October 30, 2007

भीड़ का मनोविज्ञान

  • डॉ. विनय कुमार


सौ करोड़ से अधिक आबादी का देश भारत आज हर स्तर पर भीड़ का देश बनता जा रहा है। विचार और विवेक के सहारे जीवन जीने वाले लोग अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं।


मानव मन के तीन मुख्य अवयव हैं-भावना, विचार और विवेक। इनसे ही मनुष्य के व्यवहार का निर्धारण होता है। विचार मनुष्य को अकेला करता है और विवेक उसे भीड़ का हिस्सा बनने से रोकता है। भावना ही है जो उसे भीड़ का हिस्सा बनाती है। बहुत सोचने वाला व्यक्ति किसी सभा-जुलूस में शिरकत करने से अकसर परहेज करता है। अगर वह इनमें शामिल भी होता है तो किसी खास विचार के प्रति भावनात्मक लगाव के कारण। भीड़ में शामिल व्यक्ति मूलत: भावना से संचालित होता है इसलिए उसके विचार और विवेक के पक्ष कमजोर पड़ जाते हैं। इन दिनों जो भीड़ के आक्रामक हो उठने की घटनाएं हो रही हैं, उन्हें इस जानकारी की रोशनी में देखा जा सकता है।

सौ करोड़ से अधिक आबादी का देश भारत आज हर स्तर पर भीड़ का देश बनता जा रहा है। विचार और विवेक के सहारे जीवन जीने वाले लोग अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। राजनीति को विचार और विवेक की दुनिया रास नहीं आ रही। कोई भी दल हो उसे भीड़ चाहिए, भावनाओं की आंधी में उड़ती हुई भीड़। कॉरपोरेट लीडरों को भीड़ चाहिए-लालची ग्राहकों की। धर्म गुरुओं और बाबाओं को भीड़ चाहिए ताली बजाने वालों की। आज पूरे देश में विचार और विवेक से रहित भीड़ की संस्कृति विकसित की जा रही है। यह भीड़ भूखी है क्योंकि जीने के साधनों के वितरण में असंतुलन बढ़ता जा रहा है, यह भीड़ उदारीकण की कृपा से लालची और अनुचित रूप से महत्वाकांक्षी भी है। यह भीड़ अपने अधिकारों के प्रति इस हद तक सजग है कि उसे अपने कर्तव्य और दूसरे के अधिकार दिखाई तक नहीं पड़ रहे। जो हालात हैं और बनाए जा रहे हैं उनमें इस भीड़ का हिंसक हो उठना अस्वाभाविक नहीं है। भूखी लालची और असुरक्षा की भावना से भरी विवेक शून्य भीड़ के हाथों कोई भी कहीं भी मारा जा सकता है।

भीड़ में शामिल व्यक्ति भीड़ का हिस्सा होता है। वहां व्यक्ति का दिमाग कब एक ऐसे सामूहिक दिमाग का हिस्सा बन जाता है, जो भावनाओं में निर्देशित हो रहा है, पता चलना कठिन है। कोई उकसावा, कोई निर्देश या कोई हल्ला उसे इस तरह बहा ले जाता है जैसे समुद्र की लहर पानी के खाली बोतल को बहा ले जाती है। भीड़ के स्वभाव को सिर्फ राजनेता और धर्मगुरु ही नहीं जानते अपराधी और समाज की हिंस्र शक्तियां भी जानती हैं।

एक और बात, हर व्यक्ति के भीतर हिंसक विचार होते है। मगर वह उन्हें प्रकट करने में उसी तरह झिझकता है, जैसे रोशनी में सबके सामने कपड़ा उतारने में। भीड़ में, अंधेरे में व्यक्ति की हिंसकता मुखर हो उठती है।

मनोचिकित्सक विनय कुमार मानसिक स्वास्थ की पत्रिका 'मनोवेद` और 'समकालीन कविता` के संपादक हैं।

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