July 12, 2007

राष्ट्रपति चुनाव


परंपराओं का विध्‍वंस
- रजनीश
राषट़पति पद की चुनावी बाजी चाहे प्रतिभा पाटिल के हाथ लगे या भैरों सिंह शेखावत के, पर इतना तय है कि
राष्ट्रपति पद की गरिमा को इतना गहरा धक्का पहले कभी नहीं लगा। जिस शैली में पहले देश को प्रतिभा पाटिल के 'भूतकाल` से परिचित कराया गया और बाद में भैरों सिंह शेखावत की वंशावली की 'असलियत` को उजागर करते हुए उसे एक मुस्लिम पीर से संबंधित बताया गया उसके संदेश विध्वंसक हैं।
प्रतिभा पाटिल की उम्मीदवारी को महिला सशक्तीकरण के जिस तर्क से मजबूत किया जा रहा है, वह दरअसल 'महिला मोहराकरण` की मिसाल है। क्योंकि, उनकी उम्मीदवारी शिवराज पाटिल, सुशील कुमार शिंदे और प्रणव मुखर्जी जैसे सूरमाओं के नाम खारिज होने के बाद ही सामने आई है। वैसे, राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के मोहराकरण का यह कोई पहला उदाहरण नहीं है। इससे पहले गुजरात दंगे के कलंक को हल्का करने के लिए तत्कालीन एनडीए सरकार ने एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाया था।
पर्दा-प्रथा और ब्रह्मकुमारियों के दादा लेखराज के सपने में आने संबंधी 'प्रतिभा` पाटिल के बयानों से एक बात साफ है कि इस बार राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चयन में प्रतिभा और योग्यता को आधार नहीं बनाया गया था। यदि योग्यता को ध्यान में रखकर यूपीए और वामपंथी दलों ने उम्मीदवार तय किया होता तो वे आजादी की लड़ाई में महान योगदान करने वाली और पिछले चुनाव की उम्मीदवार कैप्टन लक्ष्मी सहगल के नाम पर दुबारा जरूर गौर करते।
गौर तो खैर उन्होंने आजादी की लड़ाई में मास्टर दा के साथ जान लड़ा देने वाली आशालता सरकार और अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली चर्चित लेखिका अरूंधति राय जैसी महिलाओं के नाम पर भी नहीं किया। ऐसा शायद इसलिए कि सत्ता के हुक्मरानों को संवैधानिक प्रमुख के पद पर कोई समझदार महिला नहीं, बल्कि एक 'गूंगी गुड़िया` चाहिए, जिसे वे अपनी मर्जी के मुताबिक 'हैंडल` कर सकें।
राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर अब्दुल कलाम का रवैया सबसे अचरज भरा रहा। कलाम साहब 'सर्वानुमति` से जिस तरह 'सुनिश्चितता` पर उतरे, वह बेहद हैरतअंगेज था। यह वही कलाम साहब थे जिन्होंने एक नहीं दो बार राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ने से इंकार किया था। पर, न जाने क्यों कुल वोटों का महज दस प्रतिशत हिस्सा धारण करने वाले तीसरे मोर्चे की 'पुकार` पर वे पिघल गए। तीसरे मोर्चे के नेता क्रॉस वोटिंग की जिस अनैतिक राजनीतिक प्रक्रिया के बूते उन्हें दुबारा चुनाव लड़ने को कह रहे थे, वह इस देश की समस्त संवैधानिक और राजनैतिक परम्पराओं एवं व्यवस्थाओं को ताक पर रख देने वाला कदम है। इसी अनैतिक प्रक्रिया के भरोसे ही भैरो सिंह शेखावत निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनावी मैदान में हैं। इतना ही नहीं, संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति का पद कभी खाली नहीं रखा जा सकता है। ऐसे में कलाम 'चुनाव` कैसे लडेंगे ? राष्ट्रपति पद पर रहते हुए वह चुनावी उम्मीदवार नहीं बन सकते। यदि उन्हें उम्मीदवार बनाया जाता है तो चुनाव के दौरान किसी और व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाना होगा। अगर ऐसा होता तो एक और निम्न कोटि की मिसाल ही कायम होती। आजादी के बाद राजेन्द्र प्रसाद दुबारा राष्ट्रपति हुए थे लेकिन वह सर्वसम्मति का ममला था, चुनावी धींगामुश्ती का नहीं।
