July 14, 2007

वीरेन नंदा से रेयाज-उल-हक की बातचीत


'खडी बोली का चाणक्' के निर्देशक वीरेन नंदा
से रेयाज-उल-हक की बातचीत




इस फिल्‍म को बनाने की आपको प्रेरणा कैसे मिली?

प्रेरणा मुझे मेरी बेटी से मिली। करीब पांच साल पहले एक प्रश्न उसकी टीचर ने लिखाया था कि चंद्रकांता के रचयिता कौन थे। उसका जवाब भी खुद टीचर ने ही लिखवाया था-अयोध्या प्रसाद खत्री। मैंने उसे कहा कि यह तो गलत है। सही जवाब है-देवकीनंदन खत्री। इसे शुद्ध करो। वह अड़ गयी कि मिस ने लिखाया है तो यह गलत कैसे हो सकता है? तब मुझे लगा कि मुजफ्फरपुर में जिसने इतने वर्षों तक काम किया उसके बारे में इस शहर के लोगों को नहीं पता तो दूसरों को कहां से पता होगा? तब मैंने चीजों को खंगालना शुरू किया। मगर सामग्री बहुत अधिक न थी। नागरी प्रचारिणी सभा की सूची में तो थी, पर किताबें वहां नहीं थीं-लोग ले गये तो उन्होंने लौटाया ही नहीं। फिर भी जो मिला उसे पढ़ा। पढ़ने के क्रम में अयोध्या बाबू का चरित्र उजागर हुआ। पढ़कर किताब लिखने की योजना बनायी। फिर सोचा कि इस पर डाक्यूमेंटरी बनायी जाये। स्क्रिप्ट बनवाया एक दूसरे व्यक्ति से। तो चुनौती बनी कि इसके संवाद क्या रखे जायें। उनके समय में जो आरोप -प्रत्यारोप हुए थे, प्रहार हुए थे उसके डाक्यूमेंट खंगालने पर जो वाक्य निकले उन्हें पात्रों के मुंह में डाला। जो बात लिख कर नहीं पहुंचा सकते-उसे फिल्म के माध्यम से पहुंचा सकते हैं। मेरा कहना तो यह है कि अयोध्या प्रसाद खत्री पर फीचर फिल्म भी बन सकती है।

फिल्म बनाने में क्या कुछ दिक्कतें भी आयीं?

आर्थिक दिक्कतें थीं। तीन वर्ष लग गये। एक बार फिल्म शूट कर ली, फिर म्यूजिक रिकार्ड, फिर एडिटिंग...। अयोध्या प्रसाद खत्री जी की भूमिका भी मैंने स्वयं की।

खर्च कहां से जुटा? क्या सिर्फ व्यक्तिगत?

व्यक्तिगत भी, कर्ज भी। फिल्म बनाने के उद्देश्य से ही पैसा जमा करना शुरू किया था।
इन आर्थिक दिक्कतों के अलावा किसी तरह की दिक्कत आयी?

मैं परिहास का कारण भी बना कि क्या सब्जेक्ट लेकर चल रहा है। मगर ऐसा हुआ कि पढ़ने के बाद खत्री जी जैसे मेरे भीतर समा गये। खत्री जी की बातों का विरोध उर्दू को लेकर था। पांच तरह की शैलियां उन्होंने बतायीं थीं, जिनमें कविता की जा रही थी। वे मुंशी शैली की वकालत कर रहे थे, उनका मानना था कि यही आम जन की भाषा है। खत्री जी ठीक इसी बोलचाल की भाषा का समर्थन कर रहे थे। लोगों का खत्री जी से विरोध इस कारण से भी था कि उन्हें लगता था कि इससे खड़ी बोली से ब्रजभाषा का प्रभाव खत्म हो जायेगा। सब लोग भारतेंदु की दुहाई देते थे कि उनसे न बनी तो खत्री का यत्न कैसे सफल होगा? इसी से खत्री जी क्रुद्ध हो गये। 'अगरवाले के मत पर एक खत्री का समालोचना` शीर्षक से भारतेंदु का खंडन करते हुए उन्होंने कहा कि भारतेंदु को शब्दशा (फिजोलाजी) का कोई ज्ञान नहीं था, वरना वे खड़ी बोली में कविता नहीं हो सकती, ऐसा नहीं कहते।

फिल्म का रेस्पांस कैसा रहा? आगामी योजनाएं क्या हैं?

अच्छा लगा। कई बाधाएं आईं । लेकिन लोग फिल्म पसंद कर रहे है। खत्री जी पर चुप्पी टूटी है। तमाम नामवर, नामचीन लोग खत्री जी पर बात करने से कतराते हैं, क्योंकि इसके लिए भारतेंदु जी का खंडन करना होगा।
सहयोग मिला तो एक फिल्म गोपाल सिंह नेपाली पर बनाना चाहता हूं। उनकी भी उपेक्षा की गई। जाने क्यों बिहारियों को ही इतनी उपेक्षा सहनी पड़ती है। नेपाली जी का जब भागलपुर रेलवे स्टेशन पर निधन हुआ तो सिर्फ चार लोग उनकी चिता के पास मौजूद थे।


(Jan Vikalp, July,2007)

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