October 4, 2007

बुद्धिजीवी की भूमिका


विश्‍वविख्‍यात पुस्तक 'ओरियंटलिज्म़` (प्राच्यवाद) के लेखक एडवर्ड सईद (१ नवंबर, १९३५-२५ सिंतबर, २००३) लंबे समय तक कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अंग्रेजी भाषा और तुलनात्मक साहित्य के प्रोफेसर रहे। फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के लिए राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में काम करने वाले सईद की प्रतिष्ठा उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धांतकार व साहित्य-आलोचक के रूप में है।-सं०,




  • एडवर्ड सईद


मैं लगभग चालीस वर्षों से अध्यापन का कार्य कर रहा हूं। बतौर विद्यार्थी और बाद में एक अध्यापक की हैसियत से अपने जीवन का ज्यादातर हिस्सा मैंने विश्वविद्यालय की चहारदीवारी के अंदर गुजारा है। विश्वविद्यालय मेरे लिए, जैसा कि मेरा विश्वास है हम सब के लिए, चाहे जिस हैसियत से भी आप इससे जुड़े हों, एक बेमिसाल जगह है। एक ऐसा आदर्श स्थान, जहां सोचने की आजादी, परखने की आजादी तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही सारतत्त्व होते हैं। वास्तव में, हम जानते हैं कि विश्वविद्यालय किस हद तक ज्ञान व विद्वता का भी केन्द्र होता है।

कई सवालों में से एक सवाल जो मैं समझता हूं कि सभी अध्यापकों और निश्चित रूप से विद्यार्थियों के समक्ष उठता है वह विद्वता व ज्ञान की भूमिका की समझ बनाने तथा इस विषय में कोई भ्रम की स्थिति न पैदा होने देने का है। मेरे विचार से ज्ञान की खोज का लक्ष्य, जिसके लिए विश्वविद्यालय अध्यापकों व विद्यार्थियों को एक अवसर मुहैया कराता है, अधिकारपूर्वक नहीं थोपा जाता है। यह नहीं किया जा सकता। जिस बात को विशेषज्ञ, अध्यापक या प्राध्यापक विद्यार्थी को बताते हैं, वह कंठस्थ कर या रटकर या यंत्रवत् तरीके से हासिल करने की बात नहीं है। मेरे विचार से ज्ञान की खोज विश्वविद्यालय में और मैं आशा करता हूं कि उसके बाहर के जीवन में भी एक वैयक्तिक प्रतिबद्धता है जिसके साथ जुड़ी है अंतहीन छानबीन, अथक तलाश और असीम संदेह। किसी अध्यापक द्वारा या किसी पुस्तक के अध्ययन द्वारा भले ही वह पुस्तक कितनी ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो, इसकी जरूरत एकमुश्त पूरी नहीं की जा सकती। बतौर अध्यापक जहां तक मेरा सवाल है, मैं हमेशा महसूस करता रहा हूं कि दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य जो मैं कर सकता हूं उनमें अव्वल तो यह है कि जो भी ज्ञान मेरे पास है उसे अपने विद्यार्थियों तक पहुंचाऊं। परन्तु इससे भी अधिक अहम् है विद्यार्थियों तक अपना अविश्वास, अपना संशयवाद पहुंचाना तथा उनके समक्ष चुनौती प्रस्तुत करना ताकि अन्वेषण की उनकी ललक, उनकी अध्ययनशीलता, प्रश्न उठाने की उनकी जिज्ञासा बनी रहे। ताकि जब वे बैठकर मुझे सुन रहे हों, मुझसे विचार-विमर्श कर रहे हों तब वे यह भी कह रहे हों कि सईद जो कुछ कह रहे हैं वह हमारी खोज से गलत भी साबित हो सकता है। सईद जो कह रहे हैं हम उससे भी आगे कैसे बढ़ सकते हैं? अत: एक जरूरी काम जो एक अध्यापक को अवश्य ही करना चाहिए, वह है, आखिर में रुक कर विद्यार्थियों को बताना कि जो कुछ मैंने आपको पढ़ाया है वह अस्थाई ज्ञान है। यह आज के लिए तो है परन्तु पर्याप्त नहीं। आपको यह सवाल जरूर करना चाहिए 'मैं इस ज्ञान में क्या इजाफा कर सकता हूं? मुझे इस ज्ञान का क्या इस्तेमाल करना है? विद्यार्थी के तौर पर मुझे इस ज्ञान को परिमार्जित करना है तथा अध्यापक से जो पाया केवल उसी पर संतुष्ट नहीं रहना है।`

इसलिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है प्राप्त विचार से आगे उस विचार तक बढ़ना जिसे व्यक्ति ने अपनी श्रेष्ठतम प्रतिबद्धता तथा कोशिश से स्वयं गढ़ा हो। मेरा यह भी मानना है कि इन विषम परिस्थितियों में यह याद रखना अहम है कि विश्वविद्यालय समाज का अंग तो होता है परंतु उसकी विशिष्ट समस्याओं का समाधान नहीं है। भारत में तथा दुनिया के उस हिस्से में जिससे मैं जुड़ा हुआ हूं, यानी मध्य पूर्व या अमेरिका जहां रहकर मैं अध्यापन करता हूं, वहां निर्धनता, नस्लवाद, संघर्ष व आर्थिक अन्याय जैसी अनगिनत सामाजिक समस्याएं हैं।

