गीता
- प्रमोद रंजन
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
गीता के रचयिता ने यह श्लोक कृष्ण की ओर से कहा है। मतलब, 'मैं कृष्ण ही वर्णव्यवस्था का रचयिता हूं। मैंने ही गुण और कर्म देखकर चार वर्णों की रचना की। मैं उस सब का कर्ता हूं, पर तुम मुझे अकर्ता ही जानो।` यह श्लोक बताता है कि वर्णव्यवस्था किसी ब्राह्मण की रचना नहीं है, यदुकुल के कृष्ण ने इसे रचा है। साथ ही गीता का रचयिता यह भी संदेश देता है कि यह 'महान` कार्य कोई गैर ब्राह्मण नहीं कर सकता। कुरूक्षेत्र के मैदान में गीता का उपदेश साक्षात् विष्णु देते हैं, यदुवंशी कृष्ण तो निमित्त मात्र हैं। इसलिए कृष्ण कहते हैं 'तुम मुझे अकर्ता ही जानो`! गीता ऐसे ही छलपूर्ण विरोधाभासों से भरी काव्य रचना है, जिसकी रचना का उद्देश्य ब्राह्मण मिथकों की पुनर्स्थापना था।
पहली सहस्त्राब्दि के पूर्वाद्ध में प्राख्यात बौद्ध विचारकों नागार्जुन, असंग, वसुवंधु व अन्य गैर ब्राह्मण चिंतकों के प्रभाव के कारण खतरे में पड़े ब्राह्मणत्व को उबारने के लिए गीता की रचना की गई। यही काम भक्तिकाल (१६वीं ताब्दी) में तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना कर किया। भक्तिकाल में यह खतरा शूद्र कवियों कबीर, रैदास आदि की ओर से था। जिस तरह रामचरित मानस कोई मौलिक रचना न होकर रामायण की पुनर्व्याख्या है उसी तरह गीता अद्वैत वेदांत की। शिल्प और दर्शन की दृष्टि से यह नागार्जुन के 'सौंदरानंद` की भोंडी नकल है।
यह मानने का पर्याप्त आधार है कि इन दिनों गीता और तुलसीदास कृत रामचरित मानस की पुनर्प्रतिष्ठा की जो कोशिशें चल रही हैं, उनके पीछे दलितों, पिछड़ों की ओर से ब्राह्मणवाद को मिल रही चुनौती से निबटने और ब्राह्मणत्व पुनर्स्थापित करने का षडयंत्र है। गीता को राष्ट्रीय धर्मशास्त्र घोषित करने की कवायद भी महज एक न्यायाधीश की सनक नहीं अपितु उसी बड़े षडयंत्र का हिस्सा है। न्यायालयों के प्रति पर्याप्त सम्मान के बावजूद यह शंका उस समय प्रमाणित होती है जब हम इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस.एन श्रीवास्तव द्वारा गीता को धर्मशास्त्र घोषित किए जाने के फैसले और मीडिया में इसकी खबर की तारीखों को देखते हैं।
श्रीवास्तव ने यह फैसला ३० अगस्त, २००७ को दिया। लेकिन मीडिया में यह खबर ११ सितंबर को आई। इस बीच ४ सितंबर का श्रीवास्तव सेवानिवृत भी हो गए। यह एक सामान्य सार्वजिक फैसला था, जिसके लिए किसी स्टिंग आपरेशन की आवश्यकता नहीं थी। पर्याप्त सनसनी तत्व वाली यह खबर ११ दिनों तक क्यों दबी रही? सामान्यत: बनारस के जिस पुजारी मुखर्जी की याचिका पर यह फैसला हुआ था, वह अथवा उसके वकील को ही यह खबर गदगद भाव से तुरंत मीडिया तक पहुंचा देनी चाहिए थी। लेकिन यह खबर ११ तारीख को फ्लैश हुई। १२ सितंबर को विश्व हिन्दू परिषद द्वारा सेतु समुद्रम् परियोजना के विरोध में भारत बंद का आह्वान किया गया था। इस खबर के मीडिया में आने और'भारत बंद` की तारीख में गहरा संबंध है। भारत बंद से ठीक एक दिन पहले इस खबर के फ्लैश होने से गीता के उपरोक्त लोक की भांति ही एक तीर से कई निशाने सधे। पहला तो यह कि श्रीवास्तव के सेवानिवृत हो जाने के कारण उनपर कार्रवाई का खतरा कम हो गया। दूसरा यह कि भारत बंद के