October 4, 2007

मैं बौद्ध धर्म की ओर क्यों मुड़ा?


समाज



  • लक्ष्मण माने


ख्यात् मराठी लेखक लक्ष्मण माने ने गत १३ मई २००७ को लाखों जनजातीय लोगों का नेतृत्व करते हुए बौद्ध धम्म प्रवेश किया। धम्म प्रवेश से पूर्व महाराष्ट्र सरकार के मासिक पत्र 'लोकराज्य` में प्रकाशित इस लेख में उन्होंने धम्मप्रवेश के कारणों को स्पष्ट करते हुए घुमंतू जातियों की अलग संस्कृति, उनके अनंत दु:खों को भी व्यक्त किया है। मराठी से इसका अनुवाद लोकमत समाचार में कार्यरत मनोहर गौर ने किया है।


हाराष्ट्र के सार्वजनिक क्षेत्र में पिछले २५-३० सालों से मैं काम कर रहा हूं। घुमंतू-विमुक्त लोगों के आंदोलन का जुआ कंधे पर लेकर २५-३० सालों से घूम रहा हूं। मैंने 'उपरा` (लक्ष्मण माने की आत्मकथा) में अपने जीवन की कहानी विस्तार से लिखी है। मैं जिस समाज से हूं, उन लोगों का कोई गांव नहीं होता। वे ऐसे गांव के प्रतिनिधि होते हैं जो दूसरों को दिखाई नहीं देता। हमारा कोई गांव भले न हो, मगर हमारी भी एक संस्कृति है। हम भले ही रेलवे प्लेटफॉर्म के किनारे रहते हों, मगर हमारा भी एक गांव तो होता ही है। हम हगनहटी (जहां गांव के लोग शौच को जाते हैं) में जहां ठहरते हैं, वहां भी एक गांव होता है। हमारा गांव तो होता है, मगर उसका गांव से कोई संबंध नहीं होता। दरअसल, जिसे गांव कहा जाता है ऐसे गांव के हम नागरिक ही नहीं है। हमारा कोई गांव नहीं है, कोई नाम नहीं है अगर हमारे साथ कुछ है, तो वह है केवल हमारे गांव और जाति की एक तख्ती। दरअसल, हम इस व्यवस्था का हिस्सा ही नहीं हैं । इसलिए कहीं हमारी कोई गिनती नहीं होती। न जोड़ में, न घटाने में। हमारा कोई महत्व नहीं है।

नंदी बैल वाला हम सबके गांव में आता है। वह भी गांव की हगनहटी में ही ठहरता है। लोग नंदी बैल की पूजा तो करते हैं, मगर कभी उनके दिमाग में यह बात नहीं आती कि शंकरजी का नंदी लेकर आने वाला वह व्यक्ति हगनहटी में ठहरता है। नंदी हगनहटी से ही गांव में आता है। लोग उसकी पूजा करते हैं और वह फिर हगनहटी मंे ही वापस चला आता है। हम जिस किसी देवी की पूजा करते हों, क्या उसे हगनहटी में रखते हैं? यानी पूजनीय वस्तु से अपना कोई संबंध नहीं होना चाहिए, संबंध हो भी, तो शैतान का हो यह बात कभी हमारी जेहन में आती ही नहीं कि ये मंदिर वाले, ये कड़कलक्ष्मी (देवी का रूप धारण करने वाले) वाले आखिर आए कहां से हैं? वे आते हैं अपनी ही पीठ पर प्रहार करते हैं। हाथ में सुई चुभोते हैं। रक्त निकल आता है। हम सब देखते रहते हैं। थोड़ी दया उमड़ी तो कुछ पैसा भी दे देते हैं। मगर ये लोग आते कहां से हैं, रहते कहां हैं, खाते क्या हैं, उनका गांव कहां हैं, वे इंसान हैं या जानवर? ऐसे सवाल यहां जनता के मन में कभी घुमड़ते ही नहीं। हां, मंदिर को धक्का लगते ही भावनाएं जरूर आहत हो जाती हैं और लोग मरने-मारने पर उतर आते हैं। मगर हजारों सालों से उनके उसी मंदिर का देवती हगनहटी में रहता है, गांव में घूमता है और वापस फिर उसी हगनहटी में चला जाता है। उस समय उनकी श्रद्धा कहां चली जाती है?

कुल ४२ जनजातियों में बंटे हैं ये सारे लोग। हमारी सुबह होती है, 'वासुदेव` की आवाज सुनकर। वह आता है, कहता है 'दान मिलेगा..` । मराठी फिल्मों, उपन्यासों में इस बहुरूपिए को बहुत सुंदर तरीके से पेश किया गया है। वह करताल बजाते हुए आता है। सारी दुनिया के लिए दुआ मांगता है। कहता है, सारे जग का कल्याण हो। बड़ी सुबह गांव में दिखाई देने वाला यह व्यक्ति 'कहां से आता है?` हजारों सालों तक किसी के भी दिमाग में यह सवाल नहीं उठा। किसी ने कभी नहीं सोचा कि आखिर वह खाता क्या है?

ज्ञानारंभ

१९५० में संविधान लागू होने के बाद जब मेरे जैसे व्यक्ति को स्कूल जाकर कुछ पढ़ने-लिखने का मौका मिला, तबसे यह सब सोचा जाने लगा है। पढ़-लिखकर ही पीछा नहीं छूटा, किताबें भी लिखनी पड़ीं। फिर लोगों को धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि ये लोग भी इंसान हैं और इनके बारे में भी इन्सान की तरह ही सोचा जाना चाहिए। 'उपरा` पर जो प्रतिक्रिया आइंर्, हजारों पत्र मिले, वह इस बात का सबूत थे। हमारे हाथों में जब लेखनी आई तभी हम स्वाभिमान से गर्दन ऊंची कर खड़े हो सके।

