October 30, 2007

जहर का भूमंडलीकरण


कृषि


सचिनकुमार जैन



एक तरफ तो भारत सरकार हेपेटाईटस-बी जैसी बीमारी से निपटने के लिये कार्यक्रम बना रही है तो दूसरी ओर इसी तरह की बीमारी फैलाने वाले कालीफ्लोवर मोसियेक वायरस बीटी बैंगन के जरिये मानव शरीर में प्रवेश कराने की अनुमति बहुरा ट्रीय कम्पनियों को दे रही है।

अंतत: भारत दुनिया का ऐसा पहला देश बन गया जिसने जैव परिवर्धित खाद्यान्न उत्पादन के जमीनी परीक्षण की अनुमति दे दी। इसके अन्तर्गत अप्रैल २००८ तक ११ स्थानों पर चार किस्म के बीटी बैंगन के उत्पादन के परीक्षण किये जाएंगे। मानव सभ्यता के लिये यह एक खतरनाक कदम हो सकता है। यह अनुमति देते समय सरकार ने जनकल्याण से ज्यादा बाजार के फायदों को प्राथमिकता दी है। हालांकि न्यायपालिका ने कुछ निर्देश देकर इन प्रयोगों की सीमा तय करने की कोशिश की है परन्तु पिछले कुछ समय से हम देख रहे हैं कि कानून और नियमों की अड़चन आने पर उन कानूनों को ही बदल दिया जाता है, ऐसे में सवाल यह है कि इन प्रयोगों की ईमानदार निगरानी कौन करेगा?

तय है कि बीटी बैंगन के प्रयोगों के बाद टमाटर के प्रायोगिक उत्पादन को भी बढ़ावा मिलेगा। यद्यपि यह कथित विवाद का मुद्दा है कि बीटी खाद्यान्न का मानव जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है या नहीं। यह प्रभाव जानने के लिये किये गये अध्ययनों के नि क र्ा अब भी गोपनीय हैं।

बहुत से लोग नहीं समझ पायेंगे कि ये बीटी बीज क्या होते हैं? वस्तुत: इसका अर्थ है बैंगन के जहर बुझे बीज। बीटी बीज बनाने वाली कम्पनी का कहना है कि बैंगन या आलू की फसल को कीटों से बचाने के लिये ऊपर से कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है। इससे बचने के लिये कम्पनी ने बीज में ही कीटनाशक (यानी जहर) प्रवेश करा दिये हैं। यह तकनीक कुछ और नहीं, केवल बीजों, कीटनाशकों का नया बाजार खोजने की रणनीति है।

जब हम कृषि के भूमण्डलीकरण की बात करते हैं तब यह साफ तौर पर दिखता है कि कम्पनियों का मकसद केवल लाभ कमाना है। लाभ के लिये वे यह तर्क अपने तथाकथित अध्ययनों-विश्लेषणों से स्थापित करती हैं कि किसान जितने संसाधनों का उपयोग करते हैं, उसके अनुरूप फायदा नहीं कमा पाते। सबसे ज्यादा हानि फसलों में बीमारियों और कीटों के हमलों से होती है। जब बीमारियां होती हैं तो किसानों को तरह-तरह के कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है, जिससे खेती की लागत बढ़ती है। यह तर्क वास्तव में पूरी व्यवस्था की कमजोर नब्ज है जिस पर कम्पनियों ने हाथ रखा है। इसी आधार पर कम्पनियों ने जैव परिवर्द्धित (जैनेटिकली मोडिफाईड बीज) बीजों का विकल्प खड़ा किया है।

