October 30, 2007

राम-कथा के विविध रूप

दूसरा पहलू

राष्ट्रकवि का विरुद पाये दिनकरजी का यह गद्यांश हमने उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय` से लिया है। शीर्षक हमारा है। दिनकरजी न केवल कवि थे, बल्कि एक गंभीर संस्कृति-चिंतक भी थे। राम कथा पर उनका यह लेख कई जरूरी पहलुओं को सामने लाता है। २००७ दिनकरजी की जन्मशती का भी वर्ष है।-सं

  • रामधारीसिंह दिनकर

राम-कथा का मूल स्रोत क्या है तथा यह कथा कितनी पुरानी है, इस प्रश्न का सम्यक् समाधान अभी नहीं हो पाया है। इतना सत्य है कि बुद्ध और महावीर के समय जनता में राम के प्रति अत्यन्त आदर का भाव था, जिसका प्रमाण यह है कि जातकों के अनुसार, बुद्ध अपने पूर्व जन्म में एक बार राम होकर भी जनमे थे और जैन-ग्रन्थों में तिरसठ महापुरुषों में राम और लक्ष्मण की भी गिनती की जाती थी। इससे यह अनुमान भी निकलता है कि राम, बुद्ध और महावीर, दोनों के बहुत पहले से ही समाज में आदृत रहे होंगे। विचित्रता की बात यह है कि वेद में राम-कथा के अनेक पात्रों का उल्लेख है। इक्ष्वाकु, दशरथ, राम, अश्वपति, कैकेयी, जनक और सीता, इनके नाम वेद और वैदिक साहित्य में अनेक बार आये हैं, किन्तु, विद्वानों ने अब तक यह स्वीकार नहीं किया है कि ये नाम, सचमुच, राम-कथा के पात्रों के ही नाम हैं। विशेषत: वैदिक सीता के सम्बन्ध में यह समझा जाता है कि यह शब्द लांगल-पद्धति (खेत में हल से बनायी हुई रेखा) का पर्याय है, इसीलिए, उसे इन्द्र-पत्नी और पर्जन्य-पत्नी भी कहते हैं। सीता खेत की सिरोर (हल-रेखा) का नाम था, इसका समर्थन महाभारत से भी होता है, जहां द्रोणपर्व जयद्रथ-वध के अन्तर्गत ध्वजवर्णन नामक अध्याय में (७.१०४) कृषि की अधिष्ठात्री देवी, सब चीजों को उत्पन्न करने वाली सीता का उल्लेख हुआ है। हरिवंश के भी द्वितीय भाग में दुर्गा की एक लम्बी स्तुति में कहा गया है कि 'तू कृषकों के लिए सीता है तथा प्राणियों के लिए धरणी` (कर्षुकानां च सीतेति भूतानां धरणीति च)। इससे पंडितों ने यह अनुमान लगाया है कि राम-कथा की उत्पत्ति के पूर्व ही, सीता कृषि की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वैदिक साहित्य में पूजित हो चुकी थीं। पीछे, जब अयोनिजा, सीता की कल्पना की जाने लगी, तब उस पर वैदिक सीता का प्रभाव, स्वाभाविक रूप से, पड़ गया।

राम-कथा का उद्गम खोजते-खोजते पंडितों ने एक अनुमान लगाया है कि वेद में जो सीता कृषि की अधिष्ठात्री देवी थीं, वे ही, बाद में, आयोनिजा कन्या बन गयीं, जिन्हें जनक ने हल चलाते हुए खेत में पाया। राम के सम्बन्ध में इन पंडितों का यह मत है कि वेद में जो इन्द्र नाम से पूजित था, वही व्यक्तित्व, कालक्रम में, विकसित होकर राम बन गया। इन्द्र की सबसे बड़ी वीरता यह थी कि उसने वृत्रासुर को पराजित किया था। राम-कथा में यही वृत्रासुर रावण बन गया है। ऋग्वेद (मंडल १, सूक्त ६) में जो कथा आयी है कि पंडितों ने गायों को छिपा कर गुफा में बन्द कर दिया था और इन्द्र ने उन गायों को छुड़ाया, उससे पंडितों ने यह अनुमान लगाया है कि यही कथा विकसित होकर राम-कथा में सीता-हरण का प्रकरण बन गयी।

