- कंवल भारती
दलित विमर्श : संदर्भ गांधी` को पढ़ते हुए मुझे सबसे पहले डा. आंबेडकर के लिये सर्वत्र 'डा. अम्बेदकर` शब्द का इस्तेमाल बहुत अखरा। गिरिराज किशोर ने पता नहीं क्यों उनके नाम का विकृतीकरण किया? उन्होंने जनबूझ कर 'ड` को 'द` क्यों पढ़ा? कोई डालचन्द्र को 'दालचन्द्र` जिन परिस्थितियों में कहता है, यदि वही परिस्थितियां यहां भी हैं, तो यह बेहद शर्मनाक है। कम से कम गिरिराज किशोर जैसे निरन्तर पढ़ने-लिखने वाले लेखक से तो यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी।
दलित विमर्श दलित के बारे में सोच नहीं है। फिर चाहे वह गांधी का दलित विमर्श हो या प्रेमचंद का। दलित विमर्श का अर्थ है, समाज के निचले वर्गों से उभरे सवाल और उन पर उनका दृष्टिकोण। इस अर्थ में गांधी दलित विमर्श कर ही नहीं सकते थे। वे निचले वर्ग से आते ही नहीं हंै। वे सवाल उठा ही नहीं सकते थे। दलित वर्गों ने अपनी मुक्ति और अपने अधिकारों को लेकर जो सवाल उठाये थे, गांधी ने उन पर सिर्फ अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की थीं। वह उनका दलित विमर्श नहीं है। अधिक से अधिक हम उसे उनका समाज-विमर्श या राजनीति-विमर्श कह सकते हैं अथवा दोनों।
दलित-मुक्ति के सवालों को लेकर डा. आंबेडकर और गांधी के बीच गम्भीर और विचारोत्तेजक बहस हुई थी। वह आज महत्वपूर्ण दस्तावेज बन चुका है। गिरिराज किशोर ने अपने शोध कार्य में उस बहस की अनदेखी की है। दलित मुक्ति और अस्पृश्यता के सवालों पर गांधी का विमर्श इस अर्थ में एकपक्षीय है। वह तब तक अपूर्ण है, जब तक आंबेडकर-विमर्श उसमें शामिल नहीं है। अत: यह कहना कदाचित गलत न होगा कि गिरिराज किशोर का शोध-कार्य दलितों को गांधी से जोड़ने का एक प्रायोजित उपक्रम है। 'पूर्वाख्यान` में वे इसे इन शब्दों में व्यक्त भी करते हैं-'गांधी अगर अछूतोद्धार की लड़ाई लड़ रहे थे तो दलितों के साथ-साथ वह लड़ाई देश की स्वतंत्रता की लड़ाई भी थी। दोनों एक-दूसरे के साथ गझी-बझी थीं। ..गांधी जी के लिये दोनों लड़ाईयां एक साथ लड़ना अनिवार्यता थी और बाध्यता भी थी।` (पृष्ठ-१) यानी, दलितों को यह बताया जा रहा है कि गांधी जी ही थे, जिन्हांेने अछूतोद्धार और देश की स्वतंत्रता की लड़ाई साथ-साथ लड़ी थी। लेकिन यह कहकर कि यह उनकी 'अनिवार्यता` थी और 'बाध्यता` भी, वे स्वयं गांधी को बेनककाब कर देते हैं। यह अनिवार्यता इसलिये थी कि सिर्फ अल्पसंख्यक हिन्दुओं का प्रतिनिधि बनकर आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती थी और बाध्यता इसलिये थी कि दलितों के हिन्दूधर्म से अलग होने का खतरा बन गया था। इसे हम अछूतोद्धार की गम्भीर लड़ाई क्यों कहेंगे?
उन्होंने गांधी और आंबेडकर की तुलना में यह दिखाने की कोशिश की है कि आंबेडकर ने जो सूत्र या सिद्धान्त बनाये, गांधी उस सूत्र या सिद्धान्त को बहुत पहले बना चुके थे। यहां तक कि आंबेडकर जिस अस्पृश्यता को भोग रहे थे, उसे गांधी १९०० में दक्षिण अफ्रीका में भोग रहे थे। उनके कहने का मतलब यह है कि गांधी का अछूतोद्धार १९०० में ही शुरु हो गया था, जबकि आंबेडकर का आन्दोलन उसके बाद आरम्भ होता है।
गिरिराज किशोर का कहना है, 'गांधी अस्पृश्यता के कारण फैले अंधकार के खिलाफ इसलिये भी लड़ रहे थे कि उनकी मनुष्य में आस्था बची रह सके।` (पृष्ठ-३५) फिर उन्होंने इस मनुष्य को अलग इकाई क्यों माना? और वर्ण-कर्म पर जोर क्यों दिया? गिरिराज किशोर ने इन सवालों पर विचार नहीं किया। गांधी ने १५ अगस्त १९३६ के 'हरिजन` में लिखा था, 'कुरान को अस्वीकार कर कोई मुसलमान कैसे बना रह सकता है और बाइबिल को अस्वीकार कर कोई ईसाई कैसे बना रह सकता है? यदि जाति और वर्ण एक-दूसरे के पर्याय हैं और शाो़ं का अंगभूत हिस्सा हैं, तो जाति और वर्ण को अस्वीकार कर कोई हिन्दू कैसे कहला सकता है?` इस आधार पर आदमी की पहचान जाति और वर्ण से होती है, मनुष्य से कहां हुई? (डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाड.मय, खण्ड-१, पृष्ठ-११०)
