और खडी बोली का आंदोलन
भारतेंदु्युग से हिन्दी-साहित्य में आधुनिकता की शुरूआत हुई। उस दौर के रचनाकारों को आधुनिकता की शुरूआत करने का श्रेय दिया जाता है, जो वाजिब है। इसी दौर में बड़े पैमाने पर भाषा और विषय-वस्तु में बदलाव आया। खड़ीबोली हिन्दी गद्य की भाषा बनी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल सहित सभी इतिहासकार-आलोचकों ने विषय-वस्तु के साथ-साथ भाषा के रूप में खड़ी बोली हिन्दी के चलन को आधुनिकता का नियामक माना है। गौरतलब है कि इतिहास के उस कालखंड में, जिसे हम भारतेंदुयुग के नाम से जानते हैं, खड़ीबोली हिन्दी गद्य की भाषा बन गई लेकिन पद्य की भाषा के रूप में ब्रजभाषा का बोलबाला कायम रहा। इतना ही नहीं, कविताओं का विषय भक्ति और रीतिकालीन रहा। इस लिहाज से, कविता मध्यकालीन भाव-बोध तक सीमित रही।
अयोध्या प्रसाद खत्री ने गद्य और पद्य की भाषा के अलगाव को गलत मानते हुए इसकी एकरूपता पर जोर दिया। पहली बार इन्होंने साहित्य जगत का ध्यान इस मुद्दे की तरफ खींचा। साथ ही इसे आंदोलन का रूप दिया। इसी क्रम में खत्री जी ने 'खड़ी-बोली का पद्य` दो खंडों में छपवाया। इन दोनों किताबों को तत्कालीन साहित्य-रसिकों के बीच नि:शुल्क बंटवाया। काबिलेगौर है कि इस किताब के छपने के बाद काव्य-भाषा का सवाल एक महत्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभरा। हिन्दी-साहित्य के इतिहास में 'खड़ी बोली का पद्य` ऐसी पहली और अकेली किताब है, जिसकी वजह से इतना अधिक वाद-विवाद हुआ। इस किताब ने काव्य-भाषा के संबंध में जो विचार प्रस्तावित किया, उस पर करीब तीन दशकों तक बहसें होती रहीं। इस किताब के जरिए एक साहित्यिक आंदोलन की शुरूआत हुई। हिन्दी कविता की भाषा क्या हो, ब्रजभाषा अथवा खड़ीबोली हिन्दी? इसके संपादक ने खड़ीबोली हिन्दी का पक्ष लेते हुए ब्रजभाषा को खारिज किया। लिहाजा, इस आंदोलन की वजह से परिस्थितियां ऐसी बदलीं कि ब्रजभाषा जैसी साहित्यिक भाषा बोली बन गयी और खड़ी बोली जैसी बोली साहित्यिक भाषा के तौर पर स्थापित हो गई। 'खड़ी बोली का पद्य` के पहले भाग की भूमिका में खत्री जी ने खड़ी बोली को पांच भागों में बांटा-ठेठ हिन्दी, पंडित जी की हिन्दी, मुंशी जी की हिन्दी, मौलवी साहब की हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी। उन्होंने मुंशी-हिन्दी को आदर्श हिन्दी माना। ऐसी हिन्दी जिसमें कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्द न हों। साथ ही अरबी-फारसी के कठिन शब्द भी नहीं हों। लेकिन आमफहम शब्द चाहे किसी भाषा के हों, उससे परहेज न किया गया हो। प्रसंगवश, इसी मुंशी हिन्दी को महात्मा गांधी सहित कई लोगों ने हिन्दोस्तानी कहा है।
'खड़ी बोली का पद्य` और अयोध्या प्रसाद खत्री के आंदोलन से पहले खड़ी बोली में कविताएं लिखी जाती थीं। ये कविताएं कभी-कभार छपती भी थीं। 'खड़ी बोली का पद्य` में अयोध्या प्रसाद खत्री ने जिन कविताओं को शामिल किया, सारी पहले छप चुकी थीं। गौरतलब है कि 'खड़ीबोली-पद्य-आंदोलन` का जिन लोगों ने प्रखर विरोध किया, इनमें से ज्यादातर लोग इस आंदोलन से पहले खड़ीबोली में कविता लिख चुके थे अथवा खड़ीबोली में कविता लिखने के लिए कवियों को प्रेरित कर रहे थे।
