October 30, 2007

प्रतिगामी सामाजिक समीकरण जिम्मेवार


  • नरेन्द्र कुमार


भले ही भीड़ को उकसाने वाले संपत्तिशाली वर्ग के लोग होंगे लेकिन उस हत्यारी भीड़ का बड़ा हिस्सा तो छोटे टूटपूंजिया उत्पादक किसान, व्यापारियों का ही था। प्रश्न यह उठता है कि यह भीड़, जिसकी जीवन स्थिति इन चोरों की तरह ही तंगहाल है इतनी क्रूर और हिंसक क्यों बन जाती है?


सरकारी जांच की यह रिर्पोट कि मार दिये गये लोेग चोरी करके नहीं, कहीं से भोज खाकर आ रहे थे, मेरे लिए बिल्कुल अप्रासंगिक है। मैं तो हत्यारे की बात को ही सच मानकर बात करना चाहता हूं कि वे चोर थे।
चोर, धन-संपति, मानव-समाज मानवाधिकार ये सारे शब्द अपनी परिभाषा पर बहस की मांग करते हैं। लेकिन यहां हम चोरी और धन संपत्ति तक ही सीमित रहेंगे। चोरी का सीधा शाब्दिक अर्थ है कि किसी की मेहनत से पैदा की गई वस्तु को कोई और उड़ा ले जाये या और सामान्य रूप से कहें कि किसी के श्रम के द्वारा पैदा किये गये जीवन के साधनों कोई दूसरा इस्तेमाल कर ले।

मानव समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जीवन के साधन प्राय: सामूहिक प्रयासों से ही पैदा करता है लेकिन स्वामी वर्ग हमेशा ही इन साधनों का बड़ा हिस्सा चुराता रहा है। बड़ा तबका, जो श्रम से सीधे जुड़ा होता है उसके पास छोटा हिस्सा ही बचता है। सामंती समाज से लेकर आज के विश्वव्यापी पूंजीवादी प्रभुत्व वाले समाज में शासक वर्गों के द्वारा मेहनतक के हिस्से की चोरी लगातार विकराल रूप लेती गई है लेकिन इस तरह की तमाम चोरियों को कानूनन सही ठहराया जाता है और इस तरह की चोरी से जुटायी संपत्ति के लिए यह समाज उन चोरों का सम्मान भी करता है। अनाज उगाने के बाद भी मजदूर उससे वंचित रहे, मेहनत करने के लिए तैयार रहने पर भी काम या जीने लायक मजदूरी न मिले तो इन मेहनतकशों का श्रम से अलगाव क्यों न होे? क्यों नहीं हमारे समाज में प्रेमचंद की कफन कहानी के घीसू माधव जैसे पात्रों की भरमार हो जाये। ऐसी स्थिति में समाज के सामूहिक श्रम से पैदा संपत्ति के थोड़े हिस्से पर हाथ साफ करके अपनी आवश्यक जरूरतों का अल्पतम पूरा करने की कोशिशों को किस नैतिक विधान के आधर पर अपराध कहा जा सकता है?

वर्षों पहले से हमारे ग्रामीण समाज में चोर कभी उत्पादन के साधन जैसे, जानवर, पंपिंग सेट आदि तो कभी उपजी हुई फसल से दो चार बोझे काटकर ले जाते रहे हंै। संभवत: वैशाली के राजापाकर में भी लोग ऐसी ही चोरी से परेशान होंगे। यद्यपि तथ्य यह भी है कि पिछले कई महीनों में उस इलाके में चोरी की सिर्फ चार वारदातें थाने में दर्ज हुई थीं। निश्चय ही यह कोई बहुत बड़ी संख्या नहीं है।