किन्तु, ये सारे अनुमान, अन्तत:, अनुमान ही हैं और उनसे न तो किसी आधार की पुष्टि होती है, न किसी समस्या का समाधान ही। राम-कथा के जिन पात्रों के नाम वेद में मिलते हैं, वे निश्चित रूप से, राम-कथा के पात्र हैं या नहीं इस विषय में सन्देह रखते हुए भी यह मानने में कोई बडी बाधा नहीं दीखती कि राम-कथा ऐतिहासिक घटना पर आधारित है। अयोध्या, चित्रकूट, पंचवटी, रामेश्वरम्, अनन्त काल से राम-कथा से सम्पृक्त माने जाते रहे हैं। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि दाशरथि राम, सचमुच, जनमे थे और उनके चरित्र पर ही वाल्मीकि ने अपनी रामायण बनायी? इस सम्भावना का खण्डन यह कहने से भी नहीं होता कि वाल्मीकि ने आदि रामायण में केवल अयोध्या-काण्ड से युद्ध-काण्ड तक की ही कथा लिखी थी; बाल-काण्ड और उत्तर-काण्ड बाद में अन्य कवियों ने मिलाये।

अनेक बार पंडितों ने यह सिद्ध करना चाहा कि रामायण बुद्ध के बाद रची गयी और वह महाभारत से भी बाद की है। किन्तु, इससे समस्याओं का समाधान नहीं होता। भारतीय परम्परा, एक स्वर से, वाल्मीकि को आदि कवि मानती आयी है और यहां के लोगों का विश्वास है कि रामवतार त्रेता युग में हुआ था। इस मान्यता की पुष्टि इस बात से होती है कि महाभारत में रामायण की कथा आती है, किन्तु, रामायण में महाभारत के किसी भी पात्र का उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार, बौद्ध ग्रन्थ तो राम-कथा का उल्लेख करते हैं, किन्तु, रामायण में बुद्ध का उल्लेख नहीं है। रामायण के एक संस्करण में जावालि-वृत्तान्त के अन्तर्गत बुद्ध का जो उल्लेख मिलता है (यथा हि चौर: स तथा हि बुद्ध:) उसे अनेक पंडितों ने क्षेपक माना है। यह भी कहा जाता है कि सीता का हिंसा के विरुद्ध भाषण तथा राम के शांत और कोमल स्वभाव की कल्पना के पीछे 'किंचित् बौद्ध प्रभाव` है। किन्तु, यह केवल अनुमान की बात है। अहिंसा की कल्पना बुद्ध से बहुत पहले की चीज है। उसका मूल भारत को प्राग्वैदिक संस्कृति में रहा होगा। बुद्ध ने सिर्फ उस पर जोर दिया है। बुद्ध के पहले के हिन्दुत्व में ऐसी कोई बात नहीं थी जो रामायण के वातावरण के विरुद्ध हो। रामायण प्राग्-बौद्ध काव्य है, इस निष्कर्ष से भागा नहीं जा सकता।

राम-कथा की व्यापकता

रामायण और महाभारत भारतीय जाति के दो महाकाव्य हैं। महाकाव्यों की रचना तब सम्भव होती है, जब संस्कृतियों की विशाल धाराएं किसी संगम पर मिल रही हों। भारत में संस्कृति-समन्वय की जो प्रक्रिया चल रही थी, ये दोनों काव्य उसकी अभिव्यक्ति करते हैंं। रामायण में इस प्रक्रिया के पहले सोपान हैं और महाभारत में उसके बाद-वाले। रामायण की रचना तीन कथाओं को लेकर पूर्ण हुई। पहली कथा तो अयोध्या के राजमहल की है, जो पूर्वी भारत में प्रचलित रही होगी; दूसरी रावण की जो दक्षिण में प्रचलित रही होगी; और तीसरी किष्किन्धा वानरों की, जो वन्य जातियों में प्रचलित रही होगी। आदि कवि ने तीनों को जोड़कर रामायण की रचना की। किन्तु, उससे भी अधिक सम्भव यह है कि राम, सचमुच ही, ऐतिहासिक पुरुष थे और, सचमुच ही, उन्होंने किसी वानर-जाति की सहायता से लंका पर विजय पायी थी। हाल से यह अनुमान भी चलने लगा है कि हनुमान नाम एक द्रविड़ शब्द 'आणमन्दि` से निकला है, जिसका अर्थ 'नर-कपि` होता है। यहां फिर यह बात उल्लेखनीय हो जाती है कि ऋगवेद में भी 'वृषाकपि` का नाम आया हैं वानरों और राक्षसों के विषय में भी अब यह अनुमान, प्राय: ग्राह्य हो चला है कि ये लोग प्राचीन विन्ध्य-प्रदेश और दक्षिण भारत की आदिवासी आर्येतर जातियों के सदस्य थे; या तो उनके मुख वानरों के समान थे, जिससे उनका नाम वानर पड़ गया अथवा उनकी ध्वजाओं पर वानरों और भालुओं के निशान रहे होंगे।

