- मृत्युंजय प्रभाकर
१९९१ में भारतीय शासक वर्ग ने भूमंडलीकरण को अपना लिया। इससे एक तीर से कई निशाने साधे। एक तो आरक्षण से पिछड़ों को मिल सकने वाली सरकारी नौकरियों पर लगाम लगा दी गई। दूसरे, उन्हें कृषि के कारण मिल रहे लाभों से वंचित कर दिया गया। शासक वर्ग ने कृषि को अपनी प्राथमिकता सूची से गायब कर दिया है।
इस साल यू.एन.डी.पी द्वारा जारी किए गए मानव विकास सूचकांक में भारत का स्थान १२६ वां है! किसानों द्वारा आत्महत्या की खबरें भी अब अखबारों में जगह नहीं पातीं क्योंकि यह रोज की बात हो चुकी है और ब्रेकिंग न्यूज के इस जमाने में चौंकानेवाली खबर नहीं रह गई है। देश का प्रधानमंत्री ऐसे ही एक क्षेत्र में जाकर कुछ राहत पैकेज की घोषणा कर आते हैं और अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हंै। जबकि राहत पैकेज की घोषणा के बाद उसी क्षेत्र में किसानों की आत्महत्या की दर और बढ़ जाती है। देश के बाकी हिस्सों में जो हो रहा है अगर उसे भी शामिल कर लें तो इस देश को आत्महंता देश घोषित करने की नौबत आ जाएगी।
आश्चर्य यह है कि आंकड़ों में हर साल गरीबी घटने की बात बताई जाती है। अभी हाल में आई एक रिपोर्ट में बड़े ही फख्र के साथ यह दिखाया गया कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या घटकर मात्र तीस करोड़ रह गई है। पर गरीबी रेखा से पार पाने वाले और इसके नीचे रह जाने वाले लोगों की आय का आंकड़ा देखें तो आप प्रभु वर्गों की बाजीगरी को देखकर दातों तले उंगलियां दबा लेंगे। राजधानी दिल्ली में जो परिवार रोज १४ रुपये से अधिक खर्च करता है उसे गरीबी रेखा से ऊपर माना गया है। जितने रुपयों में दिल्ली जैसे शहर में एक व्यक्ति का नाश्ता भी नहीं आता उतना खर्च एक पूरे परिवार के लिए कैसे समुचित हो सकता है यह तो बस आंकड़ों के बाजीगर ही समझ सकते हैं। यही हाल अन्य राज्यों का भी है। कुछ महीने पहले के एक सर्वे में यह तथ्य उद्घाटित हुआ था कि देश के २५ करोड़ परिवारों की रोज की आमदनी १२ रुपये से भी कम है।
सवाल उठता है यह सब क्यों घटित हो रहा है? सवाल यह भी है कि अगर भूमंडलीकरण इतना ही सर्वनाशी है तो फिर शासक वर्ग इसके पीछे क्यों पड़ा है? इसका सीधा सा अर्थ है कि देश का शासक वर्ग और इसकी जमात इन परिवर्तनों से खुश है। और इसका सीधा असर साफ-साफ दिखता भी है। जो श्हरी मध्य वर्ग कल तक १५-२० हजार की नौकरी को बड़ी उपलब्धि मानता था आज वह लाखों में खेल रहा है। भले ही आबादी के हिसाब से यह तबका छोटा हो पर इसने श्हरी अर्थतंत्र को एक नई गति दी है। घर-घर तक पसरता बाजार और मॉल इसकी पहचान बन चुके हैं। जबकि दूसरी तरफ किसान आत्महत्या को विवश और लाचार हैं। पर क्या विकास की इस गुलाबी तस्वीर और देश के बहुसंख्यक लोगों की दुश्वारी के बीच कोई रिश्ता हो सकता है? ऐसा होना तो नहीं चाहिए पर दुर्भाग्य से ऐसा ही है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ऐसे ही विरोधाभासों पर टिकी होती है।
