October 4, 2007

सब्सिडी, आरोप और अश्लील आवाजों की (अ)राजनीति


हिमाचल



  • आदित्य शर्मा


जीवन में राजनीति के हस्तक्षेप से खौफ खाने और तथाकथित निरपेक्षता में जीने वालों के लिए यह एक और अच्छी खबर है, कि आज समाज की यथार्थपरक राजनीति का ऐसा 'अराजनैतिककरण` होता चल रहा है जो अंतत: मनुष्य और उसके सामाजिक लोकतंत्र को गरत में ले जाकर छोड़ेगा।
पिछले कुछ दिनों शिमला शहर के प्रवास में यही अप्रिय निष्कर्ष तलछट की तरह दिमाग को मथता रहा कि अब हमारे समाज की राजनैतिक छवियां किसी मिथक की तरह हैं या इतिहास में कभी घटे सामाजिक सरोकारों की शेष बची हुई छायाएं। प्राकृतिक सौंदर्य से ओत-प्रोत इस छोटे से पहाड़ी राज्य हिमाचल की राजधानी शिमला में राजनैतिक संघर्ष के तो मायने ही जैसे मिथक बन गए प्रतीत हुए। अगर शब्दों का सही चुनाव किया जाए तो यह सत्ता और व्यैक्तिक वर्चस्व की जंग से ज्यादा कुछ नहीं है। जन कल्याण की सार्थक राजनीति इसी तथाकथित जंग में तिरोहित हो चुकी प्रतीत होती रही। सुदामा पांडे 'धूमिल` ने संभवत: ऐसी ही स्थितियों को महसूस कर लिखा होगा :
"चुनाव ही सही इलाज है/क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से किसी हद तक कम से कम बुरे को चुनते हुए/न उन्हें मलाल है, न भय है/न लाज है/दरअसल उन्हें एक मौका मिला है/और इसी बहाने/वे अपने पड़ोसी को पराजित कर रहे हैं.."

'संसद से सड़क तक` का कवि 'धूमिल` साहित्यिक क्षेत्र में इतना ज्यादा पहचाना नाम है कि उसके साथ सुदामा पाण्डे लिखना ही जैसे उन्हें अपमानित किए जाने जैसा हो लेकिन जिस प्रदेश की हम बात कर रहे हैं वहां 'धूमिल` को लोग गलत न समझ बैठें, इसलिए अपमानित किए जाने की हद तक उनका नाम लिखना पड़ रहा है क्योंकि इधर एक प्रेमकुमार धूमल हैं जो इन दिनों लोकसभा के सदस्य हैं, लेकिन वर्तमान सरकार से ठीक पहले पूरे पांच वर्ष तक सुखराम की मदद से भाजपा की लगभग अल्पमत सरकार चला चुके हैं। इस व्यवहारिक क्रियाशीलता के कारण वे अपनी पार्टी में खासे लोकप्रिय बताए जाते हैं। यद्यपि भाजपा में उनसे वरिष्ठ एक नेता शांता कुमार को लोग भूले नहीं हैं। लेकिन वे 'राजनीति के व्यवहार` में इतने असफल पाए जाते रहे हैं कि जब भी सत्ता (दो बार प्रांत में और एक बार केंद्र में) उनके हाथ लगी तो वे इसे अढ़ाई साल से ज्यादा बरकरार नहीं रख पाए। फिर भी अगर जनता ऐसे अव्यवहारिक राजनेता को याद रखे हुए है तो यह कुछ-कुछ हिमाचल के जीवन, समाज और राजनीति में आदर्शोन्मुखता का स्वीकार हो सकता है। लेकिन जब भी चुनने की बारी आएगी तो निश्चय ही, खुद को अलग किस्म की पार्टी कहने वाली भाजपा भी प्रेमकुमार धूमल की 'व्यवहारिक राजनीति` को ही चुनेगी। कम से कम शिमला की फिजाओं में तो इन दिनों यही कुछ तैरते महसूस किया जा सकता है। धूमल और उनके अनुयायी आजकल पं्रात की राजनीति में कांग्रेस की मौजूदा वीरभद्र सरकार को 'महाभ्रष्ट` प्रमाणित करने में जुटे हैं। सम्भवत: उन्होंने अटल बिहारी वाजपेई के इस सूत्र वाक्य को बखूबी आत्मसात कर लिया है कि हिमाचल की जनता जब देती है तो छप्पर फाड़कर और जब वापस लेती है तो झाडू फेरकर। भाजपाईयों को जैसे विश्वास हो गया है कि फरवरी,२००८ में उनका छप्पड़ फाड़ा जाना निश्चित है। हाल ही में हमीरपुर लोकसभा उपचुनाव के नतीजे को वे इसी मानक की तरह पेश कर रहे हैं, जिसमें धूमल की जीत हुई थी और सत्तरह में से पंद्रह विधानसभाई क्षेत्रों में उन्होंने बढ़त हासिल की थी।