ज्ञान के केन्द्र के तौर पर विश्वविद्यालय वह स्थान नहीं हो सकता जहां इन समस्याओं को हल किया जाए। हमें कक्षा या सभा कक्ष का इस्तेमाल सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए कभी नहीं, अध्यापक के तौर पर तो हरगिज ही नहीं, करना चाहिए। लेकिन वहीं दूसरी ओर, विश्वविद्यालय समाज से पलायन कर छिपने की जगह भी नहीं है। विश्वविद्यालय में हिसाब चुकता नहीं किए जा सकते। न ही विद्यार्थी या अध्यापक के तौर पर हम पलायनवादी हो सकते हैं। हम विश्वविद्यालय में सामाजिक हल की जरूरत के दबावों से मुक्त होकर और पूरी शिद्दत के साथ नागरिकता की क्षमता तथा संभावना का अध्ययन करते हैं।

समस्याएं क्या हैं, इतिहास का अन्याय क्या है, नस्ली संघर्ष का इतिहास व उसकी स्थिति क्या है, ये सब चीजें समझने का हमें प्रयास करना होगा। विचारों का महत्व क्या है?
मानववादी विचार, वैज्ञानिक विचार, सामाजिक विचार क्या हैं? ये कहां जन्म लेते हैं, इनका क्या अर्थ होता है और इनके प्रति किस तरह का रवैया अपनाया जा सकता है या अपनाया जाना चाहिए? परन्तु हमें यह कभी नहीं मान लेना चाहिए कि विश्वविद्यालय बाहरी दुनिया की राजनीति का स्थान ले सकता है। विश्वविद्यालय वह जगह है जहां विचारों को बढ़ावा दिया जा सकता है। जहां संवाद होते हैं, जहां दूसरे के नजरिए को पूरा सम्मान देते हुए विचारों का आदान-प्रदान होता है। इसका मतलब यह नहीं है कि आप दूसरों के दृष्टिाकेण को स्वीकार ही कर लें। हम जोरदार ढंग से असहमत भी हो सकते हैं। कम से कम विश्वविद्यालय ही समाज में एकमात्र ऐसा स्थान है जहां संवाद, विचार-विमर्श, सहनशीलता तथा संशयवाद मानव संवेदनाओं के आदान-प्रदान के सारतत्त्व होते हैं तथा इससे बतौर अध्यापक या विद्यार्थी हम वास्तविक अर्थ में नागरिक बनते हैं तथा भविष्य की जिम्मेदारियों, गौरवों, मुश्किलों तथा उम्मीदों के लिए तैयार होते हैं।

सभी क्षेत्रों में चाहे वे प्रकृतिक विज्ञान के हों या फिर मानव विज्ञान के, जो विश्वविद्यालय से हमें मिल सकता है तथा जिसे मैं विवेचनात्मक चेतना कहना चाहूंगा, पर संक्षिप्त चर्चा के बाद मैं अब इस पर विस्तार से अपने विचार रखना चाहूंगा। जो कुछ मैंने कहा है उसका अर्थ है कि ज्ञान की अंतहीन खोज, सवाल उठाने की सतत् जिज्ञासा, शाश्वत तलाश को जारी रखने तथा कभी न रुकने की जरूरत ही विवेचनात्मक चेतना के तत्त्व हैंं परन्तु अब सवाल है कि बौद्धिक योग्यता की परिकल्पना क्या है? जहां तक मेरा सवाल है बौद्धिक योग्यता बी.ए की डिग्री लेने या पी.एच.डी. पूरी कर लेने या कुछ भी ऐसी उपलब्धि हासिल कर लेने से, जिसे शिक्षा कहा जाए बिल्कुल अलग है। बौद्धिक योग्यता एक भिन्न चीज है। यह बाद में तब पैदा होती है जब हम विश्वविद्यालय छोड़कर समाज के नागरिक बनते हैं।

एक अरसे से यह मेरा विश्वास रहा है कि बुद्धिजीवी की भूमिका जड़ता को तोड़ने, सवाल उठाने तथा ऐसी बातें कहने की होती है जिसे दूसरे लोग नहीं कहेंगे तथा जो स्थितियां हैं, जानी-समझीं जिनके साथ तालमेल बैठा कर ज्यादातर लोग जीते हैं, उनके आगे जाने की हिम्मत बुद्धिजीवी दिखाते हैं। महान अमेरिकी सी.राइट मिल्स का कहना है-'स्वतंत्र बुद्धिजीवी उन गिनीचुनी हस्तियों में से होता है जो जीवन को एक सांचे में ढालकर उसको निर्जीव बनाने की प्रक्रिया का प्रतिरोध करता है तथा उसके खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार रहता है।` नये विचारों में दृष्टि व बुद्धि के रूढ़िवाद को, जो हमें दलदल में फंसाते हैं, लगातार बेनकाब करने तथा तोड़ने की क्षमता होती है। कभी-कभी हमें महसूस होता है कि हम खबरों के समुद्र में डूब रहे हैं, कभी-कभी ये खबरें अन्तर्विरोधी तथा आमतौर पर दुहराव भरी व एक खास आग्रह से युक्त होती हैं। लोक कला व लोकचिंतन के क्षेत्र में ये क्षेत्र राजनीति व स्वार्थ की मांगों के अनुरूप तेजी से ढल रहे हैं। समाचार पत्रों व सरकार में बैठे लोगों के बयानों में ये सब चीजें विश्व स्तर पर देखने को मिलती हैं, चाहे वे टीवी इश्तहार हों, टीवी समाचार हों या वृत्तचित्र हों, लोक प्रतिनिधित्व की सभी व्यवस्थाओं में खबरें तैयार करने वाले निर्माताओं के हित स्पष्ट तौर पर झलकते हैं। मैं समझता हूं कि इस बारे मंे हमारा दिमाग बहुत साफ होना चाहिए। निष्पक्ष दृष्टिकोण जैसी कोई चीज नहीं होती है।

