलग्गुओं की शिनाख्त़ करनी हो तो हाल ही में वाराणसी में (कवि ज्ञानेंद्रपति को पहल सम्मान के उपलक्ष्य में) आयोजित उस कार्यक्रम का अध्ययन किया जा सकता है, जिसके विजय कुमार खुद चश्मदीद गवाह थे । नतीजा यह हुआ कि विजय कुमार की खरी-खरी बातों से कुछ तरूणऱ्युवा कवि भड़क गए और रवीन्द्र कालिया का आरोप पहल सम्मान में उपस्थित वरिष्ठ साहित्यजीवियों को नागवार गुजरा। साहित्यिक हलके में आरोप प्रत्यारोपों का सिलसिला चल पड़ा। इन हड़बोंग मचाने वाले आरोप-प्रत्यारोपों में अधिकांश हास्य उत्पन्न करने वाली रोचकता लिए हैं।
किन्तु इन सबके बीच एक ऐसा सवाल है, जिसे कोई छूना नहीं चाहता। बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?
मई अंक में प्रकाशित विजय कुमार का लेख 'कवित्त ही कवित्त है` सदाशयतापूर्वक लिखी गई अलोचना है। उतनी ही सुरूचिपूर्ण भी, जितनी कि कलावाद को प्रश्रय देने वाली कोई आलोचना हो सकती है। ध्यातव्य है कि कलावाद सिर्फ मार्क्सवाद का विरोध नहीं, बल्कि वस्तुत: सामाजिक यथार्थ से पलायन की कवायद होती है। चुंकि विवाद के केंद्र में विजय कुमार का लेख है। सो बड़े परिपे्रक्ष्य के बावजूद यहां कुछ बातें उसी के ईद-गिर्द।
मई अंक में प्रकाशित लेख में विजय कुमार को नई पीढ़ी से मुख्यत: दो शिकायतें हैं। पहली, तरुण कवियों में नयापन नहीं है; वह उनसे सवाल करते हैं-'तुम्हारा देशकाल, तुम्हारा सौंदर्य बोध, तुम्हारी भाषा , तुम्हारा शिल्प, तुम्हारा रूप-रचाव वह सब कहां पूर्ववर्ती से अलग हुआ जा रहा है?` उनके लेख में नए कवियों में अपने समय का 'यथार्थ बोध` न होने की चिंता कहीं नहीं है। 'देशकाल` के जिक्र के बावजूद जोर,'सौंदर्य, शिल्प और रूप-रचाव` पर है। उन्हें दूसरी शिकायत है कि तरुण कवि नैतिक स्खलन का शिकार होकर मठाधीशों की चापलूसी में संलिप्त हैं । वह लिखते हैं: 'साम्यवादी व्यवस्था के ढहने के बाद एक खास तरह का लुम्पैननेस और तदर्थवाद आज हम अपनी साहित्यिक-संस्कृति में देख रहे हैं। एक फास्ट फूड कल्चर ने सबकुछ लील लिया है।` स्पष्ट है विजय कुमार सभी किस्म के पतन का कारण सोवियत की कम्युनिस्ट व्यवस्था के पतन में देखते हैं। यानी इन 'पतनों` की शुरूआत १९९० के बाद हुई, जब सोवियत संघ विघटित हुआ और बाजार ने भारत में पैर पसारना शुरू किया। दरअसल, यह एकांगी दृष्टि है जो वास्तविकता से पलायन करने को मजबूर करती है। इस एकांगी दृष्टि के शिकार हमारे समय के अधिकांश आलोचक हैं। यही दृष्टि ट शिल्प और भाषा -सौ ठव के आग्रही कवि विजय जी को कलावाद की ओर भी ले जाती है। इस एकांगी दृष्टि को ठीक करने के लिए १९९० के आसपास की, बल्कि उससे कुछ और पहले की, अन्य घटनाओं को भी देखना होगा। वह कंप्यूटर जनित विभिन्न तकनीकों, विशेषकर संचार में उछाल का समय है, अर्थव्यवस्था में प्रवाह की सुगबुगाहट का समय है तथा सबसे महत्वपूर्ण, हिन्दी क्षेत्रों में जाति विमर्श के मुखर होने का काल है। और इनमें से किसी भी घटना के जन्म के लिए सोवियत रूस के विघटन को जिम्मेवार नहीं माना जा सकता।
इसे भी ध्यान समझने की जरूरत है कि जीवन शैली को तकनीक ने बदला है, बाजार के विस्तार ने नहीं। बाजार का विस्तार तो परवर्ती घटना है। १९९० के आसपास ही हिन्दी पट्टी की राजनीति में प्रभावशाली हुए जाति विमर्श ने अर्थव्यवस्था के प्रवाह की कुछ धाराएं पिछड़े सामाजिक समूहों की ओर मोड़ीं। आर्थिकी में इस परिवर्तन ने नई पीढ़ी की अभिरुचियों को स्थानांतरित किया। इसने अभिरुचियों को बदला नहीं है, सिर्फ स्थानांतरित किया है। नया ज्ञानोदय के युवा पीढ़ी पर केंद्रित अंक-२ (जून, २००७) में एक युवा कवि अपनी प्रतिक्रिया में कहता है :'बाजार आज से नहीं सदैव से एक ताकत रहा है। राजनीति और बाजार एक-दूसरे को सहयोग करते रहे हैं। क्या (विजय कुमार जैसे लोगों ने) बाजार का सुख उठा रहे किसी युवा से पूछा है?..आज का युवा और कम से कम मैं अपने समय में उपस्थित बाजार को प्यार करता हूं। उसका यथोचित सम्मान करता हूं।` क्या संयोग मात्र है कि यह युवा कवि एक पिछड़े सामाजिक समूह से आता है? जबकि दूसरी ओर उच्च सामाजिक समूहों से आने वाले आलोचक, कवि, संपादक, सभी बाजार के विस्तार पर हाय-तौबा कर रहे हैं।