कांग्रेस की सरकार उस उपचुनाव को क्षेत्रीयता की भावनाओं के चलते महज एक संयोग करार देती है और तकरीबन मान कर चल रही है कि इसने अपने सत्ता-शासन काल के इन चार वर्षों में इस पहाड़ी प्रांत की धरती पर जो स्वर्ग उतारा है, वह जनता को उन्हें ही दोबारा चुन लेने के लिए बाध्य कर डालेगा। इस सत्ता के खेवनहार स्वयं वीरभद्र सिंह हैं। वे अपने आप को संगठन भी घोषित करते हैं। किसी हद तक यह सही भी है। लेकिन जहां एक ओर भाजपा उनकी सरकार को झूठा, मक्कार और भ्रष्ट साबित करने में जुटी है, वहीं वीरभद्र सिंह का प्रतिवाद है कि दरअसल यह गुण भाजपा के हैं और कांग्रेस से चार-छ: गुणा ज्यादा हैं। आरोप-प्रत्यारोप की इस राजनीति में खुद को ईमानदार कहने की बजाए अपने विरोधियों को अधिक बेईमान कहने की लगभग परंपरा ही स्थापित हो चुकी है। इसलिए ऐसे आरोपों को अब गम्भीरता से कोई नहीं लेता, जैसे अब यह कोई मुद्दा ही न हो। जनता भी अब भ्रष्टाचार के मुद्दों पर वोट नहीं देती। वैसे यह विडम्बना भी लग सकती है कि कांग्रेस के लिए चिर-असंतुष्ट विधायक और इसी वीरभद्र सरकार में मंत्री रह चुके विजयसिंह मनकोटिया हमीरपुर उपचुनाव की पूर्वसंध्या पर मुख्यमंत्री और उनकी सांसद पत्नी प्रतिभासिंह की कुछ 'भ्रष्ट` आवाजों की सी.डी. का सार्वजनिक विस्फोट कर अपनी ही तत्कालीन पार्टी कांग्रेस को धूल चटाते हुए नजर आ चुके हैं। पर जनता शायद इसे भी मिथक ही मानती है। लेकिन यही जनता सत्ताधीशों को हराने के लिए विकल्प की तलाश तो हमेशा करती रही है। यही बुरे और बुरे के बीच कम से कम बुरे को चुनने की सुविधा है।

