- अशोक सिंह
इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि शिक्षा में जिस लोक भागीदारी को लेकर विद्यालय स्तर पर ग्राम शिक्षा-समिति का गठन हुआ उसमें अपेक्षित भागीदारी क्यों नहीं हो पा रही है? क्यों नहीं प्रावधानों, आरक्षणों के अनुरूप दलित आदिवासी और महिलाएं उसमें सक्रिय हो रही हैं?
आम तौर पर देखा यह गया है कि बहुत कम बच्चे स्कूलों में जाते हैं और अधिकांश इसलिए स्कूल से निकल जाते हैं क्योंकि वहां की पढ़ाई उन्हें परायी, अपरिचित सी और बाहरी समुदाय की बातें लगती है। कुछ बच्चे पढ़ने की इच्छा से जाते भी हैं, तो ऊबकर हट जाते हैं, क्योंकि वहां उनके स्थानीय संस्कारों को नजरअंदाज कर सिर्फ शहरी या आधुनिक शिक्षा को थोपने का ही उद्देश्य उन्हें नजर आता है।
आज इस सच्चाई के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं है कि पूरे देश के लिए मान्य शिक्षा की अवधारणा झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा के प्रसार में अधिक कारगर साबित नहीं हुई है। अब यह आलोचना बेमानी सी लगती है कि राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी और साधनों का अभाव आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा के प्रसार में विफलता का मुख्य कारण रहा। हालांकि यह कारण भी चिंतनीय अवश्य है। आदिवासी क्षेत्रों में, शिक्षा के लिए सीमित स्तर पर ही सही, किये गये सद्प्रयास एवं संकल्पयुक्त प्रयोग के परिणाम भी इसी ओर संकेत करते हैं कि आदिवासी क्षेत्रों में अपनायी गयी पद्धति अधिक कारगर नहीं हो रही।
आदिवासी क्षेत्रों के अनुभवों ने सार्वदेशिक शिक्षा की बुनियादी अवधारणाओं पर सवालिया निशान लगा दिया है। इसे गहराई से समझने एवं विश्लेषित करने की जरूरत है। इस सिलसिले में आक्षेप यह है कि आदिवासी जीवन, समाज और संस्कृति के संदर्भ में हमारी मान्य शिक्षा की दृष्टि पूर्वग्रह ग्रस्त मान्यताओं पर आधारित है। ये मान्यताएं हमारी पूरी शिक्षा की अवधारणा, व्यवस्था, प्रयोग एवं सपनों को सिर्फ प्रभावित नहीं करतीं बल्कि निर्देशित और नियंत्रित भी करती हैं।
देश के अधिसंख्य सभ्य, वैज्ञानिक, संवेदनशील और उदारचित्त लोग, जिसमें शिक्षाविद् भी शामिल हैं की राय यह है कि आधुनिक सभ्यता की रोशनी घने जंगलों के अंधकार में गुजर-बसर करने वाले आदिवासी जीवन तक पहुंचानी होगी ताकि उन्हें सभ्य सुसंस्कृत एवं वैज्ञानिक बनाकर 'राष्ट्र की मुख्यधारा` में शामिल किया जा सके। लेकिन समस्या यह है कि आधुनिक सभ्यता और संस्कृति के सर्वोच्च और अंतिम सत्य होने का मिथ आज इस कदर हावी है कि आदिवासी संस्कृति को पहचानने और विकसित करने का प्रयास निरर्थक ही नहीं बल्कि पुरानेपन के प्रति अतिरिक्त आग्रह मान लिया गया है। यद्यपि इधर के वर्षों में इन मान्यताओं में कुछ लचीलापन आया है, इससे शिक्षा की प्रचलित अवधारणा में आदिवासी समझ के प्रति कुछ नयी दृष्टि एवं समझ विकसित करने की कोशिशों को स्वीकृति मिली है। हालांकि ये कोशिशें कई विरोधाभासों और विडंबनाओं से ग्रस्त हैं। इसलिए झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए ईमानदार अभियान चलाने की किसी भी कोशिश के पहले इन विरोधाभासों को समझना जरूरी है।