गांधी से आंबेडकर की तुलना करते हुए गिरिराज किशोर कहते हैं कि आंबेडकर ने मुक्ति पाने के लिये तीन बातें कहीं- 'शिक्षित हो, संघर्ष करो, संगठित हो।` वह आगे लिखते हैं कि १९०१ में गांधी ने भी लगभग यही कहा था, 'बच्चों को शिक्षित करो, और संगठन अस्तित्व के लिये जरूरी है।` (पृष्ठ-२४) गांधी ने यह बात गुलाम मुहम्मद नाम के एक मुस्लिम व्यवसायी के घर आयोजित एक रात्रि भोज में कही थी। स्पष्ट है कि भोज में मौजूद मुस्लिमों के लिये उन्होंने यह बात कही थी। वे मुस्लिम व्यवसायी थे, कोई गरीब और अछूत नहीं थे। उनके बच्चों को पढ़ना ही था। सवाल यह है कि गांधी भारत में आकर 'शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो` का नारा दलितों को क्यों नहीं दे सके? भारत आकर तो गांधी ने पढ़ने-लिखने के खिलाफ ही आन्दोलन शुरु कर दिया था। उनके 'कॉलेज छोड़ो` नारे के प्रभाव में आकर हजारों नौजवानों ने पढ़ाई छोड़ दी थी और उनके आन्दोलन में शामिल हो गये थे। वह देश के भावी नेतृत्व की आधारशिला अशिक्षा पर रख रहे थे, जो पूंजीपति और सामन्ती वर्गों से आये शासक वर्ग के हित में था।
'अस्पृश्यता और साहित्य-विमर्श` अध्याय में गिरिराज किशोर ने डा.शरण कुमार लिंबाले के हवाले से लिखा है कि डा.आंबेडकर का मानना था, 'आम आदमी की महत्ता से प्रेरणा लेकर लेखकों को लेखन करना चाहिए।` (पृष्ठ-२५) पर, यहां उन्हें पूरा संदर्भ देना चाहिए था। डा. लिंबाले ने 'दलित साहित्य का सौन्दर्यशा`़ पुस्तक में यह विचार वाल्टेयर के संदर्भ में प्रस्तुत किया है। अपने देश में वाल्टेयर का जन्म क्यों नहीं हो सका? आंबेडकर ने इसी सवाल के जवाब में कहा था कि 'वाल्टेयर के साहित्य से क्रान्ति हुई। जुल्मी सत्ता उलट गयी और आम आदमी शोषण मुक्त हुआ। आज वाल्टेयर जैसे प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति की जरूरत है। पर वाल्टेयर होने के लिये धर्म और सत्ता के विरूद्ध खड़े रहना पड़ता है, क्योंकि धर्म और सत्ता शोषण के पुरस्कर्ता होते हैं।` (शरण कुमार लिंबाले, 'दलित साहित्य का सौन्दर्य शा`़, पृष्ठ-५४) विचारणीय यह है कि क्या गांधी धर्म और सत्ता के विरुद्ध खड़े हुए थे? यहां सत्ता का अर्थ अंग्रेजी सरकार से नहीं है, बल्कि धर्म की सत्ता से है। क्या धर्म और सत्ता से लड़े बिना कोई वाल्टेयर बन सकता है? यदि नहीं, तो गांधी लाख कहें आम आदमी के हित की बात, वह आम आदमी को शोषण मुक्त नहीं करा सकते।
इसी अध्याय में गिरिराज किशोर आगे लिखते हैं, 'गांव भी चन्द सम्पन्न और विशिष्ट वर्गों को छोड़कर उसी आदमी का प्रतिनिधित्व करते थे और (करते हैं) जिस (आम) आदमी की महत्ता की बात डा. आंबेडकर करते हैं।` (पृष्ठ-२५) इस टिप्पणी से पता चलता है कि गिरिराजजी ने आंबेडकर को ठीक से नहीं पढ़ा, वरन् वे गांव को लेकर गांधी के विचार से असहमति व्यक्त करते। आंबेडकर ने गांव को वर्ण-व्यवस्था और अस्पृश्यता का 'वर्किंग प्लांट` कहा था। गांव आम आदमी का नहीं, द्विज वर्ग का स्वर्ग है। आंबेडकर ने हिन्दूओं की इस धारणा का खण्डन किया था कि गांव भारतीय गणराज्य हैं। उन्होंंने लिखा है कि यह कैसा गणराज्य है, जिसमें 'लोकतंत्र के लिये कोई स्थान नहीं है, जिसमें समता के लिये, स्वतंत्रता के लिये और भ्रातृत्व के लिये कोई स्थान नहीं। भारतीय गांव गणराज्य का ठीक उल्टा रूप हैं। अगर ये गणराज्य हैं, तो ये द्विजों के गणतंत्र हैं, उन्हीं के द्वारा और उन्हीं के लिये हैं। ये हिन्दुओं के उपनिवेश हैं, जो दलितों का शोषण करने के लिये हैं।` (डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाड.मय, खण्ड-९, पृष्ठ-४६) गांव आम आदमी का नहीं, चन्द सम्पन्न और विशिष्ट वर्गों का ही प्रतिनिधित्व करता है। यदि गिरिराज जी इस सत्य को नहीं देख पा रहे हैं, तो अपने सवर्ण दृष्टिकोण के कारण, और यह स्वाभाविक है कि गांव को लेकर दलित और सवर्ण का दृष्टिकोण समान नहीं हो सकता।