दरअसल, जिस दिन मेरे पिता ने मुझे स्कूल भेजा, उसी दिन मेरा धम्मप्रवेश हो गया था। 'उपरा` के एक पात्र हैं, आक्कोबा सस्ते मास्टर। यही मास्टर मुझे दो महीने पहले मिले। जब मैं अपने गांव गया हुआ था। वे अब बहुत बूढ़े हो गए हैं। इन्ही मास्टर ने मेरे पिता से कहा था, इस बालक को स्कूल में डाल दो। बच्चा तेज और होशियार लगता है। मेरे पिता थोड़ी देर के लिए अचकचा गए। किस स्कूल में डालूं और कौन इसे अपने स्कूल में प्रवेश देगा? मास्टर ने कहा, इसका नाम मैं अपने स्कूल में लिखवाऊंगा। तू बस इसे स्कूल लेकर आ जा। पिता ने फिर कहा, मगर केवल तीन दिन के लिए। यानी आज स्कूल जाएगा। कल स्कूल में बैठेगा और परसों मैं किसी और जगह चला जाऊंगा मास्टर ने कहा, तू चिंता मत कर। तू जिस किसी गांव जाएगा, वहीं के स्कूल में उसे बैठाना। मगर इसकी हाजिरी मेरे ही स्कूल में लगेगी।

मैं महाराष्ट्र के कोने-कोने में गया, मगर मेरी हाजिरी लगती रही। मेरा आक्कोबा मास्टर हाजिरी लेता रहा। बाकी बच्चों की परीक्षा तो समय पर तय होती थी, मगर मेरी परीक्षा की तिथि तय नहीं थी पिता गधे के पीछे-पीछे कहीं भी जाते, मगर गांव का एक चक्कर जरूर लगाते। पिता जब भी गांव में आते आक्कोबा मास्टर मेरी परीक्षा ले लेते। मैं ऐसा अकेला विद्यार्थी था जिसकी परीक्षा अकेले होती थी। दूसरे दिन परीक्षाफल भी आ जाता और तीसरे दिन ही मैं फिर गधे पर बैठकर किसी दूसरे स्थान के लिए चल पड़ता।

ज्ञान के क्षेत्र में मेरा प्रवेश इसी मास्टर के कारण हो पाया। कर्मवीर भाऊराव पाटिल द्वारा किए गए कार्यों के कारण मैं ज्ञान-क्षेत्र में आ पाया। अन्यथा स्लेट, पेंसिल, कापी-किताब क्या होती है, क्या मालूम था हमें। अन्ना (भाऊराव पाटिल) ने एक माहौल बनाया। सातारा जिले में गांव-गांव में स्कूल खोले जा रहे थे। उन्हीं स्कूलों में मैंने पढ़ाई की। अन्यथा गांवों में स्कूल कहां थे? इन्हीं स्कूलों में मैं पढ़ाई करता गया, बड़ा होता गया। पहली बार यह आभास हुआ कि आखिर हम ही ऐसे क्यों हैं? हमारा ही कोई घर क्यों नहीं है? हम जिस भाषा में बात करते हैं वह दूसरों से अलग क्यों है? हमारी भाषा गांव के बाकी लोगों को क्यों नहीं समझ में आती? हमारे घर में जो व्यवहार होता है वह अन्यत्र क्यों नहीं? गांव में जो-जो होता है, वह हम क्यों नहीं कर सकते?

इसलिए 'मेरा धम्मप्रवेश` कहना उचित नहीं है। बल्कि मैं तो अपने मूल घर में वापस आ रहा हूं। बस, मुझे यह पता नहीं था कि मैं अपने ही घर में हूं। जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता गया, समझ आती गई, वैसे-वैसे इसका पता चलता गया।

गणपति की स्थापना

मैं चाथी कक्षा में था। मेरी कक्षा के अन्य बच्चों ने अपने-अपने घर में गणपति की स्थापना की थी। मुझे लगा, हमें भी गणपति की स्थापना करनी चाहिए। मैंने छोटी सी गणपति की मूर्ति लाई और दीवार के आला में उसकी स्थापना कर दी। माता-पिता दोनों घर पर नहीं थे। शाम को वे घर आए, देखते ही बोले-'अरे ये मूर्ति क्यों लाया?` मैंने उनकी तरफ देखा और पिता के डर से मां के पीछे छिप गया। पिता तो चले गए। मां ने फिर वही सवाल दागा, 'ये मुर्ति क्यों लाया?` मैं बोला, 'सारे बच्चों ने अपने घर में इनकी स्थापना की है, इसलिए मैं भी ले आया।` मां बोली-'अरे एक भी कैकाड़े (एक जनजाति) के घर में इनकी स्थापना नहीं की जाती। तू अपने घर में इन्हें क्यों लाया?` मैंने कहा, 'मेरे सारे दोस्तों ने स्थापना की है।` मैंने अपने शिक्षक द्वारा दी गई सारी जानकारी मां को दे दी। मां ने फिर कहा, 'मगर ये हमारे लिए शुभ नहीं हैं।` मैं दृढ़ता से यह समझाने की कोशिश करता रहा कि कैसे यह हमारे लिए शुभ हैं, मगर वह एक न मानी। मां ने आदेश दिया, 'अभी पानी में इनका विसर्जन कर आ। हमारी जाति में इनकी स्थापना नहीं की जाती। यह सब हमारे यहां नहीं चलता।` लेकिन जब उसने देखा कि मैं उसकी एक बात नहीं सुन रहा हूं तब उसने कहा, 'तूने यदि चुपचाप इनका विसर्जन नहीं किया तो अपने घर में सांप आ जाएगा। फिर तू क्या करेगा?` अब कोई विकल्प मेरे पास नहीं बचा था। चौथी कक्षा के बच्चे को सांप के आने का मतलब नहीं समझ आता था। आखिर शाम ढलने के बाद अंधेरे में हम दोनों ने गणपति की मूर्ति कुंए में विसर्जित कर दी।

