October 30, 2007

नक्सलबाड़ी का दौर वाया फिलहाल


  • राजीवरंजन गिरि



भारत की आजादी के बाद नक्सलबाड़ी आंदोलन, एक ऐसा आंदोलन है जिसने ज्यादा समय तक लोगों को प्रभावित किया है और आज भी कर रहा है। अप्रैल १९६७ में उत्तरी बंगाल के नक्सलबाड़ी जैसी छोटी जगह से शुरू हुआ प्रतिरोध का यह आंदोलन, थोड़े दिनों में ही पूरे देश में शोषण के खिलाफ बदलाव की गहरी इच्छा रखनेवाले लोगों की बीच संघर्ष का प्रतीक बन गया था। भारत में नक्सलबाड़ी की तरह बहुत कम जगहों ऐसा गौरव प्राप्त है।
इतिहास के उस दौर में नक्सलबाड़ी की चेतना से प्रभावित आंदोलन करनेवाले लोगों के अनेक समूह थे। उनके बीच आपसी मतभेद भी थे। ऐसा ही एक छोटा समूह था-नेशनल लिबरेशन एंड डेमोक्रेटिक फ्रंट। सात-आठ होलटाइमरों का यह समूह चारू मजुमदार की एम.एल. पार्टी की सख्त मुखालफत करता था। इस समूूह का काम बंगाल के कुछ इलाके में था। बंगाल की तत्कालीन परिस्थितियां इस छोटे समूह के लिए काफी प्रतिकूल थीं। इसलिए संगठन ने बंगाल से बाहर बिहार में काम करने का मन बनाया। लेकिन सामाजिक आधार के बगैर बिहार में, छोटे समूह के लिए काम करना संभव नहीं था। लिहाजा संगठन ने लेनिन के विचारों से मदद ली। लेनिन ने किसी नए इलाके में राजनीतिक काम की शुरूआत के लिए पत्रिका निकालने पर जोर दिया है। उनके मुताबिक पत्रिका के जरिए लोगों से जुड़ने, अपने विचारों से परिचित कराने और उन्हें संगठित करके अपने राजनीतिक काम की शुरूआत की जा सकती है। पत्रिका के जरिए राजनीतिक समूह का एक आधार तैयार होता है।

एन.एल.डी.एफ ने अपने नए रंगरूट वीरभारत तलवार पर पत्रिका निकालने की जिम्मेवादी सौंपी। उन दिनों तलवार ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय मेंे पी.एच.डी के लिए शोध करना शुरू किया था। एक तरफ शोध के लिए यू.जी.सी की मिल रही स्कॉलरशिप और भावी कैरियर तो दूसरी तरफ एक छोटे संगठन के होलटाइमर की संघर्षों से भरी जिंदगी। तलवार के मुताबिक कुछ अरसा पहले पढ़ी गयी रेजिस देबे की किताब 'रेवोल्यूशन विदिन रेवोल्यूशन` का असर ऐसा प्रबल था कि स्कॉलरशिप और कैरियर का मोह छोड़कर कम्युनिस्ट बनने, होलटाइमर की जिंदगी चुनने में कोई दुविधा नहीं हुई। पत्रिका का नाम मशहूर बंगला कवि-पत्रकार समर सेन की पत्रिका 'नाउ` की तर्ज पर 'फिलहाल` रखा गया। समर सेन ने वामपंथी पत्रकारिता के क्षेत्र में 'नाउ` और 'फ्रंटियर` निकालकर मिसाल पेश की थी। लिहाजा फिलहाल का कलेवर, आकार-प्रकार मुख्य-पृष्ठ फ्रंटियर के ढंग पर रखा गया। वीरभारत तलवार के संपादन में पाक्षिक पत्रिका के तौर पर 'फिलहाल` का प्रकाशन शुरू हुआ और दो सालों तक छपता रहा। प्रस्तुत किताब 'नक्सलबाड़ी के दौर में` 'फिलहाल` में छपी रचनाओं का चयनित संकलन है। जिसका संपादन तत्कालीन 'फिलहाल` के संपादक वीरभारत तलवार ने ही किया है। यह किताब सोलह खंडों में बंटी है और इसमें एक सौ बारह रचनाएं शामिल हैं। वीरभारत तलवार द्वारा लिखी गयी लंबी भूमिका और परिशिष्ट के अलावा निबंध, मई दिवस, हत्याकांड और आंदोलन, वियतनाम, तीसरी दुनिया, मजदूर वर्ग का संघर्ष, कोयला खदान का अंचल, आदिवासियों का संघर्ष, तेलंगाना क्रांति, नक्सलबाड़ी क्रांति के दस्तावेज, जनतांत्रिक अधिकरों की लड़ाई, पत्र, श्रद्धांजलि, और साहित्य के तौर पर इस किताब का विभाजन इस तरह किया गया है कि इसमें 'फिलहाल` में प्रकाशित विभिन्न तरह की प्रतिनिधि रचनाओं को स्थान मिल सके। इसके जरिए तलवार की संपादन-कला की बेहतरीन क्षमता का पता चलता है। साथ ही फिलहाल में प्रकाशित विषयों की विविधता के जरिए उसके व्यापक दायरे की भी जानकारी मिलती है।