गांव के पक्ष में गांधी-विचार की वकालत करते हुए गिरिराज किशोर ने लिखा है, 'नेहरू ने गांवों का संज्ञान लेने से इनकार कर दिया था। वे नगरों के विकास में विश्वास करते थे, जबकि गांधी ने स्वयात्त ग्राम समाजों की कल्पना की थी।` (पृष्ठ-२५-२६) उन्हें इस संदर्भ में आंबेडकर के विचार को बहस के केन्द्र में लाना चाहिए था, क्योंकि गांव और गांव-पंचायत पर कोई भी बहस आंबेडकर के विचार को शामिल किये बगैर पूरी नहीं होती है। यदि नेहरू ने नगरों के विकास में रुचि दिखायी थी, तो आंबेडकर गावों का विनाश चाहते थे। गांवों का विनाश नगरों के विकास द्वारा ही संभव था। यहां गांधी के मुकाबले नेहरू और आंबेडकर ज्यादा आधुनिक थे, जबकि गांधी का विश्वास पुनरुथानवाद में था। वे हिन्दुओं के उपनिवेश को यथास्थिति में रखना चाहते थे।
गिरिराज जी एक और तुलना में कहते हैं, 'गांधी जी के साथ एक विशेषता और थी, वे कार्यकर्ता थे। उनकी रसाई जड़ों तक थी। आंबेडकर दार्शनिक और विचारक थे। हालांकि उन्होंने अनेक आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया था और समाज में जागृति पैदा की थी।` (पृष्ठ-२८) ऐसा लगता है कि गिरिराज ने शोध कार्य केवल आंबेडकर को गांधी से छोटा और कमतर साबित करने के मकसद से किया है। यह शोध नहीं है, बल्कि पहले से निष्कर्ष तैयार करके उन्हें कुतर्कांे से सिद्ध करने की कोशिश है। यदि आंबेडकर कार्यकर्ता Social activist नहीं थे, तो वे अनेक आंदोलनों को कैसे शुरु कर सकते थे? इन अनेक आंदोलनों के वे प्रवर्त्तक थे; उन्होंने उनका नेतृत्व किया था। क्या यह सब कार्यकर्ता बने बगैर संभव था? 'गांधी की रसाई जड़ो तक थी`, यह कहने का क्या अर्थ है कि आंबेडकर की रसाई जड़ों तक नहीं थी? आंबेडकर अस्पृश्यता, जातिभेद और वर्णव्यवस्था के बारे में कुछ नहीं जानते थे? जड़ों तक यानी सबसे निचले वर्गों में उनकी पहुंच नहीं थी? यह कह कर गिरिराज क्या साबित करना चाहते हैं? 'आंबेडकर दार्शनिक और विचारक थे` क्या इसका मतलब है कि आंबेडकर किताबी कीड़े थे? समाज का व्यावहारिक अनुभव उनको नहीं था? इस तरह की हास्यास्पद टिप्पणियों से वह न गांधी को बड़ा कर पायेंगे और न आंबेडकर को छोटा। उनका दृष्टिकोण दोनों के प्रति अन्यायपूर्ण है।
गिरिराज जी की दृष्टि में गांधी की यह भी एक विशेषता थी कि वे भंगी बस्तियों में ठहरते थे। 'गांधी ने अपने को भंगी कहा, पर किसने माना? ..दलित या हरिजन बनने के लिये गांधी जितना कर्मण उद्यम तो शायद ही संसार में किसी ने किया हो।` (पृष्ठ-३८) कोई पूछ सकता है कि गांधी ने यह उद्यम क्यों किया? वह क्यों भंगी बस्ती में रहे? वे क्यों बनना चाहते थे दलित या हरिजन? किसी दलित ने उन्हें बाध्य किया था? सवाल दलित या हरिजन-मुक्ति का था और वह दलित या हरिजन बनाना चाहते थे। क्या मतलब था इसका? क्या उन्हें यह शक था कि अस्पृश्यता मिथ्या थी, वह उसे स्वयं अनुभव करना चाहते थे? तब क्या भंगी बस्ती में किसी कमरे की साफ-सफाई कराकर सुविधाओं को जुटाकर उसमें रहने और अपने साथ लाई हुई बकरी का दूध पीने से वह अस्पृश्यता अनुभव कर रहे थे और दलित बन रहे थे? क्या यह उनका दलित बनने का कर्मणा उद्यम था? वे अपने राजनैतिक आंदोलन के लिये हरिजनों का समर्थन चाहते थे। गिरिराजजी को इस संबन्ध में इसी घटना पर दलित विचारकों के विश्लेषणों का भी अध्ययन करना चाहिए था। सच तो यह है कि दलित बनने के लिये कर्मणा उद्यम चाहे गांधी का हो या किसी और का, उसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती। उसमें कुछ भी महत्व का नहीं है। वह उद्यम तो दलित को यह बताने के लिये है कि वे अपने दलित होने पर हीनता अनुभव न करें। यदि गांधी भंगियों से मल उठाने का काम बन्द करवा कर उन्हें अन्य सम्मानित जीविका में लगाने की व्यवस्था करते तो यह होता उनका महत्वपूर्ण कर्मणा उद्यम।