बाबासाहब की २२ प्रतिज्ञाएं

बाबासाहब की २२ प्रतिज्ञाएं हम पर लागू नहीं होतीं। इसका अर्थ यह नहीं कि मैं इन २२ प्रतिज्ञाओं का विरोधी हूं। वह तो शत-प्रतिशत मुझे स्वीकार्य हैं। मेरा कहना केवल इतना ही है कि हम ब्रह्मा, विष्णु, महेश के चक्कर में नहीं हैं। भटक्या-विमुक्त जनजाति पर ब्राह्मणी संस्कृति के संस्कार नहीं हैंं। वे तो श्रमण संस्कृति के वारिस हैं। वे हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा नहीं करते। यानी यह जनजाति वैदिक धर्म परंपरा का पूजन नहीं करती। पेट भरने के लिए वे जो मन में आए वह काम कर लेते हैंं। सुबह को अगर भविष्य बताते हैं तो दोपहर को मछलियां पकड़कर खाते हैं। इन लोगों में व्याप्त रूढ़ियां, अंधश्रद्धा, परंपरा, देवी-देवता आदि सारी बातों पर अब फिर से विचार करना होगा। २२ प्रतिज्ञाओं पर जोर देना होगा। उन प्रतिज्ञाओं का और विस्तार करना होगा।

आदिम अवस्था की नासमझी और मूर्खता को दूर करने के लिए प्रतिज्ञाओं का इस्तेमाल करना होगा। उन्हें उसी तरह से ढालना होगा। क्योंकि विज्ञाननिष्ठ जीवनदृष्टि के बगैर विवेकनिष्ठ जीवनदृष्टि नहीं आ सकेगी, और जब तक विवेकनिष्ठ जीवनदृष्टि नहीं आएगी तब तक वह बुद्ध की तरफ जा ही नहीं सकेगा। सदियों से चले आ रहे भेड़ियाधसान और अंधानुकरण का चोला जीवन से उतार फेंकने के लिए इस जनजाति के लोगों को सबसे पहले यह एहसास कराना जरूरी है कि 'आखिर हम हैं कौन?` हम पिछले जन्मों में किए गए कर्मों के फल का सिद्धांत नहीं बताएंगे। हम समूह समाज (टोली समज) के लोग हैं और उस अर्थ में हम हिंदू नहीं हैं।
२२ प्रतिज्ञाओं को अस्वीकार करने का तो सवाल ही नहीं उठता। मुझे इन प्रतिज्ञाओं को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है, न मेरा कोई विरोध है। इस संबंध में मैंने अपना पक्ष विस्तार से अपने ग्रंथ 'विमुक्तायन` में रखा भी है।

क्या है 'ट्रेडिशन`

फिर सवाल उठता है कि मेरी अपनी 'ट्रेडिशन` क्या है? गणपति की स्थापना हमारी 'टे्रेडिशन` नहीं है। हम देव घर में अपने पूर्वजों की ही पूजा करते हैं। हम देवी-देवताओं को माननेवालों के पचड़े में भी नहीं पड़ते। हम इन्सानों की पूजा करते हैं, देवों की नहीं। जिसे देव घर में स्थापित किया जाता है उसे हम देव नहीं मानते, पितर (पितृ) मानते हैं। पितरों के कितने झंडे होते हैं यह हगनहटी में जाने के बाद ही मालूम पड़ता है। हमारा एक भी देव ऐसा नहीं है जिसे शराब नहीं चढ़ाई जाती हो, बिना शराब के कुछ होता ही नहीं। हम जो-जो खाते हैं वह सब हमारा देव भी खाता है। कहीं किसी को बुखार-ताप हुआ, कहीं कोई गड़बड़ी हुई कि देव शरीर में संचारित हो जाता है। उछलकूद करने लगता है। वह जो नैवेद्य मांगता है वह हमारे यहां उपलध भी होता है।

इसलिए तथागत के धम्म से ही हमारी नाल जुड़ी है। हम सांसारिक लोग हैं। इसी दुनिया का विचार करने वाले, इसीलिए दरिद्र रह गए। बुद्ध ने कहा था-संग्रह मत करो, संपत्ति जमा मत करो। यही हमारी दरिद्री का कारण बना। हम संपत्ति बनाने के चक्कर में रहे ही नहींं रोज कमाने, रोज खाने वाले लोग हैं हम। भिक्खू को क्या आदेश दिया था बुद्ध ने? यही कि, गांव में रहना नहीं और गांव से बहुत दूर जाना नहीं। हम कहां रहते हैं? गांव से दूर नहीं, मगर गांव में भी नहीं। जब तक ये भिक्खू हमारे साथ आते थे, रहते थे, तब तक हम अपना धम्म बता पाते थे। जब से उनका आना बंद हुआ हम नंगे-बूचे हो गए। जैसे हमारा सब-कुछ खत्म हो गया। वे तितर-बितर हो गए। विदेश चले गए। हमें क्या दिया? 'कुडमुडे जोशी समाज` में आज भी भीख मांगकर खाने की प्रथा है। बचा हुआ खाना, नमक, आटा एक गड्ढे में डालकर उस पर मिट्टी डाल दी जाती है। मैं पूछता, 'ऐसा क्यों करते हैं?` जवाब मिलता, 'ऐसा क्यों करते हैं यह तो पता नहीं, मगर यही रीत है, परंपरा हैं यह खाद्यान्न दूसरे दिन सूर्य को नहीं दिखाई देना चाहिए। नहीं तो वह वहीं अटक कर रह जाएगा।`

क्या सिद्धांत है! संग्रह करना नहीं है। कुछ बचाकर रखना नहीं है। आखिर जीना तो कैसे जीना है? जो भी लाएंगे वह मांगकर ही। वह भी पूरा नहीं खाना है। कुछ बचाना भी है। जो है उसी में गुजारा करना है। जरा गंभीरता से अध्ययन करें तो पता चलेगा कि, केसारे गोसावी, डवरी गोसावी जैसी जनजातियां सब बुद्ध से ही तो संबंधित हैं।

मिल-बांटकार खाने की परंपरा

आज भी शिकार में चाहे एक खरगोश मिले या एक मछली, सब मिल-बांटकर ही खाते हैं। माल चाहे शिकार का हो या फिर चोरी का, सभी को बांटना जरूरी है। काफिले के हर व्यक्ति को मिलना ही चाहिए। खाने से पहले कुछ देर मौज-मस्ती होती है। बकरे की नली तक तय होती है। परोसते समय पाटिल के अलावा किसी दूसरे की थाली में नली नहीं गिरनी चाहिए। नली पाटिल का सम्मान मानी जाती है। वह नायक की होती है। गलती से भी किसी दूसरे की थाली में नली आ जाए तो झगड़ा तय है। जो भी हो, हर चीज में सबका हिस्सा होता है। अगर किसी को न मिले तो वह नायक से शिकायत करता है। बुद्ध की आर्थिक समानता आखिर इससे अलग क्या होगी?

