October 30, 2007

बसंत त्रिपाठी की कविता



मैं बनारस कभी नहीं गया

हिंदी का ठेठ कवि
अपने जनेऊ या जनेऊनुमा संस्कार पर
हाथ फेरता हुआ
चौंकता है मेरी स्वीकारोक्ति पर
अय्..बनारस नहीं गए
नहीं गए, न सही
जरूरत आखिर क्या है
ऐसी स्वीकारोक्तियों की
इन्हीं बातों से कविता में
आरक्षण की प्रबल मांग उठ रही है
हुंह..दलित साहित्य..उसने मुंह बनाया

मैं बनारस कभी नहीं गया
लेकिन वह मुझे कविताओं में मिला
कर्मकाण्डी पिता की अतृप्त इच्छाओं में मिला
मां कमर के दर्द से परेशान हो
नींद में अक्सर चीख-चीख उठती है
बनारस..बनारस..

कबीर यहीं से कुढ़कर
मगहर की ओर निकल गए थे
उसे पंडों, लुटेरों, दलालों,
गंगा और माणिकर्णिका को सौंप

अभी कुछ दिन पहले की बात है
पटना जाते हुए रास्ते में
उसका रेलवे स्टेशन मिला था
बिल्कुल सुबह साढ़े पांच का वक्त
बनारस जाग रहा था
उसके ऊपर का कुहरीला आवरण
धीरे-धीरे खींच रहा था सूरज

स्टेशन की उस गहमागहमी में
मैंने एक अधेड़ को निर्लिप्त पेशाब करते देखा
यह जान रहिए
कि वह प्लेटफार्म पर खड़े होकर
पटरियों पर पेशाब नहीं कर रहा था
चलते-चलते सहसा रुका
और प्लेटफार्म पर पेशाब करने लगा

मुझे वह अजीब लगा
मुझे बनारस ही अजीब-सा लगा
गंदा, अराजक, अव्यवस्थित और दंभी
स्टेशन की खिड़की से मैंने बनारस को देखा
और मुझे दहशत हुई
इसलिए
मैं बनारस कभी नहीं गया।

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