'हिन्द स्वराज : विखंडन और संरचना` अध्याय में गिरिराजजी गांधी की तुलना एक ऐसी चिड़िया से करते हैं, जिसके पंखों में अनेक रंग हैं और जो किसी भी रंग को छोड़कर बाकी रंगों के साथ उड़ने में विश्वास नहीं करती। उसके अस्तित्व के लिये सब रंगों की जरूरत समान होती है। (पृष्ठ-४१) यह सचमुच एक सटीक तुलना है। गांधी ने यही किया। वह सब को साथ लेकर चलना चाहते थे, पर अपनी शर्तों पर। गिरिराजजी को नहीं मालूम कि चिड़िया का एक और स्वभाव भी होता है। वह अपने अस्तित्व पर खतरा देखकर फुर्र से उड़ जाती है और भूल जाती है कि अपने किसी रंग को उसने छोड़ दिया है। चौरी-चौरा काण्ड को देखकर उन्होंने अपना असहयोग आन्दोलन वापिस लेकर यही किया था। दलित वर्ग की सक्रिय भूमिका से वह अपने अस्तित्व पर संकट महसूस करने लगे थे।
गिरिराजजी को आश्चर्य होता है कि गांधीजी की 'हिन्द स्वराज` पुस्तक में दलित प्रश्न क्यों नहीं हैं? इसका सीधा सा कारण है कि 'हिन्द स्वराज` १९०८ में लिखी गयी थी। उस समय तक वह दलित प्रश्न के सम्पर्क में ही नहीं आये थे। गांधीजी का भारतीय राजनीति में प्रवेश ही १९२० के बाद होता है। तब तक डा. आंबेडकर का दलित आन्दोलन राजनीति के पटल पर दलित प्रश्न को उठा चुका था। बम्बई असेम्बली सार्वजनिक स्थानों और तालाब-कुओं आदि का दलित जातियों के उपयोग के लिये प्रस्ताव पास कर चुकी थी और इसी आधार पर १९२७ में आंबेडकर महाड में विशाल सत्याग्रह कर चुके थे। ठीक इसी समय गांधी दलित प्रश्न को अपनी राजनीति के केन्द्र में लाते हैं।
'हमारी संसद कैसी हो`, इस प्रश्न पर जो टिप्पणी गांधीजी ने 'हिन्द स्वराज` में की है, उससे भी पता चलता है कि वह दलित समस्या के सम्पर्क में बिल्कुल नहीं थे। बकौल गिरिराज गांधी के तर्क का एक पक्ष यह था कि 'एक आदर्श पक्ष जहां श्रेष्ठतम नुमाइंदे चुनकर संसद में जाते हों, सदस्य बिना वेतन के काम करते हों, मतदाता शिक्षित हों, निर्णय लेने में गलतियों की गुंजाइश कम हो।` (पृष्ठ-४९) यहां 'मतदाता शिक्षित हों` वाक्य पर गौर करने की जरूरत है। १९०८ में दलित क्या, भारत की तीन चौथाई आबादी भी शिक्षित नहीं थी। तब शिक्षित मतदाता का मतलब यही है कि पूंजीपति और सामन्ती परिवारों के लोग ही मतदान कर सकते थे, क्योंकि वे लोग ही शिक्षित होते थे। इस का अर्थ है कि गांधी एक ऐसी संसद चाहते थे, जिसमें मुट्ठी भर लोगों के नुमाइंदे ही चुनकर जाते हों। ऐसी संसद किन लोगों के लिये काम करती? वही लोग थे, जो वेतन-नहीं ले सकते थे। क्या इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि गांधीजी सामन्ती और पूंजीपति वर्ग की सत्ता चाहते थे? वास्तव में १९०८ में 'हिन्द स्वराज` के लेखन के समय उनके विचारों में परिपक्वता नहीं थी। उनके अनुभवों का विस्तार नहीं हुआ था। वे सम्पन्न वर्ग से आये थे और वही वर्ग चेतना उन पर हावी थी।
पर 'हिन्द स्वराज` में ही गांधी जब यह कहते हैं कि भील, पिंडारी और ठग हमारे अपने हैं और उन्हें राह पर लाना हम सबकी जिम्मेदारी है, तो समाज के इन अत्यन्त उपेक्षित वर्ग के प्रति उनकी चिन्ता स्वागत योग्य है। भील जनजाति के थे, ठग पेशेवर हत्यारों की एक सुसंगठित जाति थी और पिंडारी हथियार बन्द डकैत होते थे। दलित वर्ग की तीन कोटियां थीं-एक, आदिम जनजाति, दो, जरायम पेशा जाति और तीन, अछूत जाति। इन तीनों वर्गों की कुल संख्या अमरीका की आबादी से ६० प्रतिशत से भी अधिक थी और ब्रिटिश साम्राज्य में गोरों White की आबादी से ९५ लाख अधिक थी। आंबेडकर ने सवाल उठाया था कि हिन्दू सभ्यता यदि संसार की सबसे श्रेष्ठ और उच्च सभ्यता है, तो इस सभ्यता का कोई लाभ इन कराड़ों लोगों को क्यों नहीं मिला? इस सभ्यता ने उन्हें क्या दिया? आंबेडकर ने ऐसी सभ्यता को सभ्यता के नाम पर कलंक कहा था। (सम्पूर्ण वाड.मय, खण्ड-१०, पृष्ठ-३०)
'गांधी : हृदय-परिवर्तन और दक्षिणी अफ्रीकी पाठ` एक महत्वपूर्ण अध्याय है। लेखक के अनुसार, गांधी ने हृदय परिवर्तन का पाठ दक्षिण अफ्रीका में पढ़ा था। वहां वह गिरमिटिया वर्ग के खिलाफ नव ईसाईयों और व्यवसायी वर्ग का हृदय परिवर्तन कराने में सफल हुए थे। भारत में अछूतों के प्रति सवर्णों का हृदय परिवर्तन इसी पाठ का नतीजा था। वह चाहते थे कि सवर्ण अपना नजरिया बदलें और दलित वर्ग के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनायें। उनका यह प्रयोग गांधीवाद का प्रबल सिद्धांत बन गया। साहित्य पर भी इसका व्यापक प्रभाव पड़ा, जो प्रेमचन्द के दलित-लेखन पर सबसे ज्यादा देखा जाता है। लेखक के अनुसार, गांधी ने एक बहुत बड़े धार्मिक सत्ता-संपन्न और कट्टरपंथी वर्ग को हृदय परिवर्तन के लिये चुनौती दी थी। (पृष्ठ-६७) लेखक का यह कहना सही है कि गांधी के इस कार्यक्रम से डा. आंबेडकर सहमत नहीं थे। पर, वे क्यों सहमत नहीं थे, यह भी स्पष्ट करने की जरूरत थी।