स्वतंत्रता

हमारी जनजाति में चार बच्चे होने के बाद भी कोई महिला अपने पति को छोड़ सकती है। ५ बच्चे होने के बाद भी पति-पत्नी में मनमुटाव हाने पर पत्नी चाहे तो पति को छोड़ा जा सकता है। लोगों को बड़ा आश्चर्य लगता है। महिला को अगर लगने लगे कि अब इसके साथ अपना गुजारा नहीं हो सकता, तो वह पति को छोड़ सकती है। मेरे पिता मेरी मां को रोज पीटा करते थे। वह सब चुपचाप सहती थी। मैं जब अमेरिका गया तो मुझसे सभी लोगों ने यही सवाल किया, 'तुम्हारी मां तुम्हारे पिता के साथ क्यों रही?` लौटने के बाद मैंने यही सवाल अपनी मां से किया। कहा, अमेरिका में सारी महिलाएं यही सवाल मुझसे पूछती थीं। मां का जवाब था-'मैं तेरे पिता के हाथों पिटती रही तभी तो तू पढ़-लिख सका। अगर पिटती नहीं तो तेरे पिता दूसरी शादी कर लेते। और तेरी शिक्षा बीच में ही छूट जाती। बस बेटा, इसीलिए तेरे पिता के हाथ की मार खाती रही।`

पति को छोड़ने के लिए पंचायत की मंजूरी जरूरी होती है। हमारा संघ ही हमारा जीवन है। हमारा सारा जीवन हमारा संघ ही नियंत्रित करता है। संघ के आदेशों का उल्लंघन कर हम संघ में नहीं रह सकते। बुद्ध के समय से संघ है। विवाह के समय संघ के पास ही जाना होता है। मृत्यु के समय भी संघ के पास जाना पड़ता है। बुद्ध ने ऐसे ही संघ की तो बात की है।

मैं अपने समाज के लोगों से कहता रहता हूं। हमें कुछ नहीं छोड़ना है। शरीर में देवी-देवता का संचार होता है, उससे निजात पाना है। यात्रा में बकरियां काटी जाती हैं, उसे छोड़ देना है। वैदू समाज साल भर इधर-उधर भटकने वाला समाज है। बेटा या पति के बीमार पड़ने पर मन्नतें की जाती हैं। और वह भी इतनी कि साड़ी में बाइंर् तरफ नारियल तक की गांठ बांध ली जाती है। यात्रा पर जाने पर इन गांठों को गिना जाता है। जितनी गांठें बंधी होती हैं उतने ही बकरे काटे जाते हैं और मटन पकाया जाता है। पूरे गांव को दावत पर बुलाया जाता है। मैंने इतने आंदोलन किए। सोचा कि यह सब आडंबर कम होंगे, मगर यह क्या? देवी-देवता सास के शरीर में आना बंद होते हैं तो बहू के शरीर में आने लगते हैं। कुछ भी करो, यह सब बंद हाने का नाम ही नहीं लेता। इस पर कोई उपाय अभी खोजना बाकी है।

हमारे यहां किसी भी किस्म की पूजा हो, ब्राह्मण नहीं आता था। हमारे लोग नासमझ हैं। उन्हें समझाया जाना चाहिए। मगर इधर पिछले दस सालों में हमारे यहां भी पूजा-पाठ कराने ब्राह्मण आने लगा है। मैं परेशान, कि आखिर यह बला आई कहां से? गणपति की स्थापना के समय मेरी मां जितनी परेशान हुई थी उतना ही परेशान मैं भी हुआ। हमारे सारे पूजा-पाठ, शादी-ब्याह नायक ही करता है। हमारी शादियां रास्ते के एक तरफ ही हो जाती हैं। रास्ते से गुजरते समय आभास भी नहीं होता कि हमारे यहां कोई विवाह हो रहा है। मगर विवाह होते हैं। बच्चे भी होते हैं। संसार ऐसे ही चलता रहता है। हगनहटी में गंदगी को साफ किया जाता है। झाड़ू से बुहारा जाता है। पानी डाला जाता है और वहीं देवता का सिंहासन बन जाता है। इस सिद्धांत को हजारों साल से जो लोग मानते रहे हैं उन्हें अपनी नासमझी के चलते कभी यह सिद्धांत समझ में ही नहीं आया।

..और हो गया तलाक

किसी भी उम्र की महिला जब कहती है, 'अब मेरा पति के साथ अब गुजारा नहीं हो सकता।` काफिला कहता है, 'बहना, ऐसा मत कर। यह विवाह पंचायत की मंजूरी से हुआ है। तू उसे मत छोड़` मगर महिला अगर दोबारा कहे, 'नहीं मुझे उसे छोड़ना ही है।` बस! एक पतली लकड़ी उठाई। उसको तोड़ा।.. और हो गया तलाक।
मेरे बहनोई की जब मृत्यु हुई मेरी बहन २५ साल की थी। तीन बच्चे थे। सवाल उठा, इन तीन बच्चों का क्या होगा? पंयायत ने फैसला सुनाया-तीनों बच्चे मामा की संपत्ति हैं। उन्हीं के पास रहेंगे। और तीनों बच्चे मेरे पास आ गए। तीनों बच्चों को शिक्षा-दीक्षा दिलाई। नौकरियां लगवा दी। मेरे पिता ने उनकी शादी करा दी।
'इस्टेट` (संपत्ति) के लिए हमारे यहां भी विवाद होते हैं, मारपीट तक की नौबत आ जाती है। हमारी इस्टेट क्या होती है-एक तांबे की थाली। एक पीतल की। खाना बनाने के लिए लगने वाले कुछ बर्तन, गोदड़ी, गधे, भेड़ें, यही सब। यही सब बांटना है। अपने आपको कुलीन और उच्च वर्ग का बताने वालों के बच्चे १८-२० साल के होने पर भी कमाने नहीं जाते। मगर हमारे यहां ऐसा नहीं है। हमारे यहां तो बच्चा अपने मुंह से मां से खाना मांगने लगा कि वह विवाह के योग्य समझा जाने लगता है। 'खाना दे न मां, कहने लगा यानी वह अपना पेट भर सकता है। पेट भर सकता है यानी विवाह की उम्र हो गई।` पेट पर कुकूं लगाने से विवाह करने तक अनेक रिवाज।

