October 30, 2007

एक मिथक का पुनर्पाठ


शक्ति पूजा


  • प्रेमकुमार मणि



पूर्व वैदिक काल, प्राक् वैदिक काल, वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में भी शक्ति के केन्द्र अथवा प्रतीक बदलतेरहे। आर्य सभ्यता का जैसे-जैसे प्रभाव बढ़ा उसके विविध रूप हमारे सामने आये। इसीलिए आज का हिन्दू यदिशक्ति के प्रतीक रूप में दुर्गा या किसी देवी को आदि और अंतिम मान कर चलता है तब वह बचपना करता है


शक्ति के विविध रूपों, यथा योग्यता, बल, पराक्रम, सामर्थ्य व ऊर्जा की पूजा सभ्यता के आदिकाल से होती रही है। न केवल भारत में बल्कि दुनिया के तमाम इलाकों में। दुनिया की पूरी मिथॉलॉजी शक्ति के प्रतीक देवी-देवताओं के तानों-बानों से ही बुनी गयी है। आज भी शक्ति का महत्व निर्विवाद है। अमेरिका की दादागिरी पूरी दुनिया में चल रही है, तो इसलिए कि उसके पास सबसे अधिक सामरिक शक्ति और सम्पदा है। जिसके पास एटम बम नहीं है, उसकी बात कोई नहीं सुनता, उसकी आवाज का कोई मूल्य नहीं है। गीता उसी की सुनी जाती है, जिसके हाथ में चक्र सुदर्शन हो। उसी की धौंस का भी मतलब है और उसी की विनम्रता का भी। कवि दिनकर ने लिखा है: 'क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो/उसे क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो।`
दंतहीन और विषहीन साँप सभ्यता का स्वांग भी नहीं कर सकता। उसकी विनम्रता, उसके क्षमाभाव अर्थहीन हैं। बुद्ध ने कहा है 'जो कमजोर है, वह ठीक रास्ते पर नहीं चल सकता।` उनकी अहिंसक सभ्यता में भी फुफकारने की छूट मिली हुई थी। जातक की एक कथा में एक उत्पाती सांप के बुद्धानुयायी हो जाने की चर्चा है। बुद्ध का अनुयायी हो जाने पर उसने लोगों को काटना-डंसना छोड़ दिया। लोगों को जब यह पता चल गया कि इसने काटना-डंसना छोड़ दिया है तो उसे इंर्ट-पत्थरों से मारने लगे। इस पर भी उसने कुछ नहीं किया। ऐसे लहू-लुहान घायल अनुयायी से बुद्ध जब फिर मिले तो द्रवित हो गये और कहा-'मैंने काटने के लिए मना किया था मित्र, फुफकारने के लिए नहीं। तुम्हारी फुफकार से ही लोग भाग जाते।`

भारत में भी शक्ति की अराधना का पुराना इतिहास रहा है। लेकिन यह इतिहास बहुत सरल नहीं है। अनेक जटिलताएं और उलझाव हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय शक्ति का जो प्रतीक था, वही आर्यों के आने और जमने के बाद नहीं रहा। पूर्व वैदिक काल, प्राक् वैदिक काल, वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में शक्ति के केन्द्र अथवा प्रतीक बदलते रहे। आर्य सभ्यता का जैसे-जैसे प्रभाव बढ़ा उसके विविध रूप हमारे सामने आये। इसीलिए आज का हिन्दू यदि शक्ति के प्रतीक रूप में दुर्गा या किसी देवी को आदि और अंतिम मान कर चलता है तब वह बचपना करता है। सिन्धुघाटी की जो अनार्य अथवा द्रविड़ सभ्यता थी, उसमें प्रकृति और पुरुष शक्ति के समन्वित प्रतीक माने जाते थे। शांति का जमाना था। मार्क्सवादियों की भाषा में आदिम साम्यवादी समाज के ठीक बाद का समय। सभ्यता का इतना विकास तो हो ही गया था कि पकी इंर्टों के घरों में लोग रहने लगे थे और स्नानागार से लेकर बाजार तक बन गये थे। तांबई रंग और अपेक्षाकृत छोटी नासिका वाले इन द्रविड़ों का नेता ही शिव रहा होगा। अल्हड़ अलमस्त किस्म का नायक। इन द्रविडों की सभ्यता में शक्ति की पूजा का कोई माहौल नहीं था। यों भी उन्नत सभ्यताओं में शक्ति पूजा की चीज नहीं होती।