सभी विचार किसी न किसी नजरिये को दर्शाते हैं। इसीलिए मिल्स कहते हैं 'राजनीति ही वह क्षेत्र है जिसमें बौद्धिक एकजुटता तथा प्रयास को केंद्रित होना ही चाहिए।` इतना ही नहीं यदि विचारक राजनीतिक संघर्ष में स्वयं को सत्य के मूल्य से नहीं जोड़ पाता है तो वह किसी भी जीते-जागते अनुभव से जिम्मेदारी के साथ नहीं निपट सकता है। समकालीन मीडिया के विरोधाभासपूर्ण, असंगत व भारी लोक अनुभवों से सच्चाई को अलग करने की योग्यता हममें होनी चाहिए। सिर्फ मीडिया ही नहीं हमारी जिंदगी के दायरे पर भी यही बात लागू होती है।

वह दुनिया जिसमें हम जीते हैं प्राप्त विचारों से भरी होती है। लोग कहते हैं-'इसी तरह के हम कार्य करते हैं, यही यथास्थिति है, आपको इसी राह पर चलना चाहिए।` और मेरे लिए बुद्धिजीवी की भूमिका यह है कि वह यथास्थिति पर प्रश्न उठाए, सत्ता को चुनौती दे, खबरों की, सरकारी रिपोर्टों की तह तक पहुंचने की कोशिश करे, विद्वता और ज्ञान के रूप में जो प्रदान किया जा रहा है, उसकी सतह के नीचे तक पहुंचने का प्रयास। अत: आप देखेंगे कि यह प्रक्रिया तब शुरू होती है जब हम छात्र होते हैं तथा जब हम समाज के नागरिक बन जाते हैं तब भी चलती रहती है। ऐसा करना सच्चाई जानने का एक तरीका है। अब देखें कि बुद्धिजीवियों की खास समस्याएं क्या हैं? सबसे पहले तो हमें तय करना होगा कि क्या सभी बुद्धिजीवी होते हैं या फिर चंद लोग?

इटली के महान मार्क्सवादी ग्राम्शी ने, जो कि बुद्धिजीवियों के विषय में लिखने वाले २०वीं शताब्दी के पहले विचारक थे, कहा था कि मानव बुद्धिजीवी होता है क्योंकि उसके पास बुद्धि होती है परन्तु समाज में हर व्यक्ति की भूमिका बुद्धिजीवी की नहीं होती। एक दूसरे महत्त्वपूर्ण यूरोपीय विचारक जूलियन बेन्डा ने, जो कि काफी दक्षिणपंथी विचारक थे, १९२० के दशक के अंत में बिट्रेयल ऑफ इंटलेक्चुअल्स नामक एक पुस्तक लिखी जिसमें कहा कि बुद्धिजीवी गिने-चुने ही होते हैं क्योंकि वास्तव में बुद्धिजीवी वह होता है जो यथास्थिति को चुनौती देता है और इस तरह के सवाल उठाता है जिस तरह के सवाल पहले कभी नहीं उठाये गए।

इसलिए एक खास मायने में बुद्धिजीवी ओल्ड टेस्टामेंट के पैगम्बर जैसा पैगम्बर होता है, जो ऐसे सवाल उठाता है जिसे कोई उठाने को तैयार न हो तथा जिसका जवाब देने को भी स्वाभाविक रूप से कोई इच्छुक न हो। इसलिए मैं मानता हूं कि बुद्धिजीवी होने का मतलब व्यक्ति से उतना अधिक नहीं जितना कि मनोवृत्ति, जीवन की दशा, प्रश्न के स्वरूप, ऊर्जा के रूप से है। जो, जैसा कि मैंने पहले ही कहा है सच्चाई बताने तथा उन बातों को समझने की कोशिश नहीं करते या जो समझाया जाता है वही सच मान लेते हैं। अत: आज के दौर में मुख्यत: वे कौन सी समस्याएं हैं जिनसे बुद्धिजीवियों को जूझना पड़ रहा है? वह क्या चीज है जो बौद्धिक योग्यता के पूरी तरह विकसित होने में बाधक है? सबसे पहली चीज जो मैं समझता हूं कि बौद्धिक ईमानदारी व बौद्धिक योग्यता में सबसे बड़ी बाधा है वह है राष्ट्र व परंपरा का बोझ। हर शिक्षा प्रणाली, हर देश-इसके सहज अध्यापक, इसके छात्र, इसकी भाषा, राष्ट्रीय भाषा-छात्रों को उनकी पृष्ठभूमि, उनकी नस्ल, उनकी विरासत, उनकी परंपराओं तथा राष्ट्र के नागरिक के तौर पर उनकी पिछली पहचान की ही शिक्षा देती है। इसलिए भारतीय लोग भारत के बारे में अध्ययन करते हैं तथा दूसरे स्तर पर जैसा कि जामिया मिलिया इसलामिया में है, वे इस्लाम की उस विशिष्ट विरासत की तालीम हासिल करते हैं जो खासतौर से भारत के संदर्भ में है।