हम कौन है?

सवाल यह है कि आखिर हम हैं कौन? मुझे क्यों ऐसा लगा कि यही धम्म स्वीकार किया जाए? क्योंकि वह मेरा अपना है। वह दूसरों का हो ही नहीं सकता। मैं सबसे पहले इस घर का मालिक हूं। जब हम गांव के पास रहने लगे तो स्कूल में बच्चे को प्रवेश के लिए ले गए। पूछा गया-आपकी जाति क्या है? वडार। शिक्षक लिखता जाता है। हिन्दू वडार, हिन्दू कैकाड़ें, हिंदू डवरी, हिन्दू जोशी। अगर मैं हिन्दू हूं तो चातुवर्ण में मेरा स्थान क्यों नहीं होना चाहिए? मैं हिन्दू हूं तो मुझे ब्राह्मण होना चाहिए, मुझे क्षत्रिय होना चाहिए। मुझे वैश्य होना चाहिए, मुझे शूद्र होना चाहिए। मुझे अतिशूद्र होना चाहिए। अगर मैं इनमें से किसी भी वर्ण में हूं ही नहीं तो फिर मैं

तुम्हारा कैसे हुआ?

सवाल फिर वहीं का वहीं है, हम कौन हैं? हम हिन्दू नहीं हैं। हमारी ४२ जनजातियों में पिछले दरवाजे से अनेक जनजातियों ने घुसपैठ की है। उन्हें अब उसी तरह बाहर जाना होगा, जैसे वे भीतर आइंर् थी।

अस्पृश्यता तो काफी बाद में अस्तित्व में आई, मगर उसकी पराकाष्ठा हो गई है। बाबासाहब (अंबेडकर) ने हमें बताया है, अस्पृश्यता क्यों अस्तित्व में आई, कैसे आई? बाबासाहब ने कहा, जो टोलियां आज युद्ध करती हैं वे कल भी युद्ध ही करती थीं। उन्हें कभी गांवों ने अपना हिस्सा नहीं बनाया। 'दे आर नॉट पार्ट ऑफ द विलेज सिस्टम` (वे ग्रामीण व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं) आखिर हम लोग कौन हैं? आज भी पारधी गांव का सदस्य नहीं होता। उसे गांव में शामिल नहीं किया गया है। इसलिए मैंने शरद पवार से कहा था, आपका गांव मुझे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। इसके लिए आपको मुझे शुभकामनाएं देनी चाहिए, और उन्होंने मुझे शुभकामनाएं दी भी। जब गांव ही स्वीकार करने को तैयार नहीं है तो बेघरों की व्याख्या क्या होगी? बेघर यानी वही न जिसका अपना कोई घर नहीं है। मगर नहीं ऐसा नहीं है। कानून कहता है-जो व्यक्ति तीन साल से अधिक समय तक किसी एक गांव में रहता है और यदि उसके पास अपना कोई घर नहीं है तो वह हुआ बेघर। कलेक्टर कहता है, आप लोगों के पास घर नहीं है। यह मुझे मालूम है। मैं देख भी रहा हूं। मगर मैं आप लोगों को घर दे नहीं सकता! क्योंकि सरकार तीन साल तक बेघर होने का प्रमाणपत्र मांगती है। क्या कोई पटवारी, पाटिल मुझे ऐसा प्रमाणपत्र देगा? अरे वह तो मेरा नाम ही दर्ज नहीं करेगा। ५८ साल बाद भी हम मतदाता नहीं हैं। हमारा कोई स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र नहीं है। मैंने कलेक्टर महोदय से कहा, आप जरा ठीक से पड़ताल करें। अगर हम 'टनईबल` हैं तो टनईबल की सूची में डाल दें। हम अस्पृश्य हैं तो अस्पृश्यों की सूची में जगह दे दें। अगर दोनों में ही नही हैं तो ओबीसी में शामिल कर लें। कुछ तो करें। मगर वे कुछ भी नहीं करते।

जाधव को टिकट

बाबासाहब ने १९५९ के चुनाव में उत्तर सोलापुर से हमारे जाधव नाम के एक व्यक्ति को शेड्यूल कास्ट फेडरेशन का टिकट दिया था। यह अलग बात है कि हमारा उम्मीदवार चुनाव हार गया। मगर बाबासाहब ने हमें टिकट दिया तो था। हम उस वक्त शेड्यूल कास्ट में थे या नहीं? अरे, हमारे बाप के जाने के बाद हमारा संबंध खत्म हुआ। १९५६ में बाबा साहब का निधन हुआ और १९५७ के चुनाव में हम 'गायब` हो गए। अगर बाबासाहब होते तो इस तरह हमें कोई न गायब करता, न गड्ढे में डाल सकता था। १९५६ में बाबासाहब गए और ५७ में हमें उड़ा दिया गया। आखिर क्यों? यह सवाल मैं आज ही नहीं पूछ रहा हूं, बल्कि पिछले २५-३० सालों से पूछ रहा हूं। घुमंतु-विमुक्त लोगों की तीसरी सूची 'थाडे कमीशन` के कारण ही बन पाई। बाबासाहब न होते तो 'थाडे कमीशन` भी न बना होता। और घुमंतु-विमुक्त लोगों की तीसरी सूची भी न बनी होती। यह काम छत्रपति शिवाजी महाराज, राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले, राजर्षि शाहू महाराज और डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का नाम लेने वाले प्रगतिशील महाराष्ट्र में किया गया।