जहां तक सवाल प्रारंभिक शिक्षा के सार्वजनीकरण और उसमें ग्राम शिक्षा समिति की भूमिका का है तो जैसा कि हम जानते हैं कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद ४५ में ६-१४ आयुवर्ग के सभी बच्चों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है। १९६० में इस लक्ष्य की प्राप्ति की अवधि १० वर्ष रखी गयी। फिर १०-१० वर्ष बढ़ायी जाने लगी। वर्ष २००० तक इसी तरह लक्ष्य सरकता रहा। वर्ष २००० में सर्वशिक्षा अभियान के तहत यह उम्मीद शब्दबद्ध की गयी कि २००७ तक पूरे देश में यह लक्ष्य हासिल हो जायेगा। लेकिन अब सरकारी पंचवर्षीय योजनाओं की मूल्यांकन रिपोर्ट में कहा जा रहा है कि वर्ष २०१० तक यह लक्ष्य हासिल हो सकेगा।
आज पूरे देश में प्रारंभिक शिक्षा या प्राथमिक शिक्षा के सर्वव्यापीकरण का एक ही अर्थ है अभावग्रस्त समाजों, सांस्कृतिक व सामाजिक स्तर पर भिन्न आबादियों को शिक्षा की मुख्यधारा में शामिल करना, जो ब्रिटिश गुलामी से शुरू हुई और आजादी के बाद 'गुलामी बरतने की आजादी` के अवसर के रूप में विकसित हुई।
अगर झारखंड के परिप्रेक्ष्य में इसे देखें-परखें तो कई सावाल खड़े होते हैं। एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि प्रारंभिक शिक्षा के सार्वजनीकरण में आदिवासी बहुल झारखंड कितना सक्षम और सफल हुआ है? और बारीकी से देखें तो इस एक सवाल में कई पूरक सवाल भी समाहित हैं। जैसे-सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर पिछले १०-१२ सालों से जारी इस राष्ट्रीय अभियान में झारखंड कहां तक पहुंचा? उपलब्धियां क्या रहीं? अन्य राज्यों से यह पीछे कैसे रह गया? सामुदायिक भागीदारी की बात खासकर, दलित-आदिवासियों के संदर्भ में कहां तक जमीन पर उतर कर सफल सार्थक हो पायी? किन कमियों और खामियों की वजह से अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही? चुनौतियां क्या हंै और भविष्य की संभावनाएं क्या हैं?
जब हम इन सवालों के जवाब तलाशते हैं तो कई पहलू सामने आते हैं। एक तो यह कि इस अभियान के प्रति आप का नजरिया क्या है? और दूसरा अभियान से संबंधित विभिन्न कार्यक्रमों की कार्य पद्धति क्या है? विशेषकर उस ग्राम शिक्षा समिति की, जिसके माध्यम से सर्वशिक्षा अभियान के अन्तर्गत प्रारंभिक शिक्षा के सार्वजनीकरण हेतु विभिन्न कार्यक्रमों को संचालित करने की बात कही गयी है।
जहां तक आम लोगों के नजरिये की बात है तो झारखंड के आम लोगों में सर्वशिक्षा अभियान को जनांदोलन बनाने का आह्उाान रस्मअदायगी के रूप में चर्चित है। उसकी सफलता को लेकर अधिकसंख्य लोगों में संदेह है। इसके पीछे उनकी मुख्य दलील यह है कि सर्वशिक्षा अभियान स्कूली शिक्षा की विफलता को ढकने और शिक्षा में गैर बराबरी बनाये रखने का हथकंडा है।
ठीक इसके विपरीत उक्त अभियान की मान्यता है कि इस अभियान की सफलता के लिए निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति लोक भागीदारी से ही संभव है, जिसके लिए सबसे सशक्त माध्यम ग्राम शिक्षा समिति है। ग्राम शिक्षा समिति विद्यालय स्तर पर गठित एक महत्वपूर्ण प्रबंधकीय ईकाई है, जिसके नेतृत्व में शत्-प्रतिशत नामांकन, ठहराव, नियमित उपस्थिति विकलांग बच्चों की शिक्षा, बालिका शिक्षा, विद्यालय का भौतिक विकास और सुधार एवं सुविधाओं का विस्तार