दरअसल दक्षिण अफ्रीका में हृदय-परिवर्तन आसान था। इसका कारण था कि वहां जातिभेद नहीं था। गांधी कुछ करते भी नहीं, तो भी पूंजीवाद का विकास एक दिन उस भेदभाव को अवश्य खत्म कर देता। पर, भारत में अस्पृश्यता वर्णव्यवस्था और जातिभेद के कारण है, जिसे धर्म की स्वीकृति प्राप्त है। इससे टकराये बिना अस्पृश्यता-उन्मूलन संभव नहीं है। गांधी का हृदय-परिवर्तन राजनैतिक था, जिसके राजनैतिक निहितार्थ थे। इसीलिये हिन्दू राजनीतिज्ञों का उसे समर्थन मिला। आंबेडकर सामाजिक परिवर्तन के पक्षधर थे और धर्म द्वारा अनुमोदित वर्णव्यवस्था के खिलाफ हिन्दू समाज का सहयोग चाहते थे। आंबेडकर और गांधी का यह मतभेद आंबेडकरवाद और गांधीवाद का मुख्य मतभेद है।
गिरिराज किशोर लिखते हैं कि गांधी का विकास प्रणामी समप्रदाय, वैष्णव तथा जैन प्रवचनों के बीच हुआ था। (पृष्ठ-६९) इसी से दलित विमर्श की तरफ उनका रुझान हुआ। इसका विस्तृत वर्णन उन्होंने 'अस्पृश्यता और गांधी का अन्तर्संघर्ष` अध्याय में किया है। पर, यह अध्याय भी गांधी के दक्षिण अफ्रीका के अनुभवों पर आधारित है। भारत के संदर्भ में गांधी के अनुभवों और घटनाओं ने दलित विमर्श का कौन-सा रूप लिया, यह इस अध्याय से पता नहीं चलता।
किताब का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय 'डा.आंबेडकर और अस्पृश्यता` है, जिसमें लेखक ने डा. आंबेडकर के दलित विमर्श पर विचार किया है। इसमें लेखक डा. आंबेडकर को बुद्धिवादी और गांधी को आस्थावादी और सामाजिक कार्यकर्ता मानकर चला है। (पृष्ठ-९१) लेकिन, यह अच्छी बात है कि लेखक ने डा.आंबेडकर के विचार को लगभग मूल रूप में प्रस्तुत किया है। और पूरी निष्पक्षता के साथ गांधी के प्रति उनकी टिप्पन्यिओं का विवेचन किया है। यद्यपि पुस्तक के विषय को देखते हुए, यह अध्याय जरूरी नहीं था, क्योंकि लेखक का शोध आंबेडकर पर केन्द्रित नहीं था, गांधी पर था। पर, इस अध्याय को पढ़ने के बाद स्पष्ट होता है कि लेखक के चिन्तन के केन्द्र में आंबेडकर ही थे, उसमें भी उनकी गांधी के प्रति टिप्पणियां थीं। लेखक ने उस आधार को पहचानने की कोशिश की है, जो गांधी और आंबेडकर को अलग-अलग करता है। उस आधार की खोज उसने पूरी निष्ठा से गांधी के पक्ष में खड़े होकर उनके दृष्टिकोण की वकालत करते हुए की है। यह विश्लेषण इस दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है कि वह गांधी और आंबेडकर के दलित विमर्श की मूल चेतना को रेखांकित करता है।
गिरिराजजी आंबेडकर के हवाले से कहते है कि गांधी हिन्दुओं की तरह टोरी हैं। अगर गांधी को खुरच कर देखा जाय तो उनकी उदारता के नीचे एक अभिजात्य टोरी (कट्टरवादी) को रक्त मिलेगा। इसमें आंबेडकर गांधी को हिन्दुत्व की मूल संरचना का समर्थक कहते हैं। गिरिराजजी इसका कारण यह बताते हैं कि गांधी कट्टर वर्ग का विश्वास जीतने के लिये उसे यह यकीन दिलाना चाहते थे कि वे भी हिन्दुत्व की रक्षा के प्रति उतने ही प्रतिबद्ध हैं, जितना कोई और। (पृष्ठ-९९) गिरिराज जी के अनुसार इसके पीछे ट्रावनकोर के अछूत-सत्याग्रह की पृष्ठभूमि थी। १९२४ में वहां अछूतों ने सड़क पर चलने के अधिकार को लेकर सत्याग्रह किया था, जिसको गांधी ने समर्थन दिया था। १९२५ में सड़क पर चलने का अधिकार न देने पर अड़े ब्राह्मण वर्ग से बात करने के लिये गांधी वैयक्उा गये। वहां गांधी से ब्राह्मणों ने शास्त्रार्थ किया, जिसका परिणाम गांधी के लिए निराशाजनक निकला। गिरिराज लिखते हैं कि कट्टर ब्राह्मणों से गांधी का यह पहला सामना था। 'जब से गांधी भारत आये थे, वे हिन्दू धर्म और समाज में सुधार की बात करते थे और ईसाई धर्म की प्रशंसा करते थे।` इससे हिन्दू धर्म पर बोलने का उनका अधिकार कमजोर पड़ गया था। अत: बदली रणनीति के तहत, गिरिराज लिखते हैं, उन्हें अपने सनातनी हिन्दू होने पर बल देना पड़ा और उन्हें धर्म के प्रति निष्ठा को पुनर्स्थापित करने के लिये अपने समाज-सुधारक पक्ष को कम करना पड़ा। (पृष्ठ वही)