काव्य-भाषा के तौर पर खड़ीबोली हिन्दी का सबसे मुखर विरोध राधाचरण गोस्वामी, प्रताप नारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट कर रहे थे। जबकि ये तीनों रचनाकार खड़ीबोली हिन्दी में कुछ कविताएं लिख चुके थे। साथ ही अपने-अपने पत्र में खड़ीबोली में कविताएं प्रकाशित कर चुके थे। 'दूसरे भारतेंदु` के नाम से चर्चित प्रताप नारायण मिश्र की खड़ीबोली हिन्दी में लिखी कविता 'चाहो गाना समझो, चाहो रोना समझो` १५ जून १८८४ ई. को 'ब्राह्मण` में छपी है। इस कविता के साथ नागरी में कविता लिखने के लिए प्र.ना. मिश्र की एक अपील भी छपी है :
'आर्य कवियों से हम सानुरोध प्रार्थना करते हैं नागरी भाषा की कविता का भी ढंग डालें। जिस भाषा के लिए इतनी हाय करते हैं उसमें कविता की चाल न हो प्रिय वर्ग हमें सहायता दो।`
प्रताप नारायण मिश्र की अपील में ही वे बुनियादी कारण मौजूद हैं, जिसकी वजह से वे बाद में खत्री जी के 'खड़ी बोली का पद्य` आंदोलन के विरोधी हो गये। मिश्र जी ने अपील में जिसे नागरी भाषा कहा है, वह खड़ीबोली हिन्दी ही है। लेकिन इस अपील में एक बात महत्वपूर्ण है। यह अपील सिर्फ 'आर्य कवियों` से की गयी है। दरअसल हंटर कमीशन (१८८२) में सैकड़ों मेमोरेण्डम देने के बावजूद हिन्दी के पक्ष में निर्णय न होने के कारण प्रताप नारायण मिश्र सरीखे हिन्दी-आंदोलनकारी क्षुब्ध थे। इसी दौर में जोरदार तरीके से भाषा की धार्मिक पहचान गढ़ी जा रही थी। लिहाजा, पश्चिमोत्तर प्रांत के हिन्दी-आंदोलनकारियों के लिए खड़ीबोली हिन्दी हिन्दुओं की भाषा हो गयी। इसी का नतीजा है कि प्रताप नारायण मिश्र सिर्फ 'आर्य कवियों` से 'सानुरोध प्रार्थना` करते हैं। इस अपील में 'हंटर कमीशन` के दौर में हुई गहमागहमी की छाया स्पष्ट रूप से दिखती है। अपील में इन्होंने कहा है कि 'जिस भाषा के लिए इतनी हाय करते हैं।` हंटर कमीशन के दौरान फारसी लिपि (उर्दू) को हटाकर नागरी लिपि (हिन्दी) को लागू करने के लिए हिन्दी-आंदोलनकारियों ने काफी 'हाय` मचायी थी।
प्रतापनारायण मिश्र के इस 'सानुरोध प्रार्थना` से पहले चम्पारण के एक गांव रतनमाल, (बगहां) के पंडित चंद्रशेखर मिश्र की १८८३ ई. में 'पीयूष प्रवाह` मासिक में एक कविता छपी। इस कविता में मिश्र जी ने खड़ी बोली हिन्दी में पद्य रचने के लिए वकालत की है :
आधी रहे मुरगी की छटा फिर आधी बटैर की राजै छटा की।।
ऐसी कड़ी द्विविधा में पड़ी-पड़ी यों बिगड़ी कविता छवि बांकी।
हिन्दी विशुद्ध में गद्य सुपद्य कै उन्नति कीजिए यों कविता की।।