बहरहाल, राजापाकर के ढेलपुरवा गांव में भीड़ ने हत्या की है। भले ही इस भीड़ को उकसाने वाले संपतिशाली वर्ग के लोग होंगे लेकिन इस हत्यारी भीड़ का बड़ा हिस्सा तो छोटे टूटपूंजिया उत्पादक किसान या व्यापारियों का ही था। तब यह प्रश्न उठता है कि यह भीड़ जिसकी जीवन स्थिति इन चोरों की तरह ही तंगहाल है इतनी क्रूर और हिंसक क्यों बन जाती है? इन टूटपूंजियों के अंदर बढ़ती हिंसक प्रवृति और निर्ममता को समझने के लिऐ ४०-५० व पहले की खेती को याद करंे। पहले का किसान प्रकृति तथा अपने व समाज के श्रम से तैयार साधनों द्वारा खेती कर फसल उगाता था। चोरी होती थी तो झगड़े होते थे, गाली गलौज और हद से हद कुछ मारा-पीटी होती थी। पहले के दिनों में भी साधनहीन किसान अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए पड़ोसियों के साधनों से ऐसी चोरी यदा-कदा करता ही था। वस्तुत: चोरी अभावग्रस्त समाज की संस्कृति का हिस्सा रही है। मसलन, यदि किसी साधनहीन किसान की फसल सूख रही है और किसी दूसरे संपन्न या गरीब किसान के खेतों में पानी है तो रात के अंधेरे में मेढ़ों में छेद कर कुछ पानी चुरा लेने की घटना अक्सर होती थी। रब्बी फसल चुरा कर जानवरों को खिला देने की घटना भी सामान्य बात थी। उस समय जिन किसानों की फसल या खेती के साधन की चोरी होती थी यदि उन्हेंे समाज, सरकार या न्यायालय चोरों को सजा देने का अधिकार भी दे देता तो वे उनके लिए मृत्युदंड की कल्पना तक नहीं करते।
फिर आज के दौर में ऐसा कौन सा आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन आ गया कि यह तबका इतना असहि णु और हिंसक हो गया? क्यों यह आशंका मात्र से ही दस-दस लोगों की जान ले ले रहा है? यह नया धनिक व मध्यम किसान आज सिर्फ दूसरे की हत्या ही नहीं, आत्महत्या भी कर रहा है। कहीं ये दोनों कड़ी एक दूसरे से जुड़ी तो नहीं? हत्या और आत्महत्या के इस दौर को समझने के लिए आज की खेती की जांच करें और ४०-५० व र्ा पहले की खेती से इसकी तुलना करें ।
पिछले कुछ वर्षों में बाजार के लिए नगदी फसल, सब्जी के उत्पादन में हुई वृद्धि के कारण गांव के पुराने भूस्वामियों व धनी किसानों ने ग्रामीण पूंजीपति के रूप में विकास किया है। इनके साथ छोटे किसान भी अपनी और कुछ पट्टे पर ली गई जमीन में अत्यधिक पूंजी लगाकर बाजार के लिए माल पैदा करने में जुटे हंै। इन छोटे किसानों के बीच से थोड़े लोग इस मायावी विकास की कृपा से धन-संपत्ति के स्वामी भी बनते जा रहे हैं। बढ़ती संपत्ति को बनाये रखने और बढ़ाते रहने की मानसिकता के कारण ये टुटपूंजिया उत्पादक अनिश्चितता और आशंकाओं के गिरफ्त में रहते हैं। यद्यपि वे बस कहने के लिए ही अपनी खेती, साधनों और संपत्ति के मालिक होते हैं। वास्तविक स्थिति तो यह रहती है कि वे स्थानीय सूदखोर, भूस्वामियों, व्यापारियों तथा बैंकों के बंधक होते लेकिन संपत्ति तथा छोटे मोटे साधनों के मालिक के रूप में इन टूटपूंजिया उत्पादकों की मानसिकता एक जैसी होती है। यह मानसिकता इन्हें अक्सर गांव के मजदूरों, बेरोजगारों, आवारों व फटेहालों के खिलाफ एकजुट कर देती है।


बाजार तथा पूंजीवादी उत्पादन कितना क्रूर होता है, सामाजिक संबधों तथा मानवीय संवेदना के प्रति कितना निर्मम होता है, इसे समझने के लिए हम थोड़ा और गहराई में जाने की कोशिश करें। व र्ाों पहले गांव के उत्पादक किसान अपने डीह में सब्जी या बगीचे केे फलों को अपने पड़ोसियों तथा रिश्तेदारों के यहां पहुंचा दिया करते थे। उस समय इन पैदावारों का बाजार से आज की तरह घनि ठ संबंध नहीं था। ये किसान इन चीजों का सिर्फ उपयोग मूल्य जानते थे सो इसका उपयोग हो जाए यही उनकी चिंता रहती थी। इसीलिए तब के मध्यवर्गीय समाज में कंजूस लोगों को हिकारत के भाव से देखते हुए कहा जाता था, 'सड़ गल जाय लेकिन गोतिया न खाय।`
लेकिन कल का मध्यवर्गीय समाज और आज का टूटपूंजिया उत्पादक समाज एक दूसरे पर यह आरोप लगाना भूल गया है। वे अब अपने उत्पाद के विनिमय मूल्य के अंदर छिपी पंूजी की ताकत को समझ गए हंै। अपने बागीचे के आम, अमरूद, केला, लीची, खेतांे की हरी-हरी सब्जियां और दुधारू जानवरों के दूध की एक-एक बूंद में उन्हें नगद सिक्के नजर आते हैं। इन सिक्कों का बड़ा हिस्सा तो खाद, बीज, तेल व खेती के साधनों के मूल्य के रूप में साम्राज्यवादी व भारतीय पूंजीपतियों के अलावे स्थानीय पूंजी के स्वामियों के जेब में जाता है। किन्तु कभी-कभी इसका छोटा हिस्सा इनकी पूंजी और संपत्ति बढ़ाने में भी सहायक हो जाता है।