कीट से फसल को बचाने के लिये बैक्टिरिया बीजों में प्रवेश कराया जा रहा है तो क्या वह उन लोगों पर असर नहीं करेगा जो जैव परिवर्धित बीजों से उपजाये गये फल या सब्जी खायेंगे? जैव परिवर्धित बीजों (बीटी बीज) के कितने खतरनाक प्रभाव पड़ते हैं इसके दो उदाहरण सामने आ चुके हैं। बीटी कपास की खेती करने वाले ३०००० किसान घाटे में डूब कर कर्ज के जाल में फंसे। उन्हें आत्महत्या तक करना पड़ी। इसी फसल के पेड़ और कपास के फल खाकर १६०० भेड़ें मर गई। इसकी शुरूआत बीटी कपास से हुई थी परन्तु अब भारत सरकार की जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रवुल कमेटी (जीईएसी) ने तो खाद्य फसलों के लिये भी जहर बुझे बीजों के उपयोग को अनुमति देना शुरू कर दिया है। अब तक किसान अपनी फसल से ही बीजों का भी उत्पादन करते थे किन्तु नई परिस्थितियों में जीएम फसलों में उपयोग होने वाले बीजों का पुनर्उत्पादन नहीं किया जा सकेगा। अब किसानों को हर बार बाजार से ही बीजों की खरीद करनी होगी। बाजार में कुछ चुनिंदा बहुरा ट्रीय कम्पनियों के ही बीज उपलब्ध होंगे जिनकी कीमत अभी भी सामान्य बीजों के मुकाबले १० से २०० गुना ज्यादा है। स्वाभाविक है कि हर साल बीजों का बाजार ही खरबों रुपये का होने वाला है जिस पर कब्जे की कोशिशें हो रही हैं और जीएम खाद्यान्न को अनुमति भी उन्हीं कोशिशों में से एक कोशिश का नतीजा है।

खाद्य बीजों, खास तौर पर बैंगन के बीजों में जिस क्राय१एसी जीन को प्रवेश कराया गया है, उसके प्रभावों का प्रयोग चूहों पर किया गया। उससे पता चला कि यह प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर करता है और आंतों में चिपक जाता है। पूर्व के क्राय१एसी जीन के परीक्षण यह सिद्ध करते हैं कि उससे जीवों में जबरदस्त एलर्जी होती है और यदि यह जीन लगातार मानव शरीर में प्रवेश करेगा तो वह कभी भी खतरनाक बीमारियों से नहीं उबर पायेगा। जीएम खाद्य पदार्थों पर हुआ कोई भी अध्ययन यह सिद्ध नहीं करता है कि ऐसे बीज या उत्पादन जानलेवा रसायनों और संकटों से मुक्त हैं। यही कारण है कि किसी भी विकसित देश ने अपने यहां जीएम खाद्यान्न को प्रोत्साहित नहीं किया है।
बीटी बैंगन के बीजों में एनपीटी-२ जीन का भी प्रयोग किया गया है। वास्तव में यह जीन कैनामायसिन प्रतिरोध के रूप में जाना जाता है। इसके कारण मानव शरीर की प्रतिरोधक क्षमता और कोशिकायें खत्म हो जाती है। यदि व्यक्ति बीटी बैंगन का उपयोग करता है तो उस पर एंटीबायोटिक दवाओं का असर भी खत्म हो जायेगा।

एक तरफ तो भारतीय सरकार हेपेटाईटस-बी जैसी बीमारी से निपटने के लिये कार्यक्रम बना रही है तो वहीं दूसरी ओर इसी तरह की बीमारी फैलाने वाले कालीफ्लोवर मोसियेक वायरस को बीटी बैंगन के जरिये मानव शरीर में प्रवेश कराने की अनुमति बहुरा ट्रीय कम्पनियों को दे रही है।