विदर्भ के १० जिलों में हम शेड्यूल्ड कास्ट में हैं और बाकी महाराष्ट्र में हम सवर्ण हैं। किसने बनाया था ऐसा कानून? एक ही राज्य में एक व्यक्ति स्पृश्य भी और अस्पृश्य भी। क्या धर्म में ऐसी सुविधा है? एक शाहीद महोदय से एक बार मेरी खूब बहस हो गई। आखिर हम किस वर्ग के लोग हैं? वे बोले, 'आप अवर्ण हैं।` शब्दों की कमी नहीं है। जाति ही अनेक शब्दों को हमारे जन्म से जोड़ देती है। मैं बोला, 'आखिर, निश्चित रूप से हम क्या हैं?` वह बोले, 'जैसे परधर्मिय लोग होते हैं। जैसे म्लेच्छ, मुसलमान, ईसाई। उसी तरह आप लोगों का वर्णन वेदों में किया गया है।`

इसलिए जिन लोगों ने हमें मनुष्य ही नहीं समझा। उनके मुंह पर थूक कर अब हम तथागत की शरण में चल पड़े हैं। जो हमें इन्सान नहीं समझती वह संस्कृति है? मैं इसे संस्कृति नहीं, विकृति कहता हूं। बाबासाहब ने उसे 'बदफैली` (दुश्चरित्र) कहा था। यह व्यवस्था मंदिर का निर्माण होने तक ही हमारे साथ मीठी-मीठी बातें करती है। उनके बाप-दादाओं ने कभी भारी-भारी पत्थर उठाए थे? उनके देवों को जन्म देने वाले भी हम ही लोग हैं। मंदिर में देवता की स्थापना होने तक हमारे साथ बड़ा अच्छा सलूक किया जाता है। ब्राह्मण आता है। पानी डालता है और कहता है 'चल बाहर जा`। क्या एक किले का निर्माण भी उन्होंने किया है? एक दुर्ग बनाया है? देश में एक भी मंदिर का निर्माण किया है? गांव का कोई व्यक्ति बता दे, जिसे इस संबंध में कुछ भी मालूम है? खजुराहो के मंदिर हों, ताजमहल या फिर अजंता की गुफाएं। उनका निर्माण किया होगा वडार पत्थर फोड़ने (संगतराश) वालों ने ही। संगतराशी करने वाली जनजाति है ये। वह जाति विस्थापित है। उसका कोई गांव नहीं है। कोई नाम नहीं है। कोई हत्या कर दे तो जेल में पत्थर तोड़ने की सजा दी जाती है। यानी अपराधी को पत्थर तोड़ने की सजा। हम तो जन्म से ही पत्थर तोड़ते रहते हैं। जाति का व्यवसाय ही है पत्थर तोड़ना। किसी ने कभी किया है यह व्यवसाय? तुम्हारा-हमारा कोई संबंध ही नहीं है। अगर कोई संबंध होता तो तुम्हारे मंदिर का जो निर्माता है उसे एक घर तो दिया ही होता। गांव के पाटिल का घर बनाते हैं हम लोग। घर बनने तक पाटिल भी मीठा-मीठा बोलता है। और घर बनते ही हमें भगा देता है। कभी पाटिल को महसूस हुआ कि जिस देवता को वह रोज पूजता है उसका निर्माण किसी वडार ने अपनी मेहनत से खून-पसीना बहाकर किया है? कभी यह नहीं लगा कि उस वडार की पूजा की जानी चाहिए? इतना भव्य ताजमहल बनाया गया है। उसके शिल्पकार का कहीं नाम है कहीं? नहीं। नाम हो भी नहीं सकता। सड़क पर से गुजरती तो सभी लोगों की गाड़ियां हैं, मगर इसका निर्माण करने वाले कौन लोग होते हैं?

मैं जब छोटा था, तब शर्ट उतारकर रास्ता साफ करने का खेल खेलते-खेलते काला-कलूटा हो जाता था। हम खेलते भी कहां थे? डामर की सड़क पर। इसी डामर की सड़क के एक किनारे पर हमारे विवाह हो जाते हैं। बच्चों के जन्म हो जाते हैं। जेल में भी हमारा जन्म होता है।

हम सब एक हैं!

ऐसा अन्याय दुनिया में किसी भी धर्म ने, किसी के भी साथ नहीं किया होगा। इतना निकृष्ट दर्जे का व्यवहार हमारे साथ किया गया। इसलिए मैं कभी उनकी आलोचना नहीं करता। जब मैं पैंथर (दलित पैंथर) में था, तब आलोचना किया करता था। जिस पत्नी के साथ रहना ही नहीं है, उसके चरित्र के बारे में चर्चा ही क्यों की जाए? उसे छोड़ने का फैसला हमने कर लिया है। मैं अपने नए रास्ते की ओर बढ़ रहा हूं। हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं वह जरा कठिन जरूर है, जिम्मेदारी भी बड़ी है। बाबासाहब ने जो इच्छा व्यक्ति की थी, उसे पूरा करने का प्रयास कर रहा हूं। मैं अपने लोगों को बताता रहता हूं कि हम ऐसा व्यवहार न करें, कोई ऐसा काम न करें, जिससे हमारे गुरू के आदेशों का उल्लंघन हो, उनका अपमान हो। प्रतिज्ञा करें कि हम अपने जीवन में ऐसा एक भी काम नहीं करेंगे, जिससे उनकी परायज हो। एक भी ऐसा काम न करें कि धम्म में आने वाले लोग वहीं ठिठक जायें, रूक जाएं। मुझे हमेशा यह बताया जाता है कि 'उनके बीच` (बुद्ध के अनुयायियों के बीच) बहुत विवाद हैं। बहुत झगड़े हैं। तो क्या हम अपनी अलग दुकान खोल लेंगे? मेरा जवाब था, 'नहीं वहां जाकर हमें अपनी अलग दुकान नहीं खोलनी है।` हम अपनी कोई दुकान खोलेंगे भी नहीं। हां, मैं कभी भी आरपीआई (रिपब्लिकन पार्टी) में नहीं जाऊंगा। राजनीति में रहूंगा, मगर मैं तुम सबके साथ रहूंगा। धम्म में रहकर कोई विवाद, कोई झगड़ा नहीं करूंगा। हम क्या बाबासाहब के लिए लड़ते हैं? क्या बाबासाहब हमारे मतभेद का मुद्दा हैं? न, बाबासाहब हमारे मतभेद का मुद्दा नहीं हैं। उसी तरह धम्म भी हमारे मतभेद का मुद्दा नहीं होना चाहिए, रामदास आठवले हों, गवई हों, लक्ष्मण माने हों, कोई भी हों। अब हम सब एक हैं! एक कतार में खड़े रहने वाले।

