- दिलीप मंडल
पिछड़ा राजनीति में आ रहे बदलावों को समझने के लिए एक प्रतीक के रूप में लालू प्रसाद को देखा जा सकता है। उनके अपने रेल मंत्रालय की बात करें तो रेलवे की चर्चा अब लोक कल्याण, नई गाड़ियां चलाने, पुलों की मरम्मत, नई लाइनें बिछाने, रेलवे ट्रैक के बिजलीकरण जैसी बातों के लिए नहीं होती। रेलवे की चर्चा अब लाभ कमाने, डिविडेंड देने, रेलवे के कॉरपोरेटीकरण, पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप, रेलवे की जमीन बेचने, कैटरिंग के निजीकरण, माल ढुलाई में निजी कंपनियों की भूमिका, पिछले दरवाजे से टिकट महंगा करने जैसी बातों के लिए होती है। आज से लगभग तीन दशक पहले एक ब्राह्मण नेता मधु दंडवते रेल मंत्री बने थे। उन्होंने एक फैसला किया कि अब से सेकेंड क्लास की कोच में सीट पर दो इंच फोम होगा। उसके बाद से लकड़ी की सीटें बननी बंद हो गइंर्। और अब आपको शायद याद भी नहीं होगा कि तीन दशक पहले रेलवे का सफर करते समय हमारे साथ कई किलो का भारी भरकम होल्डॉल हुआ करता था। सेकेंड क्लास में सफर करने वालों की दुनिया बदल देने वाले मधु दंडवते ने सामाजिक न्याय किया था, या सामाजिक न्याय लालू कर रहे हैं, आप खुद ही तय कर लीजिए। मधु दंडवते ने ही कोंकण रेलवे की शुरुआत की थी, जिसका फायदा आज करोड़ों लोग उठा रहे हैं। लालू प्रसाद की पूरी कोशिश इन दिनों कॉरपोरेट जगत में लोकप्रिय होने की है। रेलवे की जमीन कॉरपोरेट सेक्टर को देकर और मालढुलाई के निजीकरण से वह अपना यह लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। लालू यादव का नया अवतार लालू यादव का जैंटिलमैन बनना तब नहीं हुआ था जब वह विदेश जाने के लिए सूट सिलवा रहे थे। उन्होंने ने नया अवतार पिछले कुछ साल में ग्रहण किया है। वह दरअसल अब सामाजिक न्याय तो नहीं ही कर रहे हैं, सामाजिक न्याय की राजनीति भी नहीं कर रहे हैं। यह बात बहुत लोगों को चौंका सकती है और वामपंथ की ओर झुके हुए दिल्ली-मुंबई के बुद्धिजीवियों को यह रहस्य आसानी से समझ में भी नहीं आएगा। लालू प्रसाद के भदेसपन और गंवई अंदाज को सामाजिक न्याय का दूसरा रूप मानने वालों को भी यह बात जरूर चौंकाएगी। लेकिन लालू-राबड़ी के लंबे शासनकाल में बिहार में सामाजिक न्याय के नाम पर जिस तरह विकासविरोध की राजनीति हुई, उसका असर अब लालू प्रसाद की राजनीति पर नजर आ रहा है। लालू प्रसाद के नारों की चमक अब बिहार में फीकी पड़ चुकी है। वह जब पहले चुटकुला कहते थे कि बिजली आने से भैंस को शॉक लग जाएगा, या सड़क बनी तो गाड़ियों की धूल आपको फांकनी होगी, तो लोग खूब मजा लेते थे। अब इन चुटकुलों पर बिहार में कोई नहीं हंसता। लालू प्रसाद अब बिहार में ऐसे चुटकुले कहते भी नहीं हैं। वह बिहार की हकीकत को बुद्धिजीवियों से बेहतर जानते हैं। बिहार में अब अगर उनकी वापसी होगी, तो उसका श्रेय लालू प्रसाद को कम और बिहार की सत्ता चलाने वालों पर ज्यादा होगा।
लेकिन लालू प्रसाद ने राजनीति में अपना टे्रैक क्यों बदला? क्या वह इसके खतरे से वाकिफ नहीं हैं? अगर वह सामाजिक न्याय की राजनीति नहीं करेंगे तो क्या उनकी हालत बिना पानी वाली मछली की तरह नहीं हो जाएगी? लालू प्रसाद जैसा चतुर नेता इन बातों से वाकिफ नहीं होगा, यह मानना तो सरासर बेवकूफी होगी। कहीं ऐसा करना लालू प्रसाद की मजबूरी तो नहीं है? शायद हां और शायद नहीं भी। ऐसा लगता है कि लालू प्रसाद पर चल रहे मुकदमों के असर से उनकी राजनीति बच नहीं पाई है। सीबीआई की कमान प्रधानमंत्री और प्रकारांतर में कांग्रेस के हाथ में होने की वजह से कांग्रेस के सामने आत्मसमर्पण करना उनकी मजबूरी है। इसलिए कांग्रेस विरोध के गर्भ से जन्म लेने वाला नेता आज केंद्र में कांग्रेस का सबसे खास सिपहसलार बना हुआ है। यह स्थिति लालू प्रसाद ने खुद अपने लिए चुनी है या वह स्थितियों के गुलाम हैं, कहना कठिन है। लेकिन दोनों स्थितियों में उनकी नेतृत्व क्षमता पर संदेह होता है। न्यायपालिका के खिलाफ लालू प्रसाद बोल नहीं सकते। वह तो बस यह कहते हैं कि जज देवता होता है। लेकिन ऐसे समय में जबकि न्यायपालिका सामाजिक न्याय के रास्ते में रोड़ा बन गई है तो न्यायपालिका का गुणगान करना उनकी अपनी राजनीति के लिए खतरनाक है। लेकिन उनके पास शायद इसके अलावा जो विकल्प है, उसके खतरे वह उठाना नहीं चाहते।