शक्ति की पूजा का माहौल बना आर्यों के आगमन के बाद। सिंधु सभ्यता के शांत-सभ्य गोपालक (ध्यान दीजिए शिव की सवारी बैल और बैल की जननी गाय) द्रविड़ों को अपेक्षाकृत बर्बर अश्वारोही आर्यों ने तहस-नहस कर दिया और पीछे धकेल दिया। द्रविड़ आसानी से पीछे नहीं आये होंगे। भारतीय मिथकों में जो देवासुर संग्राम है वह इन द्रविड़ और आर्यों का ही संग्राम है। आर्यों का नेता इंद्र था। शक्ति का प्रतीक भी इंद्र ही था। वैदिक ऋषियों ने इस देवता, इंद्र की भरपूर स्तुति की है। तब आर्यों का सबसे बड़ा देवता, सबसे बड़ा नायक इंद्र था। वह वैदिक आर्यों का हरक्युलस था। तब किसी देवी की पूजा का कोई वर्णन नहीं मिलता। आर्यों का समाज पुरुष प्रधान था। पुरुषों का वर्चस्व था। द्रविड़ जमाने में प्रकृति को जो स्थान मिला था वह लगभग समाप्त हो गया था। आर्य मातृभूमि नहीं पितृभूमि का नमन करने वाले थे। आर्य प्रभुत्व वाले समाज में पुरुषों का महत्व लंबे अर्से तक बना रहा। द्रविड़ों की ओर से इंद्र को लगातार चुनौती मिलती रही। गोपाल कृष्ण का इतिहास से यदि कुछ संबंध बनता है तो लोकोक्तियों के आधार पर उसके सांवलेपन से द्रविड़ नायक की ही तस्वीर बनती है। इस कृष्ण ने भी इंद्र की पूजा का सार्वजनिक विरोध किया। उसकी जगह अपनी सत्ता स्थापित की। शिव को भी आर्य समाज ने प्रमुख तीन देवताओं में शामिल कर लिया। इंद्र की तो छुट्टी हो ही गयी। भारतीय जनसंघ की कट्टरता से भारतीय जनता पार्टी की सीमित उदारता की ओर और अंतत: एन.डी.ए. का एक ढांचा, आर्यों का समाज कुछ ऐसे ही बदला। फैलाव के लिए उदारता का यह स्वांग जरूरी होता है। जार्ज की तरह शिव को संयोजक बनाना जरूरी था, क्योंकि इसके बिना निष्कंटक राज नहीं बनाया जा सकता था। आर्यों ने अपनी पुत्री पार्वती से शिव का विवाह कर सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की। जब दोनों पक्ष मजबूत हो तो सामंजस्य और समन्वय होता है।जब एक पक्ष कमजोर हो जाता है तो दूसरा पक्ष संहार करता है। आर्य और द्रविड़ दोनों मजबूत स्थिति में थे। दोनों में सामंजस्य और समन्वय ही संभव था। शक्ति की पूजा का सवाल कहां था। शक्ति की पूजा तो संहार के बाद होती है। जो जीत जाता है वह पूज्य बन जाता है, जो हारता है वह पूजक। हालांकि पूजा का सीमित भाव सभ्य समाजों में भी होता है, लेकिन वह नायकों की पूजा होती है, शक्तिमानों की नहीं। शक्तिमानों की पूजा कमजोर, काहिल और पराजित समाज करता है। शिव की पूजा नायक की पूजा है। शक्ति की पूजा वह नहीं है। मिथकों में जो रावण पूजा है वह शक्ति की पूजा है। ताकत की पूजा, महाबली की वंदना।