जागृति धीरे-धीरे

मातंग समाज के लोग विपुल संख्या में मेरे साथ आ रहे हैं। उन्होंने कहा, हमारे राजनीतिक नेता कुछ भी करें, हम तुम्हारे साथ आएंगे। अब हमें और इस कूड़ाघर में नहीं रहना है। मातंग समाज के साथ ही होलार समाज भी हमारे साथ आने को तैयार हो गया है। लोग धीरे-धीरे जागृत हो रहे हैं। ये वही लोग हैं जो सताए हुए हैं, ठगे हुए है। परेशान हैं। मैं धर्मांतरण करने वाला हूं। इसलिए कुछ लोग मुझसे नाराज हैं। ऐसे लोगों से शरदराव (पवार) ने बहुत अच्छा सवाल किया। उन्होंने पूछा-वह तुम्हारा क्या लेकर जा रहे हैं? आप लोगों ने उन्हें क्या दिया? वे किस ओर जा रहे हैं? तथागत की दिशा मेंं। बुद्ध के रास्ते पर जा रहे हैं बाबासाहब के रास्ते पर चले हैं।

मैं तमाम गांवों के पाटिलों को बताना चाहता हूं कि मेरे आधे रिश्तेदार मराठा समाज में हैं। मैंने ३५ साल पहले मराठा समाज की एक लड़की से विवाह किया था। बच्चे बड़े हुए, उन्होंने भी अंतर्जातीय विवाह किए, बेटे ने मराठा समाज की युवती से विवाह किया और बेटी ने माली समाज के लड़के से शादी की। लक्ष्मण माने ने जाति नाम के बंधन को एस.एम. जोशी के साथ ही राष्ट्र सेवादल में रहते हुए छोड़ दिया था। मेरे पीछे जाति का तमगा कहीं नहीं है। इसीलिए ४२ जातियों का कामकाज, संगठन मैं चला सका हूं। अगर गलती से भी मेरे दिमाग में जाति का कीड़ा होता तो ये ४२ जनजातियां मेरे पीछे कभी एक साथ खड़ी नहीं हो पातीं।

घर दिलाने का सपना

आज तक जो लोग बेघर रहे हैं, वे हमारे साथ चलने को तैयार हैं। ऐसे लोगों को उनका घर दिलाने का हमारा सपना है। जिम्मेदारी बहुत बड़ी है। इसलिए अब केवल बातों से काम नहीं चलेगा। अब हर किसी के मन में, गांव के कम से कम चार मकान तो खड़े करने ही होंगे। घर कोई स्लैब के नहीं बनाने हैं। मकान कच्चा ही होगा। और उसके लिए लगने वाला सामान यहां के प्रस्थापित लोग तो दे ही सकते हैं। केवल दिल बड़ा करना होगा। इन प्रस्थापित लोगों को उन लोगों से कहना होगा, तू यहीं रह। बच्चों को स्कूल भेज। हम तुझे सहायता करेंगे।

इस समाज में शिक्षा का प्रतिशत शून्य है। ०.६ प्रतिशत तो शून्य ही हुआ न। यह देश इस समाज के एक प्रतिशत लोगों को भी शिक्षा नहीं दे सका। हमें अब उनकी प्राथमिक शिक्षा शुरू करनी है। उसके लिए हमें 'ज्ञान के वटवृक्ष` के नीचे जाना होगा। बाबासाहब जैसे वटवृक्ष के अलावा दूसरा कोई हमारे पीछे नहीं है। उन्होंने संविधान की रचना इसीलिए की कि सबको साथ लेकर चलेंगे। संविधान के फंडामेंटल राइटस पढ़ने के बाद समझ में आता है कि इस महान व्यक्ति ने सभी लोगों को मुक्ति दी। गुलामी को तिलांजलि दी। हजारों सालों से इस देश की महिलाएं गुलाम थीं। चाहे ब्राह्मणों की महिलाएं ही क्यों न हों। बाबासाहब ने एक झटके में सारी महिलाओं को मुक्त कर दिया।

बाबासाहब कहते थे, 'सामने ईश्वर भी आ जाए तो उसके चरणों पर मत गिरो। उससे पूछो इतने दिन कहां थे बता, इतने दिन तक किसके पीछे छिपकर बैठा था। उसका नाम बता। उन्हें हम देखते हैं।` दरअसल, हम देवी-देवता के चक्कर में पड़ने वाले लोग ही नहीं हैं। हम सौ प्रतिशत तुम्हारे साथ ही रहेंगे। आपको भी सौ प्रतिशत हमारे साथ ही रहना चाहिए। जो भी आएंगे, उनके साथ केवल भटके-विमुक्त, दलित, ओबीसी, बहुजन समाज के सारे लोगों को साथ लेकर चलना है। क्योंकि हमारा नायक देश का नायक है। उस नायक ने इस देश के हजारों सालों से वंचित समाज को उनके अधिकार दिलाए हैं।