सवाल उठता है कि समर सेन की पत्रकारिता से प्रभावित और उनकी पत्रिका की तर्ज पर शुरू की गयी पत्रिका 'फिलहाल` क्या 'नाउ` या 'फ्रंटियर` की नकल थी? अथवा उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित हो सका था? इस सवाल का जवाब वीरभारत तलवार की भूमिका से मिलता है। 'कुछ मामलों में वह (फिलहाल) फ्रंटियर से बिल्कुल अलग और आगे भी थी। फ्रंटियर में नक्सलवाड़ी आंदोलन के भटकावों और गलत नीतियों की वैसी आलोचना नहीं होती थी जैसी फिलहाल में होती थी। फ्रंटियर मजदूर वर्ग से जुड़ी पत्रिका नहीं थी, जैसे कि फिलहाल थीं।` इन किताब के आलेखों से तलवार की इन बातों की पुष्टि होती है। फिलहाल में कई मजदूरों के लेख छपे हैं, जिसे इस किताब में भी शामिल किया गया है। इन लेखों से अपने सवालों पर मजदूरों की दृष्टि के पैनापन का पता चलता है। यह फिलहाल की खास उपलब्धि है कि मजदूरों और अलग-अलग समूहों विभिन्न मोर्चे पर काम करनेवालों का एक बड़ी तबका इसे अपनी पत्रिका मानता था और इसमें लिखता भी था। संपादक के मुताबिक कई रचनाएं छद्म नाम से आती थीं, जिसके बारे में आज भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इसे किसने लिखा था। मसलन उत्तर प्रदेश में पी.ए.सी. के आंतरिक विद्रोह की रिपोर्ट किसने भेजी थी, इसका पता नहीं चल सका। लेकिन भेजनेवाला पी.ए.सी. की आंतरिक जटिलताओं से वाकिफ था, रिपोर्ट पढ़कर आज भी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। मौजूदा दौर में वीरभारत तलवार का नाम एक महत्वपूर्ण, गंभीर आलोचक के तौर पर शुमार किया जाता है। अपने आलोचनात्मक निबंधों में वे परिस्थितियों का काफी बारीक विशलेषण करते हुए उसके तह में जाते हैं। इस खासियत के अलावा आमफहम शब्दों के जरिए लिखी गयी उनकी भाषा की सादगी और उसमें अंतर्निहित चुटीली प्रवृत्ति भी काबिले गौर होती है। आज पूरी तरह विकसित इस खूबी की बुनियाद इस किताब की लंबी भूमिका और इसमें शामिल उनके कई लेखों में नजर आती है। हिन्दी आलोचना में ऐसे थोड़े लोग हैं जिनकी भाषा इतनी स्पष्ट, धारदार और सादगीपूर्ण होती है। आखिर ऐसी भाषा कैसे अर्जित की जाती है? बकौल तलवार 'फिलहाल निकालने के सिलसिले में ही मैंने हिन्दी भाषा के उस पंडिताऊ रूप से मुक्ति पाई जो पिछले कई सालों में स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में हिन्दी-साहित्य पढ़ते हुए सीखी थी। पंडिताऊ हिंदी से छुटकारा अपने आप नहीं मिला। इसके लिए सजग रहकर बराबर जूझना पड़ा। जूझने की जरूरत सबसे ज्यादा ए.के. राय की यूनियन में कोयला खदान अंचल में जाने से पड़ती थी। वहां पहुचंते ही मुझे हैंडबिल, पेंफलेट वगैरह लिखने के काम में लगा दिया जाता था। आमसभा, विरोध-प्रदर्शन या किसी मारपीट-हत्या को लेकर लिखे जानेवाले इन हैंडबिलों को खदान मजदूरों के लिए बहुत आसान और चलती भाषा में लिखना होता था। मैं बार-बार लिखकर अपने लिखे हुए को काटता-पीटता। इसी रास्ते चलकर मैं किताबों की हिन्दी से निकलकर किसी हद तक आमलोगों की हिंदी तक पहूंचा।` कहने की जरूरत नहीं कि आज भी बुद्धिजीवियों की बातें आम लोगों तक पहुंच नहीं पाती हैं। आमलोगों के बारे में बुद्धिजीवियों के विचार आमलोगों की भाषा में लिखे बगैर उन तक नहीं पहुंच पाएगा। इसके लिए भाषा की दूरी पाटने के लिए यत्नपूर्वक कोशिश करनी होगी।