'खड़ीबोली का पद्य` का पहला मुखर विरोध राधाचरण गोस्वामी ने किया। इन्होंने 'हिदोस्थान` में इसकी समीक्षा लिखते हुए इस किताब को 'अयोध्या प्रसाद खत्री लिखित` कहा। जबकि इस किताब में खत्री जी की लिखी सिर्फ छोटी भूमिका है। इसी समीक्षा में कहा कि इस भाषा में कवित, सवैया आदि छंदों का निर्वाह नहीं हो सकता और यदि किया भी जाता है तो बहुत भद्दा मालूम पड़ता है। राधाचरण गोस्वामी को एक आपत्ति यह भी थी कि खड़ी बोली हिन्दी में कविता लिखने पर भाषा यानी जनभाषा के प्रसिद्ध छंद छोड़कर उर्दू के बैत, शेर, गजल आदि का अनुकरण करना पड़ता है। इनका मानना था कि चंद से हरिश्चंद्र तक सारी कविता ब्रज भाषा में हुई है और सब पंडितों ने संस्कृत के अनंतर 'भाषा` शब्द से इसी का व्यवहार किया। हमारी कविता की भाषा अभी मरी नहीं है तब फिर इसमें क्यों न कविता की जाए? गोस्वामी जी का मानना था कि संस्कृत नाटकों में साहित्य के लालित्य के लिए संस्कृत, प्राकृत, पैशाची कई भाषा व्यवहार की गयी है तो यदि हम हिन्दी साहित्य में दो भाषा व्यवहार करें तो क्या चोरी है? इस समय में हमारे परम आतुर आर्य समाजी और मिशनरी आदिकों ने भाषा साहित्य की रीति और अलंकार आदि बिना जाने कविता लिखने का आरंभ करके अपने हास्य के सिवाय काव्य की भी उलटे हुए छुरे से खूब हजामत की है और इस पिशाची कविता से अपने समाज का भी खूब मुख नीचा किया है। बस यह खड़ी बोली की कविता भी पिशाची नहीं तो डाकिनी अवश्य कवित-समाज में मानी जाएगी।
अव्वल तो यह कि गोस्वामी जी की चिंता उर्दू के बैत, शेर और गजल से बचने की है। सवाल उठता है कि गोस्वामी जी सरीखे विद्वान उर्दू से बचने की इतनी कोशिश क्यों करते हैं? इसका जवाब गोस्वामी जी के ही एक कथन में मिलता है-'मैं जिस कुल में उत्पन्न हुआ उसमें अंग्रेजी पढ़ना तो दूर है, यदि कोई फारसी, अंग्रेजी का शब्द भूल से भी मुख से निकल जाए तो बहुत पश्चाताप करना पड़े।` बावजूद इसके गोस्वामी जी ने अंग्रेजी पढ़ी। फिर उर्दू-फारसी से इतना वैर क्यों? इसकी वजह भाषा के आधार पर हो रही तत्कालीन साम्प्रदायिक राजनीति थी। यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि गोस्वामी जी ने संस्कृत नाटकों में प्राकृत, पैशाची आदि कई भाषाओं के प्रयोग को 'साहित्य का लालित्य` माना है। गौरतलब है कि यह कथन संस्कृत नाटकों के युग की नाट्यभाषा में छिपी वर्चस्ववादी विचारधारा को नहीं समझने का नतीजा है। संस्कृत नाटकों में द्विज पुरुष पात्र संस्कृत में संवाद बोलता है जबकि दास और शूद्र पात्र प्राकृत, पैशाची आदि लोक भाषाओं में। इसे साहित्यिक लालित्य समझना तत्कालीन भाषायी विभेदकारी शोषणमूलक संरचना को नहीं समझने का परिणाम है अथवा-साहित्यिक लालित्य के नाम पर उस विचारधारा को छिपाने की कोशिश।
राधाचरण गोस्वामी के सवालों का जवाब उसी अखबार में श्रीधर पाठक ने दिया। इसके बाद इस मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष में लेख छपने लगे। गोस्वामी जी ने फिर से अपनी पुरानी मान्यताओं पर अडिग रहते हुए-जिसमें इन्होंने हिन्दी को पिशाचिनी, डाकिनी कहा था-दूसरा सवाल पूछा कि खड़ीबोली के पक्षधर किस कविता को लेकर हिन्दी काव्य-रचना करेंगे? उन्होंने शंका जतायी कि खड़ी बोली की कविता की चेष्टा की जाए तो फिर खड़ी बोली के स्थान में थोड़े दिनों में खाली उर्दू कविता का प्रचार हो जाएगा। उनको लगता था कि 'गद्य में सरकारी पुस्तकों में फारसी शब्द घुस ही पड़े, उधर पद्य में फारसी भरी गई तो सहज ही झगड़ा विदा।