October 30, 2007

भारतीय इतिहास लेखन मार्क्सवादी नहीं, राष्ट्रवादी है




सुधीर चंद्र उन इतिहासकारों में हैं जिन्होंने भारतीय इतिहास के अध्ययन को एक नयी दिशा दी है। 'जन विकल्प` के सहयोगी वसंत त्रिपाठी ने उनसे यह साक्षात्कार २००३ में किया था। तब दिल्ली में भाजपा सरकार थी। यह बातचीत आज भी प्रासंगिक है।


इतिहासकार सुधीर चन्द्र से वसंत त्रिपाठी की बातचीत


हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जिसमें इतिहास के अंत की घोषणा एवं इतिहास के पुनर्लेखन की मांग साथ-साथ है। बतौर इतिहासकार आप इस अंतर्विरोधी समय को किस रूप में लेते हैं?

सुधीर चंद्र : 'इतिहास के अंत` की बात मैं गंभीरतापूर्वक नहीं लेता हूं, हां इतिहास के पुनर्लेखन का मुद्दा, जाहिर है, आज की परिस्थिति में बहुत अहम् हो गया है, लेकिन यह भी कोई नया मुद्दा नहीं है। हर पीढ़ी अपना इतिहास नए सिरे से देखना और रचना चाहती है। आज जो परेशानी हो रही है वह यह है कि जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियां हमारे यहां व्याप्त हंै, जिस तरह से हिन्दुत्व जोर पकड़ रहा है और जो सरकार दिल्ली में है, वह कोशिश कर रही है कि एक ऐसा इतिहास लिखा जाए जो उनके नज़रिये को पुष्ट करे उसे मैं ज्यादा सीरियस और विकट मानता हूं। 'अंत` की बात छोड़ दीजिए, उसमें कोई जान नहीं है।

मुझे भरत झुनझुनवाला, जो मुक्त आर्थिक नीति और वर्ण-व्यवस्था के समर्थक हैं, का एक लेख याद आ रहा है जिसमें उन्होंने कहा है कि भारत का पूरा इतिहास-लेखन केवल मार्क्सवादी इतिहास लेखन है, इसलिए वह एकांगी है। क्या आप भी भारतीय इतिहास लेखन को केवल मार्क्सवादी इतिहास-लेखन मानते हैं या इतिहास की सही-समझ?

सुधीर चंद्र : मैं बहुत पढ़ा-लिखा आदमी नहीं हूं और 'कन्फेस` करूं कि मैंने भरत झुनझुनवाला का नाम पहली बार सुना है। लेकिन आपने जो वर्णन किया है वह खासा दिलचस्प है क्योंकि मुक्त आर्थिक नीति का हिमायती वर्ण-व्यवस्था का भी हिमायती हो यह तो भयंकर आंतरिक विरोध है। यह कौन-सी सोच है जो दुनिया की अर्थ-व्यवस्था के लिए तो फ्रीडम चाहती है लेकिन आपके अपने सामाजिक ढांचे की बात हो तो उसमंे किसी तरह की मुक्ति नहीं स्वीकारती। मुझे यहीं थोड़ा शक हो रहा है इन महोदय पर।
भरत झुनझुनवाला अपने लेखों में धर्म और वर्ण को आज के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण मानते हैं और फिर मुक्त आर्थिक नीति का भी समर्थन करते हैं।

सुधीर चंद्र : हां, लेकिन देखिए कि वर्ण-व्यवस्था क्या है? यही, कि जो जिस वर्ण मंे पैदा हुआ उसे उसी वर्ण में रहना है और जो मुक्त अर्थ-व्यवस्था है वह यह नहीं कहती है कि जो जिस वर्ग में पैदा हुआ है, उसी में रहेगा या जो जिस वर्ण में पैदा हुआ उसी में रहेगा।

लेकिन दोनों ही स्थितियों में हित तो लगभग एक ही वर्ग का होता है?