जहंा तक रा ट्रपति पद का प्रश्न है, उसे संविधान का रक्षक माना जाता है। देश की जनता उससे संवैधानिक संवदेनशीलता और दृढ़ता की अपेक्षा करती है। इस लिहाज से के.आर.नारायणन की गिनती श्रे ठ राष्ट्रपति में होती है। गुजरात में मुस्लिम नरसंहार के दौरान 'राष्‍ट्र के नाम संदेश` के माध्यम से उन्होंने जिस प्रकार से तत्कालीन एनडीए सरकार को फटकार लगायी थी, उसकी सर्वत्र सराहना हुई थी। यही नहीं, जिस प्रकार आम चुनाव में जनता की भागीदारी को अधिक से अधिक प्रेरित करने के उद्देश्य से उन्होंने कतार में खड़े होकर राष्ट्रपति के रूप में पहली बार मतदान किया था, उसे उनकी संवैधानिक संवेदनशीलता का परिचायक माना गया। ऐसे विद्वान और सक्रिय राष्ट्रपति को जनता की मांग के बावजूद दुबारा मौका नहीं दिया गया। लेकिन अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति पद की दुबारा पेशकश पर अब यह सवाल पूछा जाना जायज है कि तमाम खूबियों और योग्यताओं के बावजूद के.आर.नारायणन को क्या दलित होने के कारण दुबारा राष्ट्रपति होने लायक नहीं समझा गया?
जो भी हो, राजनीतिक समीक्षकों का एक वर्ग प्रतिभा पाटिल और भैरों सिंह शेखावत की उम्मीदवारी को आगामी लोकसभा चुनाव से भी जोड़कर देख रहा है। इस वर्ग के मुताबिक अगली लोकसभा के भी त्रिशंकु होने के आसार हैं। यह भी संभावना जतायी जा रही है कि अगली बार यूपीए के दलों का प्रदर्शन शायद पिछली बार की तरह न हो। इस वर्ग का कहना है कि त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में रा ट्रपति की महत्वपूर्ण भूमिका के मद्देनज़र ही एक तरफ से गांधी परिवार के प्रति निष्‍ठावान प्रतिभा पाटिल और दूसरी तरफ से संघ परिवार के प्रति निष्‍ठावान भैरों सिंह शेखावत को राष्ट्रपति बनाने की जोर आजमाइश की जा रही है।
इस बार के राष्ट्रपति चुनाव में टीवी चैनलों और अखबारों ने भी एक नया आयाम जोड़ा है। इन चैनलों और अखबारों ने अब्दुल कलाम, नारायण मूर्ति और अमिताभ बच्चन सरीखी हस्तियों को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बताकर आम लोगों से एसएमएस और ई-मेल के जरिए उनका मत मांगा। एसएमएस और ई-मेल से प्राप्त मतों को इन चैनलों एवं अखबारों ने आम जनता का मत करार दिया। लेकिन क्या एसएमएस और ई-मेल भेजने वाले वाकई इस देश के आम लोग हैं? आज इस देश में कितने लोगों के पास कम्प्यूटर है और कितने लोग मोबाइल से संदेश भेजते हैं? वरिष्‍ठ पत्रकार एवं विश्‍लेषक प्रभाष जोशी ने ठीक ही लिखा है कि 'एसएमएस और ई-मेल भेजने वाले लोग दरअसल उसी मध्यम वर्ग के सदस्य हैं जो पिछले पन्द्रह साल से मुटियाया है और अब इस देश को चलाना चाहता है। इसी वर्ग के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार एपीजे अब्दुल कलाम और नारायण मूर्ति हैं जिन्हें अखबार और चैनल जनता के उम्मीदवार बता रहे हैं।`
यहां यह सवाल मौजूद है कि आखिर मीडिया क्यों गैर राजनीतिक हस्तियों को ही राष्ट्रपति का योग्य उम्मीदवार घोषित करता है? प्रभाष जोशी ने सही कहा है कि 'पिछले कुछ समय से अपने मीडिया में जो बहस चल रही है उससे ऐसा निष्‍कर्ष निकलता है जैसे राजनीति करना और राजनीतिक होना राष्ट्रपति पद के लिए अयोग्यता माना जाना चाहिए। एपीजे अब्दुल कलाम की सराहना राष्ट्रपति होते हुए उनके किसी संवैधानिक पराक्रम के कारण नहीं है। इसलिए है कि वे राजनेता नहीं हैं। राजनीति करते दिखते नहीं है और हमेशा ऐसे विकास की बात करते हैं जिससे बीस साल बाद भारत की गिनती विकसित देशों में होगी। यानी हमारे मध्यवर्ग का भारत को अमेरिका नहीं तो यूरोप बनाने का एक जो सपना है, उसे पूरा करते एक गैर राजनीतिक राष्ट्रपति ही दिखाई देते हैं।`
अब जबकि राष्ट्रपति के चुनाव के लिए मैदान में पक्ष और विपक्ष, दोनों ओर से मीडिया द्वारा उछाला गया कोई उम्मीदवार नहीं है, क्या मीडिया अब अपनी इन फिजूल कवायदों के लिए क्षमा याचना करेगा?
अंग्रेजी मासिक 'मानव टाइम्स` के कार्यकारी संपादक रजनीश समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


( जन विकलप, 2007, जुलाई )

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