October 4, 2007

नामकरण के निहितार्थ


मध्यप्रदेश



  • एल एस हरदेनिया



मध्यप्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की सरकार विभिन्न योजनाओं के नामकरणों के माध्यम से प्रदेश को हिन्दू राज बनाने पर तुली है।
प्रदेश की अनेक सरकारी योजनाओं का नामाकरण हिन्दू कर्मकांडों के नाम पर किया गया है। जैसे एक कार्यक्रम का नाम 'जलाभिषेक` रखा गया है। जब आप किसी प्रशासनिक गतिविधि या कार्यक्रम का नाम हिन्दू धार्मिक प्रतीकों या गतिविधि के नाम से रखते तो यह नामकरण उन सभी लोगों को उस कार्यक्रम से अलग कर देता है जिनका धर्म 'हिन्दू` नहीं है। कोई मुसलमान या ईसाई और यहां तक कि सिख क्यों 'जलाभि ोक` के कार्यक्रम में भाग लेगा? 'अभिषेक` का रूढ़ अर्थ है मूर्त्तियों को जल से स्नान करवाना। इस्लाम मानने वालों के अलावा हमारे देश में अन्य धर्मावलंबी भी हैं जो मूर्ति पूजा में विश्वास नही करते। कथित 'अभिषेक` कार्यक्रम से उन हिन्दू दलितों को भी नहीं जोड़ा जा सकता, जिन्हें मंदिरों में ही प्रवेश करने नहीं दिया जाता, उनका 'अभिषेक` करने का तो सवाल ही कहां उठता है! अभी हाल में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी एक बयान जारी कर मध्यप्रदेश सरकार की इसलिए निन्दा की है कि उसने शिक्षा अभियान को उपनयन संस्कार का नाम दिया है। हिन्दू कर्मकांड में 'उपनयन संस्कार` का बहुत महत्व है। 'उपनयन` के पश्चात हिन्दू बालक जनेऊ पहनना आरंभ करते हैं। जनेऊ सिर्फ बालक पहनते हैं। बालिकायें नहीं। इस तरह शिक्षा संबंधी कार्यक्रम का नाम उपनयन रखकर बालिकाओं को प्रतिकात्मक रूप से दोयम दर्जे पर रखा गया है। उच्च जातियों वाले दलितों को जनेऊ नहीं पहनने देते हैं। सो दलितों को इस कार्यक्रम से भी नहीं जोड़ा जा सकेगा।

मध्यप्रदेश में सरकारी व्यय पर सामूहिक विवाह का कार्यक्रम किया जाता है। इस कार्यक्रम में विवाह के लिये प्रतिभोज ५ हजार रुपये दिये जाते हैं। साथ ही बर्तन आदि भी दिये जाते है। इसका नाम 'कन्यादान` रखा गया है। कन्यादान विवाह की एक हिन्दू प्रथा है। 'कन्यादान` का नाम देकर इसे भी महज हिन्दुओं तक सीमित कर दिया गया है।'कन्यादान` मुसलमानों, ईसाईयों और आदिवासियों में नहीं होता।

मध्यप्रदेश सरकार ने बालिकाओं के बीमा की एक योजना का नाम 'लाडली लक्ष्मी` रखा है। किसान दिवस को 'हलधर दिवस`, आदर्श गांवों को अयोध्या और गोकुल ग्राम कहा जा रहा है। यदि मध्यप्रदेश सरकार की यह समझ है कि सरकारी कार्यक्रमों को ऐसे नाम देकर वह हिन्दू समाज की एकता को मजबूत कर रही है तो यह भी उनका भ्रम है। हां यह है कि ऐसा करके सरकार उन तत्वों को प्रसन्न कर रही है जो हिन्दू समाज की एकता संकुचित विचारों व नारों के आधार पर हासिल करना चाहते हैं। शायद यही उसकी वास्तविक मंशा भी है।

१९४७ में आजाद होने के कुछ समय बाद तक अनेक अवसरों पर ऐसे कदम उठाये गये थे जिनसे धर्म को सत्ता से अलग रखा गया था। आजाद होने के बाद यह सोचा गया कि सोमनाथ मंदिर का पुनर्उद्धार किया जाय। इस काम के लिये सरकारी खजाने से व्यय करने का सुझाव आया। परन्तु प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इसकी इजाजत नहीं दी। नेहरू जी ने कहा कि सरकार के स्थान पर जनता के पैसों से यह काम किया जाय। मंदिर के पुर्ननिर्माण के बाद जो आयोजन किया गया उसमें रा ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को आमंत्रित किया गया। राजेन्द्र प्रसाद ने उस कार्यक्रम में शामिल होने की सहमति भी दे दी। यह बात जब नेहरू जी को पता लगी तो उन्होंने कहा कि भले ही रा ट्रपति उस कार्यक्रम में शामिल हों परन्तु कार्यक्रम का स्वरूप ाासकीय नहीं होगा।

इसी तरह जब रा ट्रपति राजेन्द्र बाबू ने एक स्थान पर ब्राह्मणों के पैर धोये तो उस पर डा. राममनोहर लोहिया समेत अनेक लोगों ने कड़ी आपत्ति जताई। डा. लोहिया ने कहा कि राजेन्द्र बाबू ने उन पैरों को धोया है जो सदियों से दलितों को रौंदते रहे हैं। आजाद भारत में नेहरू जी के जीवनकाल में अनेक ऐसे अवसर आये जब धर्म और राजसत्ता के अंतर को समाप्त करने का प्रयास किया गया। परन्तु नेहरू जी ने ऐसा नहीं होने दिया।

नेहरू जी के बाद इस धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञनिक सोच में क्षरण हुआ। प्रत्येक सरकारी निर्माण कार्य का प्रारंभ 'भूमिपूजन` से होने लगा। सरकारी दफ्तरों के परिसर में मंदिर बनने लगे। हिन्दू देवी देवताओं के चित्र लटकाये जाने लगे। शिक्षा संस्थाओं में 'सरस्वती पूजन` होने लगा। धीरे-धीरे अनेके सरकारी गतिविधियों का प्रतीकात्मक हिन्दूकरण प्रारंभ हो गया।
विडंबना ही है कि अब तो कथित धर्मनिरपेक्ष लोगों के बीच भी इन प्रतीकात्मात्मक नामकरणों, गतिविधियों पर चर्चा बंद हो गई है। दक्षिण-वाम-सामाजवादी-मंडलवादी सभी में इन सबके प्रति स्वीकार भाव व्याप्त हो गया है।

एल एस हरदेनिया भोपाल 'एकता फीचर एजेंसी` के संपादक हैं।

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