सुधीर चंद्र : कैसे?

मुक्त आर्थिक व्यवस्था को ही लें। इसमें यह कितनी संभावना बनती है कि एक मजदूर या एक किसान, एक बड़ा उद्योगपति बन जाए?

सुधीर चंद्र : मैं यही बात तो कह रहा हूं। मुझे जो विडंबना लग रही है, वह यही है कि मजदूर तो बड़ा-व्यापारी हो सकता है, बड़ा 'इंडस्ट्रीयलिस्ट` हो सकता है, शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकता। इसमें विडंबना तो है और इसमें जो विरोध है मैं उस विरोध की बात कर रहा हूं कि आप मुक्त आर्थिक व्यवस्था के हिमायती हैं तो यह केवल आर्थिक ही क्यों हो, सामाजिक क्यों न हो, राजनीतिक क्यों न हो। खैर, ये तो उनका फैसला है और आप भी तय कर सकते हैं कि दोनों में कोई अंतर्विरोध है या नहीं। लेकिन आपका जो मुख्य सवाल है कि इतिहास-लेखन पर सिर्फ मार्क्सवादी हावी रहे हैं, तो मेरी परेशानी दूसरी है। और वह यह है कि पिछले ६०-७० सालों से, अगर ज्यादा नहीं तो, (भारतीय इतिहास-लेखन) पर जो चीज हावी रही है, वह राष्ट्रवाद है। तो हमारा जो इतिहास-लेखन है, वह राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन रहा है। और एक अर्से से, जिन्हे हम मार्क्सवादी इतिहास लेखन मानते हैं, मसलन, मैं एक ही नाम लूंगा-विपिन चंद्र। चूंकि उनका काफी बड़ा नाम है, उनको मार्क्सवादी इतिहासकार माना जाता है। मैं अक्सर अपने से सवाल पूछता हूं और औरों से भी कि मार्क्सवादी इतिहासकार कौन होता है? वो जो घोषणा करे कि मेरी विचारधारा मार्क्सवादी है, कि मैं पार्टी का कार्ड-होल्डर हूं, और उनका इतिहास-लेखन सिर्फ इसलिए मार्क्सवादी इतिहास लेखन होगा कि वो कोई कार्ड-होल्डर है या उसने घोषणा की है कि वह मार्क्सवादी है या तब वह मार्क्सवादी इतिहासकार होगा जब वह मार्क्सवादी इतिहास-लेखन के सिद्धांतों को अपने इतिहास लेखन में लागू करेगा। यदि सिर्फ विपिन चंद्र की ही बात करें तो उनके 'राइज़ एण्ड ग्रोथ ऑफ इकोनोमिक नेशनलिज्म` में, जिसको लेकर उनका इतना नाम हुआ है और बाद का लेखन भी, उसमें वर्ग-संघर्ष है ही नहीं। हिन्दुस्तान में राष्ट्रवाद जिस तरह से पनपा और विकसित हुआ अगर आप उस राष्ट्रवाद में भारतीय समाज के निहित स्वार्थ की टकराहट नहीं देखते कि किस तरह से जमींदार या उद्योगपति या पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय तबके के निहित स्वार्थों को पूरा किया राष्ट्रवाद ने, या जो दलित, गरीब या दमित लोग हैं, उनके हितों की अनदेखी की राष्ट्रवाद ने, अगर इस बड़े वर्ग-संघर्ष को राष्ट्रवाद के आदर्श या राष्ट्रवाद की विचारधारा के नाम पर भुला दिया जाए तो मार्क्सवादी इतिहास-लेखन तो नहीं होगा। तो मेरी परेशानी यह है, और मेरी बड़ी आलोचना है भारतीय इतिहास-लेखन को लेकर कि वह प्राय: राष्ट्रवादी रहा है। मैं तो चाहता हूं कि मार्क्सवादी होता फिर उससे टकराहट होती। लेकिन कहां है मार्क्सवादी।

लेकिन यदि सुमित सरकार के इतिहास लेखन को लें, खास कर 'आधुनिक भारत` को, तो उसमें उन्होंने वर्ग-संघर्ष के बहुत प्रारंभिक स्वरूप को दिखाया है, क्या आप उन्हें भी राष्ट्रवादी इतिहासकार ही कहेंगे?

