October 4, 2007

डॉक्टर कैद में है


छत्तीसगढ़




  • अजय प्रकाश


चिकित्सक विनायक सेन उस समय छत्तीसगढ़ सरकार की आंखों की किरकिरी बन गये जब उन्होंने एक फैक्ट फाइंडिंग टीम गठित कर सलवा जुडूम की सच्चाइयों से भारतीय जनता को अवगत कराया।


नक्सली आंदोलन का मददगार होने के आरोप में डॉक्टर विनायक सेन की जमानत याचिका पिछली २९ जुलाई को रायपुर हाईकोर्ट ने रद्द कर दी। डॉक्टर सेन १४ मई से छत्तीसगढ़ की रायपुर केंद्रीय जेल में सजायाफ्ता हैं। छत्तीसगढ़ के गरीब आदिवासियों, किसानों के स्वास्थ्य की देखभाल में जिंदगी लगा देने वाले डॉक्टर सेन को रायपुर पुलिस ने उस समय गिरफ्तार किया जब वे अपनी वकील सुधा भारद्वाज से मिलने विलासपुर गये थे। उनको राजद्रोही, छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा कानून २००५ और गैरकानूनी गतिविधि (निवारक) कानून जैसी संगीन धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया है। ज्ञातव्य है कि गैरकानूनी गतिविधि (निवारक) कानून पोटा की जगह पर बनाया गया था, जिसे 'पोटा का संस्करण` भी कहा जा सकता है।

विनायक सेन एक चिकित्सक होने के साथ-साथ पीयूसीएल (People's union for civil liberties) की छत्तीसगढ़ इकाई के महासचिव और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। वे मानते हैं कि महज इलाज करना ही एक डॉक्टर का फर्ज नहीं है बल्कि उसे अपने समय की उन परिस्थितियों से भी दो-चार होना चाहिये जिससे कि लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी बर्बाद हो रहे हैं। विनायक ऐसे चिकित्सक हैं जो गरीबों को होने वाले रोगों के आर्थिक-सामाजिक कारणों को रेखांकित करते हैं और निदान के सजग और सार्थक प्रयास भी कर रहे हैं।

डॉक्टर विनायक सेन ने यह सब करते हुए पीयूसीएल के महासचिव के नाते उन मुद्दों को भी पुरजोर तौर पर उठाया है जिनसे मानवाधिकारों का हनन होता है। वह उस समय छत्तीसगढ़ सरकार की आंखों की किरकिरी बन गये जब उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर एक फैक्ट फाइंडिंग टीम गठित कर 'सलवा जुडूम` की सच्चाईयों से भारतीय जनता को रू-ब-रू कराया। २००५ के अक्टूबर में पीयूसीएल ने सबसे पहले तथ्यगत तौर पर पुष्ट कर दिया कि 'सलवा जुडूम` नक्सली आंदोलन के खिलाफ आदिवासियों का स्वत: स्फूर्त आंदोलन नहीं बल्कि बकायदा राज्य प्रायोजित दमन अभियान है। इसका पहला मकसद उन क्षेत्रों से आदिवासियों को उखाड़ फेंकना है जहां बहुमूल्य खनिजों की खदानें हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने टाटा, एस्सार, टैक्सास समेत दर्जनों कंपनियों से एएमयू किये हैं और वादा किया है कि इन क्षेत्रों को खाली करा दिया जाएगा। दूसरी तरफ वहां रह रहे आदिवासी जान की बाजी लगाकर भी अपनी समृद्ध धरती छोड़ने के लिए राजी नहीं हैं। मुख्य सामाजिक धारा से सांस्कृतिक, सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक भिन्नता रखने वाले आदिवासियों को लाव-लश्कर से सजी भारतीय सेनाओं और बख्तरबंद सैनिकों से लड़ने का साहस नक्सल आंदोलन से मिला है। बस्तर के जिन इलाकों में नक्सली मजबूती से जनता के बीच पसरे हैं वे इलाके आज भी निजी कंपनियों और साम्राज्यवादियों के कब्जे से बाहर हैं। २००५ के मध्य में पूंजीपतियों के सामने नतमस्तक सरकार ने जंगलों की तरफ अपनी फौज भिजवाई उसके बाद हिंसा-प्रतिहिंसा का दौर बस्तर में तेज हो गया। यही वह समय है जब छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने विपक्ष के कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा के साथ मिलकर सलवा जुडूम शुरू किया। मई २००५ में सलवा जुडूम के शुरू होने के बाद पूरा बस्तर गृहयुद्ध की रणभूमि में बदल गया। सालों से एक साथ जी-खा रहे आदिवासियों को १५०० रुपये का लालच देकर सरकार ने एसपीओ, विशेष पुलिस अधिकारी, बनाया। एसपीओ, सीआरपीएफ और नगा बटालियन ने मिलकर गांव के गांव जला लाखों आदिवासियों को बेघरबार कर दिया। जो बच गये उनको तथाकथित राहत शिविरों में रखा गया। राहत शिविरों में रह रहे लोगों को लेकर कई रिपोर्टें आ चुकी हैं और लोग अपने घरों को वापस लौटना चाहते हैं। मगर उन्हें नक्सलियों का खौफ जताकर जाने नहीं दिया जा रहा है। जबकि जानकारों का कहना है कि कैंप में रह रहे ज्यादातर आदिवासी नक्सल आंदोलन के समर्थक हैं। पुलिस को अंदेशा है कि वापस लौटकर ये लोग सरकार के लिए और मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि राज्य की जनता यदि नक्सल आंदोलन की समर्थक होने लगे तो सरकार को अपनी योजनाओं और नीतियों पर गंभीरता से पुनर्विचार करना चाहिये या फिर नए जेलों की तैयारी?