इस स्पष्टीकरण से अन्तत: आंबेडकर का विचार ही सही प्रतीत होता है। गांधी की पहली प्राथमिकता हिन्दुत्व थी, न कि अछूतोद्धार। गिरिराजजी ने अपने विश्लेषण में यह भी साफ कर दिया है कि गांधी परंपरा-भंजक नहीं थे, वह परम्परा का विरोध करके और हिन्दूधर्म के प्रति प्रतिबद्धता जताये बिना अपने अछूतोद्धार आन्दोलन को रूप नहीं दे सकते थे। वह लिखते हैं कि गांधी के सामने परम्परा की भाषा के साथ न्याय करने और परिवर्तन को परम्परा का पर्याय बनाने की जबरदस्त चुनौती थी। वह आंबेडकर की तरह परम्परा का विरोध करके परिवर्तन नहीं ला सकते थे, अर्थात् कट्टरवादी हिन्दुओं को नहीं बदल सकते थे। (पृष्ठ-१००)
लेकिन परिवर्तन कभी भी परम्परा का पर्याय नहीं बन सकता। परिवर्तन को परम्परा के अन्तर्गत लाना या परम्परा को सुरक्षित रखकर परिवर्तन लाना एक असम्भव क्रिया है। गिरिराज कहते हैं कि यह एक प्रयोग था। (पृष्ठ वही) अगर यह प्रयोग था, तो इस प्रयोग ने हिन्दू समाज की वर्णव्यवस्था और जातिभेद को ही सुरक्षित रखा। इसी प्रयोग के कारण कुम्हेर और झज्झर जैसे काण्ड भारत में हो रहे हैं।
इस अध्याय में गिरिराजजी आंबेडकर के प्रति यह गलत बयानी भी करते हैं कि वह हिन्दूधर्म के समर्थक थे। गांधी के हिन्दुत्व समर्थन में वह आंबेडकर के एक कथन का गलत अर्थ निकालते हैं। वह गांधी के लिये कहे गये आंबेडकर के ये शब्द उद्धरित करते हैं, (जो उन्होंने उनकी पुस्तक 'एन्हिलेशन आफ कास्ट` से लिये हैं) 'मैं अनुभव करता हूं, मुझे किसी ऐसे समाज में रहने को सहमत नहीं होना चाहिए, जिसके आदर्श त्रुटिपूर्ण हों या वह समाज, जिसके आदर्श तो सही हों, परन्तु वह अपने सामाजिक जीवन को उनके अनुरूप बनाने के लिये तैयार न हों।` (पृष्ठ-१०३) आगे गिरिराजजी लिखते हैं, 'डा.आंबेडकर के उपरोक्त वक्तव्य से दो बातें स्पष्ट हैं, वे इस बात को प्रकारांतर से स्वीकार करते हैं कि हिन्दूधर्म के आदर्श तो सही हैं, परन्तु वह अपने सामाजिक जीवन को उनके अनुरूप बनाने के लिये तैयार नहीं।` (वही) आंबेडकर ने अपनी टिप्पणी में किसी धर्म-समाज का उल्लेख नहीं किया है। वह सिर्फ यह कहते हैं कि ऐसा कोई भी समाज जिसके आदर्श तो सही हों, पर उनके अनुरूप उसका सामाजिक जीवन न हो, उसमें वह रहना नहीं चाहते। यह कोई भी समाज हो सकता है उसे हिन्दू समाज मान लेना गिरिराजजी का गलत निष्कर्ष है, जिसके आधार पर वह आंबेडकर को गांधी के धरातल पर खड़ा करना चाहते हैं। पर, शोध में ऐसे निष्कर्ष शोधकर्ता की निष्पक्षता को संदिग्ध बनाते हैं। आंबेडकर ने हिन्दूधर्म और हिन्दू समाज पर सबसे ज्यादा लिखा है, उसकी उपेक्षा करके निष्कर्ष निकालना सतही काम है। शोधकर्ता को आंबेडकर के 'दि फिलोसफी आफ हिन्दुइज्म`, 'सिविलाइजेशन ऑर फेलोनी`, 'दि हाउस दि हिन्दूज हैव बिल्ट` और 'दि रॉक आन विच इट इज बिल्ट` निबंधों को देखने की जरूरत थी।
'हिन्दु गांधी : एक` और '..दो` में गिरिराज किशोर ने गांधी का मूल्यांकन एक हिन्दू के रूप में करते हुए उन्हें एक ऐसा हिन्दू साबित किया है, जो अपने को सनातनी मानता है, पर हिन्दुओं को ही अस्पृश्यता के लिये जिम्मेदार मानता है। यहां भी उन्होंने डा. आंबेडकर के संदर्भ में गांधी को देखने की कोशिश की है। वह कहना चाहते हैं कि यदि गांधी हिन्दूवादी हैं, तो आंबेडकर भी पांच दशक तक हिन्दूधर्म में रहकर ही अस्पृश्यता के खिलाफ लिखते और लड़ते रहे उन्होंने बौद्धधर्म बहुत बाद में अपनाया। (पृष्ठ-१११) इस तरह उनके अनुसार गांधी और आंबेडकर दोनों के सामने अपनी-अपनी तरह अस्पृश्यता को उसकी अन्तिम परिणति को पहुंचा देने की चुनौती थी। (वही) वह लिखते हैं कि गांधी के लिए दक्षिण अफ्रीका में उनका भारतीय होना अपने आप में घोर अस्पृश्यता थी, जबकि आंबेडकर भारत में ही अस्पृश्य थे। गांधी पर भी, वह बताते हैं, धर्म-परिवर्तन का दबाव था। प्रिटोरिया में गांधी के सीनियर वकीलों ने, जो ईसाई थे, उन्हेंे प्रेरित किया था कि वह उनके 'आर्डर` (धर्म) में आ जायें। पर उन्हाोंने मना कर दिया। (पृष्ठ-११२) लेकिन आंबेडकर द्वारा बौद्धधर्म ग्रहण करने क निर्णय की, वह डा.