सुधीर चंद्र : आपकी बात सही है, सुमित सरकार ने वर्ग-संघर्ष को एक हद तक अपने इतिहास लेखन में लिया है लेकिन सुमित सरकार पर भी राष्ट्रवाद का आदर्श हावी है और सुमित सरकार जिस तरह से इस समय 'सबाल्टर्न हिस्टीरियोग्राफी` की आलोचना कर रहे हैं, वह इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। सबाल्टर्न हिस्टीरियोग्राफी ने एक बड़ा काम यह किया कि जिनको वे 'फ्रेंगमेंट्स` कहते हैं टुकड़े समाज के, आप टुकड़ों को महत्वपूर्ण मानें। ऐसा नही है कि समष्टि के नाम पर जो कुछ होता है वह अच्छा और सही होता है। सबार्ल्टन हिस्टीरियोग्राफी के ऊपर एक बड़ा चार्ज यह लगता है कि ये राष्ट्रवाद को नहीं मानते, इसलिए इनके इतिहास को गंभीरता से लिया जाए तो एक दिन देश के टुकड़े हो जाएंगे। मैं खुद सबाल्टर्न हिस्टीरियोग्राफी का सदस्य नहीं हूं अपना स्वतंत्र लेखन और शोध करता हूं लेकिन मुझे यह बहुत जरूरी लगता है कि राष्ट्रवाद की विचारधारा को लेखक 'क्वोश्चन` करना सीखे क्योंकि इतिहासकार का फलक दस या बीस साल का नहीं बल्कि सदियों का होता है और अगर सदियों का हिसाब लगाएं तो राष्ट्र आने-जाने वाली माया है। आज राष्ट्र है, कल होगा या नहीं इसका कोई भरोसा नहीं है। यदि हम यह मान लें कि यही एक इकाई है जिसके संदर्भ में हमें अपने समाज और देश के इतिहास को समझना है तो मेरे हिसाब से यह सही नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि देश के टुकड़े हो जाएं तो मुझे बड़ी खुशी होगी। ये तो, जो ऐतिहासिक शक्तियां हैं तथा हमारा नेतृत्व कितना विवेकपूर्ण है इस पर निर्भर करेगा। लेकिन यह मानकर न चलें कि ये शाश्वत है। कोई राष्ट्र न शाश्वत था और न शाश्वत होगा।

मुझे बहुवचन में छपा आपका एक लेख याद आ रहा है जिसमें आपने अपना धर्म परिर्वतन करने वाले कुछ ईसाइयों पर काम किया है। आपने उसमें बताया है आजादी के आंदोलन के समय धर्म और राष्ट्रवाद दो अलग-अलग कोटियां थीं। लेकिन इधर चलकर धर्म और राष्ट्रवाद एक कोटि बन गए हैं। इसकी क्या वजह है?

