मेरे मन में बार-बार यह सवाल आता है कि १५ अगस्त १९४७ को हम किस रूप में लें। क्या वह भारतीय राष्ट्रवाद के चरम उत्कर्ष का दिन था-क्योंकि एक गुलाम राष्ट्र उस रोज विदेशी वर्चस्व से मुक्त हुआ था, या कि उसके चरम पतन का दिन-क्योंकि राष्ट्र उस रोज विखंडित हो गया था। आजादी की लड़ाई में चाहे जितनी अहिंसा बरती गयी, आजादी का आगमन हिंसा की भयावहता के साथ हुआ था। अमानवीयता की हदें पार करते भीषण सांप्रदायिक दंगे, लूट, बलात्कार, विश्वासघात और क्रूरता को भूल जाना इतिहास के साथ धोखा-धड़ी होगी। ऐसे परिदृश्य के बीच स्वतंत्रता की व्याख्या हम किस रूप में करें, तय करना मुश्किल होता है।
लेकिन हमारे बूर्जुआ इतिहासकारों, शिक्षकों और नेताओं ने बार-बार १५ अगस्त की महानता के इतने पाठ पढ़ाये हैं और आज इन सबसे हमारा मन इतना प्रदूषित है कि इतिहास के दूसरे पहलू को हम बिल्कुल भूल चुके हैं। ताज्जुब होता है कि सूक्ष्म इतिहास बोध के राजनेता नेहरू ने खून से लथ-पथ आधी रात को जब 'नियति से भेंट` वाला प्रसिद्ध भाषण दिया तब भी उन पर इस वातावरण का कोई असर नहीं था। वे तो मानो कविता-पाठ कर रहे थे : 'आधी रात को ॥जब दुनिया सो रही होगी, भारत जाग उठेगा..`
दुनिया सो नहीं रही थी। संसद भवन के बाहर दंगे-फसाद हो रहे थे, अस्मतें लूटी जा रही थीं और लाखों लोग अपना-अपना वतन छोड़ कर अपने-अपने देश की ओर भाग रहे थे।
हालांकि तब भी ऐसे लोग थे जिन्होंने 'यह आजादी झूठी है` का नारा दिया था। उनके हाथ में अखबार नहीं थे और उनके नारों को संजोकर रखने वाले इतिहासकार भी नहीं थे, इसलिए उनके बारे में नयी पीढ़ी को जानकारी बहुत कम है। लेकिन सच्चाई है कि भारत के बड़े हिस्से में आजादी के प्रति एक उदासीनता का भाव था। 'देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है` जैसे नारे पूरे भारत के गांव-कस्बों में लगाये गये थे। राष्ट्रपिता कहे जाने वाले आजादी के सबसे बड़े सेनानी ने स्वयम् को आजादी के उत्सव से अलग रखा था। वह उनके शोक का दिन था।
आज साठ साल बाद पूरे घटनाक्रम पर विचार करना एक अजीब किस्म की अनुभूति देता है। आजादी के संघर्ष के इतिहास की जिस तरह भारत-व्याकुल भाव से व्याख्या की गई है, वह हमें और अधिक उलझाव में डालता है। उसके अंतरविरोधों को सामने रखना सीधे देशद्रोह माना जा सकता है। किसी देश-समाज में इतिहास और 'नायकों` के प्रति ऐसी गलद्श्रुतापूर्र्ण भक्ति देखने को नहीं मिलती। इसलिए यह कहा जा सकता है कि पिछले साठ वर्षों में हमारे समाज में मानसिक गुलामी ज्यादा बढ़ी है।
जब आजादी की लड़ाई चल रही थी तब विभिन्न तबकों ने अपने-अपने ढंग से अपनी भावनाओं का इजहार किया था। गांधी नि:संदेह बड़े नेता थे और उनका प्रभाव भी था लेकिन उनकी कमजोरियां भी थीं। उस समय ही आंबेडकर और जिन्ना ने उनसे असहमति जाहिर की थी। आज का समय होता तो शायद दोनों देशद्रोही करार कर जेलों में ठूंस दिये जाते।