लालू प्रसाद की राजनीति अगर इसी रास्त पर चलती रही तो सामाजिक न्याय की ताकतें उनका साथ पूरी तरह छोड़ देंगी। मुलायम सिंह यादव भी ऐसे ही अलगाव के शिकार हो गए हैं। दलित उनसे पूरी तरह छिटक गए हैं और पिछड़ों का एक हिस्सा भी उनका साथ छोड़ चुका है। अब वह कभी राजपूत तो कभी ब्राह्मण सम्मेलन करते घूम रहे हैं। क्या लालू प्रसाद भी इसी रास्ते पर चलने की कोशिश करेंगे? बिहार में यादव-सवर्ण और मुसलमानों के एक हिस्से को जोड़कर वह राजनीति चलाने की कोशिश कर सकते हैं।
ब्राह्मणवादी ताकतों को खुश करने का कोई मौका लालू प्रसाद इन दिनों छोड़ते नहीं हैं। तीर्थ यात्राएं करने से लेकर पूजा पाठ का वह जिस तरह सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे हैं वह उनकी बदलती राजनीति को दिखा रहा है। बीजेपी विरोध उनके लिए सिद्धांत का नहीं, राजनीति का मामला है। मुसलामन वोट की चिंता न हो, या यह तय हो जाए कि ये वोट उन्हें नहीं मिलेगा तो लालू प्रसाद की राजनीति एक और करवट ले सकती है।
अवसान का समय
वास्तव में, १९६० के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। यह धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, जनता दल (यू), इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी आदि समूहों में खंड-खंड हो चुकी है। गैर-कांगे्रसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े-टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से खंड-खंड ही रही है। बुरी बात यह है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका कितना है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा दोष क्या व्यक्तियों का है? उत्तर भारत के पिछड़े नेता इस मामले में अपने पाप से मुक्त नहीं हो सकते हैं, लेकिन राजनीति की इस महत्वपूर्ण धारा के अन्त के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी जिम्मेदार हैं।
दरअसल जिसे हम पिछड़ा या गैर-द्विज राजनीति मानते या कहते हैं, वह तमाम पिछड़ी जातियों को समेटने वाली धारा कभी नहीं रही है। इस राजनीति का नेतृत्व हमेशा ही पिछड़ों में से अगड़ी जातियों ने किया है। कर्पूरी ठाकुर जैसे चंद प्रतीकात्मक अपवादों को छोड़ दें तो इस राजनीति के शिखर पर आपको हमेशा कोई यादव, कोई कुर्मी या कोयरी, कोई जाट, कोई लोध ही नजर आएगा। दरअसल पिछड़ा राजनीति एक ऐसी धारा है जिसका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के बाद पिछड़ी जातियों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही थी। अब जबकि इन जातियों के राजनीतिक सशक्तिकरण का काम लगभग पूरा हो चुका है, तो इन जातियों में मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की न ऊर्जा है, न इच्छा और न जरूरत। इस मामले में पिछड़ा राजनीति अब यथास्थिति की समर्थक ताकत है। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि दलित उत्पीड़न से लेकर मुसलमानों के खिलाफ दंगों में पिछड़ी जातियां बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती दिखती हैं। ऐसा गुजरात में हुआ है, उत्तर प्रदेश में हुआ है और बिहार से लेकर हरियाणा और मध्यप्रदेश तक में आपको ऐसे मामले दिख जाएंगे। अब तो पिछड़ा राजनीति के नेता भाजपायी अंदाज में रामभक्ति भी कर रहे हैं। सेतुसमुद्रम् मामले में नीतीश और लालू प्रसाद ने जो रूख अपनाया, वह हैरान करने वाला है।
