October 30, 2007

प्रतिक्रिया


जन विकल्प के सितंबर अंक में लक्ष्मण माने का लेख 'मैं बौद्ध धर्म की ओर क्यों मुड़ा` बहुत अच्छा लगा। लेखक ने ठीक ही कहा है कि धुमंतू जातियां अपनी जीवन शैली के कारण मूल रूप से बौद्ध हैं। उन्होंने बताया है कि घुमंतू जातियों में मूर्ति पूजा नहीं होती, भोजन तक का समान बंटवारा होता है तथा स्त्रियां वहां स्वतंत्र हैं। वे स्वेच्छा से तलाक ले सकती हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी बताया है कि हिन्दू चर्तुवर्ण व्यवस्था में उनका कोई स्थान नहीं है और उनकी परंपराएं उन्हें बौद्ध धर्म के निकट लाती हैं ।
-अमर यादव, कुम्हरार, पटना

अगस्त अंक मिला। यह अंक कई मामले में मुझे महत्वपूर्ण लगा। विशेषकर दो लेख-'आज के तुलसीगण` एवं 'व्यवस्था बहुत कम शब्दों को जानती है`। हिन्दी के साथ बुरा यह हुआ कि हमने अपने विचलनों पर ईमानदारी से बात नहीं की। विचलन या राष्ट्रीय आंकाक्षाओं और व्यक्तित्व की सीमाओं के बीच के अंतर्विरोधों पर जब जानते बूझते चुप्पी साध ली जाती है तब ऐतिहासिक काल क्रम में उठने वाली प्रतिक्रियाएं कटु होती हैं। आजादी तक जहां राष्ट्रवाद अन्य समस्याओं पर चुप्पी साधे रहा वहीं आजादी के बाद निर्माण की राजनीति ने समाज को मुग्धता से बाहर आने नहीं दिया। आप ऐसे अंतर्विरोधों पर खुली बहस चलाएं। परंपरा पर पुनर्विचार करना आज की जरूरत है। इसे आप पूरे आधुनिक साहित्य तक ले जाएं। इस बार कश्मीर पर भी अच्छी सामग्री है।
-बसंत त्रिपाठी, नागपुर

जन विकल्प के अगस्त अंक में कविता-विषयक आपकी टिप्पणी खरी लगी।
-ज्ञानेन्द्रपति, वाराणसी

इस ८वें अंक में संपादकीय, 'माइकथेवर को जानना जरूरी है`, 'व्यवस्था बहुत कम शब्दों को जानती है` आदि सभी ध्यातव्य हंै पर मैं यहां 'शिक्षा की जाति` पर आपका ध्यान अकृष्ट करना चाहता हूं। एम्स में सामंती मानसिकता से ग्रस्त छात्रों को दलितों के साथ उत्कट भेदभाव के साथ-साथ लेखक 'बैठा` और 'अत्रि` जी को पटना के मेडिकल और दूसरे कॉलेजों के हॉस्टल में क्या हो रहा है, यह भी देखना चाहिए। वहां ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, यादव, कुर्मी.. कितने-कितने 'मेस` चलाते हैं। दिनदहाड़े सब के सामने। मजाल है, कोई गैर विरादरी का व्यक्ति यूं ही घुस जाय। दरअसल जातिवाद जैसी व्याधि पर हम कभी सच्चे मन से सीरियस नहीं हुए। क्या दिल्ली, क्या पटना, क्या बनारस! कहने को सभी कहते हैं कि यह गलत है मगर इसके विनाश के लिए पहल करने के सवाल पर बगलें झांकने लगते हैं। विज्ञान इस कालिमा को दूर करने का साधन बन सकता था पर भाई लोगों ने विज्ञान को भी अपनी बात मनवाने का साधन बना लिया। असल जब्बर है जातिवाद।
-संजीव, कार्यकारी संपादक,'हंस`,दिल्ली।

मैंने २४वें पटना पुस्तक मेला में अरुण कमलजी को अपना प्रिय कवि कहा था लेकिन अब यह जाना कि जो समाज (दलित और पिछड़ा) भारतवर्ष का मूल निवासी एवं बहुसंख्यक है, उसी समाज को उन्होंने भुक्खड़ एवं कुत्ता कहकर संबोधित किया है। वंचितों को आवाज देने वाले सामाजिक न्याय के नायक लालूप्रसाद यादव को जोकर, अजूबा एवं महामूर्ख कहने वाले और उनकी मौत पीब और पेशाब में डूबकर होने की कामना करने वाले यह कवि मेरे प्रिय कवि कदापि नहीं हो सकते।
-डा.राजमणि, वेटनरी कॉलेज, पटना