लेकिन देवी के रूप में शक्ति की पूजा का क्या अर्थ है? अर्थ गूढ़ भी है और सामान्य भी। पूरबी समाज में मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था थी। पश्चिम के पितृ सत्तात्मक समाज-व्यवस्था के ठीक उलट। पूरब सांस्कृतिक रूप से बंग भूमि है जिसका फैलाव असम तक है। यही भूमि शक्ति के देवी रूप का उपासक है। शक्ति का एक अर्थ भग अथवा योनि भी है। योनि प्रजनन शक्ति का केन्द्र है। प्राचीन समाजों में भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जो यज्ञ होते थे उसमें य़िों को नग्न करके घुमाया जाता था। पूरब में पारंपरिक रूप से शक्ति की प्रतीक मानी जाती रही है। इस परंपरा का इस्तेमाल ब्राह्मणों ने अपने लिए सांस्कृतिक रुप से किया। गैर ब्राह्मणों को ब्राह्मण अथवा आर्य संस्कृति में शामिल करने का यह सोचा-समझा अभियान था। आर्य संस्कृति का इसे पूरब में विस्तार भी कह सकते हैं। विस्तार के लिए यहां की मातृसत्तात्मक संस्कृति से समरस होना जरूरी था। सांस्कृतिक रूप से यह भी समन्वय था। पितृसत्तात्मक संस्कृति से मातृसत्तात्मक संस्कृति का समन्वय। आर्य संस्कृति को स्त्रि का महत्व स्वीकारना पड़ा, उसकी ताकत रेखांकित करनी पड़ी। देव की जगह देवी महत्वपूर्ण हो गई। शक्ति का यह पूर्व-रूप (पूरबी रूप) था जो आर्य संस्कृति के लिए अपूर्व (पहले न हुआ) था।

लेकिन महिषासुर और दुर्गा के मिथक हैं, वह क्या है? दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब तक हमने अभिजात ब्राह्मण नजरिये से ही इस पूरी कथा को देखा है। मुझे स्मरण है १९७१ में भारत-पाक युद्ध और बंगलादेश के निर्माण के बाद पूर्व प्रधानमंत्री और तत्कालीन जनसंघ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अभिनव चंडी दुर्गा कहा था। तब तक कम्युनिस्ट नेता डांगे सठियाए नहीं थे। उन्होंने इसका तीखा विरोध करते हुए कहा था कि 'अटल बिहारी नहीं जान रहे हैं कि वह क्या कह रहे हैं और श्रीमती गांधी नहीं जान रहीं हैं कि वह क्या सुन रही हैं। दोनों को यह जानना चाहिए कि चंडी दुर्गा दलित और पिछड़े तबकों की संहारक थी।` डांगे के वक्तव्य के बाद इंदिरा गांधी ने संसद में ही कहा था 'मैं केवल इंदिरा हूं और यही रहना चाहती हूं।`

महिषासुर और दुर्गा की कथा का शूद्र पाठ (और शायद शुद्ध भी) इस तरह है। महिष का मतलब भैंस होता है। महिषासुर यानी महिष का असुर। असुर मतलब सुर से अलग। सुर का मतलब देवता। देवता मतलब ब्राह्मण या सवर्ण। सुर कोई काम नहीं करते। असुर मतलब जो काम करते हों। आज के अर्थ में कर्मी। महिषासुर का अर्थ होगा भैंस पाले वाले लोग अर्थात भैंसपालक। दूध का धंधा करने वाला। ग्वाला। असुर से अहुर और फिर अहीर भी बन सकता है। महिषासुर यानी भैंसपालक बंग देश के वर्चस्व प्राप्त जन रहे होंगे। नस्ल होगा द्रविड़। आर्य संस्कृति के विरोधी भी रहे होंगे। आर्यों को इन्हें पराजित करना था। इन लोगों ने दुर्गा का इस्तेमाल किया। बंग देश में वेश्याएं दुर्गा को अपने कुल का बतलाती हैं। दुर्गा की प्रतिमा बनाने में आज भी वेश्या के घर से थोड़ी मिट्टी जरूर मंगाई जाती है। भैंसपालकों के नायक महिषासुर को मारने में दुर्गा को नौ रात लग गये। जिन ब्राह्मणों ने उन्हें भेजा था वे सांस रोक कर नौ रातों तक इंतजार करते रहे। यह कठिन साधना थी। बल नहीं तो छल। छल का बल। नौवीं रात को दुर्गा को सफलता मिल गयी, उसने महिषासुर का वध कर दिया। खबर मिलते ही आर्यों (ब्राह्मणों) में उत्साह की लहर दौड़ गयी। महिषासुर के लोगों पर वे टूट पड़े और उनके मुंड (मस्तक) काटकर ही उन्होंने एक नये तरह की माला बनायी। यही माला उन्होंने दुर्गा के गले में डाल दी। दुर्गा ने जो काम किया वह तो इंद्र ने भी नहीं किया था। पार्वती ने भी शिव को पटाया भर था, संहार नहीं किया था। दुर्गा ने तो अजूबा किया था। वह सबसे महत्वपूर्ण थीं। सबसे अधिक धन्या! शक्ति का साक्षात् अवतार ।

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