July 9, 2007

प्रेमकुमार मणि


माओवादी हिंसा


बिहार के विभिन्न हिस्सों से माओवादी हिंसा की खबरें लगातार आ रही हैं। हिंसा के अचानक उभार से बिहार में विकास की आस लगाये आम जन उदास और हतप्रभ हैं। इसके पहले उग्र राजनीति के कुछ खास इलाके थे जैसे गया, जहानाबाद और भोजपुर। इस बार कहीं ज्यादा फैले हुए क्षेत्र से हिंसा की सूचना है।
राजसत्‍ता में आने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने माओवादियों के लिए एक संदेश दिया था कि उन्हें उनके विचार फैलाने की राजनीति से एतराज नहीं है, लेकिन हिंसा को वह कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे। लगता है नीतीश कुमार को माओवादियों ने समझने की कोशिश नहीं की। जाहिर है कोई भी सरकार हिंसा को चुपचाप नहीं देख सकती। लेकिन जब बन्दूकें टकरायेंगी तो मानवाधिकारों का हनन अवश्यम्भावी होगा। हिंसा-प्रतिहिंसा के शोर में विकास का बन रहा वातावरण भी खत्म हो सकता है।
हम किसी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं करते-चाहे वह सरकारी हिंसा हो अथवा किसी राजनीतिक संगठन की। हिंसा से कोई बडा मकसद हासिल हो सकता है, इसमें हमें संदेह है। तेलंगना से लेकर अब तक के इतिहास से हमने यही सबक लिया है। लेकिन जो सरकार बढ़-चढ़ कर १८५७ के सश विद्रोहों की १५० वीं जयन्ती पर जलसा आयोजित कर रही हो उसे इस तरह की हिंसा के विरोध का नैतिक हक नहीं है। माओवादी कह सकते हैं, और कहते ही हैं कि यह उनका मुक्तियुद्ध है।
इसके पहले भी हमने अपने अग्रलेख में माओवादी हिंसा को समझने की कोशिश की थी। हम एक बार फिर सरकार से कहना चाहेंगे कि वह उग्रवाद उभरने के वास्तविक कारणों तक जाये और उनका निराकरण करे, बजाय पुलिसिया दमन के। दमन पर खर्च होने वाला धन गरीबी उन्मूलन पर खर्च होना चाहिए। इसके साथ ही माओवादियों से भी हम कहेंगे कि वे हिंसा से बाज आयें। पुलिस थानों पर जिन सिपाहियों की वे जान ले रहे हैं वे भी आम जन हैं और अपने परिवार का पेट पालने के लिए चाकरी कर रहे हैं। उन्हें बन्दूक रखने का कोई शौक नहीं है। वे यदि सामंतों के औजार बनते हैं तो इसके लिए मौजूदा राजनीति जिम्मेदार है। वे तो स्वयम् अपने संघ के माध्यम से इन आचरणों के विरुद्ध बगावत के स्वर उठाते रहे हैं। उन्हें राजसत्‍ता का प्रतीक मानकर उनपर हमला करना ज्यादती है।
बुरी तरह पिछड़ चुके बिहार में प्रगति और विकास का वातावरण बहाल करना
बहुत जरूरी है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि गरीबों को विश्वास में लिया जाय। पिछले पंद्रह वर्षों के लालू राज में बिहार का विकास तो ठप था, लेकिन पिछडे दलितों में झूठा ही सही, अहसास था कि लालू उनके हैं और उनके माध्यम से उनका राज चल रहा है। इस कारण अतिवादी ताकतें गरीब जनता को हिंसा के लिए गोलबंद करने में विफल रहीं। नीतीश सरकार बनते ही एक अफवाह फैली कि सामन्तों का राज फिर बहाल हो गया है। दुर्भाग्य से यह बात निचले स्तरों (ग्रास रूट) तक चली गयी है। नीतीश सरकार ने पंचायती राज से लेकर राशन-किरासन और इंदिरा आवास योजना तक में पारदर्शिता लाकर इन योजनाओं को वास्तविक रूप में गरीबों से जोडने की कोशिश की है। लेकिन जनता इज्जत के साथ रोटी चाहती है। उसे लगता है लालू राज में उसकी रोटी पर भले ही आफत थी, उसकी इज्जत ठीक-ठाक थी। नीतीश सरकार को अपनी बहुप्रचारित सामंती छवि से मुक्ति पानी होगी। यदि इसमें वह विफल होती है तो हिंसा को रोक पाना मुश्किल होगा।