दुनिया के उस हिस्से में जिसका ताल्लुक मुझसे है, परंपरा क्या है इस पर जबर्दस्त बहस चल रही है। वह परंपरा जो अपनी संस्कृति से विरसत में मिली है। फिर राष्ट्र के प्रति निष्ठा और देशभक्ति का भी सवाल है। मुझे याद है कि १८वीं सदी के महान अंग्रजी कोशकार, दार्शनिक तथा उपन्यासकार व कवि डा.जानसन ने कहा था-'देशभक्ति दुष्टों की आखिरी पनाहगाह है।` अर्थात् जब आप यह नहीं जानते कि आपको क्या करना व क्या कहना चाहिए तो आप कहते हैं, 'मेरा देश सही हो या गलत हम इसके साथ हैं` और फिर जब आप यह नहीं जानते कि क्या कहें और किधर जाएं तो आप कहते हैं मैं अपनी परंपरा पर विश्वास रखता हूं। तथा परंपरा आखिरकार हमेशा सही होती है। बहरहाल इसी तरह से तो हम अपने काम अंजाम देते रहे हैं मुझे याद है कि मैंने अपनी दिवंगत मां से कई बार बहस की थी। बच्चे के तौर पर मुझे संभालना मुश्किल होता था क्योंकि मैं पूछता था कि हम लोग ये काम क्यों करते हैं? और वह कहती थी, 'ना ना ना हम इसे यूं ही करते हैं` और मैं पूछता था किसने कहा कि यह काम हमें यूं ही करना चाहिए? और वो कहती थी 'हर कोई` और मेरा फौरन जवाब होता था-'मैं उन सबके खिलाफ हूं।` मैं इसे इस तरह से करना चाहता हूं जिसे मैं सही समझता हूं। परंतु मुसीबत के वक्त में लोगों पर परंपरा व राष्ट्र का दबाव बहुत बढ़ जाता है। जब संकट होता है तो असुरक्षा का भाव होता है। एक बाहरी दुश्मन होता है, एक आंतरिक शत्रु।

अमेरिका में मैकार्थी काल में एक गैर अमरीकी गतिविधि सदन समिति थी जो फैसला करती थी-आप अमरीकी हैं या नहीं, आप साम्यवाद का समर्थन करते हैं या फिर इसके प्रति मोटे तौर पर सहानुभूति रखते हैं तो आप एक देशद्रोही हुए। आप अपनी नौकरी से हाथ धो सकते थे तथा किसी काम के नहीं रह जाते और प्रकृतिक संकट व आपातकाल के समय में, युद्ध के समय में खासकर जब हर्षोन्माद का वातावरण बना हुआ हो, बहुत कम ऐसे लोग हैं जो सवाल करें-'क्या युद्ध सभी के हित में है?` 'क्या ऐसा करना अक्लमंदी है?` 'क्या व्यापक तौर पर विनाश और रक्तपात का विचार ठीक है?`


मुझे याद है कि १९९१ में खाड़ी युद्ध के दौरान मैं अरब मूल के व्यक्ति की तरह अमेरिका में रह रहा था। परंतु मैं एक अमरीकी नागरिक भी था। और हालांकि कुवैत पर आक्रमण तथा कब्जा करने की सद्दम हुसैन की नीति का मैंने पूरा विरोध किया था, फिर भी मैंने इस युद्ध की भर्त्सना की। मैंने अमेरिका में आपरेशन डेटर्ज स्टार्म पर बने राष्ट्रीय उन्माद की भी भर्त्सना की तथा इस उन्माद का विरोध किया कि चलें कुवैत पर हमला करें और सद्दाम हुसैन की फौज को बाहर निकालें क्योंकि हम आक्रमण का विरोध करते हैं।

ऐसे माहौल में, जब मीडिया तक पर युद्धोन्माद छाया हो और कहा जाए कि हमें युद्ध करना है, हमें सच्चाई के लिए लड़ना है, बुद्धिजीवी की भूमिका यह होनी चाहिए, भले ही इसे निभाना बहुत मुश्किल हो, कि आप लोगों को याद दिलाएं कि दुनिया में कई दूसरे स्थान ऐसे भी हैं जहां पिछले ३० वर्षों से दूसरे की जमीन पर नाजायज कब्जा बरकरार है जैसा कि इस्राइल ने फिलिस्तीन, सीरिया, जार्डन, लेबनान, मिस्र की भूमि पर कब्जा कर रखा है। क्या इस नाजायज कब्जे को लेकर अमेरिका ने युद्ध किया? नहीं। अमेरिका का उद्देश्य है तेल की सुरक्षा। क्योंकि यह राष्ट्रीय हित का मामला है। अनाक्रमण के सिद्धांत से इसका कुछ लेना-देना नहीं है। इसका उद्देश्य बिल्कुल भिन्न है।

आपको आम तौर पर यह दलील सुनने को मिलती है कि अच्छा फिर आप देशभक्त नहीं है। हम सभी को एक झण्डे के नीचे एकजुट होना पड़ता है। मेरी नजर में यही सबसे बड़ा खतरा है। झण्डे के नीचे एकजुट होने की भावना राष्ट्रीय आपातकाल की भावना, परंपरा, पृष्ठभूमि, जुड़ाव की भूमिका को बिना सोचे-समझे स्वीकार करने का खतरा-इन सब पर सवाल खड़ा करना तथा यह देखना कि ये कब उचित है और कब नहीं, यही बुद्धिजीवी की भूमिका है।