रामायण में जो तीन कथाएं हैं, उनके नायक क्रमश: राम, रावण और हनुमान, हैं, और ये तीन चरित्र तीन संस्कृतियों के प्रतीक हैं, जिनका समन्वय और तिरोधान वाल्मीकि ने एक ही काव्य में दिखाया है। सम्भव है, यह बात सच हो कि 'राम, रावण और हनुमान के विषय में पहले स्वतंत्र आख्यान-काव्य प्रचलित थे और इसके संयोग से रामायण काव्य की उत्पत्ति हुई है। जिस प्रकार, आर्य और आर्येतर जातियों के धार्मिक-संस्कारों से शैव धर्म की उत्पत्ति हुई, उसी प्रकार, वैष्णव धर्म की रामााश्रयी शाखा में भी आर्येतर जातियों के योगदान हैं।

रामावतार

कृष्णाश्रयी वैष्णव धर्म की विशेषता यह थी कि उसमें कृष्ण विष्णु पहले माने गये एवं उनके सम्बन्ध की कथाओं का विस्तृत विकास बाद में हुआ। राम-मत के विषय में यह बात है कि राम-कथा का विकास और प्रसार पहले हुआ, राम विष्णु का अवतार बाद में माने गये। भंडारकर साहब ने तो यहां तक घोषणा कर दी थी कि विष्णु के अवतार के रूप में राम का ग्रहण ग्यारहवीं सदी में आकर हुआ। किन्तु, अब यह मत खंडित हो गया है। अब अधिक विद्वान यह मानते हैं कि ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व वासुदेव कृष्ण विष्णु के अवतार माने जाने लगे थे और उनके अवतार होने की बात चलने के बाद, बाकी अवतार भी विष्णु के ही अवतार माने जाने लगे; तथा उन्हीं दिनों राम का अवतार होना भी प्रचलित हो गया। वैसे अवतारवाद की भावना ब्राह्मण-ग्रन्थों में ही उदित हुई थी। शतपथ-ब्राह्मण में लिखा है कि प्रजापति ने (विष्णु ने नहीं) मत्स्य, कूर्म और वराह का अवतार लिया था। तैत्तिरीय-ब्राह्मण में भी प्रजापति के वराह रूप धरने की कथा है। बाद में, जब विष्णु की श्रेष्ठता सिद्ध हो गयी, तब मत्स्य, कूर्म और वराह, ये सभी अवतार उन्हीं के माने जाने लगे। केवल वामनावतार के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि वामन, आरम्भ से ही, विष्णु के अवतार माने जाते रहे हैं। वामन के त्रिविक्रम रूप का उल्लेख ऋग्वेद के प्रथम मण्डल द्वितीय अध्याय के बारहवें सूक्त में है।