सुधीर चंद्र : धर्म और राष्ट्रवाद की बात है तो देखिये ये कितनी बड़ी विडंबना है कि हिन्दुत्व का जो प्रणेता था वह नास्तिक था और इसी विडंबना को आप आगे बढ़ाएं तो पाकिस्तान को बनाने में जिस एक व्यक्ति का सबसे ज्यादा योगदान था उसका भी इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं था तो क्या वास्तव में एक हो रहे हैं या कोई और ही खेल हो रहा है यहां धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर। अगर आप उनसे पूछें तो वह यह भी कह देंगें कि हम धर्म की बात नहीं कर रहे। तब वे हिन्दुस्तान को 'हिन्दुस्थान` कह कर एक नई व्याख्या कर देंगे। यानि सुविधानुसार कभी धर्म और राष्ट्र एक हो जाते हैं और कभी असुविधा होने पर अलग हो जाते हैं। लेकिन जिन नवधर्मी ईसाइयों की मैं बात कर रहा था, उसमें जो महत्वपूर्ण मुद्दा है वह न सिर्फ धर्म और राष्ट्र के अंतर्संबंध का है बल्कि धर्म और संस्कृति के संबंध का भी है। अपने देश में धर्म और संस्कृति कुछ इस तरह से अंतर्गुंफित है कि इसको अलग नहीं किया जा सकता, पैदा होने से लेकर मौत तक सभी क्रियाकलापों में आप इसे देख सकते हैं चाहे इसे आप सांस्कृतिक कहें, सामाजिक कहें या धार्मिक। तो जहां धर्म और संस्कृति बिल्कुल मिश्रित हो गए हों वहां इन नवधर्मियों ने एक बड़ी बात कही कि हम हिन्दूधर्म छोड़ रहे हैं लेकिन अपनी संस्कृति नहीं। धर्म और संस्कृति का इतना सोच समझ कर विच्छेद करने वाले ये पहले लोग थे और दूसरा महत्वपूर्ण काम इनका यह है कि इन्होंने धर्म और राष्ट्रवाद को भी इसी तरह से स्पष्ट किया कि जरूरी नहीं कि एक ही धर्म को मानने वाले लोग राष्ट्रवादी हो सकते हैं या जिसे आप विदेशी धर्म कहते हैं उसको मानने वाले लोग राष्ट्रवादी नहीं हो सकते। उन्होंने कहा कि हम भारतीय हैं, हम हिन्दू नहीं हैं, हम ईसाई हैं और राष्ट्रवाद के मामले में किसी भी भारतीय से पीछे नहीं हैं तो धर्म, संस्कृति और राष्ट्र के बीच एक नया संबंध स्थापित होता है, जिसकी पहल इन्होंने की।

कुछ इतिहासकारों ने अंग्रेजों के आने से पहले के भारत को एक सुदृढ़ भारत के रूप में देखा है। हो सकता है कुछ हद तक यह सही हो लेकिन वे भारत के तमाम अंतर्विरोधों को नकार देते हैं या चुप्पी साध लेते हैं। तो क्या वास्तव में अंग्रेजों के पहले का भारत सुदृढ़ भारत था या यह भी उन इतिहासकारों की राष्ट्रवादी सोच है?


सुधीर चंद्र : सुदृढ़ तो नहीं था। जब एक बार मुगल साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया तो क्षेत्रीय शक्तियां उभर कर आइंर् और उन क्षेत्रीय शक्तियों में कोई संतुलन नहीं बैठ पाया। संभव है कि उनमें संतुलन बैठता। ये भी संभव है कि उनमें से कोई एक शक्ति सर्वशक्तिमान होकर पूरे देश पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेती लेकिन इससे पहले ही विदेशी शक्तियों का आगमन हो गया और उन विदेशी शक्तियों में अंग्रेज सबसे शक्तिशाली साबित हुए और उन्होंने अपना राज कायम कर लिया। तो मैं सुदृढ़ होने की बात तो नहीं कहूंगा।

लेकिन उन इतिहासकारों के विश्लेषण में जाति को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है और कहा जाता है कि अंग्रेजों ने ही जाति लिखने की परंपरा डाली जिसके कारण जाति-संघर्ष बढ़े उनसे पहले यह विस्फोटक रूप में नहीं था..