१९९० का पूरा दशक उत्तर भारत में पिछड़े नेताओं के वर्चस्व के कारण याद रखा जाएगा। मुलायमसिंह यादव, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, शरद यादव, देवीलाल (दिवंगत), ओमप्रकाश चौटाला, कल्याण सिंह, उमा भारती, अजित सिंह जैसे नेता पूरे दशक और आगे-पीछे के कुछ वर्षों में राजनीति के शिखर पर चमकते रहे हैं। इस दौरान खासकर प्रशासन में और सरकारी ठेके और सप्लाई से लेकर ट्रांसफर पोस्टिंग में इन जातियों के अफसरों को अच्छी और मालदार जगहों पर रखा गया। विकास के लिए ब्लॉक से लेकर पंचायत तक पहुंचने वाले विकास के पैसे की लूट में अब इन जातियों के प्रभावशाली लोग पूरा हिस्सा ले रहे हैं। लेकिन इन जातियों के प्रभावशाली होने में एक बड़ी कमी रह गई है। वो यह कि शिक्षा के मामले में इन जातियों और उनके नेताओं ने आम तौर पर कोई काम नहीं किया है। इस मामले में उत्तर भारत की पिछड़ा राजनीति, दक्षिण भारत या महाराष्ट्र की पिछड़ा राजनीति से दरिद्र साबित हुई है।
विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और यह सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा साफ नजर आती है। इसका असर आपको पिछले साल चले आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान दिखा होगा। अपनी सीटें कम होने की चिंता को लेकर जब सवर्ण छात्र सड़कों पर थे और एम्स जैसे संस्थान तक को बंद करा दिया गया, तब भी पिछड़ी जाति के छात्रों में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। जब सरकार ने आंदोलन के दबाव में ओबीसी रिजर्वेशन को संस्थानों में सीटें बढ़ाने से जोड़ दिया और फिर आरक्षण को तीन साल की किस्तों में लागू करने की घोषणा की, तब भी पिछड़ी जाति के नेताओं से लेकर छात्रों तक में कोई प्रतिक्रिया होती नहीं दिखी। और फिर जब अदालत में सरकार ओबीसी आरक्षण का बचाव नहीं कर पाई और आरक्षण का लागू होना टल गया, तब भी पिछड़ों के खेमे में खामोशी ही रही।
इसकी वजह शायद यह भी है कि पिछड़ी जातियों में कामयाबी के ज्यादातर मॉडल शिक्षा में कामयाबी हासिल करने वाले नहीं हैं। पिछड़ी जातियों में समृद्धि के जो मॉडल आपको दिखेंगे उनमें ज्यादातर ने जमीन बेचकर, ठेकेदारी करके, सप्लायर्स बनकर, नेतागिरी करके, या फिर कारोबार करके कामयाबी हासिल की है। दो तीन दशक तक तो यह मॉडल सफल साबित हुआ लेकिन अब समय तेजी से बदला है। नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों के लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स़ किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़गा।
नई संभावनाओं की जमीन
ऐसे में उम्मीद की किरण कहां है? इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए आपको इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि समाज में बदलाव की जरूरत किसे है। उत्तर भारतीय समाज को देखें तो उम्मीद की रोशनी आपको हिन्दू दलित, महादलित, अति पिछड़ी जातियों, घुमंतू-विमुक्त, और पिछड़े-दलित मुसलमानों के बीच नजर आएगी। भारतीय लोकतंत्र में ये समुदाय अब भी वंचित हैं। यथास्थिति उनके हितों के खिलाफ है। संख्या के हिसाब से भी ये बहुत बड़े समूह हैं और चुनाव नतीजों के प्रभावित करने की इनकी क्षमता भी है। वैसे जाति और मजहबी पहचान की राजनीति की बात करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आने वाले समय में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज होने के साथ शायद आदिम पहचान के दम पर चल रहे भारतीय लोकतंत्र का चेहरा भी बदलेगा। वैसे भी लोकतंत्र जैसी आधुनिक शासन व्यवस्था का जाति और कबीलाई पहचान के साथ तालमेल स्वाभाविक नहीं है।
पत्रकार दिलीप मंडल समाचार चैनल सीएनबीसी से जुड़े हैं।
Spicy and Interesting Story of रामचरितमानस Shared by You. Thank You For Sharing.
ReplyDeletePyar Ki Kahani in Hindi