राम-कथा के विकास पर रेवरेण्ड फादर कामिल बुल्के ने जो विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित किया है, उसके अनुसार वेद में रामकथा-विषयक पात्रों के सारे उल्लेख स्फुट और स्वतंत्र हैं। रामकथा-सम्बन्धी आख्यान-काव्यों की वास्तविक रचना वैदिक काल के बाद, इक्ष्वाकु-वंश के राजाओं के सूतों ने आरंभ की। इन्हीं आख्यान-काव्यों के आधार पर वाल्मीकि ने आदि-रामायण की रचना की। इस रामायण में अयोध्या-काण्ड से लेकर युद्ध-काण्ड तक की ही कथावस्तु का वर्णन था और उसमें सिर्फ बारह हजार श्लोक थे। किन्तु, इस रामायण का समाज में बहुत प्रचार था। कुशी-लव उसका गान करके और उसके अभिनेता उसका अभिनय दिखाकर अपनी जीविका कमाते थे। काव्योपजीवी कुशी-लव अपने श्रोताओं की रुचि का ध्यान रखकर रामायण के लोकप्रिय अंश को बढ़ाते भी थे। इस प्रकार, आदि-रामायण का कलेवर बढ़ने लगा। ज्यों-ज्यों राम-कथा का यह मूल-रूप लोकप्रिय होता गया, त्यों-त्यों, जनता को यह जिज्ञासा होने लगी कि राम कैसे जनमे? सीता कैसे जन्मीं? रावण कौन था? आदि-आदि। इसी जिज्ञासा की शांति के लिए बाल-काण्ड और उत्तर-काण्ड रचे गये। इस प्रकार, राम की कथा रामायण (राम-अयन अर्थात राम का पर्यटन) न रहकर, पूर्ण रामचरित के रूप में विकसित हुई। इस समय तक रामायण नरकाव्य ही था और राम आदर्श क्षत्रिय के रूप में ही भारतीय जनता के सामने प्रस्तुत किये गये थे। इसका आभास भगवद्गीता के उस स्थल से मिलता है, जहां कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि श धारणा करने वालों में मैं राम हूं-'राम: शभ़ृतामहम्।`

रामचरित, ज्यों-ज्यों लोकप्रिय होता गया, त्यों-त्यों, उसमें अलौकिकता भी आती गयी। अन्तत: ईसा के सौ वर्ष पूर्व तक आकर राम, निश्चित रूप से, विष्णु के अवतार हो गये। किन्तु, यह कोई निश्चयात्मक बात नहीं है। क्योंकि राम की, बोधिसत्व के रूप में, कल्पना ई.पू. प्रथम शती के पूर्व ही की जा चुकी थी। इसलिए, सम्भव है, अवतार भी वे पहले से ही माने जाते रहे हों।

किन्तु, बाद के साहित्य में तो राम की महिमा अत्यन्त प्रखर हो उठी तथा पूरे-भारवर्ष की संस्कृति, दिनों-दिन, राममयी होती चली गयी। बौद्ध और जैन साहित्य को छोड़कर और सभी भारतीय साहित्य में राम विष्णु के अवतार के रूप में सामने आते हैं। हां, बुद्ध धर्म के साथ राम-कथा का जो रूप भारत से बाहर पहुंचा, उसमें वे विष्णु के अवतार नहीं रहे, न उनके प्रति भक्ति का ही कोई भाव रह गया।

राम को लेकर समन्वय

भारत में संस्कृतियों का जो विराट समन्वय हुआ है, राम-कथा उसका अत्यन्त उज्जवल प्रतीक है। सबसे पहले तो यह बात है कि इस कथा से भारत की भौगोलिक एकता धवनित होती है। एक ही कथासूत्र में अयोध्या, किष्किन्धा और लंका, तीनों के बंध जाने के कारण, सारा देश एक दीखता है। दूसरे, इस कथा पर भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में रामायणों की रचना हुई, जिनमें से प्रत्येक, अपने-अपने क्षेत्र में, अत्यन्त लोकप्रिय रही है तथा जिनके प्रचार के कारण भारतीय संस्कृति की एकरूपता में बहुत वृद्धि हुई है। संस्कृत के धार्मिक साहित्य में राम-कथा का रूप, अपेक्षाकृत, कम व्यापक रहा; फिर भी, रघुवंश, भटि्टकाव्य, महावीर-चरित, उत्तर-रामचरित, प्रतिमा-नाटक, जानकी-हरण, कुन्दमाला, अनर्घराघव, बालरामायण, हनुमान्नाटक, अध्यात्म-रामायण, अद्भूत-रामायण, आनन्द-रामायण आदि अनेक काव्य इस बात के प्रमाण हैं कि भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों के कवियों पर वाल्मीकि-रामायण का कितना गम्भीर प्रभाव पड़ा था। जब आधुनिक देश-भाषाओं का काल आया, तब देशी-भाषाओं में भी रामचरित पर एक-से-एक उत्त्म काव्य लिखे गये और आदि कवि के काव्य-सरोवर का जल पीकर भारत की सभी भाषाओं ने अपने को पुष्ट किया।