सुधीर चंद्र : नहीं-नहीं.. मैं यह जानता हूं कि काफी लोगों का मानना है कि अंग्रेजों ने जिस तरह से क्लासिफिकेशन करना शुरू किया और खास तरह से जनगणना में जाति को महत्वपूर्ण स्थान देना शुरू किया.. यह भी कहा जाता है कि अंग्रेजों के आने के बाद ही लोगों ने जाति-सूचक नाम अपने नाम के साथ जोड़ना शुरू किया, उससे पहले नहीं जोड़े जाते थे.. इन सबके बावजूद मेरा मानना है कि जाति तो थी और खासी मज़बूत थी और इतनी मज़बूत थी कि तब आपको अपनी जाति का नाम लगाने की भी ज़रूरत महसूस नहीं होती थी। उसके बगैर भी लोग जान लेते थे कि कौन किस जाति का हैै। यह संभव है कि अंग्रेजों के आने के बाद यह प्रवृति थोड़ा जोर पकड़ी होगी।
यदि आधुनिक साहित्य को देखें तो वह वैदिक परंपरा के इतिहास और मिथक से जिस तत्परता से जुड़ जाता है उतना अवैदिक परंपरा के इतिहास और मिथक से नहींं। उसमें समस्याएं कौन-सी उठाई गई हैं यह थोड़ी देर के लिए छोड़ दें तो क्या इसके पीछे साहित्यकार के अवचेतन में वैदिक परंपरा की स्वीकारोक्ति तो नहीं है? क्योंकि आप जानते हैं कि दलित साहित्य की एक प्रमुख आपत्ति इसी को लेकर है।
इस विषय पर मैंने ज्यादा मनन नहीं किया है लेकिन मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है, खासकर तब जब आप इसे दलितों से जोड़ देते हैं और यह जायज है। मैं बस इतना इशारा करना चाहूंगा कि १९वीं सदी के जिन नवधर्मी ईसाइयों की बात मैं कर रहा था उन्होंने अपने अतीत (भारतीय अतीत) को जब नए सिरे से समझने की कोशिश की तो उसमें बौद्ध धर्म पर उनका बहुत बल था और साथ ही संत साहित्य पर भी बहुत बल था। मसलन बंगाल में, जहां यह सिलसिला शुरू हुआ, लाल बिहारी हैं, जो १८४० में ईसाई बने, ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण और सशक्त पत्रिका निकालनी शुरू कि 'बंगाल मैगजीन` और उन्होंने नए तरह से भारतीय इतिहास लेखन का प्रयास शुरू किया, स्वयं भी और दूसरों के मार्फत भी। उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य, इतिहास और दर्शन पर लोगों से अपनी पत्रिका के लिए लिखवाया। प्राचीन भारतीय धर्मों में दो बड़ी धाराएं इनके उस पुनर्लेखन में आई-एक बौद्ध धर्म और दूसरा चैतन्य। चैतन्य के बाबत तो इनके इतिहास में यह था कि चैतन्य ने हिन्दू धर्म के खिलाफ बगाव़त की थी, लेकिन चैतन्य के जो अनुयायी थे वे अंततोगत्वा 'को-ऑप्ट` हो गए और वे चैतन्य को भूल गए। मैं इस बात पर इसलिए बल दे रहा हूं उन्होंने बौद्ध और जैन से जो मुक्तिवाले तत्व मिल सकते थे उन्हें तो लिया ही, यदि हिन्दू धर्म में भी कुछ गुंजाइश दिखती थी तो उसे भी लेते थे। ये लगभग १९वीं सदी के अंतिम दशक तक दिखाई पड़ता है। उसके बाद हिन्दू धर्म और संस्कृति का ऐसा बोल-बाला हो जाता है कि यह धारा सूख जाती है। यह केवल नवधर्मी ईसाइयों तक ही सीमित नहीं रहा। उन्नीसवीं सदी के कुछ प्रखर, धार्मिक और सामाजिक सुधार से जुड़े सुधारकों ने भी संत परंपरा के कुछ रेडिकल रूप को उजागर करने की कोशिश की।