क्या यह भी संयोग मात्र है कि पिछड़े सामाजिक समूह से आने वाला एक और युवा कवि दिल्ली के साहित्यिक गलियारों में चलने वाली आपसी बहसों में उपहास का खतरा उठाते हुए पूरी जिद के साथ बाजार के समर्थन में खड़ा दिखता है। वह तो दमित सामाजिक समूहों से भक्तिकाल में श्रेष् ठ कवियों के आने की घटना को भी बाजार से जोड़कर स्थापित करता है कि 'मुगलों के आगमन के कारण समाज में वस्तुओं की खरीद-फरोख्त बढ़ी, जिस कारण दस्तकार जातियों को किंचित आर्थिक स्वतंत्रता मिली। इसी के बूते भक्तिकाल में इन सामाजिक समूहों ने कई महान कवियों को जन्म दिया।` इन तरुणऱ्युवा कवियों के तर्कों में कबीराना सच्चाई है, इसे स्वीकारे बिना आप बच नहीं सकते।
यह पूछना शायद निरर्थक होगा कि नया ज्ञानोदय में छपे लेख को लिखते हुए विजय कुमार जी की दृष्टि फलक में क्या किसी तरुण दलित कवि की भी कविता थी? क्या उन्होंने 'जातिवादी` कविताएं लिखने वाले कवियों पर 'अलग से` विचार करने की जरूरत भर भी महसूस की है? क्या उन्होंने कभी इस प्रश्न पर विचार किया है कि हिन्दी में जारी स्त्री विमर्श में संलग्न महिलाओं के सामाजिक सरोकार क्या हैं? इसका सीधा उत्तर है-नहीं। क्योंकि वह मानते हैं कि साहित्य में 'रियायतों, उदारताओं और आरक्षण कोटे से किसी का भला नहीं होता।` विजय जी की आलोचना की चर्चित किताब 'कविता की संगत` १९९५ में आई थी, उस समय वह तरुण पीढ़ी परिदृश्य में नहीं थी, जिसे वह 'चापलूस और पावर स्ट्रक्चर के खेल में शामिल ` मानते हैं। उस बेहतरीन आलोचना-पुस्तक में मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण, विष्णु खरे, लीलाधर जगूड़ी, चंद्रकांत देवताले, सोमदत्त, मलय, ऋतुराज, आलोकधन्वा, मंगलेश डबराल, असद जैदी, वीरेन डंगवाल, राजेश जोशी और विष्णु नागर जी पर सुचिंतित लेख हैं। उसी किताब की भूमिका में उन्होंने बताया था कि 'पुस्तक में शमशेर , नागार्जुन, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल् , ज्ञानेंद्रपति, अरुण कमल और देवी प्रसाद मिश्र आदि की कविताओं पर भी टिप्पणियां लिखनी जरूरी थीं।` जिनके न लिख पाने के कारण 'अधुरेपन का एहसास` उन्हें कचोटता रहा है। क्या यह भी एक सवाल बन सकता है कि 'कविता की संगत` में हिन्दी के जो महत्वपूर्ण कवि हैं और वे, जिन पर विजय उस समय तक नहीं लिख सके-उनमें से कितने प्रतिशत निम्न सामाजिक समूहों से आते हैं? और यह कि इस प्रश्न का उत्तर क्यों हिंदी के किसी बुद्धिजीवी को 'अधूरेपन का अहसास' नहीं दिलाता? बात सिर्फ विजय कुमार की मानसिक संरचना की नहीं है। यह सवाल हिन्दी के सभी आलोचकों, संपादकों से पूछा जा सकता है कि क्या सचमुच अलग-अलग सामाजिक पृष् ठभूमि से आने वाले रचनाकारों की अनुभूति-अभिव्यक्ति में भिन्नता नहीं होती, उनका दृष्टिकोण अलग-अलग नहीं होता? क्या सचमुच उच्च सामाजिक समूहों से आने वालों ने परानुभूति को स्वानुभूति की तरह साध लिया है? क्या ऐसी सर्वांगता संभव है?
इन सवालों के उत्तर में आपको संत सुलभ चुप्पियां मिलेंगी। लेकिन यह सीधा सवाल तो कुफ्र ही करार दिया जाएगा कि नई पीढ़ी पर केंद्रित नया ज्ञानोदय के दो अंकों की पौने चार सौ पृष्ठों की सामग्री में श्रे ठता के बल पर चयनित जिन ४५-४६ तरुण युवा रचनाकारों को प्रकाशित किया गया है, उनमें निम्न सामाजिक समूहों से आने वालों की उपस्थिति का प्रतिशत क्या है? जाहिर है इस सवाल के बिना अनुपस्थिति के कारणों पर विमर्श नहीं हो सकता। और उनकी उपस्थिति के बिना हिन्दी के रचनात्मक लेखन में वह सौंदर्यमूलक विविधता असंभव है जो यथार्थ को प्रतिबिंबित करे।
इस जमीनी विमर्श के लिए जरूरी है कि हम आभासी बहसों से बाहर निकल ताअज़ीम के कलावादी मेआरों को परखें; साहिर की नज्म़ का नए संदर्भ में पाठ करें :
'लोग कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होंगे..
( जन विकल्प, जुलाई,2007)
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