राजापाकर कांड में १० युवकों की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। कुरेरी जाति के इन घुमंतुओं का न कोई राजनीतिक दल है, न जातीय संगठन। वे मतदाता सूची तक से बाहर हैं। इस घटना के कुछ रोज पहले जब एक मुसलमान युवक को पुलिसवालों ने मोटरसाईकिल से बांधकर सड़क पर घसीटा था तो लालू प्रसाद व उनके राष्ट्रीय जनता दल ने जबरदस्त विरोध दर्ज किया था। लालू प्रसाद के लिए यह मानवाधिकार से अधिक वोट का मामला था। लेकिन राजापाकर के जघन्यतम नरसंहार के हत्यारे चूंकि उनकी ही जाति के थे इसलिए वह चुप्पी साधे रहे। एक जातीय संगठन ने हत्यारों के पक्ष में प्रदर्शन तक किया। इसी तरह जब बेलछी में एक पिछड़ी जाति के भूस्वामियों ने ११ दलितों को रस्सी से बांध कर जिन्दा जला दिया था तो उनके जाति संगठनों ने हत्यारों को छोड़ने की मांग की थी। उस समय इंदिरा गांधी नाटकीय ढंग से हाथी पर सवार होकर बेलछी आइंर् थीं तो यह उनकी भी वोट पॉलिटिक्स ही थी। इसके एवज में दलितों ने कांग्रेस का साथ भी दिया था। बेलछी (१९७७) और राजापाकर (२००७) के बीच के ३० वर्षों में उत्तर भारत में परवान चढ़ी 'सामाजिक न्याय` की राजनीति सत्ता समीकरणों में परिवर्तन की कवायद से आगे नहीं बढ़ सकी है। 'अन्याय का विरोध` उसके ऐजेंडे में नहीं है।
दलितों, मुसलमानों, विभिन्न पिछड़ी जातियों की आवाज उठाने वाले आज अनेक दल हैं। लेकिन विडंबना है कि जो समुदाय राजनीतिक सत्ता समीकरण बनाने-बिगाड़ने की हैसियत नहीं रखते, उनके प्रति ये दल पूरी तरह उदासीन रहते हैं। ऐसे अनेक समुदाय कम्युनिस्ट पार्टियों की सर्वहारा की परिभाषा से भी बाहर हैं, नक्सली कहे जाने वाले अति वामपांथियों का एजेंडा भी उन तक नहीं पहुंचता। राजापाकर कांड के पीछे सामाजिक-आर्थिक कारण और बर्बर होते समाज के संकेतों के साथ एक बड़ा सवाल यह भी है कि वर्तमान दलीय राजनीतिक व्यवस्था में ऐसे सामाजिक समूहों की नियति क्या है? -संपादक
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