धर्मवीर की टिप्पणी के हवाले से, आलोचना करते हैं। वह डा. धर्मवीर के इस मत को उद्धृत करते हुए स्पष्ट करते हैं कि आंबेडकर के बौद्धधर्म में जाने से दलित चिंतन को धक्का लगा, जिससे (वह) आज तक उबर नहीं सका है। (पृष्ठ-वही) गिरिराजजी ने डा. धर्मवीर के मत का समर्थन करते हुए इस टिप्पणी से सहमति जतायी है कि 'बौद्धधर्म में या अन्य किसी धर्म में (दलित) कितना भी बचता फिरे, लेकिन एक दिन उसे यह लड़ाई अपनी रीढ़ पर सीधे खड़े होकर अन्तिम रूप से खुद लड़नी पड़ेगी।` (पृष्ठ-११३) वह यहां हिन्दूधर्म को रीढ़ समझ रहे हैं और साबित कर रहे हैं कि आंबेडकर का पलायन गलत था और गांधी सही थे, जिन्होंने हिन्दूवादी बने रहकर अस्पृश्यता के खिलाफ संघर्ष किया।
गिरिराजजी के निष्कर्ष यहां भी गलत हैं। यही सही है कि धर्मवीर धर्मान्तरण के खिलाफ हैं, पर वह हिन्दूधर्म के पक्ष में हैं, यह कहना सही नहीं है। यदि उन्होंने धर्मवीर का साहित्य पढ़ा है, तो उन्हें पता होगा कि उनका मत 'न हिन्दू-न-मुसलमान` का है। उनका विश्वास 'दलित-धर्म` में है। यह ईश्वरवादी धर्म है। कबीर आदि दलित सन्तों का यही धर्म था। वह आंबेडकर से इसी 'दलित-धर्म` को मजबूत रखने की अपेक्षा बताते हैं। धर्मवीर की इस अवधारणा पर मेरी पुस्तक 'दलितधर्म की अवधारणा और बौद्धधर्म` का अवलोकन गिरिराज किशोर जी कर सकते हैं।
जहां तक आंबेडकर और गांधी के हिन्दूधर्म से पलायन या हिन्दूवादी बने रहने का प्रश्न है, तो सवाल हिन्दूधर्म की बुनियादी संरचना का है, जिसका पक्ष लेकर या जिसमें विश्वास व्यक्त करके जातिभेद की समस्या से नहीं लड़ा जा सकता। जाति के राक्षस को मारे बिना न तो अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष में सफलता मिल सकती है और न हिन्दू समाज का पुनर्गठन किया जा सकता है। आंबेडकर की दृष्टि में 'अस्पृश्यता का उन्मूलन` मूल समस्या नहीं है, बल्कि मूल समस्या 'जाति का उन्मूलन` है। उनके आंदोलन का आधार 'जाति का विनाश` है, न कि 'अस्पृश्यता का विनाश`। इसके विपरीत गांधी का संघर्ष 'अस्पृश्यता के विरोध` पर आधारित था, जिसके लिये हिन्दूधर्म छोड़ने की जरूरत नहीं थी। सैद्धान्तिक और व्यावहारिक रूप से जाति से द्विज वर्ग को कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि उनके मध्य अस्पृश्यता नहीं है। किन्तु दलित वर्ग जातियों का गुच्छा है और उनमें से किसी के भी बीच सामाजिक व्यवहार नहीं है। वे सभी परस्पर अस्पृश्यता से ग्रस्त हैं। दलित जातियां हिन्दू रहकर जाति से मुक्त नहीं हो सकतीं। इसलिये आंबेडकर के बौद्धधर्म अपनाने के निर्णय को, दलितों में जाति के उन्मूलन की दिशा में देखे जाने की जरूरत है, जिसकी आवश्यकता आंबेडकर को थी, गांधी को नहीं।
'हिन्दू गांधी : दो` में गिरिराज जी ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि गांधी ने वर्णव्यवस्था पर आक्रमण नहीं किया, वरन् उसे स्वीकार किया। (पृष्ठ : १२६-१२७) पर, प्रकारान्तर से यही आरोप वह आंबेडकर पर भी लगाते हैं। वह लिखते हैं कि 'आंबेडकर अस्पृश्यता के सबसे बड़े विरोधी होते हुए भी दलितों के बीच स्थित जातिगत अस्पृश्यता पर सीधे आक्रमण नहीं कर पाये। उन्होंने उसे अपना ऐजेण्डा बनाया ही नहीं।` (पृष्ठ-१२७) वह आगे कहते हैं कि गांधी ने ठग पिंडारी आदि को सुधारना 'हमारा काम है` कहा था, पर आंबेडकर के सामने वह भी मुद्दे के रूप में नहीं था। (वही) उनकी यह टिप्पणी गलत नहीं है। पर यह कहना सही है कि इसके मूल में तत्कालीन स्थितियां थीं। (पृष्ठ-१२८) गांधी ने भी कब ठग और पिंडारी जातियों को सुधारना अपना एजेण्डा बनाया था? गिरिराज जिसे 'जातिगत अस्पृश्यता` कहते हैं, आंबेडकर उसे ब्राह्मणवाद कहते थे और ब्राह्मणवाद का खात्मा ही उनके दलित-मुक्ति आंदोलन का मुख्य एजेण्डा था।