अलविदा कलाम

राष्‍ट्रपति कलाम बस इसी २५ जुलाई को भूतपूर्व हो जायेंगे। मैं नहीं जानता देश की जनता उन्हें किस रूप में याद रखेगी। मूलत: वे अटल बिहारी वाजपेयी की पसंद थे। चूंकि वे मुसलमान भी थे और गुजरात के भयानक दंगों की पृभठभूमि में उनका चुनाव हुआ था, इसलिए सोनिया गांधी समेत कई अन्यों ने उनका समर्थन किया था। तब भी मार्क्सवादी उनके समर्थन में नहीं थे। उनलोगों ने अपना अलग उम्मीदवार दिया था। लेकिन तब मार्क्सवादी उन्हें रोकने में समर्थ नहीं थे। इस बार वे समर्थ थे और उन्होंने कलाम को दूसरी मर्तबा राष्‍ट्रपति बनने से रोका। इसके लिए मार्क्सवादी धन्यवाद के पात्र हैं।
कलाम के बारे में मेरी अपनी राय है। एनडीए ने जब उन्हें रा ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था तब मैंने उन्हें एक पत्र लिखा था। पांच वर्ष बाद भी मैं अपनी राय पर कायम हूं। एक जहीन दिमाग आदमी, जो मुल्क की गरीबी और अशिक्षा दूर करने के उपाय तलाश सकता था, युद्ध की प्रावैद्यिकी तलाशने में जुटा रहा। यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि एक मिसाइलमैन को मुल्क का राष्‍ट्रपति बनाया गया। जो दूसरी दफा उन्हें बैठाने की वकालत कर रहे थे, मैं उन से सहमत नहीं था। जाते-जाते कलाम ने जो ड्रामा किया वह भी अभूतपूर्व था। राष्‍ट्रपति के पद पर आसीन एक व्यक्ति एकबार फिर राष्‍ट्रपति बनने के लिए शर्तें रख रहा है कि यदि वह निर्विरोध चुना जाता है तो वह तैयार है। राष्‍ट्रपति का यह मर्यादाहीन आचरण देश की जनता को शर्मसार करने वाला था।
कलाम को उनके समर्थक वैज्ञानिक कहते हैं। जैसे वाजपेयीजी को उनके प्रशंसक कवि मानते हैं। हर तुकबंदीकार कवि नहीं होता और न हर तकनीशीयन वैज्ञानिक। हां, आर एस एस की अपनी कसौटी होती है। उस कसौटी पर गोलवरकर महान चिन्तक हैं। ऐसे में वाजपेयी को महान कवि और कलाम को महान वैज्ञानिक मानने में किसे एतराज होगा। भाजपा और सं को वह केवल इसलिए प्यारे हैं कि उनकी मिसाइलें पाकिस्तान को बर्बाद कर सकती हैं। स्वाभाविक ही था कि निर्दलीय चोगे में उतरे संघ के रा ट्रपति पद के उम्मीदवार भैरोसिंह शेखावत ने भी आखिरी समय तक कलाम की वकालत की। दरअसल कलाम ही संघ की पहली पसंद थे।
राष्‍ट्रपति के रूप में कलाम ने कोई आदर्श नहीं रखा। कबीर की बानी उधार लें तो कहा जा सकता है कि चादर मैली ही की। मई २००५ में बिहार विधान सभा भंग करने का प्रस्ताव जब हस्ताक्षर के लिए उनके पास भेजा गया तब वे मास्को में थे। रात के तीन बजे थे। सोये हुए से उठकर उन्होंने चुपचाप दस्तखत कर दिये। अब लगता है कि तब भी उनके मन में दुबारा राष्‍ट्रपति बनने की कामना रही होगी। उस वक्त उन्होंने खुद को शायद 'लायक` सिद्ध करने की कोशिश की थी। कलाम के पास पूर्व राष्‍ट्रपतियों के उदाहरण थे, जिन्होंने कई बार केन्द्रीय मंत्रीपरिष्‍द की सिफारिशों को पुनर्विचार के लिए लौटाया है। तब बिहार विधान सभा का गठन भी नहीं हुआ था और उसे भंग किया गया था। पहली दफा एक ऐसी चीज का ध्वंस हुआ जिसका कोई अस्तित्व ही न हो। कलाम यदि सचमुच वैज्ञानिक होते तो इस छोटी चीज को समझते।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को राइफल-पिस्टल और बम-मिसाइल बनाने वाले लोग भले ही वैज्ञानिक लगें, एक प्रबुद्ध आदमी उन्हें एक तकनीशीयन ही मानेगा। कलाम युद्ध के तकनीशीयन हैं-एक ऐसा तकनीशीयन जिनके बिना दुनिया का काम ज्यादा बढ़िया से चल सकता है। उन्होंने भारत के रक्षा मंत्रालय की चाहे जो सेवा की हो, उनकी मिसाइलें मानवता के विरूद्ध ही खडी हैं। जिस देश-समाज में बम पिस्टल मिसाइलें बनाने वाले लोग इस तरह रेखांकित होंगे, उसकी राजनीतिक-सामाजिक चेतना पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। अमेरिका के क्लॉड इथर्ली ने ६ और ९ अगस्त १९४५ को जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराये थे। अमेरिकी सरकार ने उसे नेशनल हीरो का खिताब दिया। लेकिन अमेरिकी जनता ने इथर्ली से घृणा की। खुद इथर्ली अपने किये पर इतना शर्मसार था कि वह असामान्य आचरण करने लगा। बम की विभीषिका की जानकारी ने उसे हिलाकर रख दिया। अपनी जमा पूंजी उसने तबाह लोगों के लिए भेज दी। फिर तो चोरी कर कर के वह धन जुटाने लगा, तबाह लोगों को भेजने के लिए। वह पागल हो गया और उसने खुदकुशी की कोशिशें कीं। शायद उसका आखिरी समय पागलखाने में ही बीता। यदि वह भारत में होता तो शायद रा ट्रपति भवन में बीतता।
क्लॉड इथर्ली में इतनी चेतना तो थी कि वह अपने किये का प्रायश्चित कर सकता था। अग्नि की उड़ान की तरह अपनी सफलता की कहानी 'महाप्रलय` शीर्ष्‍क से वह भी लिख सकता था। लेकिन उसने पागलखाने में रहना बेहतर समझा। क्लॉड इथर्ली के पागल होने की घटना ने पूरी दुनिया को जो संदेश दिया उसे भी कलाम यदि समझते तो मैं उन्हें तहे दिल से सलाम करता।
खैर, अलविदा कलाम। आज मैं खुश हूं कि आप रा ट्रपति भवन खाली करने जा रहे हैं। राष्‍ट्र के अवचेतन में जो कायरपन और पाशविकता थी, उसने आपको इस महान ओहदे पर बैठाया था, उसमें अन्तर्निहित आध्यात्मिकता ने इस बार आपको खारिज किया है। आमीन।