हिन्दी में दलित-चेतना की बयार जब नहीं पहुंची थी, उस दौर में, 'फिलहाल` में दलितों की समस्याओं पर गंभीर लेख छपे हैं। उनकी समस्याओं को, दलितों की समस्याओं के रूप में देखने की कोशिश की गयी है। संघसेन के लेख से दलित-चेतना के साथ दलित सवालों को देखने की कोशिश का पता चलता है। लेकिन यही बात स्त्रियों के संदर्भ में नहीं कही जा सकती। करीब साढ़े छ: सौ पृष्ठों के इस संकलन में, किसी स्त्रि द्वारा लिखी गयी एक भी रचना नहीं है। क्या फिलहाल में किसी स्त्रि की रचना नहीं छप सकी थी? अगर ऐसा है तो इससे दो बातों का पता चलता है। देश-विदेश की समस्याओं से जुड़ी इस पत्रिका का दायरा क्या सिर्फ पुरूषों तक सीमित था? फिलहाल या ऐसी मुक्तिकामी पत्रिका की पहुंच स्त्रियों तक न होने या कम होने की क्या वजह है? इससे पत्रिका की सीमा के साथ-साथ तत्कालीन समाज की स्थितियों का भी पता चलता है। इसी से जुड़ी एक और सीमा की तरफ इशरा करना गैरमुनासिब नहीं होगा। इस संकलन में शामिल लेखों के हवाले से पता चलता है कि मजदूरों की इस पत्रिका में स्त्रियों की समस्याओं को भी मजदूरों की समस्या से जोड़कर देखा गया है। जो स्त्रि मजदूरी करती है, क्या उसकी समस्या महज मजदूरों की समस्या है? या मजदूरों से जुड़ी होने के साथ-साथ उसे अलग भी?

पत्रिका के परिशिष्ट में शामिल टी.विजयेंद्र का विचारोतेजक आलेख 'क्यों नक्सलबाड़ी आंदोलन जिंदा रहेगा?` विशेष तौर पर उल्लेखनीय है। हालांकि यह लेख 'फिलहाल` में नहीं छपा था। शायद इसलिए इसे परिशिष्ट में शामिल किया गया है क्योंकि इसका मक्सद फिलहाल के दौर से जुड़ा है। मौजूदा दौर में जबकि कई राज्यों की सरकारें नक्सलवादियों को एक खतरनाक समस्या मानकर उनके साथ अमानवीयता और बेरहमी से पेश आती है; ऐसे माहौल में टी.विजयेंद्र के लेखक का नतीजा खास तौर पर विचार करने योग्य है-'भारत के कई हिस्सों में नक्सलवादी आंदोलन आज भी कारगर है क्योंकि समाज में कुछ ऐसे तीखे अंतर्विरोध मौजूद हैं, जिन्हें सुलझाने का गंभीर प्रयास और कोई नहीं करता। दलितों-आदिवासियों और दूसरे गरीब तबकों के अंदर भारतीय संविधान ने प्रगति की जो आशाएं जगाई थीं उन्हें आज तक किसी भी शासन ने पूरा नहीं किया। सिर्फ जनसंघर्षों के जरिए ही इन अंतरविरोधों को हल किया जा सकता है, इन आशाओं को पूरा किया जा सकता है।`
'नक्सलबाड़ी के दौर में` में संकलित रचनाओं के जरिए तत्कालीन जनसंघर्षों और उसके सपनों को जाना-समझा जा सकता है। उस आंदोलन के ऐतिहासिक विकासक्रम में उपलब्धि और सीमाओं को समझने के लिहाज से यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

किताब : नक्सलबाड़ी के दौर में
संपादक : वीरभारत तलवार
प्रकाशक : अनामिका पब्लिशर्स,नई दिल्ली।

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