बुद्धिजीवी की भूमिका के रूप में जो दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है, उसे मैं अपने पेशे से संबंधित विशेषज्ञता की चुनौती मानता हूं। हम सभी विशेष विषयों-रसायनशा, इतिहास, साहित्य, जीवनशा आदि का अध्ययन करते हैं। विश्वविद्यालय द्वारा इन क्षेत्रों में कार्य करने का हमें प्रमाणपत्र मिलता है। हम प्रमाणित रसायनशाषी, हम साहित्य के प्रमाणित अध्यापक वगैरह-वगैरह होते हैं। हममें विशेषज्ञता की समझ विकसित होती है। यह सच है कि हमने सीखने व अध्ययन करने में काफी समय लगाया है। और इससे हम श्रेणी के विशेषाधिकारों बी.ए, पी-एच.डी.या कुछ और जिसे आप अपने नाम के आगे जोड़ सकते हैं, के हकदार हो जाते हैं। आपको नौकरी मिल जाती है वगैरह-वगैरह। अब मेरा सवाल यह है कि कब आप विवाद टालने के उद्देश्य से व्यावसायिकता की आड़ लेते हैं?
वियतनाम युद्ध के दौरान जब अमेरिका उत्तरी वियतनाम, लाओस और कंबोडिया पर लाखों टन बम गिरा रहा था, मैंने एक छात्र को मेरे सहकर्मी से यह पूछते सुना 'क्या आप उस आवेदन पर हस्ताक्षर करेंगे जिसमें यह कहा गया है कि साठ हजार फीट की ऊंचाई से बी-५२, युद्धक विमानों द्वारा बम वर्षा (जहां चालक संवेदनशून्य हो जाता है परंतु महिलाएं और बच्चे तथा किसान गरीब लोग तबाह हो रहे हैं) अन्यायपूर्ण है?` मुझे शर्म से तब गड़ जाना पड़ा जब मैंने अपने सहकर्मी को यह कहते सुना कि, 'नहीं मैं साहित्य का प्राध्यापक हूं, मैं शेक्सपीयर व मिल्टन पर लिखता हूं। बम वर्षा से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। मुझे इसकी समझ नहीं है।` (इस सहकर्मी की मैंने बाद में खिंचाई की थी।) अनेक बार हम यह सुन चुके हैं 'यह मेरा क्षेत्र नहीं है, मैं कुछ नहीं कर सकता।`
आपके अपने समाज में मानवाधिकारों के हनन क्या स्थिति है? दूसरे समाजों में मानवाधिकारों के हनन की बात करना तो बड़ी चालाकी है, आपके समाज में मानवाधिकारों के हनन, अलोकप्रिय विचार रखने पर लोगों को दी जाने वाली सजा की क्या स्थिति है? और तब आप कहते हैं 'नहीं, नहीं, देखिए मैें एक केमिस्ट हूं, मैं संभवत: कुछ भी नहीं..` तो आप समझंे कि मैं क्या कह रहा हूं? विवादों को टालने से घातक समरूपता पैदा होती है जो कि बौद्धिक ऊर्जा व बौद्धिक ईमानदारी की दुश्मन है।
तीसरी बड़ी बाधा और मेरी नजर में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बुद्धिजीवी का सत्ता से रिश्ता हैं। मैं आपने लोगों, यानी उन फिलिस्तीनियों; की रक्षा के लिए राजनीति में रहा हूं जो कि खामोश व बेदखल कर दिए गए तथा वर्षों तक जिनकी फरियाद ठुकराई जाती रही। वे अत्यधिक क्रूर उत्पीड़न झेल रहे हैं। संघर्ष का मेरे लिए बड़ा महत्त्व है इसलिए नहीं कि मंै फिलिस्तीनी हूं बल्कि इसलिए कि यह न्याय के लिए संषर्ष है। लेकिन सवाल यह भी है कि असर डालने के लिए अपनी बात रखते हुए आप किस हद तक जाने को तैयार हैं? हम सभी जानते हैं कि हैरतअंगेज लेखों को लिखने में जिनका कोई पाठक न हो तथा जो प्रभाव भी न डालते हों, कोई लुत्फ नहीं है।
हर मानव खासकर बुद्धिजीवी या वैज्ञानिक की इच्छा होती है कि उसके विचार हकीकत में बदलें। अक्सर आप ऐसा नहीं कर सकेंगे। जब तक कि अंतत: आप किसी ऐसे व्यक्ति की मदद न लें जिसके पास शक्ति हो, जो आपको आगे बढ़ने में सहायता करे तथा जो तत्कालीन सत्ता के निकट हो। सवाल यह है कि शक्ति व सत्ता के जरिए प्रभावशाली बनने के रास्ते पर हम कितने समझौते करने को तैयार हैं? दुनिया के उस हिस्से में, जिसका ताल्लुक मुझसे है अर्थात् मध्य पूर्व में, अरब जगत में प्रजातंत्र न होने का एक बड़ा कारण यह है कि हमारी ज्यादातर तानाशाह सरकारें उन लोगों को अकसर प्रताड़ित करती हैं, जेलों में डाल देती हैं और खामोश कर देती हैं जो लोग सरकारी नीतियों की आलोचना या भ्रष्टाचार की चर्चा करते हैं या फिर सत्तारूढ़ दल के भ्रष्टाचार पर दो टूक राय जाहिर करने की जुर्रत करते हैंं। शासकों को इस काम में महारत हासिल होती है। हमारे इन अरब देशों में प्रजातंत्र का न होना बड़े शर्म की बात है।