हंगामे के कारण मीडिया में इस खबर को उछाले जाने की संभावना समाप्त हो गई। यदि यह खबर अधिक चर्चित होती तो निहित राजनीतिक कारणों से इसका पुरजोर विरोध होता और न्यायाधीश पर कारवाई हो सकती थी। ऐसे में इस फैसले का कोई मूल्य न रह जाता। इसलिए साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाली चालाकी की गई। इस चालाकी के सफल होने पर उच्च न्यायालय के इस फैसले के ब्राह्मणवाद के पक्ष में एक थाती बन जाना तय है, जिसका उपयोग वे मामला ठंडा जाने के (संभवत: वर्षों ) बाद करेंगे। यही उनकी मंशा है क्योंकि वे जानते हैं कि हिन्दू धर्म के दलितों, पिछड़ों और अन्य धर्मालंबियों से राजनैतिक स्तर पर मिल रही प्रबल चुनौतियों के बीच अभी गीता जैसे धर्म ग्रंथ को, जो शूद्रों और स्त्रियों को दोयम दर्जे का मानता है और विधर्मियों के सफाये का संदेश देता है, पुनर्स्थापित करना संभव नहीं है। उनका स्वप्न इस लक्ष्य को सीढ़ी दर सीढ़ी हासिल करने का है। यदि भारतीय संविधान के मूल तत्व सेकुलरिज्म़ की धज्जियां उड़ाने वाले इस फैसले के विरूद्ध आपराधिक मामला दर्ज नहीं होता तो निश्चित रूप से वे भाड़यंत्र के इस सोपान पर सफल रहेंगे। इसलिए यह अनायास नहीं है कि जज श्रीवास्तव द्वारा दिए गए फैसले को ११ दिनों तक दबाए रखा गया और उससे पहले उनके रिटायर हो चुकने की खबर तक नहीं लगने दी गई। इस तथ्य पर भी गौर करें कि धर्मनिरपेक्षता का कांग्रेसी मुखौटा लगाए ब्राह्मणवाद के समर्थकों की ओर से इस फैसले को नजरअंदाज करने देने जोरदार वकालत की गई।
ब्राह्मणवाद की पुनर्स्थापना के षडयंत्र की सफलता की संभावना इस कारण भी बढ़ जाती कि गैर ब्राह्मण तबकों की राजनीतिक स्तर पर सक्रियता संसदीय व्यवस्था में कुछ महत्व पाने भर की है और इससे अधिक चिंताजनक यह कि सांस्कृतिक स्तर पर इनकी सक्रियता नगण्य है। सो, जैसी उम्मीद थी, गैर-ब्राह्मण तबके में सामाजिक स्तर पर भी इस फैसले पर बेहद कम प्रतिक्रिया हुई। यदि उनमें सांस्कृतिक चेतना का विकास हुआ होता तो अपमानजनक शब्दों में उनका जिक्र करने वाले, उन्हें एक मनुष्य के रूप में दूसरे, तीसरे और चौथे दर्जे में रखने वाले ग्रंथ को राष्ट्रीय धर्मशास्त्र घोषित किए जाने का जबरदस्त विरोध होता (इस फैसले की सूचना ही इसके लिए काफी होती, इसे चर्चित करने के लिए मीडिया का मुखाक्षेपी होने की आवश्यकता न पड़ती)। जबकि हुआ इसके विपरीत, एक जातीय संगठन, अखिल भारतीय यादव महासभा का बयान इस फैसले के लिए इलाहाबाद न्यायालय के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए समाचार पत्रों में छपा। जिसमें गीता को राष्ट्रीय धर्मग्रंथ बनाने के लिए न्यायालय की मुक्त भाव से प्रशंसा की गई तथा न्यायालय को धन्यवाद दिया गया। इस बयान पर सिर्फ ईसा की वह सुविख्यात पंक्ति-जिसमें उन्होंने कहा था, 'उन्हें माफ करना, वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं!`
आपने बहुत बड़ी बात कही है,बड़े आश्चर्य की बात है की इतनी बड़ी बात मीडिया में अब तक कैसे छुपी रही,जितने भी वैदिक साहित्य है वे सभी शुद्रो अधिकार न दिए जाने के पक्ष में रहते है.....एवं शुद्रो की उनत्ती का मार्ग हमेशा के लिए बंद कर देना चाहते है.....
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