किया जा रहा है। इस हेतु परियोजना द्वारा अनिवार्य संसाधन भी उपलब्ध कराये जा रहे है। साथ ही इन संसाधनों का न्यायसंगत उपयोग सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक ग्राम शिक्षा समिति को प्रशिक्षित भी किया जा रहा है। बावजूद इसके देखा यह जा रहा है कि उसके अनुपात में अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे हैं। प्रारंभिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में 'जनता की सहभागिता` सुनिश्चित करने की जिस बुनियादी इकाई के रूप में उसे मान्यता दी गयी वह जमीन पर नहीं उतर पर रही है। परिणामत: सार्वजनीकरण का लक्ष्य हासिल करना कठिन हो गया है। खास कर झारखंड जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्रों में, जहां आदिवासी समाज की अपनी एक अलग परंपरा रही है, अपनी संस्कृति और भाषा रही है, अपना अलग कार्य-व्यवहार रहा है, अलग तरह की सामाजिक आर्थिक व भौगोलिक परिस्थितियां रही हैं, वहां यह काम और जटिल हो गया है।
ऐसे में इस बात की पड़ताल की जानी चिाहए कि शिक्षा में जिस लोक भागीदारी को लेकर विद्यालय स्तर पर ग्राम शिक्षा-समिति का गठन हुआ उसमें अपेक्षित लोक भागीदारी क्यों नहीं हो पा रही है? क्यों नहीं प्रावधानों आरक्षणों के अनुरूप दलित, आदिवासी और महिलाएं उसमें सक्रिय हो पा रही हैं? गुणात्मक स्तर पर उनके बच्चों का शैक्षणिक विकास क्यों नहीं हो पा रहा है? ऊपर की नीति एवं व्यवस्था में किन खामियों की वजह से आदिवासी बहुल क्षेत्रों में ग्राम शिक्षा समिति से जुड़े लोग आज अपने कार्य-दायित्वों का पालन करने में रूचि नहीं दिखा रहे हैं? अपने समाज की किन सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक परिस्थितियों एवं सांस्कृतिक परम्पराओं व लोक मान्यताओं के कारण वे मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में खुद को अनफिट पा रहे हैं? ऐसे में आखिर अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति वे क्या सोचते हैं? किस तरह की शिक्षा की कल्पना करते हैं? साथ ही इस तरह के और भी कई सवाल जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस मुद्दे से जुड़े हैं।
लेकिन विडंबना यह है कि उनके साथ मिल बैठकर इन सारे सवालों का जवाब तलाशने के बजाय हम यह मान बैठते हैं कि जिस निरक्षर आबादी को हम अक्षर ज्ञान से लैस करने जा रहे हैं वह नासमझ है अथवा उसकी समझ विश्वास योग्य नहीं है। जबकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए, जिस निरक्षर आबादी का अधिसंख्य अन्न पैदा करता है, कारखानों में काम करता है, देश समाज के भौतिक जीवन को टिकाये रखता है और जिसकी मेहनत के बल पर ही वह खाली 'वक्त` पैदा होता है जिसमें समाज का एक हिस्सा साक्षर व शिक्षित होने की मोहलत पाता है, वह जीवन को शायद हमसे ज्यादा जानते हैं। इसलिए सच तो यह है कि उन्हें सिखाने से पहले हमें खुद उनसे बहुत कुछ सीखना होगा। अन्यथा उनके विकास के नाम पर बहुत कुछ करने का ढ़िढोरा पीटना उनके सपनों का छलना और उनके हितों के साथ बेमानी करना है, जो वर्षों से उनके साथ होता आ रहा है। (जनमत फीचर्स)
अशोक सिंह 'जनमत शोध संस्थान` से जुड़े हैं।
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