राम-कथा की एक दूसरी विशेषता यह है कि इसके माध्यम से शैव और वैष्णव मतों का विभेद दूर किया गया। आदि-रामायण पर शैव मत का कोई प्रभाव नहीं रहा हो, यह सम्भव है, किन्तु, आगे चलकर राम-कथा शिव की भक्ति से एकाकार होती गयी।

जातक कथाएं

वैदिक हिन्दुओं के पुराणों को बौद्धों और जैनों ने अपनाया और उनके माध्यम से वे अपने अहिंसावाद का प्रतिपादन करने लगे। इस क्रम में हम देखते हैं कि विमलसूरिकृत पउमचरिय (पदम-चरि, तीसरी-चौथी शती ई.) में बालि वैरागी बनकर सुग्रीव को अपना राज्य दे देता है और स्वयं जैन-दीक्षा लेकर तपस्या करने चला जाता है। अनामकं जातकं (इसका भारतीय पाठ अप्राप्य है। तीसरी शताब्दी में कांड्ग-सड्ग-हुई के द्वारा जो चीनी अनुवाद हुआ था वह उपलब्ध है।) में राम पिता की आज्ञा से वन नहीं जाते, प्रत्युत, अपने मामा के द्वारा आक्रमण की तैयारियों की वार्ता सुनकर स्वयं राज्य छोड़ कर वन में चले जाते हैं, जिससे रक्तपात न हो। इस जातक के अनुसार, राम ने बालि का भी वध नहीं किया। प्रत्यतु, राम के शर-सन्धान करते ही बालि, बिना वाण खाये हुए भी, भाग खड़ा हुआ।
राम-चरित का हिन्दू-हृदयों पर जो प्रभाव था, उसका भी शोषण बौद्ध और जैन पंडितों ने अपने धर्म की महत्ता स्थापित करने को किया। दशरथ-जातक (पांचवीं शताब्दी ई. की एक सिंहली पुस्तक का पाली अनुवाद है), अनामकं जातकं तथा चीनी त्रिपिटक के अंतर्गत त्सा-पौ-त्सग-किड्ग (भारतीय मूल अप्राप्य; चीनी अनुवाद का समय ४७२ ई.) में आए हुए दशरथ-कथानम् एवं खोतानी-रामायण और स्याम के राम-जातक के अनुसार, बुद्ध अपने पूर्व जन्म में राम थे, ऐसा कहा गया है। संभव है, जब बौद्ध पंडित बुद्ध को राम (या विष्णु के) अवतार के रूप में दिखाने लगे, तब हिंदुओं ने बढ़कर उन्हें दशावतार में गिन लिया हो।

एक विचित्रता यह भी कि रावण पर जैन और बौद्ध पुराणों की श्रद्धा दीखती है। गुणभद्र के उत्तर-पुराण में राम-कथा का जो वर्णन मिलता है, उसमें कहा गया है कि लंका-विजय करने के बाद लक्ष्मण एक असाध्य रोग से मरे और मरने के बाद उन्हें नरक प्राप्त हुआ, क्योंकि उन्होंने रावण का वध किया था। इस कथा में रावण के जेता राम नहीं, लक्ष्मण दिखलाये गये हैं। इस कथा की एक विचित्रता यह भी है कि इसके अनुसार, सीता मन्दोदरी के पेट से जन्मी थीं। किन्तु, ज्योतिषियों के यह कहने पर कि यह बालिका आपका नाश करेगी, रावण ने उसे सोने की मंजूषा में बंद करके दूर देश मिथिलाा में कहीं गड़वा दिया था।

जैन-पुराणों में महापुरुषों की संख्या तिरसठ बतायी गयी है। इनमें से २४तो तीर्थंकर हैं, ८ बलदेव, ८ वासुदेव और ८ प्रतिवासुदेव। राम आठवें बलदेव, लक्ष्मण आठवें वासुदवे और रावण आठवें प्रतिवासुदवे हैंं नव वासुदेवों में एक वासुदेव कृष्ण भी गिने जाते हैं। बौद्ध ग्रंथ लंकावतार-सूत्र में रावण तथा बुद्ध का, धर्म के विषय में संवाद उद्धृत है। इससे भी रावण के प्रति बौद्ध मुनियों का आदर अभिव्यक्त होता है। रावण जैनों के अनुसार जैन और बौद्धों के अनुसार बौद्ध माना गया है।