वे जानते हैं कि ऐसी कार्रवाइयां सवाल कर सकने वाले अन्य बुद्धिजीवियों को डराने में प्रभावी होती हैं। अत: आखिर में सिर्फ समरूपता ही नहीं सेल्फ सेंसरसिप की स्थिति भी बनती है-मैं इसलिए कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि मेरी नौकरी, मेरी तरक्की को खतरा है तथा मुझे जेल में डाला जा सकता है। अमेरिका कई मायनों में बेहद शक्तिशाली व अमीर देश है, इसलिए बुद्धिजीवी वर्ग के बहुत से लोग, खासकर वे जो सामाजिक विषयों चाहे अर्थशा हो, राजनीतिशा हो, या समाजशा हो, यहां तक कि मानव विज्ञान से संबंधित क्षेत्रों से जुड़े हों, महसूस करते हैं कि उनके जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य ताकतवर लोगों से ईमानदारी पूर्वक सच बोलना नहीं बल्कि कोशिश कर किसी राजनीतिक दल के करीब जाना है।
अगर रिपब्लिकन पार्टी की सरकार है तो आप किसी रिपब्लिकन थिंक टैंक में घुसना चाहते हैं, अगर डेमोक्रेटिक पार्टी का शासन है तो आप इसके किसी 'थिंकटैंक` में प्रवेश करना चाहेंगे। यह सही है या गलत अथवा यह विषय मानव शालीनता का विषय है या नहीं, यह प्रश्न नहीं उठाया जाता। क्योंकि इससे आपके आगे बढ़ने में रुकावट आएगी। ऐसे लोग आपके सहकर्मी, जिन्हें आप देखते होंगे-मैंने उन्हें वियतनाम युद्ध के दौरान देखा-मैंने उन्हें मध्यपूर्वी संकट के दौरान देखा-जो जानते थे कि अन्याय हो रहा है परन्तु इस बारे में मुंह नहीं खोलते थे क्योंकि वे रक्षा विभाग के लिए लेख लिखने के लिए नियुक्ति या फिर राज्य सलाहकार बनना चाहते थे। यदि उनके विचार सरकारी दृष्टि से खतरनाक होते तो उन्हें कभी कोई प्रस्ताव नहीं मिलता, इसलिए वे कुछ भी नहीं कहते थे।
मेरा हमेशा से यही नजरिया रहा कि मुझे राजनीतिक पद को पाने की महत्त्वकांक्षा नहीं रखनी है क्योंकि बुद्धिजीवी के तौर पर राजनीतिक पद से आपकी आजादी का अंत होता है। आप स्वतंत्र नहीं रह सकते। मैं यह नहीं कहता कि स्वतंत्रता अपने आप में कोई गुण है, क्योंकि कभी-कभी आप गलत हो सकते हैं लेकिन यदि आप स्वतंत्र नहीं हैं तो आप गलत भी नहीं हो सकते। आपको काफी हद तक प्रेस व मीडिया प्राणी बनकर रहना पड़ता है। मसलन, अमेरिका में जहां मीडिया को स्वतंत्र माना जाता है, वहां अपने स्वतंत्र मीडिया का बयान करने के लिए मैं घंटों लगा सकता हूं और बेशक तीसरी दुनिया, जैसा कि इसे कहा जाता है, में सेंसरशिप का हम लोग मखौल उड़ाते हैं। तीन चार साल पहले जब राष्ट्रपति क्लिंटन ने कुर्सी संभाली थी तो उनकी सरकार का एक अहम नारा था, 'हम स्वास्थ्य सुविधा के क्षेत्र में सुधार करेंगे।` आप जान लें कि अमेरिका सिर्फ दुनिया का सर्वाधिक धनी देश ही नहीं, कई दृष्टि से सर्वाधिक पिछड़ा हुआ देश भी है। वहां सभी के लिए स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं। अमेरिका में पांच करोड़ से ज्यादा लोग किसी भी प्रकार के स्वास्थ्य-बीमा से वंचित हैं। तथा अमेरिका में दवा की कीमतें बहुत ऊंची हैं। तब सवाल पैदा होता है कि क्या किया जाना चाहिए? और एक राष्ट्रीय बहस चल रही है जिसकी घोषणा स्वयं राष्ट्रपति ने की। कनाडाई विकल्प के तौर पर जब जाना गया कि एक स्पष्ट विकल्प भी है जिसे स्वास्थ्य बीमा एक एकाकीऱ्युगल (सिंगिल कपुल) रूप कहते हैंं, दूसरे शब्दों में सरकार हरेक को बीमा सुविधा देती है जैसा कि आजकल विश्व के ज्यादातर देशों में होता है। यह सही है कि फ्रांस व यूरोप में नागरिकों के प्रति सरकार की जिम्मेदारी होती है। लेकिन अमेरिका में ऐसा नहीं हैं परंतु इस बहस को प्रचारित करने के लिए मीडिया को इस्तेमाल किया गया और मीडिया ने स्वयं को ही प्रयोग किया परंतु बहस का विषय क्या था? क्या यह एकाकीऱ्युगल कनाडाई शैली की राष्ट्रीय बीमा योजना चाहने वालों तथा निजी दवा की मांग करने वालों के बीच बहस थी, जैसा कि वर्तमान में है? नहीं।
यह बहस शुद्ध रूप से इस योजना से अधिक लाभ कमा सकने वाली दवा कंपनियों के चिकित्सकीय परिषद की लाबियों के चलते निजी दवा क्षेत्र के संदर्भ में थी। टीवी, रेडियो पर व समाचार पत्रों में जो कुछ पेश किया गया, उसमें यही संदर्भ था। प्रशासन की भाषा में जिसे समाजीकृत दवा कहा जाता है-'समाजीकृत` ऐसे तिरस्कार के साथ जैसे यह कोई बुरी चीज, कोई सामयवादी या रूसी या मार्क्सवादी लेनिनवादी चीज हो-के समर्थक चाहते थे कि मर रहे लोगों पर ध्यान दिया जाए। इसे ही समाजवाद समझा जाता है-जो कि एक बहुत ही बुरी चीज है-और मीडिया ने उनका दृष्टिकोण कभी भी पेश नहीं किया।