ये कम्पनियां नई तकनीक से बने बीजों के नकारात्मक प्रभावों को छिपाती रही हैं । जो कम्पनी बीटी बैंगन के बीजों का उत्पादन करवा रही है उसने पहले बीटी मक्का के घातक परिणामों को छिपाया है। बीटी मक्का के प्रयोगों से पता चला था इससे किडनी में असमान्यता आ जाती है और खून में वेत रक्त कोशिकाओं का स्तर बढ़ जाता है। कम्पनियां कहती हैं कि उस बीज से बैंगन के बीज का सम्बन्ध नहीं है पर सच यह नहीं है। कई वरि ठ वैज्ञानिक मानते हैं कि जैव परिवर्धित बीजों का व्यापारिक उपयोग करने से पहले उसके प्रभावों का परीक्षण कई पीढ़ियों पर करना होगा ताकि इसके प्रभावों को जांचा-परखा जा सके परन्तु लाभ कमाने को तत्पर कम्पनियां इंसानी जीवन को ही दांव पर लगा रही हैं। यह तथ्य भी जान लेना जरूरी है कि बीटी बैंगन में उपयोग किये गया क्राय१एसी जीन तितलियों को खत्म कर देता है। क्या हम भारत की रंगबिरंगी तितलियों को खत्म कर देना चाहते है?
संकट केवल बैंगन तक सीमित नही हैं। आलू का उत्पादन भी बढ़ाया जा सकता है, यह तर्क बाजार ने फैला दिया है और उत्पादन मंें वृद्धि करने के लिये आलू के बीज में मकड़ी के जीन प्रवेश कराये गये हैं। तर्क यह दिया गया की इस आलू में प्रोटीन ज्यादा है और यह प्रोटीन गरीबों के लिये ज्यादा फायदेमंद हैं परन्तु इस दावे की तब हवा निकल गई जब हिमाचल प्रदेश के आलू में भी बहुत प्रोटीन की बात सिद्ध हो गई।
चावल अब केवल एक खाद्यान्न फसल नहीं है बल्कि दूसरी हरित क्रांति में बाजार में इसकी बहुत अहम भूमिका है इसीलिये चावल में बिच्छू के जीन ाामिल किये गये हैं। इसी तरह अरहर, सरसों, टमाटर, मूंगफली, मक्का जैसी १० खाद्यान्न फसलों के लिये अनुमति की मांग की गई है। खाद्यान्न फसलों की तो ाुरूआत है परन्तु बीटी खाद्य को स्थापित करने के लिये बहुरा ट्रीय कम्पनियों ने जो रणनीति अपनाई उसे हमें समझना होगा।

जैव तकनीक को सबसे पहले और सबसे ज्यादा अमेरिकी बहुरा ट्रीय कम्पनियों ने ही बढ़ावा दिया और अमेरिकी सरकार ने अपनी नीतियां भी उन्हें मदद करने वाली ही बनाइंर्। इतना ही नहीं उसने वैश्विक मंचों पर भी जैव तकनीक की वृद्धि का खुल कर पक्ष लिया। सन् २००२ में विश्व खाद्य सम्मेलन में गरीबी-भुखमरी पर चर्चा हुई तो विकसित देशों ने कहा कि बायोटेक्नालॉजी के जरिये ही संकट को हल किया जा सकता है।

उस समय अमेरिका के क़षि सचिव ने यह विवाद भी खड़ा कर दिया कि सम्मेलन के घोषणा पत्र में सभी देश जीएम फसलों को बढ़ावा देने पर सहमति जाहिर करें और अपनी नीतियां इसी तरह बनायें। अमेरिका के दबाब में जैव परिवर्धित तकनीक को भुखमरी मिटाने के लिये जरूरी मानना पड़ा। यह स्वीकार न करने की स्थिति में अमेरिका ने धमकी तक दी थी कि वह विश्व खाद्य सम्मेलन के घो ाणा पत्र पर हस्ताक्षर नहीं करेगा।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियां पेटैंट और एकाधिकार के नाम पर बाजार से देशी और स्थानीय बीजों पर रोक लगवा देती है। तब केवल उन्हीं का बीज बाजार में होता है और किसान की मजबूरी होती है कि वह हर कीमत पर उन्हें खरीदे। फिर चूंकि यह बीज जैव परिवर्धित बीज हैं इसलिये इन पर केवल एक विशेश प्रकार के कीटनाशकों का ही असर होता है। यह विशेश कीटनाशक भी वही खास कम्पनी बनाती है। इसे खरीदना भी किसान की मजबूरी हो जाती है। यदि यही कृषि का वैश्विकीकरण है तो इसका स्प ट अर्थ यह है कि अब कषि क्षेत्र में आत्मनिर्भरता जैसे शब्दों के अर्थ कभी नहीं खोजे जा सकेगे। किसान और बहुरा ट्रीय कम्पनियों के बीच नौकर और मालिक के रिश्ते होंगे। जहां तक सरकार की भूमिका का सवाल है तो यह कड़वा सच है कि वह केवल दलाल की भूमिका निभायेगी।

3 comments:

  1. बहुत ज़रूरी लेख.. यह बात प्रचारित की जानी चाहिये बड़े पैमाने पर..

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  2. अच्छा शोध पूर्ण लेख लिखा आपने.धन्यवाद.

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  3. बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं आप लोग। इस ब्लॉग-पत्रिका से अब तक अपरिचित ही था।

    इसे अपने पठनीय चिट्ठों की सूची में शामिल कर रहा हूं।

    - सृजन शिल्पी

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