` राधाचरण गोस्वामी के इस सवाल-खड़ी बोली के पक्षधर किस कविता को लेकर हिन्दी काव्य-रचना करेंगे, का जवाब देते हुए श्रीधर पाठक ने लिखा 'हमलोग ब्रजभाषा और खड़ी बोली भाषा दोनों की कविता से अपनी अराध्य हिन्दी को द्विगुणित, चतरगुणित आभूषण पहनाकर और विधि रीति से उसके 'अटल` भंडार को बढ़ाकर उसके असीम वैभव के सदा अभिमानी होंगे और दोनों का आधार साधार रखेंगे।` राधाचरण गोस्वामी की शंका थी कि खड़ी बोली में काव्य-रचना करने पर थोड़े दिनों में सिर्फ उर्दू कविता का प्रचार हो जाएगा, को वक्त ने निराधार साबित कर दिया है। इनकी एक चिंता कि कविता में फारसी घुस जाएगी का जवाब देते हुए पाठक जी ने लिखा-'खड़ी हिन्दी की कविता में उर्दू नहीं घुसने पावेगी। जब हम हिन्दी की प्रतिष्ठा के परीक्षण में सदा सचेत रहेंगे तो उर्दू की ताव क्या जो चौखट के भीतर पांव रख सके।` 'कविता में फारसी घुस जाएगी`-दरअसल खड़ी बोली काव्य भाषा के विरोध का सबसे बड़ा कारण था। काबिलेगौर है कि इस मुद्दे पर 'खड़ीबोली का पद्य` के विरोधी राधारचण गोस्वामी और समर्थक श्रीधर पाठक की भाषा-नीति समान है। फर्क इतना है कि गोस्वमी जी को डर है कि खड़ी बोली में कविता रचने पर कविता में फारसी घुस जाएगी। जबकि श्रीधर पाठक को इसका डर नहीं है। वे उर्दू-फारसी से अपनी हिन्दी कविता को चाक-चौबंद रखने का विश्वास प्रकट करते हैं कि वे सरकार की नीति का अनुयायी बने बगैर हिन्दी कविता की रक्षा करेंगे।
स्कूली-हिन्दी में फारसी शब्दों के प्रयोग से गोस्वामी जी का डर बढ़ गया था। प्रसंगवश उस दौर में स्कूलों में पढ़ायी जाने वाली पुस्तकों को राजा शिवप्रसाद 'सितारै हिन्द` ने तैयार किया था। किताबों में आमफहम उर्दू-फारसी शब्दांे से परहेज नहीं किया गया था। राजा शिव प्रसाद की इस नीति में हिन्दी-उर्दू करीब थी। यह बिल्कुल स्वाभाविक था। हिन्दी-उर्दू को करीब लाना ऐतिहासिक जरूरत भी थी। समूचे हिन्दी-उर्दू इलाके को एक सूत्र में बांधने के लिए यह जरूरी कदम था। यह ऐतिहासिक विडंबना है कि ब्रजभाषा कविता के पक्षधर राधाचरण गोस्वामी और खड़ीबोली कविता के पक्षधर श्रीधर पाठक इस सवाल पर एक साथ खड़े थे। आखिर इसके पीछे क्या वजह थी? लल्लूजी लाल कवि 'प्रेमसागर` में प्रचलित एवं आमफहम 'यावनी` शब्दों का प्रयोग क्यों नहीं कर रहे थे? जिस प्रकार 'यवन` के कदम रखने मात्र से कृष्ण मंदिर या भक्त का घर अपवित्र हो जाता था, उसी प्रकार कृष्णभक्ति से जुड़ी रचनाएं भी 'यावनी` शब्दों के प्रयोग से अपवित्र जो हो जातीं! यही वजह थी कि 'यावनी` शब्दों से हिन्दी को बचाने की जद्दोजहद चल रही थी। 'यावनी` शब्द से हिन्दी को बचाने की कोशिश में कृत्रिम और अस्वाभाविक हिन्दी गढ़ना इन लोगों को गवारा था। अपनी इसी मानसिकता के कारण तत्कालीन लेखकों का एक तबका खड़ी बोली हिन्दी गद्य से उर्दू-फारसी शब्दों को छांटकर संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग करता था। गोया कि इसके जरिए 'पवित्र` भाषा गढ़ी जा रही थी। खड़ी बोली के एक साहित्यिक रूप उर्दू में ज्यादातर मुस्लिम रचानाकार रचनाएं कर रहे थे। इसमें फारसी शब्दों का खुलकर प्रयोग भी हो रहा था। यही वजह थी कि श्रीधर पाठक, राधचरण गोस्वामी जैसे रचनाकार इस भाषा से दूरी कायम कर रहे थे।