इसलिए अधिकार व सत्ता मीडिया को भी भ्रष्ट कर देती है। मैं एक मिसाल देता हूं-एक महान पत्रकार आई.एफ.स्टोन थे जिनकी २० वर्ष पहले मृत्यु हो गई-वह समझते थे कि हर सरकारी रपट झूठी होती है। जो सच्चाई होती है और जो आंकड़े छुपा लिए जाते हैं वे बड़े कड़वे होते हैं। इसलिए उन्होंने अपना अखबार शुरू किया क्योंकि वह कहा करते थे कि वाशिंगटन में किसी पत्रकार के लिए समाचार पत्र तभी प्रतिष्ठा के चरमबिन्दु पर होता है जब आंतरिक मामलों का मंत्री उसके साथ दोपहर का भोजन करे। इसलिए वह पत्रकार कभी भी सच्चाई नहीं लिखेगा क्योंकि यदि वह सच्चाई लिखता है तो आंतरिक मामलों का मंत्री उसके साथ दोबारा दोपहर का भोजन नहीं करेगा।
और उसे टीवी पर्दे पर आने का मौका नहीं मिलेगा। इसलिए श्री स्टोन ने अपने घर से ही खुद का अखबर निकालना शुरु किया। इसमें केवल चार पन्ने ही थे और इस अखबार में श्री स्टोन अपने संदेहों तथा सरकार के दावों की अपने स्तर से की गई छानबीन रपटों को प्रकाशित करते थे। कोरिया युद्ध और बाद में बेशक वियतनाम युद्ध के दौरान भी यह बात सही रही। सरकार झूठ बोल रही थी। उधर श्री स्टोन अकेले दम पर सत्ता व अधिकार को चुनौती देते रहे। यहां तक कि आंतरिक सुरक्षा विभाग के मंत्री व कर्मचारी के साथ दोपहर का भोजन करने से वह हमेशा ही इनकार करते रहे ताकि उनकी स्वतंत्रता बनी रहे। इस सोच में मेरा दृढ़ विश्वास है क्योंकि मैं राजनीति में रहा हूं तथा राजनीति में आने तथा कुछ करने के लिए अक्सर मुझे प्रस्ताव भी मिलते रहे हैं। और मैं हमेशा ही ऐसे प्रस्ताव ठुकराता रहा हूं क्योंकि अंतत: आप अपनी स्वतंत्रता खो देते हैं। क्या सही है और क्या गलत यह परखने की क्षमता आप गंवा बैठते हैं और आपको समझौते करने पड़ते हैं।
जिसे मैं 'मूर्तिपूजा` कहता हूं, वह चौथी बाधा है। हम जिस युग में जी रहे हैं वह असुरक्षा का युग है। हम, सदी के अंत की ओर बढ़ रहे हैं। शीत युद्ध समाप्त हो चुका है। ऐसा लगता है कि किसी को इनकी जानकारी नहीं है कि कौन से मूल्य स्थाई हैं और कौन से नहीं। इसलिए मेरे विचार से यह धर्मान्तरण का युग है। मेरा मानना है कि बुद्धिजीवी को निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए। ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जिसके पास 'मूर्तियां` न हों। मेरा मतलब है, धर्म निजी मामला है। यदि आप अपने तौर पर ईश्वर या देवी देवताओं की उनकी पवित्र व अलौकिक शक्ति में विश्वास रखते हैं तो यह आपका मामला और आपका विशेषाधिकार है। परन्तु मैं तो सामाजिक मूर्तियों की बात कर रहा हूं। जिसे फ्रांसिस बेकन 'बाजार की प्रतिमाएं` कहा करते थे।
ऐसा हुआ करता था। मसलन कहा जाए तो लोग शीत युद्ध के दौरान मार्क्सवाद के प्रति आदर भाव रखते थे। इसके बाद उन्हें अहसास हुआ कि मार्क्सवाद कोई बहुत ज्यादा उपयुक्त नहीं। अत: शीत युद्ध के पश्चात् उनके मूल्य बदल गए और वे पूंजीवाद की तरफ झुके। और वे इसकी उपासना करने लगे। यह एक तरह की मूर्तिपूजा हुई। एक फ्रांसीसी बुद्धिजीवी था जो अरब जगत का चक्कर लगाता रहता था। वह फ्रांस की कम्युनिस्ट पार्टी का भूतपूर्व नेता हुआ करता था। बाद में वह सच्चा कैथेलिक बना और अभी हाल में उसने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया है। आखिर क्यों? क्योंकि सऊदी अरब की निकटता से वह लोकप्रिय हो सकता है। उसने अपना असली नाम बदलकर इस्लामी नाम रख लिया है। वह मुसलमानों की तरह बातें भी करता है। इस तरह की 'मूर्तिपूजा` से मैं सर से पांव तक कांप जाता हूं। ऐसा करना शायद सबसे बुरी बात होगी। एक बुद्धिजीवी को हमेशा ही झूठे देवता की पूजा तथा उपासना के प्रति सतर्क रहना चाहिए क्योंकि बाद में आस्था बदलना बहुत आसान होता है। फिर दूसरा कोई आएगा और कहेगा, 'मैं तुम्हें हकीकत बताऊंगा, मैं प्रथम श्रेणी का टिकट देता हूं, तुम बर्लिन जाओ। एक साल वहां रहो, तुम पर कोई बोझ नहीं रहेगा। तुम पढ़ सकते हो, अध्ययन कर सकते हो। परंतु आखिर में तुम हमारे जैसे ही हो जाओगे।`
वास्तव में, इस तरह के पुरस्कारों व उपास्यों से काम नहीं चलता है। ये अन्तत: हमेशा ही आपका साथ छोड़ देते हैं। और इसलिए मैं कहता हूं कि एक बुद्धिजीवी को सदैव यथासंभव न सिर्फ असंपृक्त बल्कि स्वतंत्र भी रहना चाहिए। साथ ही संशयवादी भी होना चाहिए। कुछ भी ऐसा नहीं है जो आपको हमेशा के लिए पसंद आए क्योंकि तलाश कभी पूरी नहीं होती है। दुनिया में हमारे सामने हमेशा नई-नई चीजें आती रहती हैं। हमें इतिहास में विश्वास रखना चाहिए। इसलिए वह कौन सी चीज है जिसे बुद्धिजीवी आखिरकार परंपरा, व्यावसायिकता, सत्ता, अधिकार, उपास्यों, देवताओं की बाधाओं को देखते हुए पाने का प्रयास करता है? वह क्या चीज है जो यहां भारत में, अरब देशों, यूरोप, अफ्रीका तथा लातिन अमेरिका में बुद्धिजीवी चाहता है? मैं समझता हूं कि लक्ष्य हर जगह समान ही है जिस तरह से खतरे समान हैंं।
