October 30, 2007

दो कविताएं

चोर और चोर

  • पंकज कुमार चौधरी


पूस का महीना था
पूरबा सांय-सांय करती हुई
बेमौसम की बरसात झहरा रही थी
जीव-जन्तुओं की हडि्डयों में छेद करती
उसे उस बीच चौराहे पर
रोड़े और पत्थर बिछी सड़क पर
बूटों की नोक पर
फुटबाल की तरह उछाल दिया जाता था।
फ्रैक्चर हो चुकी देह पर
बेल्टों की तड़ातड़ बारिश की जा रही थी
लातों, घुस्सों, मुक्कों, तमाचों
रोड़े और पत्थरों से पीट-पीटकर
अंधा, बहरा, गूंगा और लूला बना दिया गया था
उसे बांसों और लकड़ियों से भी डंगाया जा रहा था
लोहे की रॉडों का ताबड़तोड़ इस्तेमाल कर
उसके दिमाग को सुन्न कर दिया गया था

इस सबसे भी नहीं हुआ
तो उसके लहूलुहान मगज पर
चार बोल्डरों को पटक दिया गया

जुर्म उसका यही था
कि वह चोर था
और एक बनिये की दुकान में
पकड़ा गया था
दुनिया के सबसे बड़े और महान लोकतंत्र में।

और ऐन उसी रोज एक चोर और पकड़ा गया था
उसके लिए एयर-कंडिशंड जेल का निर्माण हो रहा था।
(-'उस देश की कथा` से)



कईली


  • निलय उपाध्‍याय


पता नहीं क्या था
कि सर्र से निकल भागना चाहती थी कईली

मैंने तो यूं ही पूछ लिया घबराई देखा तो
कि क्यों, क्या बात है कईली
और छूट गया
हाथ का कटोरा

फर्श पर
चावल-दाल के संग आंखें भी गड़ गई थीं
काठ होती गई पल-पल
मेरी आंखों में
तैर गया बिन बाप का बच्चा
मैंने ही मना किया था, साथ मत लाना शरारती को

इस तरह गुजरता गया जाने कितना समय
उसने ठूंस लिया मुंह में
आंचल

एकाएक
सजल पलकें ऊपर क्या उठीं
गिरी क्या एक बूंद
सारा वात्सल्य टांक दिया मेरी आंखों में
जाते-जाते भिगो गयी मुझे
मोतियों वाली बारिश
मैं भी तो नहीं कह पाया
घबराती काहे हो कईली
आना
फिर भी आना काम पर
इतना सा अन्न तो धरती भी चुरा लेती है
मैं भी ऐसे ही लौटता हूं दफ्तर से
रोज-रोज..।
(-'अकेला घर हुसैन का` से)

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