इस विकल्प के सवाल पर तो जैसे कांग्रेस और भाजपा के बीच कोई गुप्त समझौता है। बारी-बारी से वे शिमला के 'ओकओवर` (मुख्यमंत्री आवास) और 'अलर्जली` (मुख्यमंत्री कार्यालय) को कब्जाते रहे हैं। वे दोनों जानते हैं कि तीसरे विकल्प की तलाश में भटक अपने जमाने के सभी दिग्गज-खाची, टी.एस. नेगी और सुखराम तक-अंतत: वापस कांग्रेस के तम्बू में आ जाने के लिए ही मजबूर हुए थे। लेकिन आज अचानक एक नई कसक पैदा हो गई है जो इन दोनों ही पक्षों को कांटे की तरह चुभ रही है। मायावती का हाथी उत्तरप्रदेश में कामयाब हुए अपने नए नारे-तिलक तराजू और तलवार, इनसे हो गई आंखे चार-की हुंकार भरता हुआ कांगड़ा के किले में प्रेवश कर चुका है और वही मनकोटिया उसके पहले सवार हैं जिन्होंने कांगड़ा से भेदभाव को लेकर वीरभद्र को तगड़ी चुनौती दी है। मायावती उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का आश्वासन दे गई हैं। यह तो कुछ ज्यादा ही बड़ी कल्पना लगती है लेकिन आज यह हाथी अड़सठ में से चार-छ: सीटें भी जीत गया तो भाग्य-सौभाग्य उसके हाथ में होगा। एक समय में सुखराम ने यही किया था। फिर वे क्या नहीं जानते कि राजनीति का सच अंतरालों में बोलने और ज्यादातर खामोश बने रहने की ही कला है। यह असंभव को संभाव्य बनते चलने की भी कला है। इसी बीच यह भी याद रखना होगा कि हिमाचल की राजनीति कांगड़ा और शिमला नामक दो जिलों की क्रूरतापूर्ण प्रतिद्वंद्विता पर चलती है। वीरभद्र और रामलाल जैसे कांग्रेसी मुख्यमंत्री शिमला से हुए हैं और भाजपा इसे नए हिमाचल (खासतौर पर कांगड़ा) से भेदभाव मानती और प्रचारित करती है। १५ प्रतिशत मंत्रीमंडल-सीमांकन में अंतर्गत जब वीरभद्र ने कांगड़ा के ही तीन मंत्री बाहर किए तो इस आरोप को भाजपा नहीं नहीं, खुद बाहर हुए मनकोटिया ने भी कम हवा नहीं दी थी। भेदभाव के इस आरोप को नकारने के लिए वीरभद्र ने धर्मशाला को शीतकालीन राजधानी घोषित किया। वहां पर विधानसभा का भवन तक बनवाया, लेकिन भेदभाव का यह आरोप कांग्रेस की पीठ से जिन्न की तरह चिपका बैठा है।
इस वर्ष के शुरू में जब महंगाई 'अलर्जल़ी` की छत से काफी उपर उठ गई थी, तो वीरभद्र ने सब्सिडी पर तीन किस्म की दालें, तेल व नमक गरीब-अमीर के भेदभाव के बिना सभी को देना शुरू कर दिया था। इस सब्सिडी का स्वाद खूब चखा जा रहा है। भाजपा दबी जुबान से इसे राजनैतिक स्टंट बताती है। लेकिन अब पड़ोसी पंजाब में प्रकाशसिंह बादल (भाजपा उनकी सरकार में शामिल है) ने गरीबों के लिए आटा-दाल स्कीम लागू कर दी है, तो फिर हिमाचल में भाजपा इस सब्सिडी को उगलना भी चाहे तो यह उसके लिए मुमकिन नहीं होगा।

और हाल ही में वीरभद्र के एक कांगड़ी मंत्री गुरचरण सिंह बाली के जन्मदिन पर हुए डांस की (अश्लील) तस्वीरें एक टी.वी न्यूज चैनल पर कुछ यूं प्रचारित हुई कि कांग्रेस के पास उक्त मंत्री को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा। अब भाजपा इस घटना को भी वोट के रूप में भुनाने का प्रयास कर रही है। यूं चुनाव तो जनता को ही करना है, किन्तु अब जनप्रतिबद्धता इस राजनीति के लिए कोई मुद्दा नहीं रहा, यह तो स्पष्ट दिख रहा है।

2 comments:

  1. हिमाचल की राजनीति की तस्वीर तो पेश की गई है परन्तु अनावश्यक दुख के साथ। आज भी देवभूमि सारे देश से हर मामले में बेहतर है। दसका श्रेय जनता के साथ साथ विकास प्रिय नेताऒं को भी जाता है फिर वे चाहे किसी भी दल के रहें हों।

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  2. सही तस्‍वीर है जनाब

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