भारत में इस खास तरह के पूंजीवादी संक्रमण पर बात करना चाहें तो हमें इसकी पृष्ठभूमि में झांकने की जरूरत महसूस होगी। भूमंडलीकरण का दौर हमारे देश में १९९० के समय परवान चढ़ा। यह वही दौर था जब देश में मंडल और कमंडल की राजनीति भी उफान पर थी। भारतीय इतिहास को पूरी तरह बदल देनेवाली इन तीन परिघटनाओं पर अलग-अलग काफी बातें हो चुकी है। कुछ लोगों ने मंडल और कमंडल आंदोलन के आपस में जोड़कर भी देखने की कोशिश की है। पर 'मंडल`, 'कमंडल` और 'भूमंडलीकरण` को जोड़कर देखने की कोशिश प्राय: नहीं ही की गई है। क्लाउद लेवी-स्ट्रास के संरचनावाद के मूल सिद्धान्त को आधार बनाकर बात करें तो पहली समानता तो इन तीनों ाब्दों में एक खास तरह की एकरूपता है जिसके मूल में निश्चित तौर पर 'मंडल` शब्द है। पर इन तीनों के बीच एक अलग ही किस्म का संबंध है। जिस पर से पर्दा उठाने के लिए थोड़े विस्तार में जाने की जरूरत है।
१८५७ के सिपाही विद्रोह के कारण मिले झटके के बाद अंग्रेजों ने भारतीय सामंतवाद से एक खास तरह का समझौता कायम किया, जो आजादी के उपरांत भी भारतीय शासक वर्ग निभाता रहा। लेकिन आजादी के पहले कांग्रेस के मूल प्रस्तावों में शामिल रहे जमींदारी उन्मूलन के सिद्धान्त ने निश्चित तौर पर सामंतवाद को डरा दिया था। जमींदारों के इसी भय ने द्विराष्ट्र के विखंडनवादी सिद्धान्त को मजबूती दी जिसकी परिणति भारत विभाजन में हुई। उच्च जातियों ने विभाजन का फायदा जमकर उठाया। मुस्लिम जमींदारों द्वारा छोड़ी गई जमीन, चल और अचल संपत्ति को हस्तगत करने में इन्होंने देरी नहीं की। कुछ जमीन पिछड़ी जातियों के भी हाथ लगी। आजादी के बाद भी शासक वर्ग में सामंतवाद के हावी रहने के कारण जमींदारी उन्मूलन की बात धरी की धरी रह गई। सामंती वर्ग तब तक पूरी तरह संभल चुका था। विदेशों में पली-बढ़ी इनकी नई पीढ़ी तो पहले ही सचेत हो चुकी थी। इसने नए जमाने के रंग-ढंग, देख-सुन-समझ लिया था। नेहरू की उद्योगपरस्त नीतियों ने भी सामंतवाद को सचेत करने में भूमिका निभाई। खेती से ज्यादा ध्यान सामंतवाद मुनाफा संस्कृति का हिस्सा बनने में देने लगा। पर तब तक बड़े सामंत और राजा-रजबाड़े ही इस दौड़ में शामिल थे। मंझोले और छोटे जमींदार अभी भी पुराने अंदाज में ही चल रहे थे। हालांकि इस बदलाव में छोटी-बड़ी काश्तकारी की उतनी भूमिका नहीं थी जितनी उनकी शिक्षा और समझदारी की। पर आजादी के बाद कम्युनिस्ट पार्टियों के जमींदारी विरोधी और भूमि अधिग्रहण आंदोलनों और नक्सलबाड़ी ने इन पर जो गहरी चोट की उसने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। सामंत वर्गों ने अपना सीधा नाता शहरों से जोड़ लिया। शहरों में पहले से या तो इनकी संतानें अच्छी नौकरियों में थे या व्यवसाय को अपना चुके थे। यही वह समय था जब छोटी जोत वाली किसान जातियां, जो ज्यादातर पिछड़े वर्गों से आती थीं, ने ताकत ग्रहण की। पहले तो उन्होंने बटाई पर इनकी जमीनें लीं और फिर हाड़-पसीने की कमाई से बचाए रुपयों से जमीनें खरीदनी शुरू कर दीं। जब इन्हें आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त हुई तो असहनीय सामाजिक व्यवस्था के प्रति वर्षों से इनके मन में दबा गुस्सा बाहर आया और अपने को ताकतवर बनाने के लिए इन्होंने सारा जोर सत्ता प्राप्ति में लगा दिया। और