हमारे सामाजिक परिवेश में सामंती ाक्तियों के मुकाबले पूंजीवाद को प्रगतिशील मानने वाले बुद्धिजीवी तथा राजनैतिक संगठन चेतन या अचेतन रूप से इस बात को नजरअंदाज करते रहते हैं कि आज का पूंजीवाद और उसका पिछलग्गु टुटपूंजिया वर्ग निर्ममता और खुंखारपन में उससे बहुत पीछे नहीं है। जब गांवों में सामंती ाक्तियां मजबूत स्थिति में थीं तोे विकासमान नवधनाढ्य व टुटपूंजिया सामंती ताकतों से विरोध के
कारण गरीब वर्ग से सहानुभूति और एकता कभी-कभी बना लेता था लेकिन अब तो गांवों में नये मालिक के रूप में इनका ही वर्चस्व है। जहां सामंती ताकतें मौजूद हैं वहां संपत्ति के मालिक के रूप में ये गरीबोें और फटेहालों की अपेक्षा खुद को उनके करीबी के रूप में देखते है।

आज पूंजीवादी ाक्तियां अपनी प्रगतिशील भूमिका खो चुकी हंै। अपनी पूंजी को बढ़ाने तथा उसे बचाये रखने के लिए इस वर्ग ने सामंती समाज की तमाम बुराईयों को सीधे-सीधे अपना लिया है। यही कारण है कि पिछड़ी जाति तथा दलित समाज के बीच से उभरे संपत्ति के नये मालिक परम्परागत उंची जाति के धनिक वर्गों के साथ गठजोड़ कर पूंजीवादी उत्पादन प्रवृतियों, मानसिकता के साथ-साथ सामंती संस्कृति का पो ाक बन गया है। ग्रामीण समाज का यही गठबंधन साम्राज्यवादी पूंजीवादी ाक्तियों का सामाजिक आधार है।

संपत्ति के मालिक की मानसिकता से ग्रसित होकर ये छोटे चोरों की तो आशंका मात्र से ही हत्या कर देते हैं। लेकिन मोसेन्टों और करगिल बड़े डकैत समय-समय पर कीटनाशक दवाओें, बीज आदि के माध्यम से जल्दी अमीर बनाने का सपना दिखाकर जब इन्हें लूट लेते हैं तब ये रो-धो कर रह जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के पूंजी के बड़े मालिक तो ऐसे हमलों के बाद भी भवि य के मुनाफे की उम्मीद से धंधे में टिके रहते हंै। लेकिन पूंजीवाद की भयावहता को झेलता छोटा टूटपूंजिया उत्पादक बड़े मालिकांे के शह पर अपनी हताशा और तबाही के लिए अपने ही समाज के दूसरे फटेहाल मजदूरों या आवारों को अपना दुश्मन समझ हमलावार हो उठता है। बिहार व वैशाली के परिवेश में ये दूसरे की हत्या करते हैं, आंध्र व महारा ट्र के परिवेश में ये खुद का जान ले लेते हैं।

टुटपंूजिया उत्पादकों व व्यापारियों की यह भीड़ आज पूंजी के बड़े स्वामियों की वैसे ही गुलाम है जैसे रोमन साम्राज्य के अखाड़ों के गलैडियटर होते थे। वे गलैडियटर अपने ही जैसे दूसरे गलैडियटरों की हत्या करने के लिए अभिशप्त होते थे। स्थिति भयावह है लेकिन इतिहास के अनुभवों से ही हम उर्जा और विश्वास प्राप्त करते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि टुटपंूजिया वर्ग पूंजी के बड़े स्वामियों के गठबंधन से अलग होकर आदमखोर साम्राज्यवादी पूंजीवादी तंत्र के खिलाफ मेहनतकशों के नेतृत्व में फटेहालों और आवारागर्दों को भी संगठित करेेगा और इनके बीच से निकला कोई स्पार्टकस इस अवश्यंभावी युद्ध का नेतृत्व करेगा।

उपन्यासकार नरेन्द्र कुमार 'कम्युनिस्ट सेंटर फॉर साइंर्टिफिक सोशिलिज्म़` कार्यकर्ता हैं

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