आप या तो सत्ता के सेवक दरबारी बुद्धिजीवी हो सकते हैं-सुलतान के कदमों में बैठकर आप सत्ता के अनुचर हो सकते हैं या फिर आप सत्ता से अलग रह सकते हैं। मैं सत्ता से दूर रहने को बहुत ज्यादा तरजीह देता हूं। उस व्यक्ति की तरह जो सदैव सत्ता से निर्वासित रहता है परंतु उसे तलाश किस चीज की रहती है? मेरा मानना है कि कुछ सार्वभौमिक मूल्य होने चाहिए। न्याय के सार्वभौमिक मूल्य जिससे आपका विश्वास बने कि सभी पुरुष महिलाएं, काले भूरे, लाल पीले, चाहे जिस भी रंग के हों, चाहे जहां के भी बाशिंदे हों-समान स्वतंत्रता व बराबरी के हकदार हैं। यदि आप मानवाधिकारों में विश्वास रखते हैं, तो मानवाधिकार हर जगह होना चाहिए। आप यह न कहें जैसा कि हमारे यहां कहा जाता है-'हां, परंतु यह तो पाश्चात्य विचार है। अरबों का नजरिया, अरब जगत के विचार (इस्लामी विचार समझें) जो प्रताड़ित करने, कोड़े लगाने और बिना मुकदमा चलाए जान लेने की हमें इजाजत देता है, जो हमारा विशेषाधिकार है।`
यह सरासर बकवास है। इस्लाम धर्म कहता है कि सभी इंसानों की गरिमा होती है क्योंकि वे इश्वर की संतानें हैं। इसलिए हमें न्याय व समता के सार्वभैमिक मूल्यों में विश्वास रखना होगा।
दूसरी चीज यह है कि हमें हमेशा ही सच बोलने की कोशिश करनी चाहिए, भले ही सच्चाई कड़वी तथा परेशानी में डालने वाली क्यों न हो। जैसे किसी समारोह में कोई बच्चा बोल पड़े, 'डैडी आज आपने अपना विग उल्टा क्यों पहन रखा है?` परेशानी मोल लेने की हिम्मत आप में होनी चाहिए। और तीसरी चीज जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसी से मुझे दिशा मिलती रही है, वह यह कि आप इन कामों को अलग-थलग रह कर और हाथीदंात की मीनार में बैठकर नहीं कर सकते। आपको भी उसी दुनिया, उसी धरातल पर रहना होगा जहां मजलूम व खामोश किए गए लोग रहते हैं। इसीलिए फिलिस्तीन का पूरा सवाल मेरे लिए इस कदर प्रतीकात्मक महत्त्व रखता था। इसलिए नहीं कि मैं फिलिस्तीनी था। निस्संदेह मैं फिलिस्तीनी था, परंतु हमारे संघर्ष के चलते हमारी मुसीबतों की सच्चाई को दबा दिया गया, खामोश कर दिया गया। पश्चिम में फिलिस्तीन शब्द कहना भी बहुत मुश्किल था। अत: बुद्धिजीवी का कर्त्तव्य है कि वह पुरानी यादों को ताजा करे। कहने को तो 'हमारे लोगों ने जो मुसीबतें झेलीं उसे हम न भूलें। जिस दौर से हम गुजर चुके हैं उसे न भुलाएं।` हमें अपने नेताओं की गलतियों को नहीं भूलना चाहिए। हमें ईमानदारीपर्वूक अपने नेताओं को उनकी गलतियां भी बतानी चाहिए। मुमकिन है कि अगर हम ज्यादा कड़वी बातें करेंगे तो वे हमें नौकरी नहीं देंगे, हम बड़े अधिकारी नहीं बन पाएंगे या कोई सम्मानित डिग्री नहीं पाएंगे। परंतु वे बातें कहना महत्वपूर्ण है जिन्हें सत्ता ने दबा दिया है। चाहे इसकी कोई कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े। और यह अपने आप में ही न सिर्फ गर्व की बात है बल्कि मनुष्य होने की गरिमा का भी सम्मान है।
कहने का मतलब है कि ऐसा करके आप खुद को लोगों से बिना जोर-जबर्दस्ती, बिना अधिकार जताए जोड़े लेते हैं। आप उनके संघर्ष में शरीक होते हैं तथा आप यह आभास देते हैं कि वो जितना कर रहे हैं या करना चाहते हैं उससे ज्यादा आप कुछ नहीं कर रहे हैं और आप जो बोल सकते हैं उसमें सदैव संघर्ष कर रहे लोगों द्वारा सुधार किए जाने व उसे प्रभावित किए जाने की गुंजाइश बनी रहती हैं क्योंकि हम सभी लोग स्वतंत्रता, मानव गरिमा, सहिष्णुता व आशा के लिए ही तो संघर्ष करते हैं। एक बेहतर कल की आशा का अधिकार। यह कोई कोरा आदर्शवाद नहीं-बस आमतौर पर एक आशा है-एक बुरी स्थिति को अच्छी स्थिति में बदलने की आशा। और मुझे ऐसा लगता है कि इसके बिना बुद्धिजीवी होने का कोई मतलब नहीं है।
(शिक्षाशात्री रोहित धनकर द्वारा संपादित पुस्तक 'लोकतंत्र, शिक्षा और विवेकशीलता` से साभार)

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