चूंकि यह पुस्तक गांधी के हर निर्णय या दृष्टिकोण को न्यायोचित ठहराने के लिये प्रायोजित कार्यक्रम के अन्तर्गत लिखी गयी है, इसलिये लेखक की दृष्टि में गांधी दलित और शूद्रों की आर्थिक स्थिति के बारे में भी चिन्तित हैं। (पृष्ठ-१२९) लेखक पहले सवाल करता है कि 'नेहरू माडल के अनुसार उन्होंने (गांधी ने) बड़े कारखानों का समर्थन क्यों नहीं किया?` (पृष्ठ वही) फिर खुद ही जवाब देता है, 'यह मॉडल यहां भी फेल हो गया और जहां से आया था, वहां भी भुखमरी की स्थिति है। गांधी ने 'हिन्द स्वराज` में लिखा है, 'मैं कल-मशीनों के खिलाफ नहीं हूं, बशर्ते उनका लाभ केवल चन्द लोगों को धन इकट्ठा करने के लिये न पहुंचता हो। कल-पुर्जों का विरोध, विकास का विरोध उतना नहीं, जितना उनके कन्द्रीयकरण का विरोध है।` (पृष्ठ-१२९) पूंजीवाद विरोध के एक साक्ष्य के रूप में गांधी की इस टिप्पणी का उपयोग किया जा सकता है। पर, क्या वह सचमुच पूंजीवाद के खिलाफ थे? इसका जवाब इस टिप्पणी में ही मिल जाता है कि 'नहीं`। यहां केन्द्रीयकरण का अर्थ निजीकरण नहीं है, क्योंकि निजीकरण तो गांधी के आर्थिक दर्शन का आधार ही है, जिसमें पूंजीपतियों के ट्रस्टीशिप में वह गरीब की मुक्ति मानते हैं। फिर, केन्द्रीयकरण का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है राष्ट्रीयकरण। अर्थात् गांधी यह नहीं चाहते थे कि उद्योगों का संचालन राज्य के स्वामित्व और नियंत्राण में हो।
आंबेडकर भी दलित और शूद्रों की आर्थिक स्थिति के बारे में चिन्तित थे। वह इसका हल भारत के तीव्र औद्योगिक विकास में देखते थे। उनके लिये पूंजीवाद आर्थिक विषमता को पैदा करने वाली व्यवस्था थी, जो शोषण पर आधारित थी। इसलिये, वह पूंजीवाद के नहीं, समाजवाद के समर्थक थे और विकेन्द्रीयकरण के नहीं, राष्ट्रीयकरण के पक्षधर थे। दूसरे शब्दों में निजी पूंजीवाद का विस्तार ही वस्तुत: विकेन्द्रीयकरण है।
एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना का भी गिरिराज किशोर ने इस अध्याय में विश्लेषण किया है। वह घटना है 'कम्यूनल एवार्ड`, जिसके विरुद्ध 'पूना-समझौता` हुआ। उन्होंने ठीक ही लिखा है कि यह एक तकलीफदेह संदर्भ है। (पृष्ठ-१३९) पूना-समझौता के पक्ष में जिन परिस्थितियों का विवेचन उन्होंने किया है, उनसे सचमुच असहमत होना मुश्किल है। वह स्वयं मानते हैं, 'इसी घटना ने पूरी आंबेडकर-धारा को और ज्यादा शिद्दत के साथ गांधी के विपरीत दिशा में मोड़ दिया।` (पृष्ठ-१४०) पर, मैं यह जोड़ना चाहूंगा कि जिस हिन्दुत्व और कांग्रेस से दलित वर्ग को जोड़ने के लिए यह समझौता हुआ, उसकी भारी कीमत दलितों को चुकानी पड़ी और वह कीमत यह है कि १९३२ से लेकर आज तक न दलित राजनीति और न दलित आन्दोलन आंबेडकर की जमीन पर खड़ा हो सका।
गांधी का बचाव करने में गिरिराजजी ने इस पुस्तक में श्रमसाध्य कार्य किया है। आंबेडकर के समानान्तर गांधी के दलित विमर्श को स्थापित करने में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के सूत्रों को आंबेडकर के संदर्भ में लागू किया है। एक सवर्ण हिन्दू के रूप में गांधी के संघर्ष को उन्होंने ज्यादा महत्व दिया है। अपने दलितवाद के कारण गांधी हिन्दू समाज में अलग-थलग पड़ गये थे पर, इसीलिये (जैसा कि वह लिखते हैं) वह हिन्दू-हिंसा के शिकार नहीं हुए थे, उसके अन्य कारण थे। उन्होंने गांधी को परम्परावादी मानते हुए भी परिवर्तनवादी कहा है। दलितों के बीच लगभग खलनायक बन चुके गांधी की छवि को यह पुस्तक साफ करने की कोशिश करती दिखायी देती है पर दलित-संदर्भों में यह पुस्तक केवल गांधी के प्रति सहानुभूति-बोध कराती है। अनुत्तरित प्रश्न यह है कि विमर्श की धारा क्या है? आंबेडकर-धारा में सत्ता का सूत्र दलित वर्ग के पास है, पर गांधी-धारा में वह कहां है?
लेखक : गिरिराज किशोर
प्रकाशक : उच्च अध्ययन संस्थान,शिमला
बिल्क़ुल सही बात.
ReplyDeletegreat dr bhimrao ambedkar
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