सासाराम रानीखोत आदि से कई साहित्यजनों की सूचना पर 'जन विकल्प` खरीदना और पढ़ना शुरू किया। 'समयांतर`, 'फिलहाल` तरह की यह तीसरी अच्छी पत्रिका प्रतीत हुई।
-वाचस्पति, बनारस

स्वतंत्रता दिवस के पहले आपने काफी अच्छा संपादकीय लिखा है। हम लोगों ने उस संपादकीय पर चर्चा की और मेरे एक दोस्त ने उसे ब्लॉग पर डाल दिया है। बहुत बढ़िया अंक आ रहे हैं।
-अनामिल, वर्धा

भाई प्रमोद रंजन ने इस नये अंक में जो विश्लेषण किया है वह कई मित्रों को अखरेगा जरूर, लेकिन इसमें भी दो राय नहीं कि उनके तर्क बेजोड़ हैं। उनके बेबाक और नए तरह की विश्लेषण-क्षमता लोहा बहुत से मित्र मानेंगे।
-उदभ्रांत, दिल्ली।

आजादी को लेकर संपादकीय में आपने बहुत ज्वलंत विचारोत्तेजक प्रश्न उठाए हैं। मेरा विषय भी 'विभाजन` है। देश विभाजन पर उपन्यास 'टूटी हुई जमीन` भी छपवाया था। आजादी पर नेहरू जी का भाषण बाल्य अवस्था में मैंने भी रेडियो से सुना था फिर मार खाते-सहते हुए जान बचाकर आ कर लंबी सांसंे खींची थी लोगों के ईद-गिर्द बैठकर खाना खाया था। वह दिन हमारे लिये कहां की खुशियां लाया था? कुछ लोग इसे शोक दिवस कहते हैं, लंबी दास्तां है।
-हरदर्शन सहगल, बीकानेर

इतनी सादगी के साथ ऐसी श्रेष्ठ सामग्री का संयोजन प्रस्तुतीकरण अद्भुत है। फिर, एक भी विज्ञापन नहीं। किसी बाजीगर को आसमान में तनी रस्सी पर चलता देखकर उसके कौशल पर जितना विस्मय होता है, आप उससे भी अधिक चमत्कृत कर रहे हैं। अंक में राजूरंजन प्रसाद का आलेख 'व्यवस्था बहुत कम शब्दों को जानती है` अत्यन्त प्रभावशाली है। चरित्र का दोहरापन लेखकों (और शायद सभी बुद्धिजीवियों) की ऐसी कमजोरी है जो लिखे हुए को वह काम करने नहीं देती जो उसे करना चाहिये। गुड़ खाने वाले गुलगुले खाने से बचने की सीख देंगे तो कौन सुनेगा उसे?
-भगवान अटलानी, जयपुर

जन विकल्प के आठवें अंक के संपादकीय में आपने भारत के इतिहास पर नये सिरे से विचार करने की बात कहकर कई तरह के सामाजिक-आर्थिक प्रश्नों को पुन: केन्द्र में लाने की पहल की है। माइक थेवर के बारे में जानकारी मेरे लिए नई है। मैं नहीं जानता और भी कितने पाठक उन्हें जानते हंै। सचमुच ये वे लोग हैं जो चुपचाप अपने काम से उन भ्रामक आशंकाओं की जड़ खोद रहे हैं जिन्हें अभिजात वर्ग जी-जान से पनपाने में मशगूल है। प्रमोद रंजन और राजूरंजन प्रसाद ने जिस तरह से अरूण कमल और आलोक धन्वा के दुहरे व्यक्तित्व से पर्दा उठाया है उसके लिये वे बधाई के पात्र हैं। परन्तु बन्धुवर ऐसे कवि-व्यक्तिव तो हिन्दी में अनेक हैं और लोग उनकी असलियत जानते भी हैं। फिर भी जैसे-तैसे अपनी प्रतिष्ठा बनाए बचाए हुए हैं और पुरस्कार, सम्मान की दौड़ में सबसे आगे हैं।
-सुरेश पंडित, अलवर

प्रमोद रंजन और राजूरंजन प्रसाद का आलेख वृहत्तर विमर्श की संभावना की ओर संकेत है। क्रांतिकारी साथियों का चरित्र हमें उस परिवेश पर सोचने के लिए बाध्य कर रहा है कि कैसे सामाजिक परिवर्तन के राही हाने का दावा करने वाले लोग 'भूमिहार` और 'ब्राह्मण` हो गए हैं। क्रांतिकारी कहे जाने वाले एक राजनीतिक दल के पटना कार्यालय में भूमिहार क्रांतिकारियों और यादव क्रांतिकारियों को अलग-अलग बैठे देखना इस बात का संकेत है कि अब सब कुछ खुल कर कहे जाने की जरूरत है।
-सत्येन्द्र कुमार, पथरी घाट, पटना

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