रामकथा के विषय में जैन और बौद्ध पुराणों में कितनी ही अद्भुत बातों का समावेश मिलता है। उदाहरण के लिए, दशरथ-जातक में सीता राम की बहन बतायी गयी हैं और यह भी उल्लेख आया है कि लंका से लौटने पर राम ने सीता से विवाह किया। पउमचरिय में दशरथ की तीन नहीं, चार रानियां थीं, ऐसा उल्लेख मिलता है, जिनके नाम १. कौशल्या अथवा अपराजित, २. सुमित्रा, ३.कैकेयी और ४. सुप्रभा थे। इसमें राम का एक नाम पद्म भी मिलता है। पउमचरिय में यह भी कथा है कि हनुमान जब सीता की खोज करते हुए लंका गये, तब उन्होंने वहां वज्रमुख की कन्या लंकासंुदरी से विवाह किया। गुणभद्र की राम-कथा (उत्तर-पुराण) में राम की माता का नाम सुबाला मिलता है। दशरथ-जातक और उत्तर-पुराण में यह भी लिखा है कि दशरथ वाराणसी के राजा थे, किन्तु, उत्तर-पुराण में इतना और उल्लेख है कि उन्होंने साकेतपुरी में अपनी राजधानी बसायी थी। इन विचित्रताओं को देखकर यह नहीं समझना चाहिए कि ये कथाएं वाल्मीकि-रामायण से पूर्व की हैं और वाल्मीकि ने इनका परिष्कार करके अपनी राम-कथा निकाली। वाल्मीकि-रामायण इन सब से प्राचीन है। फिर भी, रामायण से इनकी जो भिन्नता दीखती है, उसका कारण यह हे कि बौद्ध और जैन मुनि अपने सम्प्रदाय का पुराण रचने के समय, केवल रामायण पर ही अवलम्बित नहीं रहते थे, प्रत्युत, वे उस विशाल कथा-साहित्य से भी सामग्री ग्रहण करते थे जो जनता में, मौखिक रूप से, फैला हुआ था। विशेषत:, जब जनश्रुतियों से अथवा उन्हें मोड़-माड़कर अहिंसा का प्रतिपादन करने में सुविधा दीखती, तब उस सुविधा का लोभ ये लोग संवरण नहीं कर सकते थे। केवल अहिंसा ही नहीं, बौद्ध एवं जैन शैलियों और परंपराओं की दृष्टि से भी जो बातें अनुकूल दीखती होंगी, उन्हें ये मुनि अवश्य अपनाते होंगे। दशरथ-जातक की अप्रामाणिकता तो इससे भी प्रमाणित होती है कि दशरथ-जातक का जो रूप जातककट्टवराणना में प्रस्तुत है, वह शताब्दियों तक अस्थिर रहने के बाद पांचवीं शताब्दी ईसवी में लिपिबद्ध किया गया। अत:, इसमें परिवर्त्तन की संभावना रही है, विशेष करके दूर सिंहलद्वीप में, जहां रामायण की कथा उस समय कम प्रचलित थी। इसके अज्ञात लेखक का भी कहना है कि 'मैंने अनुराधापुर की परंपरा के आधार पर यह रचना की है`।

यह समझना भूल है कि बौद्ध और जैन पंडितों ने वैदिक धर्म का तिरस्कार करने के लिए राम-कथा अथवा दूसरी कथाओं में फेर-फार कर दिया, क्योंकि ऐसे फेर-फार वैदिक धर्मावलंबी कवियों ने भी किये हैं। उदाहरण के लिए, रघुवंश में कालिदास ने यह कहीं भी नहीं लिखा है कि सीता विष्णु की शक्ति की अवतार हैं। दशावतार-चरित्रम् में क्षेमेन्द्र ने रावण को तपस्वी के रूप में रखा है तथा यह बताया है कि रावण सीता को पुत्री-रूप में प्राप्त करना चाहता था।