यहीं से पिछड़ी और उच्च जातियों के आपसी टकराव का रास्ता साफ हो गया क्योंकि सत्ता की चाभी से नए अवसरों की जो गंगा निकलती थी वह उच्च जातियां किसी और को थमाने को तैयार नहीं थीं। पिछड़ों के लिए नौकरी में आरक्षण की मांग ने इस लड़ाई को हवा दी जिससे मंडल और कमंडल के बीच संघर्ष उभरकर सतह पर आ गया। १९८९ के चुनाव में जनता दल की जीत में पिछड़ों के उभार ने बड़ी भूमिका निभाई। १९९० तक कई राज्यों में पिछड़ी जाति के लोग सत्तासीन हो गए। इसके साथ ही पिछड़ी जातियों ने आरक्षण की जंग भी जीत ली। यहीं से उच्च जातियों को लगना शुरू हुआ कि उनका तिलिस्म अब टूट रहा है। सत्ता के साथ ही वे सारे संसाधन जिन पर अब तक सिर्फ इनका कब्जा था इनके हाथों से निकलने का खतरा पैदा हो गया।
उन्होंने यह समझ लिया कि लोकतंत्र अब उनके काम का नहीं रह गया है। लोकतांत्रिक प्रणाली को कमजोर बनाए बिना अब इनका काम चलने वाला नहीं है। ऐसा राज्य की शक्तियों को कमजोर करके ही किया जा सकता है। जिसमें सार्वजनिक उपक्रमों को खत्म कर निजी उपक्रमों को बढ़ावा देना शामिल था। उनके विदेशी आका सोवियत संघ के विघटन के बाद से ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के माध्यम से पूंजी के विश्व विजयी अभियान पर निकल चुके थे। अंतत: १९९१ में भारतीय शासक वर्ग ने भूमंडलीकरण को अपना लिया। इससे इन्होंने एक तीर से कई निशाने साधे। एक तो आरक्षण से पिछड़ों को मिल सकने वाली सरकारी नौकरियों पर लगाम लगा दी।
सार्वजनिक उपक्रमों को एक-एक कर या तो बंद या बेच देने की योजना बनाई गई। दूसरे यह कि उन्हें कृषि के कारण मिल रहे लाभों से पिछड़े वर्गों को वंचित करने का मौका भी मिल गया। यह इस प्रकार संभव हुआ कि शासक वर्ग ने कृषि को अपनी प्राथमिकता सूची से गायब कर दिया और कृषि पर मिलने वाली सब्सिडी को न्यूनतम कर दिया। (जबकि प्राइवेट सेक्टर को वे सारी सुविधाएं दी गइंर्, सेज इसका सबसे बड़ा नमूना है।) इस प्रकार देश की रीढ़ कृषि अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया गया। देश भर में कृषि संकट का जो हाहाकार सुनाई पड़ रही है, इसकी नींव भारतीय शासक वर्ग ने ९० के दशक में ही तैयार कर दी थी।
भारतीय मध्य वर्ग, पूंजीपति वर्ग और अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद ने भारतीय समाज के भीतर के इस तनाव का जबर्दस्त फायदा उठाया। वे अपनी सारी नीतियां भारतीय शासक वर्ग से मनवाने में कामयाब रहे। यह विडंबना ही कही जाएगा कि इसमें पिछड़े वर्ग से आए नेताओं ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बहुत हद तक तो निजी लाभ के लिए और कुछ इनको समझ न पाने कारण। मुश्किल यह है कि हम लड़ाई लड़ने की बात तो करते हैं पर हमेशा निशाना गलत लगाते हैं। कुछ तो मार्क्सवादी चेतना से वशीभूत अन्तर्राष्ट्रीयवाद के कारण और कुछ सब कुछ समझते हुए भी। इसीलिए भारत में वर्ग और जाति के उत्स को जोड़कर देखने की जरूरत है। वस्तुत: भारतीय कृषि संकट को दूर करने के लिए बाहरी ही नहीं, आन्तरिक दुश्मनों की भी पहचान जरूरी है।
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