आंबेडकर ने तो आजादी की सैद्धांतिकी पर ही सवाल खड़ा किये थे। आजादी के संघर्ष और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में उन्होंने अंतर किया। तथाकथित स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल लोग स्वतंत्रता या आजादी को सीमित अर्थों में ले रहे थे। आंबेडकर ने उसे विस्तार से लेने का आग्रह किया। भारत का बूर्जुआ तबका, जो जाति के हिसाब से हिन्दू-मुसलामानों का सवर्ण-असराफ तबका भी था, अंग्रेजों से विमुक्तता को ही आजादी मान कर संतुष्ट था-क्योंकि भारत का राज-पाट अब उसके जिम्मे था। एक व्यक्ति, एक वोट के अधिकार वाले जनतंत्र के साथ राजनीतिक आजादी तो सब को मिल गयी थी लेकिन सामाजिक-आर्थिक आजादी देने मेंे वह अडंग़े डाल रहा था। आंबेडकर ने कहा-'राजनीति में समत्व रहेगा और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में विषमता रहेगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे, पर सामाजिक और आर्थिक संरचना में हम एक व्यक्ति एक मूल्य का सिद्धांत स्वीकार नहीं करेंगे। अन्तरविरोधों का यह जीवन हम कब तक जीते रहेंगे? हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समत्व से कब तक इनकार करते रहेंगे? यदि हम अधिक दिनों तक इसे इनकार करते रहे तो हमारा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। हमें अंतरविरोधों को यथासंभव शीघ्र खत्म कर देना चाहिए। अन्यथा जिस राजनीतिक लोकतंत्र को इस सभा ने इतने परिश्रम से तैयार किया है, उसकी संरचना को विषमता के शिकार लोग उड़ा देंगे।`
भारत के शासक तबके ने स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास पर अंग्रेज विरोधी भाव को इतना घनीभूत कर दिया कि हम सामंतवादी-ब्राह्मणवादी गुलामी को पूरी तरह नजरअंदाज कर गये। इससे समाज के शासक तबके का स्वार्थ सधा और गुलामी का एक बड़ा फलक विकसित हुआ। इसलिए भारत के आधुनिक इतिहास पर नये सिरे से विमर्श की जरूरत है। यहां तक कि अंग्रेजों की भूमिका पर भी हमें नये ढंग से चिन्तन करना चाहिए। पलासी का युद्ध अंग्रेज क्यों जीत सके? पेशवा और मराठों का हारना क्यों जरूरी हुआ? १८५७ के विद्रोहों की सामाजिकता और सैद्धांतिकी क्या थी? कांग्रेस के पूना जलसे पर तिलक के नेतृत्व में ब्राह्मणवादियों का कब्जा कैसे हुआ? कंाग्रेस के रैडिकल और मॉडरेट ईकाइयों में कौन प्रगतिशील और कौन प्रतिगामी था? गांधी आखिर समय तक वर्णाश्रम व्यवस्था के पक्षधर कैसे और क्यों बने रहे? जैसे सवालों पर नयी पीढ़ी को विस्तार से जानने का हक बनता है। आजादी के इतिहास का चालू पाठ इतना इकतरफा और एकरस है कि उसके सहारे हम नयी पीढ़ी की स्वतंत्र मानसिकता का विस्तार देने में अक्षम हैं। फ्रांस में राज्यक्रांति के रूप में स्वतंत्रता का जो संघर्ष हुआ था उसके पार्श्व में रख कर हमें अपने स्वतंत्रता आंदोलन को खंगालना चाहिए। हमारे संघर्ष में रूसों और वाल्तेयर नहीं हैं। हमने तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भी केवल इसलिए पूजा की कि उन्हें नॉवेल पुरस्कार मिल गया था। उनके 'गोरा` से हमने कुछ नहीं सीखा।
क्या हमने इस बात पर विचार किया है कि आजादी का संघर्ष आज भी अनेक रूपों में चल रहा है? दलित-पिछड़े-आदिवासी और मिहनतकश-गरीब आज भी आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका संघर्ष बुद्ध, कबीर, फुले, मार्क्स, आंबेडकर, पेरियार, भगत सिंह जैसे विचारकों के मार्गदर्शन में हो रहा है। गांधीवादी जमात के लोग या तो तटस्थ हैं या फिर इनके खिलाफ बंदूक और गीता लेकर खड़े हैं। फिर भी लड़ाई चल रही है।
आप इस लड़ाई में किस ओर हैं?
- प्रेमकुमार मणि
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