संत साहित्य की बात हो रही है तो एक बात और, जब साहित्यकार या आलोचक मिथकों को लेता है तो उसके सकारात्मक पक्षों की बात करता है, उसके अंतर्विरोधों की बात नहीं करता और यदि पाठक उसके अंतर्विरोधों को जान रहा हो तो उस पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। जैसे भक्तिकाल के रामानुजाचार्य को लें जिनको भक्तिकाल का प्रवर्तक माना जाता है। कहा जाता है कि रामानुज ने दक्षिण में जैनों के दमन में अग्रणी भूमिका निभाई। अब यदि पाठक रामानुज के इस रूप को जान रहा है तो वह भक्तिकाल या संत साहित्य से कैसे जुड़ सकेगा? यदि दलित को मालूम है कि उसके खिलाफ लड़ने वाले व्यक्ति को प्रोजेक्ट किया जा रहा है तो वह साहित्य की उस धारा से कैसे जुड़ सकेगा?


सुधीर चंद्र : देखिए जिसे मालूम है वह तो बड़ी आसानी से अलग हो जाएगा। लेकिन इसमें सिर्फ मालूमात का ही महत्व नहीं होता। आपने मिथकों की बात की, वह महत्वपूर्ण है। अक्सर इसमें लड़ाई किसी दूसरे स्तर की होती है। वहां यह नहीं है कि आप तथ्य का मुकाबला तथ्य से कर सकते हैं। फिर वह मिथक की बात नहीं होती। फिर आपकी मान्यता ज्यादा प्रभावशाली हो जाती है। अगर ये बात चल गई और एक ने भी चला दी और चूंकि यही सही कि उसको मान लिया जाए तो वह चला जाएगा और उसे चलना चाहिए।

इधर उपन्यासों में सीधे इतिहास को कथ्य बनाने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ रही है जैसे-'पहला गिरमिटिया`,'कितने पाकिस्तान` या और भी। यदि साहित्य में सीधे इतिहास को कथ्य बनाया जाए तो साहित्यकार को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?


सुधीर चंद्र : देखिए, मेरा मानना तो यह है कि जो साहित्य और इतिहास का वर्गीकरण होता है उसका कोई सबल आधार नहीं है। यह एक प्रोटोकॉल है। जैसे परंपरा चली आ रही है कि आप एक चीज़ को साहित्य कह देते हैं और दूसरे को इतिहास। विधाओं का यह जो वर्गीकरण है उसमें काफी मनन और चिंतन की गुंजाइश है। मैं तो चाहूंगा कि इतिहासकार ही साहित्यकार हो लेकिन अगर साहित्यकार इतिहास में जाता है तो उसे कुछ तो उससे भिन्न करना होगाा जो पारंपरिक रूप से इतिहासकार करते रहे हैं। मैं फिर से कहूं कि आदर्श स्थिति तो वह होगी जिसमें इतिहासकार और साहित्यकार मिलकर कुछ ऐसा करें कि वह काल अथवा वह व्यक्ति जीवन्त बनके मुखरित हो, जिसके बारे में आपने लिखने का फैसला किया है जिसे समझने का आपने फैसला किया है। तो 'पहला गिरमिटिया` यदि सिर्फ पारंपरिक इतिहास की पुस्तक बन कर रह जाती है तो उसे उपन्यास का नाम ही क्यों दिया जाए? फिर फर्क सिर्फ इतना हो जाता है कि गिरिराज जी पेशे से उपन्यासकार हैं और कोई दूसरा पेशे से इतिहासकार। तो जो बात मैं मार्क्सवादियों के इतिहास की कर रहा था वैसी ही बात हो गई कि यह उपन्यास कैसे हो गया? केवल इसलिए कि इसे लिखने वाला उपन्यासकार है। तो कहीं कोई फर्क आएगा और वह फर्क मैं इस तरह प्रकट करना चाहूंगा, अगर आपको आपत्ति न हो तो, कि इतिहासकार कुछ विवश हो जाता है अपने पेशे के प्रोटोकॉल के चक्कर में कि जो लोगों के असल नाम हैं, उनका इस्तेमाल करे। उपन्यासकार पर ऐसी कोई पाबन्दी नहीं रहती।

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