प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट जैसे लेखकों को भी इसी का भय सता रहा था। भट्ट जी की चिंता थी कि 'हम अपनी पद्यमयी सरस्वती को किसी दूसरे ढंग पर उतारकर मैली और कलुषित नहीं करना चाहते। पद्य या कविता उसी का नाम है जिस मार्ग भूषण, मतिराम, पद्माकर तथा सूर, तुलसी, बिहारी प्रभृति महोदय गण चल चुके हैं।` यहां भट्ट जी यह भूल जाते हैं कि इनकी 'पद्यमयी सरस्वती` कई नये ढंग पर उतरने के बाद ही भूषण मतिराम आदि कवियों तक पहुंची है। यहां एक सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि जब कभी-कभार बालकृष्णभट्ट स्वयं खड़ी बोली में रचना करते थे तब क्या 'पद्यमयी सरस्वती कलुषित` नहीं होती थी। राधाचरण गोस्वामी की सुधार-चेतना ऐसी थी कि वह कुछ कदम आगे बढ़ाकर फिर कई कदम पीछे मुड़ गए थे। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनाराण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी भी खड़ी बोली में कविता रचने के मुद्दे पर दो कदम आगे बढ़ाकर अपने धार्मिक हठ की वजह से फिर पीछे चले गए थे।
इसे अलावा इन तीनों रचनाकरों के अलावा डा. ग्रियर्सन भी खड़ी बोली की कविता को असंभव करार दे रहे थे। इन चारों लेखकों ने अपनी इस धारणा का आधार भारतेंदु हरिश्चंद्र के कथन को बनाया था। इनका मानना था कि जब भारतेंदु ही खड़ीबोली में कविता नहीं रच सके तो फिर दूसरे रचनाकरों की क्या औकात? भारतेंदु हरिश्चंद्र 'रसा` उपनाम से गज़ल लिखते थे। इसके साथ ही उनकेे खड़ीबोली में कविता लिखने का जिक्र दो बार मिलता है। १८८१ ई. में कलकत्ता से छोटूलाल मित्र के संपादन में प्रकाशित 'भारत मिश्र` के लिए खड़ीबोली हिन्दी में लिखे दोहे के साथ एक खत भेजा था-'प्रचलित साधुभाषा में कुछ कविता भेजी है। देखिएगा कि इसमें क्या कसर है और किस उपाय अवलम्ब करने इस भाषा में काव्य सुंदर बना सकता है। इस कविता में सर्वसाधारण की अनुमति ज्ञात होने पर आगे से वैसा परिश्रम किया जाएगा। तीन-भिन्न छंदो यह अनुभव ही करने के लिए कि किस छंद में इस भाषा का काव्य अच्छा होगा, कविता लिखी है। मेरा चित्त इससे संतुष्ट न हुआ और न जाने क्यों ब्रजभाषा से इसके लिखने में दूना परिश्रम किया कि खड़ीबोली में कविता बनाऊं पर वह मेरे चित्तानुसार नहीं बनी। इससे निश्चय होता है कि ब्रजभाषा ही में कविता करना उत्तम होता है और इसी से सब कविता ब्रजभाषा में ही उत्तम होती है।` अव्वल तो यह कि भारतेंदु के चित्तानुसार कविता नहीं बनी तो उन्होंने नतीजा निकाल लिया कि ब्रजभाषा में कविता करना उत्तम होता है। खुद से जो काम नहीं हो सका, उसके बारे में नतीजा निकालना अपने आप पर टिप्पणी है।