बाप्या कैकाड़े का बेटा

ऐसे महानायक के साथ, उसके समुदाय में जाने का फैसला हमने किया है। ये फैसला कोई आसान नहीं है, बहुत मुश्किल है। आज मेरे शरीर पर जो व हैं, वह मुझे बाबासाहब ने दिए हैं इसका आभास हर किसी को होना चाहिए। दूसरा कोई हमारा मुक्तिदाता नहीं है। आज भी मेरी गाड़ी के गांव में पहुंचते ही स्टैंड पर बैठी चंडाल-चौकड़ी कहती है-देख, बाप्या कैकाड़े का बेटा आया है। उनकी दृष्टि में इसका कोई महत्व नहीं है कि मै विधायक हूं, साहित्यकार हूं या सामाजिक कार्यकार्ता हूं। मेरे पिता का नाम था बापू। मगर वे उसे बापू नहीं कहेंगे। इतनी जोर से कहेंगे, बाप्या कैकाड़े का बेटा, कि मुझे साफ-साफ सुनाई दे। मैं उन्हें बताने वाला हूं कि बाप्या कैकाड़े की गाड़ी अब गांव में आ गई है। अभी भी कितने बापू कैकाड़े रास्ते के किनारे मर रहे हैं। अभी भी अनेक लक्ष्मण माने रास्ते के किनारे पड़े हैं। उन्हें मैं धम्म का रास्ता दिखाऊंगा। मैं अपने कुछ मित्रों के कारण ही खड़ा हो पाया हूं। यहां तक आ सका हूं। मेरे मास्टर के कारण मैं लिख-पढ़ सका। जिसके कारण मैं खड़ा रहा सका, उनके प्रति मैं कृतज्ञता व्यक्त करता हूं।

जाति को जाना होगा

मेरी इच्छा बस यही है कि मेरा समाज मुख्य प्रवाह में आ जाए। गांव के पास की भूमि, हगनहटी में रहने वाले लोग फिर एक बार स्थापित हो जाएं, उन्हें नागरिकता मिल जाए। ५८ साल बाद मतदान का अधिकार मिल जाए। फिर से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में वे शामिल जा जाएं और जाति हमेशा के लिए नष्ट हो जाए। जाति से उच्च और जाति से ही नीच होना कितना भयंकर है, वैसे ही जाति से बहुसंख्यक और जाति के आधार पर ही अल्पसंख्यक होना भी लोकतंत्र की दृष्टि से बहुत मारक है। बहुत घातक है। जो जाति के आधार पर बहुसंख्यक हैं वे हमेशा बहुसंख्यक ही रहेंगे। जो जाति के आधार पर अल्पसंख्यक हैं वे हमेशा अल्पसंख्यक ही रहेंगे। बाबासाहब ने कहा था, अल्पसंख्यक जातियों को यह ध्यान में रखना है कि एक दिन उन्हें इस देश की बहुसंख्यक जाति बनना है। मेरा प्रयास 'बहुसंख्यक होने` का है। हमें अपनी जातिगत अस्मिता को अलग रखना होगा। बाबासाहब आंबेडकर ही हमारा एकमेव पिता है। वही एक हमारी शक्ति है। वही एक निशान और एक ही हमारी जाति। एक ही बहुसंख्यक जाति हमंे बनानी है। इस देश में जो बहुसंख्यक हैं वही अल्पसंख्यक हैं और जो अल्पसंख्यक हैं वह बहुसंख्यक हैं। केवल मुट्ठीभर लोग ही प्रधानमंत्री बन सकते हैं। हमारे बहुसंख्यक समाज में से कोई प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। उसका एकमात्र कारण है जाति। जाति उनकी प्रगति के आड़े आ खड़ी होती है। जिन लोगों को जाति छोड़नी है वही तथागत के रास्ते पर आएं।

अब इसके बाद महाराष्ट्र में गधों के काफिले, घोड़ों के काफिले, गाय-भैंस के समूह, नंदी बैलों के समूह पेट के लिए मारे-मारे नहीं फिरेंगे। पहले हम जटा काटा करते थे। मगर अब हम काफिलों को बंद कर देंगे। आइए, उनके जीवन को स्थिरता प्रदान करें। इसके बाद, भटके-विमुक्त लोगों को 'अपने पेट को हाथ में लेकर` घुमना न पड़े, हम इसकी व्यवस्था करें। हिंदुओं के सानिध्य के कारण अनुकरण का रोग हमें भी लग चुका है और अनेक रीति-रिवाज भटके-विमुक्त जातियों में घुस आए हैं। इन जातियों में अवस्थित आदिम साम्यवाद (Primitive socialism) का मुख्य रूप से बखान करना, समतावादी समूहों की इस बुनियाद का उपयोग समता पर आधारित समाज के निर्माण के लिए करना और उसके लिए तथागत भगवान गौतम बुद्ध का मार्ग स्वीकार करना ही अब मेरे धम्म प्रचार का मुद्दा है। उसके लिए संबंधों (Primary life) की पड़ताल गैर ब्राह्मणी तरीके से करनी जरूरी है। भारत के आदीवासी जीवन के इतिहास को नए सिरे से और आंबेडकर दृष्टि से प्रस्तुत करने की जरूरत है। आदिम जाति का अध्ययन कर ऐसा विश्लेषण पेश करने की जरूरत है जो तथागत भगवान गौतम बुद्ध के रास्ते पर जाने के लिए देश की आदिम जनजातियों और भटके-विमुक्त सभी का पथप्रदर्शन कर सके। विचारकों और संशोधकों को आंबेडकरी दृष्टि से सामग्री जुटाकार अपन पूर्व इतिहास लिखना होगा। यह कदाचित बाबासाहब का 'नवयान` होगा। वह 'हीनयान` नहीं होगा। वह 'महायान` नहीं होगा। वह 'वज्रयान` भी नहीं होगा। वह बाबासाहब का 'नवयान` होगा। वह 'ओरिजनल बुद्ध` की ओर जाने वाला और दुनिया का परिचय 'सोलह आने शुद्ध बुद्ध` से कराने वाला नवयान होगा।

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