दशरथ-जातक में सीता राम की बहन बतायी गयी हैं और फिर राम और सीता के विवाह का भी उल्लेख किया गया है। ऐसा सम्बन्ध कुछ बौद्ध पंडितों की दृष्टि में दूषित नहीं था। बुद्धघोष-कृत सुत्त-निपात-टीका में शाक्यों की उत्पत्ति बताते हुए कहा गया है कि वाराणसी की महारानी के चार पुत्र और पांच पुत्रियां थीं। इन नव सन्तानों को रानी ने वनवास दिया। उन्हीं की सन्तानों ने 'कपिलवत्थु` नामक नगर बसाया और चूंकि राजसन्तान के योग्य वन मेंं कोई नहीं था, इसलिए चारों राजुकमार अपनी बहनों से ब्याह करने को बाध्य हुए। ज्येष्ठा कन्या 'पिया` अविवाहित रहकर सबों की माता मानी जाने लगी। यही शाक्यों की उत्पत्ति की कथा है। खोतान में प्रचलित एक राम-कथा में कहा गया है कि वन में राम और लक्ष्मण, दोनों ने सीता से विवाह किया।

वैदिक, बौद्ध एंव जैन पुराणों में जो कथाएं मिलती हैं, उनमें से कितनी ही तो एक ही कथा के विभिन्न विकास हैं। सभी जातियों की संस्कृतियों का समन्वय ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, त्यों-त्यों विभिन्न कथाएं भी, एक दूसरी से मिलकर, नया रूप लेने लगीं, और जो कथाएं पहले एृक रूप में थीं, उनमें भी वैविध्य आ गया। विशेषत:, रामकथा पर तो केवल भारत ही नहीं, सिंहल, स्याम, तिब्बत, हिन्देशिया, बाली, जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों में बसने वाली जनता की रुचि का भी प्रभाव दृष्टिगोचार होता है। आदिवासी कथा के अनुसार गिलहरी को पीठ पर जो रेखाएं हैं, वे रामचन्द्र के द्वारा खींची गयी थीं, क्योंकि गिलहरी ने उन्हें मार्ग बताया था। तेलुगु रामायण (द्विपाद रामायण) के अनुसार, लक्ष्मण जब राम के साथ वन जाने लगे, तब उन्होंने निद्रा-देवी से दो वरदान प्राप्त किये-एक तो पत्नी उर्मिला के लिए चौदह वर्ष की नींद तथा दूसरा अपने लिए वनवास के अंत तक जागरण। सिंहली रामकथा में 'बालि हनुमान का स्थान लेता है, वह लंका दहन करके सीता को राम के पास ले जाता है।` कश्मीरी रामायण के अनुसार, सीता का जन्म मन्दोदरी के गर्भ से हुआ था। बंगाल के कृत्तिवासी रामायण के बहुत-से स्थलों पर शाक्त-सम्प्रदाय की छाप पायी जाती है। खोतानी रामायण (पूर्वी तुर्किस्तान में प्रचलित) में राम जब युद्ध में मूच्र्छित होते हैं, तब उनकी चिकित्सा के लिए सुषेण नहीं, प्रत्युत, बौद्ध वैद्य जीवक बुलाये जाते हैं तथा 'आहत रावण का वध नहीं किया जाता है।` स्यामदेश में प्रचलित 'राम कियेन` रामायण में हनुमान की बहुत-सी प्रेम-लीलाओं का वर्णन किया गया है। प्रभा, बेड.्काया, नागकन्या, सुवर्णमच्छा और अप्सरा वानरी के अतिरिक्त, वे मन्दोदरी के साथ भी क्रीड़ा करते हैं। स्याम में ही प्रचलित राम-जातक में 'राम तथा रावण चचेरे भाई माने गये हैं।`

पुराणों की महाकथाओं में ये जो विविधताएं मिलती हैं, उनकी ऐतिहासिकता चाहे जो हो किन्तु यह सत्य है कि वे अनेक जातियों और जनपदों की रुचियों के कारण बढ़ी हैं, और यह भी हुआ है कि जिस लेखक को अपने सम्प्रदाय के समर्थन में जो कथा अनुकूल दीखी, उसने उसी कथा को प्रमुखता दे डाली अथवा कुछ फेर-फार करके उसे अपने मत के अनुकूल बना लिया।

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