गौरतलब है कि इन्हीं पंक्तियों के आधार पर भारतेंदु के प्रति अंधभक्ति रखने वाले तत्कालीन लेखक खड़ीबोली में पद्य-रचना को असंभव करार दे रहे थे। अंधसमर्थकों द्वारा किसी भी विचारक, गुरू या नेता की बातों का ऐसा ही हश्र होता है। अव्वल तो यह कि अंधभक्त अपने 'आराध्य` की बात को आलोचनात्मक दृष्टि से नहीं देखते। बदलती ऐतिहासिक पिस्थितरायों के संदर्भ में उन विचारों का विकास भी नहीं कर पाते हैं। भारतेंदु की बातों का भारतेंदु-मंडल के सदस्यों के लिए कितना महत्व था, राधाचरण गोस्वामी के इस बयान से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। 'उनके (भारतेंदु) के लेख ग्रंथ हमको वेद वाक्यवत्, प्रमाण और मान्य थे। उनको मानो ईश्वर का एकादश अवतार मानते थे। हमारे सब कामों में वह आदर्श थे, उनकी एक-एक बात हमारे लिए उदाहरण थीं।` इस बयान से भारतेंदु का व्यक्तित्व और गोस्वामीजी सरीखे लेखकों की अंधभक्ति का पता चलता है। वेद के वाक्यों पर आर्यसमाजी हिन्दुओं द्वारा सवाल उठाना, जिस प्रकार पाप माना जाता था उसी प्रकार इन लोगों द्वारा भारतेंदु की बात का प्रतिवाद करना तो दूर उस पर शंका करना भी मानो पाप जैसा था। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि इतिहास के जिस दौर में बुद्धिवाद, आलोचनात्मक वृत्ति का विकास हो रहा था, उस दौर में हिन्दी के बड़े लेखकों में ऐसा भाव कायम था। भारतेंदु के प्रति इनकी अंधभक्ति का आलम यह था कि वे उनकी बात को भी ठीक से नहीं समझ पा रहे थे। ऐसे ही अंधसमर्थकों से आजीज आकर अयोध्या प्रसाद खत्री ने 'एक अगरवाले के मत पर खत्री की समालोचना` शीर्षक पैम्फलेट छपवाकर बंटवाया। खत्री जी ने लिखा कि 'बाबू भारतेंदु हरिशचंद्र ईश्वर नहीं थे। उनको शब्दशा का ;चीपसवसवहलद्ध कुछ भी बोध नहीं था। यदि चीपसवसवहल का ज्ञान होता तो खड़ी बोली पद्य में रचना नहीं हो सकती है, ऐसा नहीं कहते।` इतिहास के इस दौर में जब भारतेंदु-मंडल के लेखकों की तूती बोलती थी, उस समय भारतेंदु के बारे में ऐसी टिप्पणी काबिल-ए-बर्दाशत नहीं थी। हालांकि खत्री जी की बात तार्किक थी।
उन्नसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के दौर में बिहार में उर्दू भाषा के विरोध में हिन्दी-आंदोलन नहीं चल रहा था। बिहार का हिन्दी-आंदोलन उर्दू और हिन्दी को साथ लेकर चल रहा था। जबकि तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रांत का हिन्दी आंदोलन उर्दू और मुसलमानों का प्रखर विरोध कर रहा था। अयोध्या प्रसाद खत्री उर्दू विरोधी हिन्दी-आंदोलन का मुखर विरोध करते थे। हिन्दी और उर्दू की एकता की बात तत्कालीन साहित्यकारों को मंजूर नहीं थी। भाषा को धर्म के आधार पर बांटने की रणनीति में इससे दरार पड़ती थी। इन्हीं सब वजहों से अयोध्या प्रसाद खत्री और उनकी भाषा-नीति का लगातार विरोध होता रहा।
(युवा आलोचक राजीवरंजन गिरि ने जेनेवि से 'खड़ी बोली पद्य का आंदोलन और अयोध्या प्रसाद खत्री` विषय पर शोध किया है।)
(Jan Vikalp, July,2007)
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