बहरहाल, सलवा जूडूम की क्रूरताओं की प्रथम जानकारी विनायक सेन की मार्फत ही मिली थी। सच्चाई की इस आंच को बस्तर रेंज के तत्कालीन डीजीपी (दिवंगत) राठौड़ नहीं पचा पाये और मीडिया के सामने ही उबल पड़े थे कि 'मैं विनायक सेन और पीयूसीएल दोनों को देख लूंगा।` फिर भी विनायक सेन छत्तीसगढ़ में जमे रहे और डॉक्टरी के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय रहे। जिसका परिणाम यह हुआ कि एक साथ उन पर छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा कानून २००५, गैरकानूनी गतिविधि निवारक कानून समेत राजद्रोह का मुकदमा भी लाद दिया गया।

विनायक के खिलाफ मामला बनाने में एक ऐसी चिट्ठी का भी उपयोग किया जिसे विनायक स्वयं २००५ में ही मीडिया को जारी कर चुके थे। वह चिट्ठी 'छत्तीसगढ़` नामक सांध्य दैनिक में छपी भी थी। दरअसल, वह पत्र सीपीआई (माओवादी) के सदस्य मदनलाल ने जेल में रहते हुए विनायक सेन को संबोधित पीयूसीएल के लिये लिखा था। पत्र में जेल के अंदर के हालात की विस्तार से चर्चा थी और मदनलाल ने अपील की थी कि पीयूसीएल जेल की दुर्व्यवस्था के खिलाफ एक लोक अधिकार संगठन होने के नाते हस्तक्षेप करे।

विनायक पर यह भी आरोप है कि वह इस समय विलासपुर जेल में बंद नक्सली नेता नारायण सान्याल से तैंतीस बार मिले हैं तथा सेन के घर से नारायण सान्याल का एक पोस्टकार्ड मिला है, जिस पर जेल की मुहर है। सबूत की बाजीगरी में माहिर पुलिस महकमे ने इन हास्यास्पद आरोंपों के अलावा जो सबूत पेश किया है उसके आधार पर देश के हजारों बुद्धिजीवियों और लाखों जनता को गिरफ्तार किया जा सकता है उनके हवाले से क्रूप्सकाया लिखित 'लेनिन` पुस्तक, अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ एक हस्तलिखित पर्चा, सीपीआई (माओवादी) का एक लेख, प्रोफेसर कल्पना कन्नाविरम का एक लेख, आदि जब्त किया गया है।
अजय प्रकाश समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।

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