चंद्रशेखर

अभी-अभी खबर मिली है कि कभी युवा तुर्क रहे चंद्रशेखर नहीं रहे। वे जीवन के इक्कासीवें (८१) वर्ष में थे और अर्से से बीमार चल रहे थे। कुछ महीनों के लिए वे भारत के प्रधान मंत्री भी रह चुके थे।
युवा काल में कुछ समय के लिए मैं चंद्रशेखर से प्रभावित हुआ था। तब दिनमान साप्ताहिक में उनका एक इंटरव्यू छपा था। उसकी पहली पंक्ति अभी भी मुझे याद है। इंटरव्यूकर्त्ता ने ने लिखा था 'जब मैं चंद्रशेखर जी के यहां गया तो वे सत्तू खा रहे थे और उनके पास नेहरू की किताब 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया` रखी थी। 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया` पर ही बात शुरू हुई।` गांव में रह रहे मुझ जैसे नौजवान को लगा था कि नेता ऐसा ही होना चाहिए। जब प्रधान मंत्री के रूप में वे भूतपूर्व हो गये, तब एकबार उनसे मिलना हुआ। मैंने उन्हें यह बात बतलाई। वे भावुक हो गये। मुझे तब आश्चर्य हुआ जब वे अपने सोफे से उठकर मेरे पास आये और बैठ गये। स्नेह से मेरा हाथ पकड़ा और कुछ देर तक उन दिनों की बातें करते रहें। वे हिन्दी कवि आलोक धन्वा से परिचित थे। उन्होंने उनका हाल पूछा।
तो चंद्रशेखर जी के व्यक्तित्व का एक पक्ष यह था।
लेकिन एक दूसरा पक्ष जो बाद में उनके व्यक्तित्व का मुख्य पक्ष हो गया, वह था चंद्रास्वामियों और सूरजदेव सिंह जैसे लोगों से उनकी अंतरंगता। भारतीय राजनीति में ऐसे लोगों के जुड़ाव का प्रचलन चंद्रशेखर ने आरंभ किया। पैसा और विचारहीनता चंद्रशेखर की राजनीति के मुख्य औजार बन गये। इतना ही नहीं 'मित्र लाभ` और 'शुभ लाभ` की राजनीति के वे अघोषित पुरोहित बन गये। आश्चर्य होता है कि जिस व्यक्ति ने कभी आचार्य नरेन्द्र देव के शिष्यत्व में राजनीति आरंभ की थी, जो बहुत दिनों तक सत्तू और किताबों से घिरा रहा, वह ऐसी वैचारिक अधोगति का शिकार बन गया। उनके चालू किस्म के चेले लगभग हर पार्टी में मिल जायेंगे। ये सब के सब विचारहीन भले हों, कुर्सीहीन नहीं हैं।
चंद्रशेखर जी के जीवन से हम यही सीख ले सकते हैं कि जीवन की भौतिक उपलब्धियां और ऊंचा पद व्यक्तित्व निर्माण में सहायक नहीं होता। आज सरकारी श्रद्धांजलि भले ही मिल रही हो, मुट्ठी भर लाभुकों के अलावे समाज की हार्दिक श्रद्धांजलि उन्हें नसीब नहीं हुई।


( जुलाई,2007जुलाई,2007)

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