July 21, 2007

राजूरंजन प्रसाद


समय मुर्दागाडी नहीं होता

निर्मला पुतुल की छिटपुट कविताओं ने मुझे कभी काफी प्रभावित किया था। ठीक-ठीक शब्दों में बयान करूं तो वह आकर्षक लगभग सम्मोहन जैसा था; किंतु संग्रह पढ़कर मुझे अपनी राय में थोड़ा संशोधन करना पड़ा। अब मुझे उनकी कविताओं में अंतर्निहित खतरे भी साफ-साफ नजर आने लगे हैं, वैसे, पुतुल की कविताओं की जो रचनात्मक प्रतिबद्धता और ईमानदारी है, मैं निस्संदेह उसका कायल हूं।

लगभग दो-तीन वर्ष पहले इतिहासकार रोमिला थापर की एन।सी.आई.आर.टी. द्वारा छठी कक्षा के लिए प्रकाशित पुस्तक 'प्राचीन भारत` पढ़कर मैं सन्न रह गया था। उक्त पुस्तक में रोमिला थापर ने लिखा है 'धन्य हैं आदिवासी जिन्होंने आदिम संस्कृति और संरचना को अपने मूल रूप में बरकार रखा जिससे इतिहासकारों को अध्ययन हेतु आवश्यक स्रोत उपलब्ध हो सके।` वाह कैसी सोच है यह! हम अपने बौद्धिक व आत्मिक विकास के लिए किसी खास जाति अथवा समुदाय के आर्थिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से अविकसित बने रहने की आकांक्षा पाले रहते हैं। यह है 'सभ्य समाज` का संस्कृति-विमर्श! मुझे दुख है कि निर्मला पुतुल भी जाने-अनजाने में 'भलेमानुषों ` की कुछ इसी तरह की सदास्था और सदिच्छा की शिकार होती हैं। वे लिखती हैं 'बाजार की तरफ भागते/सबकुछ गड्डमड्ड हो गया है इन दिनों यहां/उखड़ गये हैं बड़े-बड़े पुराने पेड़/और कंक्रीट के पसरते जंगल में/खो गयी है इसकी पहचान`। मैं बगैर किसी लाग-लपेट के कहूं कि कवयित्री यहां आदिवासी-संस्कृति के जिन प्रतीक-चिन्हों की बात करती हैं वे बहुत स्पष्ट अर्थों में एक अविकसित समाज के अवशेष हैं। उनके विलुप्त होते जाने पर इस तरह अविवेक के आंसू बहाना आदिवासी समाज व संस्कृति का रक्षक अथवा शुभचिंतक होना नहीं कहा जा सकता। दरअसल हमारा समाज और पूरी दुनिया का प्रत्येक समाज इस कबीलाई समाज की मंजिल को (हालांकि आदिवासी समाज को उन अर्थों में कबीलाई समाज नहीं कहा जा सकता) पार कर ही उत्तर-आधुनिक (?) समय में आया है। भारत में बौद्ध धर्म की पूरी लड़ाई वैदिक संस्कृति के विरूद्ध 'बाजार` को स्थापित करने अथवा समर्थन देने की है। वेदकालीन भारत में सूदखोरी एवं वेश्यावृत्ति अनैतिक कर्म थी; पहली बार बौद्ध धर्म ने ही इसे मान्यता प्रदान की। ये दोनों ही मूल्य शहरी समाज के अर्थात् बाजार-केन्द्रित अर्थतंत्र के उत्पाद थे। तत्कालीन समाज में बौद्ध-धर्म का शायद यही सार्थक हस्तक्षेप था। एक अपरिवर्तनशील संस्कृति की अवधारणा के बारे में बात करते हुए हम अक्सर ही उसके अवश्यंभावी खतरों की तरफ से अपनी आंखें मूंद लेते हैं। परिवर्तनशील समय और समाज में अपरिवर्तनीय संस्कृति एवं पहचान की कल्पना वैज्ञानिक विश्वासों के साथ की जा सकती है क्या? आदिवासी संस्कृति की मूल पहचान को बनाये रखने की निर्दोष चिंता निर्मला पुतुल के संग्रह की केन्द्रीय समस्या लगती है। कवयित्री के अनुसार, 'उतना भी बच नहीं रह गया 'वह`/संथाल परगना में/जितने/की उनकी/संस्कृति के किस्से` और फिर, 'कायापलट हो रही है इसकी/तीर-धनुष-मांदल-नगाड़ा-बांसुरी/सब बटोर लिये जा रहे हैं लोक संग्रहालय/समय की मुर्दागाड़ी में लादकर` निर्मला जी को अब कौन समझाए कि समय 'मुर्दागाड़ी` नहीं होता। समय को न समझने पर अलबत्ता रचना बहुत जल्द मुर्दा हो जाएगी।

निर्मला पुतुल की कविताओं का मूल स्वर विद्रोह का है। यह विद्रोह बहुआयामी है। ग्लोबल और श्रेष्ठ संस्कृति के विरूद्ध स्थानीय संस्कृति का विद्रोह तो कहीं मर्द-संस्कृति के विरूद्ध नारी अस्मिता का विद्रोह। 'अपने घर की तलाश में` जो कविता है वह इसी विद्रोह-भाव से लिखी गई है। पुरुष के घर में ी़ अपने होने का प्रमाण ढूंढती है, अपना अर्थ खोजती है-'धरती के इस छोर से उस छोर तक/मुट्ठी भर सवाल लिये मैं/दौड़ती-हांफती-भागती/तलाश रही हूं सदियों से निरंतर/अपनी जमीन, अपना घर/अपने होने का अर्थ!!` स्‍त्री का यह संघर्ष सभ्यता की शायद पहली और अंतिम कहानी है। कवयित्री की तेज निगाहें इस बिडंबना को रेखांकित किये बगैर नहीं रहतीं कि 'ी़ स्वयं में घर की तरह रहती हुई दरअसल घर से बाहर रहती है।` पुरुष प्रधान समाज में आत्म-निर्वासन झेलती एक स्‍त्री का दुख है यह।

निर्मला पुतुल की कविताओं में दुख एक कध पैदा करता है क्योंकि दुख से मुक्ति की बेचैनी है यहां, उसके लिए कठोर संघर्ष है। यहां 'धान रोपती पहाड़ी आरोप रही है अपना पहाड़-सा दुख/सुख की एक लहलहाती फसल के लिए` इतना ही नहीं, 'पहाड़ तोड़ती तोड़ रही है/पहाड़ी बंदिश और वर्जनाएं।` निर्मला के समवय कवि संजय कुंदन के यहां ये वर्जनाएं टूटती नजर नहीं आतीं। उन्हें आदमी की तुलना में ईश्वर पर ज्यादा भरोसा है जबकि पुतुल कहती हैं 'मत ब्याहना उसे देश में/जहां आदमी से ज्यादा/ईश्वर बसते हों।`

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