July 18, 2007

वसीम अख्‍तर






मौत के कगार पर
बनारस के बुनकर




पूर्वी उत्तर प्रदेश विशेषकर बनारस हथकरघा उद्योग की दृष्टि से विशेष महत्व रखता है। यहां की साड़ियां अपनी कलात्मकता के कारण देश-विदेश में प्रसिद्ध रही हैं साथ ही भारत की सांस्कृतिक विरासत का अटूट अंग भी रही हैं। रोजगार की दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण है। असंगठित क्षेत्र में कृषि के बाद हथकरघा दूसरा सबसे बड़ा उद्योग है। यह देश के ६५ लाख से भी अधिक लोगों को रोजगार देता है। अकेले उत्तर प्रदेश में १२ लाख से अधिक लोगों का जीवन इस उद्योग पर टिका है। लेकिन जब से नए आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ तब से बुनकरों का यह परम्परागत व्यवसाय बुरी तरह घाटे में चल रहा है। जिसका सीधा असर बुनकरों के जीवन पर देखा जा सकता है। स्थिति इतनी गम्भीर हो चुकी है कि मोहम्मद कासिम जैसे बुनकर कुएं में कूद कर आत्महत्या तक कर रहे हैं। ज्ञात हो कि बनारस के बजरडीहा के बुनकर मोहम्मद कासिम ने पिछली २५ मई को आत्महत्या कर ली थी। ऐसे में इस सवाल पर विचार करना आवश्यक हो जाता है कि जो बुनकर प्रतिदिन १२ से १४ घंटे लगातार काम करता है उसे आत्महत्या क्यों करनी पड़ रही है।

मंदी का सीधा कारण सूरत की सस्ती साड़ियां बतायी जा रही हैं। लेकिन इसके अलावा कई ऐसे कारक हैं जो हथकरघा उद्योग और बुनकरों की बदहाली के लिए जिम्मेदार हैं। हथकरघा बुनकर सदा से शोषण का शिकार रहा है। देश को आजाद हुए ६० साल हो चुके हैं लेकिन बुनकरों को शोषण से मुक्ति नहीं मिल सकी है। उनकी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। उल्टे उनकी हालत पहले से कहीं अधिक खराब हुई है। उनके पूणे के लिए स्थानीय महाजन जिम्मेदार हैं। महाजन वे लोग हैं जो बुनकरों को कच्चा माल यानी धागा या सूत दे कर साड़ियां तैयार कराते हैं। बुनकर उनको प्रति साड़ी की दर से मजदूरी का भुगतान करते हैं। महाजन इन साड़ियों को दूर-दराज के व्यापारियों को बेच कर मुनाफा कमाते हैं। बहुत से बुनकर खुद बाजार से धागा खरीद कर साड़ी तैयार करते हैं और उसे स्थानीय महाजन को बेचते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में तैयार साड़ियों का खरीदार महाजन ही होता है। महाजन के माध्यम से ही साड़ियां देश के विभिन्न हिस्सों में पहुंचती हैं। एक तरह से महाजन बुनकर और बाजार के बीच पुल का काम करता है। लेकिन यह पुल बुनकरों के लिए बेहद हानिकारक है। महाजन बुनकरों को एक तो मजदूरी कम देता है दूसरे भुगतान में महीनों लगा देता है। औसतन ऐसा होता है कि महाजन बुनकरों द्वारा तैयार साड़ियों में कोई खराबी निकाल उनकी पूरी मजदूरी ही हजम कर जाता है। जाहिर है महाजन बुनकरों के श्रम पर अपनी पूंजी खड़ी करता है लेकिन बुनकर जो सबसे अधिक मेहनत करता है उसे कोई फायदा नहीं मिलता है। महाजनों द्वारा बुनकरों का शोषण कोई नई बात नहीं है। इसका जीवंत चित्रण अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने उपन्यास 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया` में किया है। लेकिन मौजूदा दौर में स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि अब महाजन भी मंदी की मार से सुरक्षित नहीं रह गए हैं। क्योंकि सूरत की सस्ती और नए फैशन वाली साड़ियों के सामने बनारसी साड़ियों की चमक-दमक फीकी पड़ गई है।

बनारसी साड़ियों में प्योर कॉटन और सिल्क के धागों का इस्तेमाल किया जाता है और इसे बुनकर अपने हाथों और पैरों की सहायता से ताना-बाना चलाकर बुनता है। इसलिए इन साड़ियों को तैयार करने में समय और श्रम अधिक लगता है। जिसके कारण इसकी लागत अधिक पड़ती है। जबकि सूरत के व्यवसायी आधुनिक पावरलूम मशीनों की सहायता से कम पूंजी, समय और श्रम में अधिक साड़ियां तैयार कर लेते हैं। इस कारण उनकी साड़ियों की लागत कम पड़ती है। दूसरी तरफ बाजारवादी अर्थव्यवस्था के परिणाम स्वरूप जिस उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास हो रहा है उसमें उपभोक्ताओं में 'चीप एंड बेस्ट` की मनोवृति बढ़ी है। जिससे स्वभाविक रूप से बनारसी साड़ियों का बाजार मंदा हुआ है। इसके अलावा फैशन के नए प्रतिमानों मसलन सलवार-सूट और जींस-शर्ट के बढ़ते चलन ने भी बनारसी साड़ी उद्योग को नुकसान पहुंचाया है।

महाजनों के शोषण और मुक्त बाजार व्यवस्था की मार झेल रहे बुनकरों को दो दिन तक लगातार १४-१४ घंटे काम करने के बाद एक साड़ी की मजदूरी मात्र २६ रुपए मिलती है। इस राशि में घर के बच्चे और औरतों की मजदूरी भी शामिल होती है, जो साड़ी की बुनाई में मुख्य बुनकर की मदद करते है। जाहिर है २६ रुपए में बुनकर परिवार की दैनिक आवश्यकताओं का पूरा होना असंभव है। यही कारण है बनारस के बुनकर अपना खून और जिगर के टुकड़ों को बेचने से लेकर आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहे हैं ।

यद्यपि बुनकरों के कल्याण के लिए समय-समय पर सरकारी योजनाएं बनती रही हैं। लेकिन योजनाओं का लाभ या तो बुनकर समुदाय के ऊपर के लोग उठाते हैं या फिर वे शास्‍न और प्रशासन के भ्र टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। (चरखा)



वसीम अख्तर जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में शोध छात्र हैं।

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